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गुरुवार, 3 सितंबर 2020

उतरते अगस्त के उदासी भरे दिन - माधव राठौड़

डायरी अंश


17 अगस्त

एक लंबे अरसे बाद गाँव में। गाँव मन से खिसक गया। सब सिकुड़ गये। एक भाई ने मरती हुए माँ के अंगूठे करवा कर जमीन अपने हिस्से दान लिखवा दी। पंच आये हुए हैं। मैं देर तक पश्चिम के धोरे पर उतरी  सांझ  की तरफ देख रहा हूँ। उतनी ही उदास जितनी भाई की विधवा।ये दुख के दिन हैं। जवान पति की मौत को छह -आठ माह हुए है इधर देवर ने जमीन दबा दी। सुबह कोई कह रहा था गाँव में भाईचारा है। मैं दिनभर से उस बे-चारे भाई को ढूंढ रहा हूँ।
मनुष्य की कुटिलताएँ हर जगह हैं बस रुप अलग है। प्रेम मिथ है या कल्पना भर... चाँद पर चरखा कातती डोकरी की तरह । उस कल्पना की चाह में सब भटक रहे हैं। माँ कह रही है कि एक बकरी आज लौटी नहीं। मुझे देर तक समझ नहीं आता। मैं सोचता हूँ क्यों लौटा जाये।जब लौटने की वज़ह नहीं बचती तो एक समय बाद इंसान को खो जाना चाहिए। कहीं बीहड़ में या भीड़ में। छोटी जगहों में छोटी-छोटी ईर्ष्या होती है। बड़ी जगहों में शायद नहीं या फिर वहाँ आपके होन से दूसरे को मतलब नहीं। गाँव में भाईचारे के नाम पर नकारात्मक हस्तक्षेप ज्यादा है। अजीब सी उम्मीदें,फिर उलाहने और उससे उपजी कुंठाएँ भी...।

18 अगस्त
 
 जोगमाया के धोरे पर बनी काछुराम की ढाणी से गाँव के खेतों को देखता हूँ। धोरे अभी तक सूखे हैं। सावन चला गया।इस बार तो काळ पड़ेगा । नहीं अभी भादवे से उम्मीद है। हम वैसे भी भादवे के हाळी हैं। उनके पास अनुभव है। टांकों में इस बार दो हाथ ही पानी आया है। पर वे जानते हैं कि भादवे में एक दो बरसात हो गई तो टाँके भर जायेंगे। पाछत ग्वार और बाजरी बारहमास खाने लायक हो जाएंगे। मनुष्य ने प्रकृति को अपनी स्मृति व अनुभवों से ही समझा । उनके पास आज भी 200 बकरियाँ हैं ।साल भर यही काम। जब भी मिलते हैं तो कहते ढाणी आना। हमारे बीच जरूरी संवादों के अतिरिक्त कुछ नहीं। अबोला पसरा रहा।
 उठा तो बोले- "रोटी खा कर जाते"। 
'और कभी" कहता हुआ धोरे से उतरने लगा। 
पाँव रेत में धसक रहे थे,साथ ही  दरक रहा था भीतर। एक गहरा अन्तराल। एक गैप । मैं समझ पा रहा हूँ, गाँव हाथ से छूट रहा है। यह अंतिम लोग हैं। फिर गांव में शहर घुस जायेगा। दस साल बाद हम शहर से फिर गाँव में क्यों आयेंगे? धोरे से उतर तळे की तरफ जाता हूँ। आसपास के चार गाँवों की प्यास बुझाने वाला सार्वजनिक कुआं। कभी पूरे गाँव ने चन्दा करके दो बड़े हौद बनाये थे। दोनों टूट गये। अब सीधे ही ट्रैक्टर भरते हैं। ऊँट और गधों की पखाल गायब हो चुकी है। पणिहारियों वाली हौदी भी सूखी पड़ी है। शायद ही कोई आता होगा। कुएं के टूटे पाळ गांव के टूटे दिल के भग्नावशेष है।

21 अगस्त

दोपहर की नींद से जागता हूँ पर आंख खोले बिना सोचता हूँ कि आज मेरे पास खुश होने की एक वज़ह भी है और दुःखी होने की भी। देर तक यूँ ही आँख बंद किये उन वजहों को तौलता रहता हूँ। मुझे आँख तो खोलनी पड़ेगी । कोई वजह तो चुननी होगी आज के दिन के लिए - जिसे एक नाम दिया जा सके।
सोचने के बाद कोई वजह नहीं चुनता। आँख खोल दीवार को देखने लग जाता हूँ । दीवारों को एकटक देखना मेरी प्रक्रिया का हिस्सा रहा। दीवार के भीतर मेरा संसार है। पसन्द की वज़ह पहन बाहर निकल पड़ता हूँ, बाकी इन दीवारों पर  टाँग देता हूँ। हालाँकि इसके बाहर की दुनिया की अपनी दीवारें हैं जहाँ मैं खुद को उलटा लटका पाता हूँ।
कुछ देर बाद एक छिपकली ट्यूबलाइट के नीचे से खिसक कर दीवार पर आती है। कमरे में किसी के होने का अहसास भर जाता है। मैं अपनी वजहों की प्रक्रिया को समेटते हुए सोचता हूँ - आज इसके  पास क्या वज़ह होगी?
मुझे चाय की तलब होती है। उदास दिनों में एक वजह मिलती है । उठने से पहले मैं मोबाईल चेक करता हूँ - उस तरफ से न कॉल , न मैसेज।
चाय पत्ती और अदरक को यूं ही उबलने देता हूँ  दूध नहीं डालता। दूध डालने से  पत्तियों के रंग बदलने की  प्रक्रिया और  अदरक की गंध मैं देख नहीं पाता हूँ। खिड़की के बाहर तेज छींटों के गिरने की आवाज आती है। आज फिर कपड़े नहीं सूखेंगे। कपड़ों में बारिश की मसली गन्ध से उबकाई आती है। पर आज मुझे  कोई खुश और दुखी होने की वजह नहीं चाहिए । मैं दौड़ कर कपड़े लाना स्थगित कर देता हूँ। इधर चाय के बर्तन से सारा पानी उड़ गया। मैं मुस्कुरा देता हूँ - कभी तो बेवज़ह भी कुछ हो।

25 अगस्त
 
जीवन रहस्यमय है। वे आरोप लगाते हैं कि मैं सवालों के जवाब नहीं देता । मैं सवाल टरका देता  हूँ। जीवन को लेकर मैं अभी तक के जीये अनुभव से निश्चित नहीं हूँ। मेरे पास कोई  ईमानदार जवाब नहीं है। सवाल तो हमेशा खड़े मिलते हैं। मैं आयें-बायें करके निकल जाता हूँ। पीछे से आवाज आती है - तुम मेरे सवालों को टरका देते हो। 
वो आवाज इतनी तेज चोट करती है कि दिनभर सूँस होकर घूमता रहता हूँ। मेरे पास जब जवाब नहीं तो क्या दूँ। उधर कुछ न कुछ दिनों बाद सवाल अपने मुँह खड़े कर देते हैं। अगर इनके जवाब ढूँढने लग जाऊं तो ताउम्र मर खप  भी जाऊं तो भी उनके चाहे जवाब नहीं दे पाऊँगा। मैं समझ चुका हूँ कुछ सवालों के जवाब ढूँढे बिना ही जीना होगा। अगर रुक गया तो मसला हो जायेगा इसलिए जवाब ढूँढने को स्थगित कर जिंदगी की क्लच दबा देता हूँ। मैं जानता हूँ पेट्रोल की बजाय गैस में गाड़ी दबती है, फ़रफ़राहट भी करती है। पर क्या कर सकते हैं। मैं साइड मिरर में देखता हूँ एक अंकल  जिंदगी के पुल की चढ़ाई पर साईकिल को धकिया रहे हैं। मेरा मन होता है कि पूछ लूँ - आपने भी स्थगित कर दिये थे या...? मैं चढ़ते हुए पुल पर गाड़ी रोक नहीं सकता ।
ऑफिस में आकर चुप सा बैठा रहता हूँ।
सहकर्मी पूछते हैं - आज चुप क्यों हो, क्या हुआ?
चुप होने के लिए कुछ होना जरुरी है क्या...इस सवाल को भी टरका कर फ़ाइल खोल देता हूँ। 

27 अगस्त
 
मोबाइल स्क्रोल करते करते आँखें दर्द  करने लग गईं। मैं थक कर बाहर बैठ जाता हूँ। बाहर सावन-भादो का हरापन है। आँखों को सुकून मिलता है। मुझे बाहर बैठा देख बिल्ली पास आ जाती है। मैं उसे गोदी नहीं लेना चाहता। चारों तरफ घूमती रहती है। फिर ख़ुद ही छलांग मार कर गोद में बैठ जाती है। फिर भी मैं उसे सहलाता नहीं। वह एक दो मिनट इतंजार करती है। उतर कर दूर बैठ जाती है। चम्पा से सटे गुड़हल का फूल चम्पा में उग आया है। मैं देर तक भरम में रहता हूँ।
थोड़ी देर पहले कमलेश्वर का उपन्यास -"एक सड़क सत्तावन गलियाँ" शुरू किया था। भूमिका में कमलेश्वर को इसके बेचने का गिल्ट रहता है ।
ऐसे अपराधबोध हर आदमी के भीतर है। कुछ खोने का,कुछ नहीं पाने का, नहीं समझ पाने का या गलत समझे जाने का। ऐसे अपराधबोध को कोई नहीं समझ सकता । यह नितांत निजी त्रासदियाँ है। क्वाटर के बाहर अगस्त का अँधेरा भर जाता है और मेरे भीतर गहरी उदासी, एक अपराध बोध। उठकर बिल्ली को गोद में लेता हूँ हल्के से सहलाता हूँ ,घड़ी भर बाद वह सो जाती है।
मुझे बेटी की याद आती है। एक पाँव पर बरसाती मच्छर काट रहा है। पाँव हिलाऊँ या जेब से मोबाइल निकालूं तो बिल्ली जाग जायेगी। कई दफ़ा आदमी के पास कोई ऑप्शन नहीं होता। उसे दिए गए अनचाहे रोल को जीना पड़ता है। यही उसका अपराधबोध होता है जो उसे भीतर से दीमक की तरह चाट जाता है। यह दीगर बात है कि इस भीतरी खोखलेपन से बाहरी दुनिया को कोई नुकसान नहीं होता,इसलिए वे कभी समझ नहीं पायेंगे कि एक किताब के राइट्स प्रकाशक को बेचने से  ऐसा कैसा अपराध बोध कि कमलेश्वर सालों तक मैनपुरी जाकर अपनी माँ और बचपन के दोस्त बिब्बन को मिल नहीं सकें।

31 अगस्त 
 
रात से पानी पड़ रहा। तड़-पड़ तड़-पड़। दो दिन से सूरज को गायब कर रखा है। सावन की झड़ भादवे में लगी  है। प्रकृति का कलेंडर भी इस बार गड़बड़ा गया। घर में बारिश की नमी। एक गन्ध। एक सीलन।
विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब "कुछ कहानियाँ कुछ विचार"  को पढ़ना रोक कर बाहर निकल देखता हूँ, चाँदनी तेरस की रात है पर चौतरफ बारिश का अंधेरा। पेड़ों के झुरमुट से गिरता पानी गाड़ी पर अजीब सी आवाज पैदा कर रहा है। सड़क किनारे लैम्पपोस्ट की रोशनी धुँधला गई। सड़क भी पानी से तर है । मैं धीरे से चलता हूँ। बागीचे में गिरे  चम्पा के पत्तों पर पाँव पड़ता है । भरे हुए पानी के मेंढक जाग जाते हैं।
मुझे निर्मल की कहानियों की डरावनी बारिश की पहाड़ी रातें याद  आती हैं। वो पानी के चहबच्चे। उसका नीरव सन्नाटा मेरे भीतर उतरता है। लौटकर दरवाजा बंद करता हूँ। फिर किताब पढ़ने बैठता हूँ। 
त्रिपाठी जी लिखते हैं  - " आलोचना या समीक्षा की विरली ही कोशिशें ऐसी होती हैं जो पाठक को रचना के और-और करीब ले जाती हैं, और-और उसे उसके रस में पगाती हैं। ये कोशिशें रचना के समानांतर खुद में एक रचना होती है । मूल के साथ ऐसा रचनात्मक युग्म उनका बनता है कि जब भी याद आती हैं ,दोनों साथ ही याद आती है।"
 
परिचय

माधव राठौड़  
C- 73, हाई कोर्ट कॉलोनी,
दुर्गा माता मंदिर रोड़ सेनापति भवन,
रातानाडा जोधपुर (342011)
मोबाईल नं. - 9602222444