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सोमवार, 17 अगस्त 2020

आत्मा की भाषा - मंजुला बिष्ट

मंजुला गृहिणी हैं पर उनका विश्‍वास कविता पर है, भाषा पर है और यह इस हद तक है कि वे इसकी बदौलत इस कठोर दुनिया को चुनौती देने की हिम्‍मत रखती हैं। मंजुला के लिए कविता घरेलू जद्दोजहद भरी जिंदगी में जीवन का कोमल अहसास है। इन कविताओं में उस बौद्धिकता के दर्शन होते हैं जिन्‍हे मंजुला ने दैनिक जीवन की चक्‍की में पिस कर मिटने नहीं दिया है। यह बौद्धिकता उन्‍हें घर-बाहर के सूत्रों को जोड़ने, उसे नये सिरे से देखने-समझने की ताकत देती है। 

मंजुला बिष्ट की कविताएं

1)

निहत्थे का हथियार

कठोर होती इस दुनिया में 
अभी भी एक कलम इतनी उद्दात है
कि वह आपकी मुलाक़ात 
कागज़ पर एक कविता से करा देती है

जहाँ धीरे-धीरे
कविता की देह भरने लगती है
उसके भीतर ही कहीं
आप बार-बार स्वयं से स्पर्शित होते रहते हैं

अब जबकि मेरी ही तरह 
आप भी अपनी आत्मा की भाषा को लगभग भुला चुके हैं
तब यह स्पर्श 
कितना मायने रखता है न !

कविता की उमगती देह के परे
मुझे कोई एक कुंद हथियार तक नहीं दिखता है
जिसे थामकर
मैं अपने हत्यारों का सामना कर सकूँ
उन्हें अडिग-चुनौती दे सकूँ

कविता 
मेरे जैसे निहत्थे के लिए
कुछ अधिक साँसों को बचा लेने का कुशलतम हथियार है ;
बाक़ी तो..जिंदगी हर पल प्रारम्भ है ही।

2)
मृत्यु से लौटती हव्वाएँ

वह जितनी बार मुट्ठी कसकर
मरने के तरीक़े सोचती
उतनी ही बार 
एक ज़रूरी काम पुकार लेता उन्‍हें

दुःखों के बीज नाभि से निकाल फेंकती रही वह

उसे याद आती
वह एक हव्वा
जो निकली तो थी
रेल की पटरी पर लेटने को 
लेक़िन साँझ होते ही लौट आयी थी

दबे पाँव पालने के पास खड़ी हो ख़ुद को ललचाती 
"छाती से दूध उतर रहा...सूखने तक ठहर जाऊँ क्या?"

दहलीज़ के पार भले ही किसी ने 
उसे पटरी की तरफ जाते देख शक़ किया हो
लेक़िन दहलीज़ ने कभी संलग्न दीवारों तक को नही बताया
कि अमूनन हव्वाओं की छातियाँ कभी नहीं सूखती 

हव्वाओं की दूध उतरती छाती
सभी दुःख झेल जाने की असीम क्षमता रखती है

जो हव्वाएँ सन्तति को ले कुएँ में उतर गई
या जो पटरी पर पायी गयी कई टुकड़ों में ..
उन्होंने जरूर दुःखों को दिल पे ले लिया होगा
नाभि पर नहीं!

3)

भोथरा-सुख

क्यों नहीं भोथरे हो जाते हैं
ये हथियार,बारूद व तीखें खंजर
जैसे हो गई है भोथरी
धूलभरे भकार में पड़ी हुई 
मेरी आमा की पसन्दीदा हँसिया!

पूछने पर मुस्काती आमा ने बताया था
कि अब कोई चेली-ब्वारी जंगल नहीं जाती 
एलपीजी घर-घर जो पहुंच गई है।

क्या अभी तक हम नहीं पहुंचा सकें हैं
रसद व सभी जरूरी चीजें
जो एक आदमी के जिंदा बने रहने को नितांत ज़रूरी हैं
जो ये हथियार अपने पैनेपन के लिए
बस्तियों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं।

क्यों नहीं 
कोई आमा के पास बैठकर
अपने हथियार चलाने के कौशल को
भूलकर सुस्ताता है कुछ देर
और समझ लेता है 
एक हँसिया के भोथरे हो जाने के पीछे का निस्सीम-सुख

क्या हथियार थामे हाथ नहीं जानते हैं सच
कि हत्थे पर से नहीं मिटती है रक्तबीज-छाप
हथियारे की!

हथियारों से टपकती नफ़रते
चूस लेती है सारा रक्त
राष्ट्र की रक्तवाहिनियों से;
हथियार अगर सन्तुष्ट होकर लुढ़क भी जाएं
एक खाये-अघाये जोंक की मानिंद
तो रक्तवाहिनियों में निर्वात भर जाता है

येन-केन प्रकारेण
अपने हथियारों के बाजार बढ़ाते देशों के लिए
आख़िर यह समझना इतना कठिन क्यों है कि
दुनिया के सारे हथियारों की अंतिम जगह
मेरी आमा का धूलभरा भकार है।

4)

 बगैर 'सुसाइड-नोट'

यदि मिली ख़बर के मुताबिक़
उसने कलाई नहीं काटी
चलती रेल के सामने नहीं कूदा
कनपटी पर गोली नहीं दागी
पेट मे छूरा नहीं घोंपा
खूब ऊँचाई से नहीं कूदा
फंदे से नहीं झूला
आग में पूरा जला नहीं

बस..
उसने चुपचाप निगल ली कुछ 
ज्यादा स्लीपिंग पिल्स
या खा लिया ..अन्य को भी खिला दिया
कुछ विषाक्त खाद्य-पदार्थ
बगैर छोड़े कोई भी'सुसाइड नोट'
नहीं छोड़ गया कोई जी का जंजाल
चुन ली थी
एक शांत गरिमामयी असमय मौत

तो इसका अर्थ क्या यह था कि
वह ज्यादा डरपोक था
पूर्व तरीकों से मरे
आत्महत्या करने वालों से !

क्या 
जो जिंदा विचरते हैं अभी तक
वे सचमुच
बहुत ज्यादा खुश हैं
स्वयं से व इस संसार से!

5)

 रोना निषेध है

लड़के सुनते रहे अपने पिता से
"लड़कियों की तरह क्या रोता है!"
लड़कियां भी सुनती रही अपनी माँ से
"यह लड़कियों की तरह रोना बन्द करों!"

रोना
एक तरह की सामान्य व नैसर्गिक क्रिया न होकर
स्त्रियोचित कमजोरी व अवगुण सिद्ध किया गया

लड़के को पुरूष बने रहने के लिए
कठोर बने रहना था
और लड़की को पुरुष जैसा बनने के लिए
अधिक कठोर होना था

अब तुम अफसोस करते हो कि
यह दुनिया इतनी कठोर क्यों होती जा रही है!

जबकि
सबसे आसान था
मद्धिम रोकर कोमल बने रहना।

6)

यथोचित बहन

साथिन ने बतायें थे
कुछेक किस्से
कि कैसे वह भाई की प्रेमिकाओं तक
छिटपुट-पुरचियाँ पहुंचाती रही थी
स्कूल-कॉलेज के दिनों में

वह अब भी पहचानती है
लगभग उन सभी प्रेमिकाओं के नाम-पतें
व राज़ कुछ उनके मध्य के

ये सब बताते हुए 
पहले तो लम्बी शरारती मुस्कान थिरकी
फ़िर लगा
जैसे गझिन उदासी कांधों पर उतरी आई है 

पूछा तो 
पल्लू झाड़कर उठ खड़ी हुई

अब इतनी भुलक्कड़ मैं भी नहीं 
कि याद न रख सकूँ
उसकी वो दीन-हीन कंपकँपी
जो नैतिक शास्त्र की किताब के बीच
मिले एक खुशबुदार गुलाबी ख़त से छूटी थी

जिसे सिर्फ एक बार ही देखा..
आधा-अधूरा पढ़ भी लिया था शायद
फ़िर तिरोहित किया,
ऐसा उसकी एक साथिन ने फुसफुसाया था

ऐसे अवसरों पर उसे 
भाई याद आ जाता था
"तू अगर गलत नहीं तो...पूरी दुनिया से लड़ लूँगा!"

उस गर्वोक्ति को दुहराते हुए
उसने हर बार 
प्रेम को बहुत गलत समझा
व दुनिया को प्रेम-युद्ध की मुफीद जगह!

लेक़िन भाई की प्रेमिकाओं के पते बदस्तूर याद रहें!

7)

मुहावरे की व्याख्या
एक वृक्ष 
जिसकी देह पर
कई जोड़ी उम्रदराज़ आँखें उग आयी थी
मैंने उसकी वसीयत के बाबत पूछा--

उसने पत्तियों को..वस्त्र व संदेशवाहक कहा
डालियों को..नीड़,झोपड़ी व झूलों के लिए चुन लिया
फूलों को..श्रद्धा,प्रेम,अभिनन्दन व विदा हेतु सहेजा
जड़ों को... जीवन में सम्भावना व विश्वास पुकारा 

फ़िर अंत में 
तने को..भविष्य 
व बीज को ..सगर्व उत्तराधिकारी घोषित किया

उसने मेरे सम्मुख
पुरखों के समय से लिखी यह वसीयत पढ़ी
फ़िर.. और अधिक झुककर खड़ा हो गया

तभी मनुष्य आया
उसने तने को पूरा काट डाला!

कुछ दिनों के बाद
ठूँठ पर कोपलें निकली
जिसे मनुष्य की बकरी ने चरा

और वह मनुष्य ठूँठ पर बैठ
अपनी सन्तति को
"अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना" मुहावरे की व्याख्या कर रहा था!

8)

मनचाहा इतिहास 

हर शहर में 
कुछ जगहें जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था

वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख भरी खेती
जिन्हें काटते हुए अँगुलियों में खरोंच कुछ कम होती

वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना 
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती

वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान 
किसी आतातायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नही
मात्र उसका अपना खोया 'पता' होता।
वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से

जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नही बताता कि;
उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं

लेक़िन ..
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना 
उसे अडोल व दीर्घायु रखता आया है

शहर की कुछ वैसी ही जगहें
अभी तक 'वर्तमान' घोषित हैं
मगर कब तक...!

9)

 उम्मीद बाक़ी है

होश सम्भालते ही 
धरा के हर हिस्से की बाबत
मुझे यही ताक़ीद किया गया कि
"हर रोज़ सूरज के डूबने का अर्थ--घर लौट आना है
उसके बाद किसी पर-पुरूष का कोई भरोसा ही नहीं है!"

अब आप समझ सकते हैं कि
मेरी ज़ात
दुनिया पर भरोसा करते रहने के लिए
सूरज के उगने का कितना इंतजार करती है!

और क्या आप यह समझ सकते हैं कि
हमारे लिए अँधेरें के बाद 
किसी पर किया जाने वाला भरोसा
कितनी दुर्लभ घटना है!

अगर मैं यह कहूँ कि
मेरी ज़ात सिर्फ व सिर्फ अँधेरे से डरती है
तो उन तमाम अव्यक्त थरथराहटें का क्या?

जो उनके भीतर 
उजाले को देखकर भी पैदा होता है
घर के परदों की घनी मोटाई के पीछे
वे अपने हिस्से के अँधेरें को रोज़ गाढ़ा करती हैं।

अँधेरे-उजालों में अपने भय को रोज़
घटाती-बढ़ाती मेरी हमजातों 
की कमर कसते रहने की सौ जिद को
आप भले ही ऐतिहासिक पल का दर्जा देने लगे हों

लेक़िन 
मैं अभी भी उसे इतिहास पुकारने का पाप नहीं करना चाहती।

10)

कपड़े व चरित्र

उनके पास कपड़े थे
किसी के पास ढेर सारे
तो किसी के पास बनिस्पत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
कुछ लोगों ने उन्हें नग्न कहा

और जिन लोगों ने नग्न कहा
उनके पास भी खूब कपड़े थे
तो किसी के पास बनिस्पत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
उन्हें कोई नग्न नहीं कह सकता था

फिर हुआ यह कि
कपड़ों व चरित्र के मध्य नैतिक जंग छिड़ गई
यह ज़ुबानी जंग धीरे-धीरे उनकी देह-आत्मा पर उतर आई...

अब 
हालात यह है कि
पहले वे पायी जाती थीं
अधमरी या पूरी तरह गला घोंटी हुई
रेल-पटरियों पर कटी-फटी 
गीली सड़ी-गली लाश के रूप में

अब वे बरामद होने लगीं हैं
अधजली...या पूरी तरह जिंदा भुने हुए गोश्त के रूप में
जिनकी चिरमिरायी गन्ध से मानसिक-विचलन तो है
कि हमारी गेंद किस पाले में होनी चाहिए

लेकिन सबकी पीठ
धरा पर बढ़ते जा रहे
इन जिंदा सुलगते श्मशानों की तरफ़ है
हमारी व्यक्तिगत-प्रतिबद्धताएं मुँह बाये खड़ी है..!

प्रतीक्षा करें!
शीघ्र ही...हम सब 
फ़िर अगली तीख़ी नैतिक-ज़ुबानी जंग हेतु लामबंद होंगे!        

            
          

परिचय

गृहणी,स्वतंत्र -लेखन
कविता व कहानी लेखन में रुचि
उदयपुर (राजस्थान)में निवास

रचनाएँ -
हंस ,अहा! जिंदगी,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही व स्वर्णवाणी पत्रिका में, दैनिक-भास्कर,राजस्थान-पत्रिका,सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र में व समालोचन ब्लॉग,हस्ताक्षर वेब-पत्रिका ,वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा ,पोशम्पा ,तीखर पेज़ व बिजूका ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित हैं।