अरुण कमल की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
नयी मंज़िल के मीरे-कारवाँ भी और होते हैं पुराने ख़िज़्रे-रह बदले वो तर्ज़े-रहबरी बदला - फ़िराक़ गोरखपुरी
रविवार, 27 अगस्त 2023
अरुण कमल की कविता - उधार की धार भी भय ने भोथरी कर दी
अरुण कमल की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
गुरुवार, 24 अगस्त 2023
अरूण कमल का भोगवादी गद्य
“कविता और समय´´ पुस्तक में संकलित `कविता का आत्म संघर्ष´ शीर्षक टिप्पणी में मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को याद करते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “कौन-सा शब्द हम चुनें और कौन-सा छोड़ दें। यह बहुत महत्वपूर्ण होता है।…बहुत बार तो हम सिर्फ शब्दों के प्रचलन को जांच करके पता लगा सकते हैं कि कवि का समाज से संपर्क कैसा है, कौन से विषयों को वह चुनता है और फिर उसकी पूरी दृष्टि कैसी है। यानी विषय से शुरू करके एक शब्द का, बल्कि हम तो कहेंगे एक मात्राा तक का जो चुनाव होता है वहां तक यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया चलती रहती है।´´
अपने अभिनंदनालेख के अंतिम पैरों में गंभीर होते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “आलोचक पर लिखा जाए और कुछ भी आलोचना न की जाए तो शोभा नहीं देता। आलोचना तो पवित्री (बोल्ड लेटर में) है जिसके बिना कोई भी साहित्य-भोज न तो आरंभ हो सकता है, न पूर्ण, न पवित्र।´´
काव्य भाषा की समझ अरुण कमल को चाहे जितनी हो पर अपने समय की समझ खूब है। तभी तो बाजार की भाषा पर हमले की तेजी को देखते उन्हें प्रतिकार में कविता पर `अंधाधुंध टिप्पणी करने की जरूरत पड़ती है। इस टिप्पणी का शीर्षक `पारचून´ देते हैं वे। `पारचून´ में वे लिखते हैं “यदि ईश्वर है तो यह पूरी पृथ्वी उसके लिए पारचून की एक दुकान ही तो है, कविता भी ऐसी ही अच्छी लगती है, ढेर-ढेर चीज़ें, बेइंतहा, सृष्टि की एक अद्भुत नुमाइश-पारचून की दुकान।´´
`मगध´ पर लिखते अरुण कमल लिखते हैं“मैं लगातार किंचित विस्मय के साथ सोचता रहा कि एक समर्थ कवि जो शासक दल का उच्चािधकारी और प्रवक्ता है, वह आज कैसी कविताएं लिख सकता है…एक कवि जो तत्कालीन जीवन के कष्टों और विडंबनाओं का साक्षी नहीं हो सकता, अन्याय और संहार का प्रतिवाद नहीं कर सकता। वह काल और शाश्वत जीवन के बारे में लिखने का अधिकारी है? पता नहीं ये विचार कवि द्वारा श्रीकांत वर्मा पुरस्कार लेने के पहले के हैं या बाद के। पुरस्कार के निर्णय में क्या आज भी श्रीकांत वर्मा की कांग्रेेसी सांसद पत्नी की भागीदारी नहीं है! क्या श्रीकांत वर्मा के बेटे की जालसाजी उजागर होने के बाद कवि के विचार उस पुरस्कार के प्रति बदले हैं? नहीं, तो श्रीकांत वर्मा से ऐसे सवालों के मानी क्या हैं? श्रीकांत वर्मा की पुस्तक `मगध´ उनके विवादास्पद व्यक्तित्व के बाद भी जिस निर्विवादिता को प्राप्त कर चुकी है, क्या उससे अरुण कमल को जलन होती है?
अरुण कमल की भाषा में `भोग´ और `चारण´ वृत्ति को बढ़ावा देने वाली ध्वनियां सर्वाधिक हैं। उनके लेखन का अधिकांश आपको एक किंकर्तव्यविमूढ़ता में ला खड़ा करता है। वे नामवर सिंह पर लिखते हैं कि `आलोचक का सबसे पहला काम शायद यही रहा है और है भी- लोगों को जगाए रखाना, जब सब सो रहे हों तब जाकर कुंडी पीटना।´ क्या साहित्य में जगाने से मतलब नींद खराब करना होता है! फिर `पहला´ के पूर्व `सबसे´ का अनोखा प्रयोग! दरअसल कहने को बातों का टोटा होने पर ही ऐसी जड़ाऊ भाषा गढ़नी पड़ती है।
शुक्रवार, 4 अगस्त 2023
‘स्त्री श्रम के बिना धरती अनुर्वर हो जाएगी’ - आलोक धन्वा
' वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से युवा कवि कुमार मुकुल
की बातचीत '
बहुमत में
प्रकाशित
बातचीत – 4
जैसी कि आप चर्चा करते हैं कि ‘ब्रूनो की बेटियां’ कविता लिखने में आपको बहुत समय लगा। तो बताएं कि उसे लिखने में कितना समय लगा और उस कविता की रचना प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालें।
दुनिया के और हिंदी के जितने भी श्रेष्ठ कवि हैं उन्होंने स्त्रियों के बारे में लिखा है। पर यह जो विभाजन किया जाता है कि स्त्रियां ही स्त्रियों को अधिक जानती हैं मैं इसे नहीं मानता, इसीलिए हमने इस बहस में कभी हिस्सा नहीं लिया। ब्रूनो की बेटियां लिखते समय यह सब बातें मेरे जेहन में रहीं।
ब्रूनो की बेटियां कविता के बारे में अगर एक पंक्ति में कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि काम करने वाली स्त्रियों का विशाल फलक है और उनके श्रम के बिना धरती अनुर्वर हो जाएगी। उसी श्रम के सौंदर्य के बारे में ब्रूनो की बेटियां कविता है।
इसके अलावा श्रमिक स्त्रियों पर जो सामंती अत्याचार हुआ है, उनके घर जला दिए जाते हैं जब-तब उन्हें बेदखल कर दिया जाता है उनकी जमीन से, उसके खिलाफ भी हमने इस कविता में लिखा है, उससे जुड़े सवालों को सामने रखा है।
किसी की भी जो अपराजेयता है और अमरता है वह उसके काम
से ही तय होती है इसीलिए मैंने लिखा कि –
रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की
रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं।
मैं ब्रूनो से प्रभावित हुआ जिसने कहा कि पृथ्वी सूरज के चारों ओर घूमती है तो वह क्यों उससे पीछे हटता, इसी के लिए उसे जला दिया गया।
हिंदी के लोगों को और हिंदी के फेमिनिस्टों को यह समझना चाहिए कि हमेशा ही यह जेंडर की लड़ाई नहीं है, वास्तव में जो सच के साथ खड़े होते हैं उनका रास्ता हमेशा ही बहुत कठिन होता है, आसान नहीं होता है उनका जीवन।
मैंने लिखा है कि –
गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !
तो यह एक ऑब्जेक्टिविटी है।
जस्टिस जो है, न्याय जो है, वह काम से ही आता है, उसे बहुत दूर तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। उसे दबाने वाले आखिर मिट जाते हैं लेकिन श्रमिकों का काम हमेशा बचा रहता है और वही उन्हें अमर करता है। चाहे वह ब्रूनो हों या श्रमिक स्त्रियां हों या चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह हों, उन्हें उनका काम जिंदा रखता है।
शमशेर जी की कविता
अमन का राग में की पंक्तियां हैं -
हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट
बन उठी है
उसी बात को हमने ब्रूनो की बेटियां में रखने की कोशिश की है। यह कविता मैंने 7 सालों में लिखी।
फणीश्वर नाथ रेणु के जन्मशती समारोह के दौरान इस साल दसियों पत्रिकाओं ने उन पर केंद्रित अंक निकाले हैं। इससे पहले प्रेमचंद के अलावे अन्य किसी कथाकार को लेकर इस तरह का लेखकीय उल्लास प्रकट हुआ हो यह याद नहीं आता। इसे आप किस तरह देखते हैं ?
फणीश्वरनाथ रेणु के जन्म शताब्दी समारोह को हिंदी के जागरूक पाठकों ने जिस बौद्धिक और आत्मीय संजीदगी से मनाया है, वह हमारे भारत गणराज्य के मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारे लगाव और आत्मविश्वास को दर्शाता है।
प्रेमचंद और रेणु को सामान्यतया साहित्य के दो छोर की तरह देखा जाता है जबकि दोनों की रचना के केंद्र में ग्रामीण जीवन है। ऐसा क्यों है ?
प्रेमचंद और रेणु को साहित्य के दो छोर की तरह नहीं देखता मैं। प्रेमचंद की जो विकासमान धारा आधुनिक हिंदी में पराधीन भारत में ही शुरू हो चुकी थी और आज तक जारी है, वह हमें प्ररित करती रहती है, रेणु भी इसी धारा के एक समर्थ लेखक रहे।
जैनेंन्द्र, अज्ञेय और रेणु की अगर तुलना करनी हो तो आप उसे किस तरह सामने रखेंगे ?
जैनेन्द्र, अज्ञेय और रेणु की तुलना का सवाल कभी भी मेरे सामने नहीं रहा। ये तीनों आधुनिक हिंदी के बड़े रचनाकार हैं और इन्होंने आलोचनात्मक यथार्थ को अपने लेखन से सशक्त बनाया है। ये हमारे आधुनिक भारतीय साहित्य के गौरव हैं।
अज्ञेय की एक किताब जो हमें अच्छी लगी, वह है शेखर एक जीवनी। उनसे हमारी कुछ मुलाकातें हैं। चौथा सप्तक में वे मुझे भी शामिल करना चाहते थे, पर उस समय मैं इसके लिए तैयार नहीं था।
अग्रज कवि पंकज सिंह से आपका आरंभ के दिनों से दोस्ताना रहा, उनके जीवन और लेखन को आप किस तरह देखते हैं ?
पंकज सिंह एक मजबूत व्यक्ति माने जाते रहे। एक समय ऐसा भी था पंकज के जीवन में जब वे मेरे कंधे पर सिर रखकर रोए। मेरी तरह वे भी एक समय प्रताडि़त हुए थे। वे किसी को एक जमाने में बहुत प्यार करते थे पर उन्हें उससे वैसा प्यार नहीं मिला। पर चूंकि वे शरीर से बहुत मजबूत थे और उनकी ईच्छाशक्ति भी मजबूत थी तो वे एक नयी शुरूआत कर सके। यह अच्छी बात है, जो कि मैं नहीं कर सका। जब कि बीस साल मिले मुझको। पर उसे जितना समय मिला उसमें उसने कई काम किये, एक तो बीबीसी चला गया…
जेएनयू के गेस्ट हाउस गोमती में पंकज जब तब ठहरते थे, मेरे भी वहां ठहरने की व्यवस्था वे कर दिया करते थे। वहां पंकज से मिलने कई अग्रज लेखक आते थे - जिनमें निर्मल वर्मा, निर्मला गर्ग आदि थीं। पंकज सिंह का मूल स्वभाव गीतात्मक था, संगीत में उनकी काफी रूचि थी। जब वे अच्छे मूड में रहते तो बहुत सुंदर गाते थे। मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा आदि इसके गवाह हैं। पंकज के भीतर एक मौज उठती थी, मौज, यानि लहर उठती थी, जिसकी उपज उनकी कविताएं हैं और उसी मौज में वे गाने भी गाते थे। यही वजह रही कि वे मंगलेश के गहरे मित्र थे। वे मुझसे ज्यादा मंगलेश को पसंद करते थे। वो जो एक सिक माइंड होता है, एक सनक होती है कई कवियों में, वह पंकज में नहीं था, यह अलग बात है कि जब वे गरजते थे तो मंडी हाउस का शटर गिर जाता था। यह एक सच्चाई थी।
पर वह चाहता नहीं था कि क्रोध करें। जब उसे लगता था कि उसका मुद्दा सही है तो उस पर लड़ता था वह। वो और अनिल चौधरी जब चिल्लाते थे तो शटर खुद बंद हो जाते थे। पर वह किसी को शटर गिराने को कहता या बाध्य नहीं करता था। फिर यही दोनों जाते थे और कहते थे कि आपलोग दुकान क्यों बंद कर देते हैं यह तो हमलोगों की अपनी लड़ाई है कि हमलोग आपलोगों से कभी लड़े, कभी किसी दुकानदार को तंग किया।
उसे सभी जानते थे - क्या पान वाला, क्या बंगाली स्वीट्स सभी। ऐज ए पोएट पंकज सिंह की कविता एक खास समझ को लेकर चलती थी। कविता से उन्हें लगाव था पर कविता को वे हमलोगों की तरह बहुत समय नहीं देते थे। हमलोगों का जो काव्यानुशासन था या मंजिल थी, तो मंजिल के बारे में वे कहते थे कि उनकी भी मंजिल यही है। पर हमलोगों की फुटपाथी जिंदगी में उन्हें उतना रस नहीं मिलता था।
एक बार आनंद स्वरूप वर्मा ने बतलाया कि वह एक लड़की के साथ फ्रांस जाना चाह रहा है। तो मैंने कहा कि - जाना चाहता है तो जाने दो। तो वर्मा जी ने कहा कि फिर किराया हमसे क्यों मांगता है।
मैंने कहा - कि उसके पास पैसा नहीं है तो किससे मांगेगा। आप सीनियर हैं हमलोगों से। फिर पैसा वैसा जुटा कर दिया लोगों ने। फिर वह गया फ्रांस उसके साथ, रहा कुछ दिन। फिर पांच-छह महीने बाद मन नहीं लगा तो चला आया वापस।
तो इस तरह की बहुत सी बातें थीं। नीलाभ भी बीबीसी में थे और कभी कभी हमारे बीच इलाहाबाद से आते थे। नीलाभ ने आलोचना और अनुवाद में अच्छा काम किया है। धीरे धीरे नीलाभ से पंकज की दोस्ती गहराती गई। जब वे दिल्ली आते तो हमलोगों के साथ ही गोमती में रूकते थे। वहां हमलोग हरी मिर्च, नमक के साथ भूजा खाते और साथ ही शराब का दौर चलता, हालांकि मैं उसमें शामिल नहीं हो पाता था।
पंकज सिंह से आपका परिचय पटना के आरंभिक दिनों से रहा, उस समय की कुछ यादें आप पाठकों से शेयर करना चाहेंगे ?
कवि मित्र पंकज सिंह से मेरी पहली मुलाकात पटना विश्वविद्यालय परिसर में हुई थी। मुझे जहां तक याद है 1970 के आस पास मैं वि.वि. की सड़क से जा रहा था, तब पंकज विनय कंठ के साथ जा रहे थे, जो मेरे भी मित्र थे, उन्होंने ही मेरा पंकज से परिचय कराया। उसके बाद तो फिर मुलाकातें होने लगीं। तब तक उन्होंने मुजप्फरपुर छोड़ दिया था। तब वे दिल्ली जाने लगे थे, मैं भी जब जाता तो वहां उनसे भेंट होती थी।
पटना का दशहरा बहुत मशहूर था उन दिनों। देश भर के बड़े कलाकार आते थे और तीन-तीन दिनों तक मेला लगता था। बड़ी भीड़ जुटती थी। उन कलाकारों में प्रख्यात नृत्यांगना सितारा देवी जी भी आती थीं। कभी-कभी पंडित रविशंकर और अल्लारखां भी आते थे। शरद के आरंभ की रातों की उन महफिलों में पंकज और मैं व पटना के कई गैरसाहित्यिक साथी भी हमारे साथ होते थे। उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब लगभग हर साल आते थे। उनकी शहनाई भोर में बजती थी जिसके इंतजार में बहुत सारे लोगों के साथ हमलोग भी जमे रहते थे। इस दौरान हमारी बकबक थमी रहती और अगर कोई बीच में बोलता तो हम उसे चुप कराते कहते – चुप रह भाई।
एक बार गर्दनीबाग के दशहरे में अदभुत संयोग हुआ और हिंदी फिल्मों के सर्वाधिक मशहूर गजल गायक तलत महमूद आए। उनके साथ प्रसिद्ध तबलावादक किशन महाराज भी थे। उन्हें सुनने के लिए हमलोग चार-पांच किलोमीटर पैदल चलकर पहुंचे। वहां भारी भीड़ इकट्ठा थी। जितने लोग अंदर थे उससे दस गुना ज्यादा लोग बाहर थे। पंकज ने कहा कि जा पाओगे मंच तक। तब पंकज की मदद से मैं मंच तक पहुंचा। वहां मैंने बहुत हिम्मत कर एक पर्ची लिख कर तलत साहब को बढ़ायी कि आप – नीला अंबर झूमे ... गीत जरूर गाएं।
तब कुछ देर बाद माइक से तलत साहब ने कहा कि – यह गीत मुझे भी बहुत प्रिय है। तलत साहब ने पहला गीत सुजाता फिल्म का गाया – जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दिये। कार्यक्रम के अंत में तलत साहब ने कहा कि एक नौजवान की फरमाईश पर मैं – नीला अंबर झूमे ... गीत गाने जा रहा। जिसपर खूब ताली बजी। जिससे पता चला कि यह गीत कितना लोकप्रिय था। पंकज ने कहा कि तुमने बहुत अच्छी फरमाईश की।
उस दौरान पूरी रात हम लोग जहां-जहां कार्यक्रम होते वहां भटकते रहते। वे रातें अब ज्यादा याद आती हैं – जब पंकज सिंह नहीं हैं, दुनिया बकबक करती रहे ...पर हमलोग बहुत फ्री थे आपस में।
आपकी कविताओं को लेकर उनका रवैया कैसा था ?
कविता पर बातचीत में जब कभी किसी प्रसंग में मैं परेशान होता तो पंकज कहते – इन चीजों से बाहर निकल तुम लिखने पर केंद्रित करो, तुम नहीं जानते कि तुम कैसे कवि हो। जब वे लंदन से लौटे तो एक दिन मंगलेश डबराल के दफ्तर आये, वहां मैं भी बैठा था। उन्होंने बताया कि सविता सिंह मेरी दोस्त हैं, उनसे मैं शादी करने जा रहा। मंगलेश तो आएंगे ही इसमें, आपको भी मैं निमंत्रित कर रहा, नहीं तो ये दिल्ली में मेरा रहना मुश्किल कर देंगे। जेएनयू के छात्रनेता और विद्वान साथी देवी प्रसाद त्रिपाठी जो बाद में सांसद भी हुए, ने उस शादी में पुरोहिती की। उस शादी में दिल्ली के लगभग सारे मशहूर साहित्यकार, पत्रकार व कुछ चित्रकार शामिल हुए थे।
एकबार आकाशवाणी पटना के एक कार्यक्रम में पंकज और मुझे कविता पढनी थी। पंकज ने पूछा – पहले कौन पढेगा। मैंने कहा – पहले तुम पढ लो। उसने कहा कि तुम कपड़े के जूते का पाठ करोगे। मैंने कहा – वह लंबी कविता है। उसने कहा – कुछ अंश सुनाओ। मैंने उसकी बात मान ली। दिल्ली में मेडिटैरिनियन होटल में साल में एक पत्रकार संगठन वार्षिक आयोजन करता तो उसमें कविता पाठ भी आयोजित करता। उसमें तमाम लोग जुटते। विष्णु खरे जी, मंगलेश, मैं, पंकज और अनामिका जी, गगन गिल सब। श्रोताओं में निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, मृणाल पांडे, पद्मा सचदेव आदि होतीं। महिला पत्रकारों में क्षमा शर्मा, उषा पाहवा, पारूल आदि।
यह हम सब के लिए दुखद है कि पंकज अचानक हमलोगों से बिछड़ गये। जहां तक याद है उनसे मेरी आखिरी मुलाकात दिल्ली की एक बस में हुई थी। मैं मंडी हाउस से मदर डेयरी को जा रहा था। बस में मैं पहले से मौजूद था। बाहर जोरों की बारिश हो रही थी तभी एक स्टाप पर पूरी तरह भीगे हुए पंकज बस में दाखिल हुए। उनके बालों से पानी टपक रहा था।
मुझ पर नजर पड़ते ही पंकज ने कहा – अरे, रे ...तुम भी चलते हो बस में। मैंने कहा – बिल्कुल।
तुम तो अगले स्टाप पर उतरोगे।
हां...।
बातें करते कुछ देर में स्टाप आ गया और मैं नीचे उतर गया। पंकज आगे चले गये।
पंकज को लेकर मेरी यादें आरंभिक दिनों की ही हैं। उसमें बहुत सी बातें थीं पर उन्हें मैं रिकाल नहीं कर पा रहा। आगे हमारी मुलाकातें कम होती गयीं। हां बाद में भी जब वे पटना आते तो मुझसे मिलते। इन दिनों मैं कई तरह की परेशानियों से गुजर रहा। और मेरी समझ से दुख सबसे ज्यादा हमारी स्मृतियों का हनन करता है।
शमशेर लिखते हैं एक कविता में ... बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही ...। कविता में कला या कौशल को कितना महत्व देते हैं आप ?
हम जो कुछ पढ़ते हैं वह धीरे-धीरे हमारा हमारा अनुभव बन जाता है उस पर बहुत बहस नहीं की जा सकती।
कविता कला भी है, कला के बिना तो कविता बेकार है। नहीं तो निबंध लिखिए आप। बहुत लोग कविता में निबंध लिखते भी हैं, हमारे अच्छे कवियों में अरूण कमल कई बार कविता में निबंध ही लिखते हैं और बागवानी भी करते हैं। बागवानी तो हर जगह मिल जाएगी आपको।
हां, कुछ कवि एक डिसीप्लीन में जीते हैं जो कविता के बहुत अनुकूल नहीं होता। देखिए आप जो कुछ भी करेंगे एज ए पोएट या एज ए इनविडुअल उसका अच्छा या बुरा असर कविता पर पड़ेगा। क्यों कि भाषा लिपी नहीं है वह आपके अस्त्त्वि को रिप्रजेन्ट करती है। कितना भी कौशल हो आप खुद को छुपा नहीं सकते।
कुछ लोग बड़े शिल्पी होते हैं कौशल वाले पर इन बड़े लेखकों में भी बड़े अंतरविरोध होते हैं।
बहुत से लोग लिखेंगे पर तनाव नहीं लेना चाहेंगे। तो छोड़ दीजिए, रघुवीर सहाय की कविता है –
सुकवि की मुश्किल सुकवि की मुश्किल,
किसने कहा आपसे कि आइए और कविता लिखिए।
सोशल मीडिया पर आप भी सक्रिय दिखते हैं, इस मीडिया को आप कहां तक सकारात्मक मानते हैं ?
सोशल मीडिया भी खूब तमाशा है। वहां तो बस जन्मदिन मनाते हैं लोग आजकल। (अजी, हमार त अंगुली दुखा गइल लाइक करिते करिते।)
पटना के कवियों में किन्हीं कवि को हाल के किसी संदर्भ में आप याद करना चाहेंगे ?
मुकेश प्रत्यूष हैं एक कवि मित्र, उनकी आंख की रोशनी प्रभावित हो गयी है। फिर भी वे गाड़ी चलाते हैं।
एक बार वे बोले- चलिए आज आपको छोड़ते चलते हैं, मैं हिचका तो वे बोले – आप नहीं चलेंगे तो दोस्ती में दरार आ जाएगी।
तो मैं साथ चला गया – अब दोस्ती में दरार आ जाए उससे अच्छा है कि देह में दरार आ जाए... हंसते हुए।
बहुमत में प्रकाशित