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मंगलवार, 18 अगस्त 2020

प्रेम की चिर-कालीन संवेदना

अनु चक्रवर्ती की कविता उतनी ही बहिर्मुखी है, जितनी मन के कोनों को  खंगालने वाली । उनकी कविताओं में मॉडर्न फेमिनिज्म भी दिखता है, जहाँ वो देह की अकुलाहट को बयां करती हैं, और प्रेम की चिर-कालीन संवेदना भी । प्रेम से ले कर युद्ध तक की सीमाओं को छूती हैं उनकी कविताएं । प्रेम, प्रकृति, पुरुष का मन, और जीवन की विडम्बना भरी चुनौतियाँ, इन सब को अनु बहुत अच्छे से संजोती हैं अपनी रचनाओं में । उन्हें समझना उतना ही आसान है, जितना खिले हुए पुष्पों को, और उतना ही दुरूह जितना प्रेम में पड़ी जोगन को - अनुपमा गर्ग


अनु चक्रवर्ती की कविताएं


दो लोगों के बीच का सच !

दो लोगों के बीच का सच
हमेशा ही बना रहता है एक रहस्य ..
बन्द कमरे के अंदर का सन्नाटा 
लील जाता है पूरी तरह से 
जीवन के उल्लास को  ...
अकुलाते देह के भीतर 
जब कसमसाती हैं भावनाएं
तब मन की
 पीड़ा का बोझ 
बढ़ जाता है 
थोड़ा और ...
स्त्री जब प्रेम में होती है 
तब तन , मन ,
 और धन से 
करना चाहती है 
समर्पण !
खो देना चाहती है
 अपना सम्पूर्ण वजूद ....
एक ओंकार की तर्ज़ पर ,
बह जाना चाहती है ..
सम्वेदनाओं की सरिता में ।
किंतु सुपात्र ! 
की तलाश में 
 उन्मत्त  भी रहती है -  
उम्र भर ....
फ़र्ज कीजिये -
किसी जोगन को अगर लग  जाए 
प्रेमरोग !
 तो विडम्बना की पराकाष्ठा 
भला इससे बड़ी और क्या होगी....
वास्तव में ,
प्रेम में निर्वासित स्त्री ही 
वहन कर सकती है
सम्पूर्ण मनोभाव से योग......
अपनी भूख , प्यास ,
और नींदें गंवाती है....
मात्र प्रीत के ,
स्नेहिल स्पंदन की तलाश में ..
और
उसकी ये तलाश 
शायद !
अधूरी ही रह जाती है 
जन्मों तक ...
क्योंकि 
कहीं न कहीं 
प्रेम !
संकुचन का अभिलाषी होता है
जबकि श्रद्धा !
चाहती है विस्तार .....


हे अर्जुन !!


हे अर्जुन !
आज मै भी समझ सकती हूँ ..
तुम्हारे दर्द को पूर्णतः  ....
निश्चित,
कितनी असीम पीड़ा को तुमने सहा होगा...
अपनों को अपने ही, ह्रदय से दूर कर देने का दंश 
सिर्फ,  
तुम्हारी ही छाती वहन  कर सकती है  प्रिये ! 
किन्तु,  
तुम सदा से ही थे भाग्यवान !!
क्यूंकि
कृष्ण !!
जैसा मित्र और सारथी 
भला  किसे मिला है इस जहान में...?
जो विश्व कल्याण के  लिए ,
प्रशस्त कर सके विहंगम मार्ग भी ....
भर सके चुनौती प्रेम से आसक्त उर में....
समझा सके , 
सत्य और असत्य का भेद...
और तैयार कर सके भुजाओं को ...
ताकि गांडीव में 
दुगुनी ऊर्जा का हो सके संचार....
और लोक हित में ,
बनी रहे मर्यादा कर्तव्यनिष्ठा की...
हे पार्थ..!
सच, ह्रदय पर तुमने लिया होगा 
ना जाने कितना घाव...
जब प्रत्यंचा चढाई होगी 
तुमने पहली बार
अपने ही परिजनों के विरुद्ध ....
बाल्यकाल... राजमहल ...और गुरुजनों 
के स्नेह को करके परे....
तुमने भर ली होगी  अग्नि 
अपने दोनों अश्रुपूरित  नयनों में...
हे द्रोण प्रिय !!
काश ! 
हम भी ले सकते सही निर्णय 
समय निर्वहन के साथ- ही- -साथ...
और उजास से भर सकते
वर्तमान को ..
त्याग आत्मिक संबंधों काे ,
उज्जवल भविष्य की परिपाटी  के लिए ...
केवल युग-पुरुष ही कर सकते हैं,  शायद...!!


नींद


तुम्हारे साथ उम्र की 
सबसे सहज नींद का उपभोग किया है मैंने !
तुम्हारा हाथ थामे - थामे 
बादलों के देश भी घूम आई हूँ
कई बार ....
तुम्हारे पास होने पर 
सपनों जैसा कुछ नहीं होता ...
बल्कि
दर हकीक़त !
सिलसिलेवार मन के  सारे ख़्याल
भी पूरे होने लगते हैं ....
मुझे   ऐसी बेख़ौफ नींद से जागना 
कतई मंजूर नहीं होगा ...
तुमने कहा था - कि 
तुम मुझे सुलाने के लिए 
नींद की गोलियां कभी नहीं दोगे ....



शिरीष के पुष्प

जब  उमस से भरी यह धरती 
लू के थपेड़ों को सहती है 
 काल बैशाखी की विकल घटाएं 
शाखों की उंगलियां मरोड़ती हैं .....

जब संसार  की सारी मनमर्ज़ियाँ
 उदासी  का पैरहन ओढ़ लेतीं हैं
जब  इंसान के मन की बेचैनियां
शुष्क गलियों से गुज़रतीं हैं ...

जब पानी की एक - एक बूंद को 
सारी  प्रकृति तरसती है 
जब सूरज की  तेज़ किरणों से 
वनस्पतियां भी झुलसती हैं ...

जब हरित धरा धूसर हो जाती है
और राग - रागिनी कहीं खो जाती है 
 तब सर  पर कांटो का ताज लिए
 यह  रक्तिम आभा बिखेरते  हैं  .....

यूँ छुईमुई -सी  लजाती शिरीष !
विषमता में अपना शौर्य दिखलाती है 
वसंत से लेकर आषाढ़ तक केवल
यह अजेयता का मंत्र दोहराती हैं  ...


 जो - जिसने


जो छोड़कर गया है, वो एक दिन लौटेगा 
अवश्य ....

जिसके लिए नीर बहाया है तुमने 
उसे लगेगा अश्रुदोष ....

जिसने अनुराग को समझा मनोविनोद 
उसे स्वस्ति नहीं मिलेगी कभी....

जिसने पूर्ण समर्पण को किया अनदेखा
वो भोगेगा संताप भी ...

जिसने प्रेमत्व के बदले देना चाहा किंचित सुख
वह उपालंभ के अधिकार से भी होगा वंचित ....


अपनाना इस  बार !

मैं बाहर से जितनी आसान हूँ !
अंदर से उतनी ही मुश्क़िल भी ....
 भीतर से जितनी सरल हूँ !
ऊपर से उतनी ही कठिन भी ...

आज ससम्मान सौंपना  चाहती हूं 
तुम्हारा हाथ उसे ,
जिससे तुम करते आये हो निरंतर प्रीत !
और जिसकी भीति से तुमने 
उत्सर्ग किया है मेरे अनुरागी मन का ...

 जो कभी मुझे सचमुच में अपनाना चाहो
 तो  ऐ साथी ,
अपनाना अपने व्यस्ततम एवं दुसाध्य  क्षणों में ...
जो मेरे पास आये  तुम केवल  फ़ुर्सत के पलों में....
तो ये तय है -
क़े  फ़िर कभी पा न सकोगे मुझे !

क्योंकि मैं  सामने से जितनी मुलायम हूँ 
पर्दे के ठीक पीछे ,उतनी ही सख़्त भी ......

परिचय 

श्रीमति अनु चक्रवर्ती 
C/O श्री एम . के . चक्रवर्ती
C - 39 , इंदिरा विहार 
बिलासपुर ,छत्तीसगढ़ 
Pin - 495006 
Ph- 7898765826

: वॉयस आर्टिस्ट  , रंगकर्मी , मंच संचालन में सिद्धहस्त , विभिन्न पत्र पत्रिकाओं , बेव पोर्टल्स ,और सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित , तीन फ़ीचर फ़िल्म में अभिनय करने का अनुभव , स्क्रिप्ट राइटर ।

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

प्रेम और प्रतीक्षा - अनुपमा गर्ग

प्रेम और प्रतीक्षा की ये  कविताएं एक नए जेंडर डिसकोर्स की तलबगार हैं। जो प्रेम में पुरुष और स्त्री के द्वैध को मिटा  डालने का आग्रह लेकर आती हैं।  इस प्रेम में पुरुष हो या स्त्री दोनों के लिए प्राथमिक शर्त है कि वे अपने अहं भाव को तिरोहित कर दें । अहं भाव के विसर्जन और ग्रंथि रहित निर्ग्रन्थ होकर ही प्रेम या फिर मुक्ति की तलाश पूरी हो सकती है।  कवयित्री कहती है कि जो भी (मुमुक्षु) मिला वह ज्ञान का अथाह भंडार लेकर मिला जबकि वह (यानी मुक्ति की चेतना)  प्रेम की तलाश में भटक रही थी । ज्ञान विमर्श कर सकता है, मुक्ति नहीं पा सकता।  उसके लिए तो उत्कट भक्ति और प्रेम की आवश्यकता होती है।  इसलिए दोनों अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं, समय की इस अथाह अनंत नदी के पार।

 इसी तरह कोई हिंसा और अत्याचार लेकर मिलता है, तो कोई सहज स्वीकृति का भंडार लेकर तो कोई असमंजस और संकोच लेकर।  जो भी आया अपने अहं की पोटली के साथ आया और इसलिए कवयित्री कहती है कि-  
" हम चल दिए अलग-अलग रास्तों पर 
समय की अथाह नदी के पार ."

वह उस प्रेम की प्रतीक्षा में है,जहां कोई उसके पास अपने नग्न हृदय और भग्न प्रतिमान के साथ आए।  नग्न हृदय  यानी अपने प्राकृतिक या नैसर्गिक रूप में आए उसमें कोई आवरण , छद्म या मलिनता  न हो तथा अपने सारे प्रतिमानों को भग्न करके यानी अपने अहं भाव को तोड़कर , छोड़कर और विसर्जित करके आए तब उस अवस्था में कवयित्री अपनी पुरातन मगर अजर, अमर (आत्मा रूपी) प्रेमिल हृदय का द्वार खोल देगी, जहां दोनों जीवात्माएं द्वैत भाव के खत्म हो जाने पर , संग मिलकर , बैठकर बातें करते हैं, भिक्षान्न पकाते ,नदी का निर्मल जल अंजुली में भरकर पीते हैं और तब फिर चल देते हैं  जीवन मरण के चक्रीय पथ पर समय की अथाह नदी के पार । कबीर भी प्रेम की परिभाषा गढ़ते हुए यही कहते हैं-

"कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं।
सीस उतारे भुइँ धरे , तो पईसे घर माहीं।।"

यानी प्रेम रूपी घर में उसी का प्रवेश हो सकता है जो अहंकार रूपी अपने सिर को काट का पृथ्वी पर धर दे।
पहली कविता में जहां प्रतीक्षा थी उस प्रेम की जहाँ  स्त्री-पुरुष का द्वैत भाव , अहम् भाव  के तिरोहित होने की,  ताकि दोनों संग- साथ मिलकर ,बैठकर ,बातें करें और भिक्षान्न  पकाते और नदी का निर्मल जल ग्रहण करते यानी सांसारिकता  का भोग करते हुए फिर अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं , फिर से जन्म लेने को,  वहीं दूसरी कविता में संघ के साथ-साथ संग को भी सहजता से स्वीकारे जाने की प्रतीक्षा है । और कवयित्री  कहती है कि यदि वह प्रतीक्षा खत्म हो गई हो और उचित समय आ गया हो-

" तो चलो पुरुष
भिक्षान्न  पकाते हैं,साथ मिलकर
नदी तट से शीतल जल पीते हैं,ओक भर कर
बाउल गाते हैं ,स्वर रचकर
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग -अलग नहीं
इस बार साथ-साथ ."

यहाँ दोनों अलग-अलग रास्तों पर न जाकर एक साथ महाप्रयाण के एक ही रास्ते पर जाना चाहते हैं,  यही वह सच्चा प्रेम है, जहाँ दो व्यक्तियों का एकत्व स्थापित होता है, जब उनका अलग-अलग वजूद खत्म हो जाता है।  शायद प्रेम की गली इतनी संकरी होती है जिसमें दो लोग समा नहीं सकते।  इसे ही कबीर अपने दोहे में कहते हैं-

 " प्रेम गली अति सांकरी , जा मे दो न समाहीं।"

इन कविताओं  में एक तरफ जहां लौकिक प्रेम की प्रतीति होती है, वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक या पारलौकिक प्रेम भी संचरित होते दिख पड़ता है । एक तरफ तो दो जीवात्माओं या स्त्री-पुरुष के ऐहिक या लौकिक प्रेम के जरिए दोनों की मुक्ति का मार्ग बताया गया है ,वहीं दूसरी तरफ जीवात्मा और ब्रह्म के प्रेम और जीवात्मा की मुक्ति या निर्वाण को भी दर्शाया गया है।  आशय स्पष्ट है कि कवयित्री  लौकिक या ऐहिक प्रेम के माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका दोनों की मुक्ति या निर्वाण का पथ तलाश रही है।  ऐहिक या लौकिक प्रेम को आध्यात्मिकता की उस ऊंचाई तक कवयित्री  ले जाती है जहां पुरुष और स्त्री दोनों एक साथ ही मुक्त होते हैं और कवयित्री का भी यही काम्य है । वह चाहती भी यही है कि पुरुष और स्त्री दोनों का प्रेम ऐसा हो जहां दोनों की मुक्ति अलग अलग न होकर साथ-साथ हो, ताकि इस जहां और जहां के बाद भी वे  साथ-साथ  ही रहें - अनिल अनलहातू

अनुपमा गर्ग की कविताएं -


प्रेम और प्रतीक्षा - 1

वो मिला मुझे,
ले कर ज्ञान का अथाह भण्डार
मैं प्रेम की तलाश में भटक रही थी
हमने विमर्श किया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर हिंसा, अत्याचार
मैं क्षमा की याचिका थी
हमने रक्त बहाया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर सहज स्वीकृति का भण्डार
मगर इस बार मैं प्रेम की क्षत्राणी थी
हम बैठे, हमने शाब्दिक विवाद भर किया ,
और फिर चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर असमंजस, संकोच
लेकिन मैं विश्वस्त थी,
उसका हाथ  थाम, पहले बैठाया,
फिर उसके मन की सुन कर उसे विदा किया मैंने,
हम चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

काश, कोई अपना नग्न ह्रदय
और भग्न प्रतिमान ले कर मिलता
खोल देती मैं उसके लिए,
पुरातन, मगर अजर, अमर,
प्रेमिल ह्रदय के द्वार
हम बैठते, बात करते,
भिक्षान्न पकाते, नदी का निर्मल जल ओक भर कर पीते
और फिर चल देते
अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार |
आखिर और भी तो हैं,
जिन्हें प्रतीक्षा है !


प्रेम और प्रतीक्षा - 2

भंते! क्या तुम्हारा और मेरा संघ में होना,
एक जैसा है ?
क्या साधु और साध्वियाँ वाकई देख पाते हैं,
आत्म का स्वरूप,
देह के पार ?
आँखों में, विचलित हुए बिना ?

यदि नहीं,
तो क्यों न सब संघों, सब मठों को विघटित कर दिया जाये?
क्यों न उन सब प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया जाये
जो आधी आबादी से कहते हैं,
"साध्वी मत बनो, रहो अपने अदम्य आप का तिरस्कार कर"
जो आधी आबादी को भिक्खुणी बनाते तो हैं, मगर मन मार कर |

कहो तो भद्र,
क्या संघ में होना वैसा ही है,
जैसा संग में होना?

कहो देव!
क्या मठ में होना वैसा ही है,
जैसा एक मत में होना?

अगर संग होते हम, तो रक्त मेरा,
तुम्हारे लिए शायद उत्सव का विषय होता
अब क्या है?
करुणा का विषय?
या लज्जा का ?
या विरक्ति का?
या ऐसा है कि जिस कोख से उपजे थे
तुम और तुम जैसे कई सहस्त्र कोटि
उसी गर्भ से, उसी शरीर से जुगुप्सा होती है तुम्हें?

तुम सोचते होंगे, तुमसे क्यों इतने प्रश्न?
क्या करूँ?
बुद्ध तो अप्प दीपो भव कह कर चल दिए |
और शंकर ने शिवोहम कहा, मगर मुझे उसके अयोग्य मान कर |

सोचो आर्य,
जिसे तुम भिक्खु  होना कहते हो,
वो संसार की अगणित स्त्रियां
सहज ही कर जाती हैं |
बिना महिमामण्डन के |
ऐसे में, देव!
भिक्खु (णी)? मैं
साध्वी? मैं
और तुम?

तो क्या फिर समय आ गया है ?
संघ के साथ साथ संग को भी सहजता से स्वीकार करने का?

क्या समय हो गया आर्य?
मठ में भिन्न शरीर और भिन्न मत भी, अङ्गीकार करने का?

यदि आ गया हो उचित समय,
तो चलो पुरुष,
भिक्षान्न पकाते हैं, साथ मिल कर |
नदी तट से शीतल जल पीते हैं, ओक भर कर |
बाउल गाते हैं, स्वर रच कर |
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग अलग नहीं
इस बार साथ-साथ |

आखिर और भी तो हैं
जिन्हें प्रतीक्षा है !


अनुपमा बेचैनी में  लिखती हैं | घर में पाँव टिकते नहीं, बाहर मन ठहरता नहीं | पूजा, ध्यान, प्रार्थना, गायन, वादन, सब कागज़ और कलम में आ कर टिक जाता है | दरअसल कुछ लोगों के लिए अपना होना भर ही छटपटाहट का सबसे बड़ा  कारण होता है | इसी छटपटाहट में से उनकी पुस्तकें भी उपजती हैं, और उनकी कवितायेँ भी | चाहे वो 'दिल्ली की रोटी'  हो, 'अधनंगा, भूखा हिंदुस्तान', 'सीता की अग्निपरीक्षा', या फिर 'कॉन्डोम-कथा' | अनुपमा को जानने, पढ़ने, या उन्हें और उनके विचारों को स्वीकार कर पाने के लिए, उनसे पूर्वाग्रहों के पार, विमर्श की घाटी में मिलना ही इकलौता तरीका है |