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सोमवार, 17 अगस्त 2020

जीवन और अंतरमन के द्वंद्व - पूनम सोनछात्रा की कविताएं

जीवन और अंतरमन के द्वंद्व व विडंबनाओं को पूनम की कविताएं बड़ी कुशलता से अभिव्‍यक्‍त करती हैं। एक स्‍त्री जब एक मनुष्‍य की तरह सोचना-विचारना चाहती है तो बराबरी व समानता के पाखंड की धज्जियां बिखरने लगती हैं। पूनम की कविताएं इन धज्जियों को बखूबी समेटती इस समाज को उसका चेहरा दिखलाती हैं।

पूनम सोनछात्रा की कविताएं

बातों का प्रेम 
**********
अनेक स्तर थे प्रेम के
और उतने ही रूप

मैंने समय के साथ यह जाना कि
पति, परमेश्वर नहीं होता 
वह एक साथी होता है 
सबसे प्यारा, सबसे महत्वपूर्ण साथी 
वरीयता के क्रम में 
निश्चित रूप से सबसे ऊपर.. 

लेकिन मैं ज़रा लालची रही.. 

मुझे पति के साथ-साथ उस प्रेमी की भी आवश्यकता रही
जो मेरे जीवन में ज़िंदा रख सके ज़िंदगी.. 
सँभाल सके मेरे बचपन को
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर.. 
जो मुझे याद दिलाए
कि मैं अब भी बेहद ख़ूबसूरत हूँ.. 
जो बिना थके रोज़ मुझे सुना सके
मीर और ग़ालिब की ग़ज़लें.. 
उन उदास रातों में 
जब मुझे नींद नहीं आती 
वो अपनी गोद में मेरा सिर रख
गा सके एक मीठी लोरी... 

मुझे बातों का प्रेम चाहिए था 
और एक बातूनी प्रेमी.. 
जिसकी बातें मेरे लिए सुकूनदायक हों.. 

क्या तुम जानते हो कि 
जिस रोज़ तुम
मुझे बातों की जगह अपनी बाँहों में भर लेते हो
उस रोज़ 
मैं अपनी नींद और सुकून 
दोनों गँवा बैठती हूँ... 


#
मुक्ति 
****
चरित्र के समस्त आयाम
केवल स्त्री के लिए ही परिभाषित हैं... 

मैं सिंदूर लगाना नहीं भूलती... 
और हर जगह स्टेटस में मैरिड लगा रखा है... 
जैसे ये कोई सुरक्षा चक्र हो.... 

मैं डरती हूँ
जब कोई पुरुष मेरा एक क़रीबी दोस्त बनता है... 

मुझे बहुत सोच समझ कर करना पड़ता है 
शब्दों का चयन... 

प्रेम का प्रदर्शन 
और भावों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति 
सदैव मेरे चरित्र पर एक प्रश्न चिह्न लगाती है.... 

मेरी बेबाकियाँ मुझे चरित्रहीन के समकक्ष ले जाती हैं 
और मेरी उन्मुक्त हँसी 
एक अनकहे आमंत्रण का
पर्याय मानी जाती है... 

मैं अभिशप्त हूँ 
पुरूष की खुली सोच को स्वीकार करने के लिए 
और साथ ही विवश हूँ 
अपनी खुली सोच पर नियंत्रण रखने के लिए.. 

मुझे शोभा देता है 
ख़ूबसूरत लगना
स्वादिष्ट भोजन पकाना 
और वह सारी जिम्मेदारियाँ 
अकेले उठाना 
जिन्हें साझा किया जाना चाहिए... 

जब मैं इस दायरे के बाहर सोचती हूँ 
मैं कहीं खप नहीं पाती... 

स्त्री समाज मुझे जलन और हेय की 
मिली-जुली दृष्टि से देखता है... 
और पुरुष समाज 
मुझमें अपने अवसर तलाश करता है... 

मेरी सोच.. मेरी संवेदनाएँ... 
मेरी ही घुटन का सबब बनती हैं... 

मैं छटपटाती हूँ... 
क्या स्वयं की क़ैद से मुक्ति संभव है....? 


#
अपराध बोध
**********

वक़्त बीत जाने पर मिलने वाला प्रेम
नहीं रह पाता उस गुलाब की कली के जैसा 
जिसे बड़े जतन से 
जीवन की बगिया में खाद और पानी के साथ
उगाया गया हो..

ये बात और है कि 
उसमें शिउली की महक होती है 
रात रानी की तरह ही 
वो रात के अंधेरे में 
अपनी भीनी-भीनी ख़ुशबू से पूरी बगिया महकाता है 
लेकिन दिन के उजाले में 
उसे खो जाना होता है 
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर..

एक प्रेमिका 
पति की बाँहों में 
जब प्रेमी की बातें याद कर मुस्कुराती है
उसकी आत्मा को 
शनैः शनैः एक अपराध बोध ग्रस लेता है..

जब कभी उफन जाता है दूध
जल जाती है सब्ज़ी 
हो नहीं पाती बिटिया के कपड़ों पर इस्त्री 
रह जाता है अधूरा उसका होम वर्क 
या छूट जाती है 
सुबह-सवेरे स्कूल की बस

सवालों के कटघरे में केवल प्रेम होता है ...

वक़्त बीत जाने पर 
पूरी होने वाली इच्छाएँ 
केवल और केवल अपराध बोध देती हैं....


#
नौकरी पेशा औरतें 
***************

काफ़ी कुछ कहा जाता है इनके बारे में 
उड़ने की चाह लिए 
पैर घुटनों तक ज़मीन में गड़ाए... 
दोहरी ज़िंदगी जीने वाली ये औरतें 
ईश्वर की बनायी 
एक ऐसी आटोमेटिक मशीन हैं 
जो कभी भी 
सिर्फ़ पैसों के लिए काम नहीं करतीं.. 

ये सुनती हैं पास-पड़ोस की कानाफूसी से लेकर
पति की मीठी झिड़की तक
साथ ही सास के कर्कश ताने भी 
"कौन सा हमारे लिए कमाती हो "
ये बात और है कि 
अगर ये पैसे न कमाएँ.. 
तो सूखी ब्रेड पर कभी बटर न लगे.. 

ये बड़ी - बड़ी पार्टियों में 
पति का स्टेटस सिंबल होती हैं 
अगर अपनी आँखों के नीचे के काले घेरे 
पूरी कुशलता के साथ मेकअप से छुपा सकें ..

सास की भजन मंडली के लिए 
बेहतर नाश्ते के साथ 
बेहतर उपहारों की व्यवस्था कर
ये अपनी सास के गर्व का कारण बनती हैं.. 

सुबह बस पकड़ने की दौड़ लगाते समय 
जो बात इन्हें सबसे ज़्यादा परेशान करती है 
वो यह कि निकलने के पहले गैस का नाॅब बंद किया या नहीं.. 
और वापस लौटते समय 
यह परेशानी रात के खाने, सुबह के नाश्ते से लेकर
बच्चों के होमवर्क तक 
चिंता के एक पूरे ब्रह्माण्ड का सृजन करती है.. 

सुबह से सुबह की इस दौड़ में 
अगर उनकी चेतना को 
पूर्ण रूप से कोई झकझोरता है 
तो वो है सुबह का अलार्म.. 

रात एक चुटकी बजाते निकल जाती है... 
वे इतना थक जाती हैं 
कि यह भी भूल जाती हैं
कि वो क्या वजहें थीं
जिनके लिए वे नौकरी करना चाहती थीं.. 

स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई में 
स्वयं को ही गँवा देना.. 
आप ही बताइए 
ये कहाँ तक उचित है..?


#
अंतिम विदा
*********
पृथ्वी का वह बिंदु 
जहाँ उत्तरी ध्रुव मिलता है दक्षिणी ध्रुव से 
उसी जगह हुई थी
मेरी और तुम्हारी मुलाक़ात.. 

तुमसे बातें करते वक़्त 
मैंने हमेशा यह सोचा
कि मेरे जैसी लड़की को
तुम्हारे जैसे लड़के से 
कभी भी बात नहीं करनी चाहिए.. 
हो सकता है 
कि ठीक यही तुमने भी सोचा हो.. 

तभी तो हम दोनों ही अक्सर 
एक-दूसरे से ये कहते रहे 
कि ऐसी बातें सिर्फ़ तुम्हारे साथ की जा सकती हैं.. 

तुम्हारी बेबाकी मेरी पहली पसंद थी 
हो सकता है 
तुम्हें मेरा अल्हड़पन पसंद रहा हो

हाँ, मैं यह मानती हूँ 
कि प्राथमिकताओं के क्रम में हम-दोनों ही
कभी भी एक दूसरे के लिए सर्वोपरि नहीं रहे

लेकिन इस सच की स्वीकृति ही
हमारे रिश्ते का आधार थी
और हमारे संवाद 
हमारे चमत्कारिक रिश्ते की प्राणवायु.. 

ठीक उसी पल
जिस पल तुमने संवादों के पुल को तोड़ा 
हमारे रिश्ते का अंत तुमने स्वयं चुना...

मुझे अब भी लगता है 
कि प्रत्येक रिश्ता कम से कम 
एक अंतिम विदा का हक़दार अवश्य है..

#
पत्थर 
*****
मैं तुम्हारे नाम पर कविताएँ लिख कर
कुछ इस तरह छोड़ देती हूँ.. 
जिस तरह कोई मंदिर में
बुत के पैरों पर पूजा के फूल रख कर चला जाए..

क्या फ़र्क़ पड़ता है
दोनों पत्थर ही हैं...

#
अपवाद 
*******

मैंने कहा, 
"तुम्हारे होंठ काले हैं...
उफ़्फ़... कितनी सिगरेट फूँकते हो..."

उसने बड़ी बेरूख़ी से जवाब दिया,
"और तुम तो ज़िंदगी फूँकती हो... 

कमाल तो बस इतना है
कि उसके बाद भी इतनी ख़ूबसूरत हो..." 

मैं उसे कैसे समझाती, कि
व्याकरण के नियमों के भी अपने अपवाद होते हैं..

#
अदृश्य डोर 
*********

कई दिनों से देख रही हूँ
घर के पीछे
एक पुराने पेड़ पर
एक नई पतंग अटकी हुई है

हवा की दिशा में
बदलती है कोण और फलक
कभी इस डाल तो कभी उस डाल
उड़ने को बेक़रार
लेकिन उस लगभग अदृश्य डोर से बँधी
जो उस पुराने पेड़ की
डालियों में बेतरह उलझी हुई है

मुझे उस पतंग में अपना अक्स नज़र आता है.. 

नहीं मिलती
तो बस वो अदृश्य डोर...
परिचय

नाम - पूनम सोनछात्रा
शिक्षा - एम.एस.सी.,बी. एड.
व्यवसाय - दिल्ली पब्लिक स्कूल में गणित की शिक्षिका, स्वतंत्र लेखन
रेख़्ता में ग़ज़लें एवं 'अहा ज़िंदगी' सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन