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रविवार, 6 सितंबर 2020

मनुष्यता के बचे रहने की आड़ी- तिरछी इबारतें - रघुवीर सहाय की कविताएं - अच्युतानंद मिश्र

 यह कटी पिटी पंक्तियों भरी कॉपी...

हर कवि अपने समय और समाज, भाषा और लोग, ज्ञान और चेतना, बुद्धि और संवेदना, दुःख और करुणा, प्रेम और सामाजिकता, घृणा और भय, संकोच और संशय, संज्ञा और क्रिया आदि की पुनर्रचना करता है. इस अर्थ में वह भाषा के नये महत्व को उजागर करता है. छापामार योद्धा की तरह नये ठिकानों की तलाश करता है. वह इन संदर्भों को बार-बार अपने समय के मनुष्य के बोध से जोड़ता है. कोई कवि इस तलाश में कितनी दूर निकल आया- यह महत्वपूर्ण है.
‘कितनी जमीन’ के उस लालची किसान की तरह मृत्यु से पूर्व वह भाषा के रास्ते, जिन्दगी की शाम ढलने से पहले समय और समाज के बड़े दायरे को व्यक्त कर देना चाहता है.
कविता का जीवन, कवि की मृत्यु के बाद आरम्भ होता है. अपनी हड्डियों में कवि जितना फॉस्फोरस बचा पाता है, उतनी ही कविता की जमीन वह उर्वर कर पाता है. परन्तु  हड्डियों में फॉस्फोरस इक्कठा कर सकना कोई आसान काम नही. जॉन औलिया के शब्दों में कहें तो उसके लिए लहू थूकना होता है.
आधुनिक हिंदी कविता का एक रास्ता निराला की विराटता से निकलता है. निराला की कविता हर तरह की भाषा और परिभाषा का अतिक्रमण कर देती है. दूसरा रास्ता मुक्तिबोध की बीहड़ता से निकलता है. रघुवीर सहाय की कविता का रास्ता मुक्तिबोध और निराला की समकालीनता से निर्मित होता है. वहां निराला की प्रयोगशीलता और करुणा भी है और मुक्तिबोध की आत्मालोचना और सभ्यता समीक्षा की कोशिश भी.
परम्परा से हर कवि अविभाज्य होता है परन्तु उसे अपने समय का रसायन स्वयं तैयार करना होता है. हर कवि के लहू में परम्परा, लौह अयस्क की तरह मौजूद रहता है, लेकिन उसकी समकालीनता उसका रक्तचाप है. इसके बगैर कोई कविता मृत हो जायेगी. कहना न होगा कि रघुवीर सहाय की कविता के लहू में लौह अयस्क भी है और रक्तचाप का उचित आवेग भी.
1967 में रघुवीर सहाय का संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ का प्रकाशन हुआ. आज जिसे हम समकालीन कविता कहते हैं, उसका आरम्भ इस संग्रह से माना जा सकता है. इस संग्रह का महत्व यह था कि इसने बगैर काव्यात्मक यथार्थ को विकृत किये, कविता की भाषा को बोलचाल के बेहद करीब ला दिया. इस संग्रह के प्रकाशन के साथ हिंदी कविता एक नये युग में प्रवेश कर गयी. अकविता के कवि कविता की भाषिक कुलीनता और आत्मगतता से लड़ रहे थे. वे भाषा के पुराने नियमों को बदल रहे थे लेकिन ऐसा करते हुए वे भाषा के एक दूसरे छोर पर जा रहे थे. वे किसी भी अर्थ में भाषा के जटिल समाजशास्त्र को समझने की कोशिश नहीं कर रहे थे.
रघुवीर सहाय की कविता एक नई उदार और खुली कविता की प्रस्तावना रखती है. यह कविता भाषा की पुरानी रवायतों को तोडती है. कई बार इसे पढ़ते हुए हम पाते हैं- अरे यह तो कविता की भाषा न हुयी -परन्तु रघुवीर सहाय ऐसा इसलिए करते हैं ताकि हमारे पारम्परिक काव्यबोध में एक तरह का व्यवधान आये. यह कविता जहाँ कविता की बची खुची संगीतात्मकता पर चोट करती हैं, वहीं कविता की विषय केन्द्रीयता को भी भंग करती है. यह कविता किसी एक व्यक्ति या घटना को न लेकर बहुत सी भिन्न घटनाओं को सामने लाती है -कोलाज़ शैली में. हम यहाँ देख सकते हैं कि अपनी संरचना और विषयवस्तु में ये दृश्य अलग-अलग लगते हैं, लेकिन इन सबमें समय का बोध ही वह बिंदु है जो इनको जोड़ता है. इस तरह दृश्यावलियों के माध्यम से यह कविता एक नये समय-बोध को रखती है. उदाहरण के तौर पर दो दृश्यों को देखा जा सकता है-
छुओ
मेरे बच्चे का मुंह
गाल नहीं जैसा विज्ञापन में छपा
ओंठ नहीं
मुंह
कुछ पता चला जान का शोर डर कोई लगा
नहीं -बोला मेरा भाई, मुझे पांव तले
रौंदकर, अंग्रेजी.


X X X
कितना आसान है नाम लिख लेना
मरते मनुष्य के बारे में क्या करूँ क्या करूँ मरते मनुष्य का
अन्तरंग परिषद् से पूछकर तय करना कितना
आसान है कितनी दिलचस्प है नेहरु की
आशंसा पाटिल की भर्त्सना की कथा
कितनी घुटन के अन्दर घुटन के
अन्दर घुटन से कितनी सहज मुक्ति

इन दो दृश्यों में प्रकट रूप से कोई संगति नहीं ढूंढी जा सकती. लेकिन क्या इनमें अपने समय की क्रूरता और समाज के बदलते दायरों को चिन्हित नहीं किया जा सकता. पहले अंश में आता है, ‘बोला मेरा भाई, मुझे पांव तले /रौंदकर, अंग्रेजी’, अब यहाँ अंग्रेजी से क्या तात्पर्य है. दो भाइयों के बीच के सम्वाद में एक बहुत सहज और निकट की भाषा होती है- मातृभाषा. लेकिन जब दोनों के बीच दुराव आता है, तो उन्हें जोड़ने वाली भाषा की यह कड़ी भी टूट जाती है. एक तरह की संवादहीनता घेरने लगती है. भाषा की इस कड़ी का टूटना दरअसल सम्बन्धों के व्यापक दायरे का टूटना है. टूटने के बाद भाषा की अंतिम दीवार भी नहीं रह जाती. क्रूरता की एक नई शैली इजाद की जाती है. यहाँ इस शैली की भाषा है अंग्रेजी.
सामाजिक नैतिकता के विघटन की एक नई भाषा- इस संग्रह में रघुवीर सहाय इजाद करते हैं. सांस्कृतिक विघटन ने समाज और राजनीति के मूल्यों को बदल दिया है. हम कह सकते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति की संस्कृति और उस संस्कृति से निर्मित सामाजिकता को पहचानने की कोशिश नज़र आती है. आत्महत्या के विरुद्ध संग्रह से हम समकालीन कविता की शुरुवात मान सकते हैं. यह इसलिए भी कि इस संग्रह की तमाम कविताओं में भाषा और विषय वस्तु, दोनों ही स्तरों पर समयबोध या समय की चिंताएं गहरी हैं.
आत्महत्या के विरुद्ध की कवितायेँ और उसके उपरांत रघुवीर सहाय की तमाम कविताएँ तर्क के वर्चस्व और वर्चस्व बोध से निर्मित तार्किकता की आलोचना करती हैं. ऐसा नहीं है कि आलोचना करते हुए ये कविताएँ अतार्किक हो जाती हैं या तर्क से परे. लेकिन ये कवितायेँ यह कहती हैं कि तर्क की दुनिया का अंतिम उद्देश्य ताकत का सृजन ही रह गया है.
ताकत के भीतर से संवेदना के ऊपर काबिज होने की चेतना उत्तरोत्तर प्रबल होती जाती है. तर्क धीरे-धीरे हमारे भीतर के वस्तुजगत को बदल देता है. एडोर्नों ने इसे आधुनिकता के रूप में व्याख्यायित किया था. वे इस बात पर बल दे रहे थें कि मनुष्य और प्रकृति के बीच सहज सम्बन्ध का विनष्ट होना और मनुष्य का धीरे-धीरे तर्क के अधीन होना आधुनिकता की सबसे बड़ी त्रासदी है.
क्या रघुवीर सहाय की कविताओं में हम इस त्रासदी को बार बार नहीं पढ़ते? जब वे कहते हैं –‘टेलीविज़न ने खबर सुनाई पैंतिस घायल एक मरा/ खाली बस दिखला दी खाली दिखा नहीं कोई चेहरा’ तो वे मनुष्य के संख्या में बदलने की बड़ी परिघटना और उसके परिणामस्वरूप अंतर्जगत में हो रहे परिवर्तन की ओर इंगित करते हैं. क्या ‘35’ की संख्या वास्तव में मनुष्य का विकल्प हो सकती है? क्या उस संख्या में उसका चेहरा, उसकी करुणा, उसकी छटपटाहट को भी शामिल माना जा सकता है? अगर ऐसा नहीं तो इस सूचना से, इस तरह के निर्मित ज्ञान से या ऐसी तार्किकता से हम- मनुष्य से, मनुष्य के भावजगत से, उसकी सामाजिकता से, उसकी स्मृति और उसकी भाषा से कितनी दूर आ जाते हैं- यह प्रश्न रघुवीर सहाय की कविताओं में बार-बार आता हैं.
वे बार-बार एक ऐसी भाषा, एक ऐसी कला, एक ऐसी संस्कृति की तरफ अपनी कविताओं को ले जाते हैं, जहाँ मनुष्य के बाहर की दुनिया में मौजूद किलेबंदी को भेदकर ,उसके अंतर्जगत में, उसकी बेचैनी ,उसके उथल-पुथल में, उसके स्वप्न में उसकी आकांक्षाओं और पश्चातापों में कविता प्रवेश कर सके.
जब उसको गोली मारी गयी
फोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर
बेटे ने बैठ कर अपना मुंह दिखलाया
लाश का ढंका था मुंह
यह कविता किसी एक
घटना या दृश्य पर टिकी हुयी नहीं है. यह मनुष्य के हजारो वर्षों के इतिहास, उसकी भावकता, उसकी संवेदना, उसकी करुणा आदि के जल से सिंचित है. बेटे के खुले मुंह और लाश के ढंके मुंह के बीच जो बिडम्बना है, जो भाषिक अन्तराल है, उसे हम सामान्य भाषा में कह नहीं सकते. फोटो में एक तरफ एक लाश है, सामान्य तौर पर यह एक बड़ी परिघटना है. फोटोग्राफर अपने कैमरे को लाश पर केन्द्रित करता है. पास में ही उसका बेटा है, जिसका मुंह खुला है वह दृश्य में अनायास ही आ गया है. फोटोग्राफर के लिए उसकी उपस्थिति गौण है. लेकिन कवि के लिए वह गौण नहीं है .वह केंद्र से पृष्ठभूमि की ओर चला जाता है. ऐसा कैसे संभव होता है? ऐसा इसलिए क्योंकि रघुवीर सहाय तर्क के रास्ते कविता की जमीन पर नहीं उतरते, वे दृश्यों के भावजगत में प्रवेश करते हैं. ऐसे में दृश्य में मौजूद बच्चे की उपस्थिति केन्द्रीय हो जाती है. एक तरह से फोटोग्राफर की तकनीक और कैमरे की दुनिया से बाहर निकलकर. तकनीकी तार्किकता के मोहजाल से बचते हुए, वे संवेदना के धरातल पर उतरते हैं और यहाँ से वे संवेदनात्मक तार्किकता निर्मित करते हैं. वे कहते हैं उसके खुले मुंह से हमने ‘जाना क्या पकता था चूल्हे पर’. इस पंक्ति के बाद लाश और फोटो दोनों का यथार्थ, एक बड़े यथार्थ में बदल जाता है. एक दृश्य- एक युग, एक समय के बोध में बदल जाता है.  
रघुवीर सहाय की कविताओं में विशेषकर ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ के बाद की कविताओं में देखें तो उनका वाक्य विन्यास हमें जटिल लग सकता है. ऐसा क्यों है? कविता की सार्थकता इस अर्थ में भी होती है कि वह भाषा और समाज के मध्य एक गतिशील भूमिका का निर्वाह करें. कविता में अर्थ की स्थिरता, उसकी शक्ति नहीं कमजोरी ही होगी. रघुवीर सहाय एक ही वाक्य में कई अर्थ भरते हैं. कई बार एक ही वाक्य कई वाक्यों का समुच्चय भी नज़र आता है. उदाहरण के तौर पर इन दो काव्यांशों को देखा जा सकता है.
मेरी कविता में उषा के
भीतर मेरी मृत्यु लिखी
चिड़िया के भीतर है मेरी
राष्ट्रभावना, बच्चों में दुःख .
मानो सबकुछ गबड़सबड़ है,
पर मैंने यों ही देखा था

xx
जितना बड़ा जीवन कवि जी चुका होता है ,
उतना ही बड़ा सत्य उसके वह कहने पर
लोगों को मिलता है, हम जैसे छुटभइये
जो सच सच एक बार कह चुके होते हैं.

रघुवीर सहाय की कविताओं में वाक्य संरचना के वैशिष्ट्य के ऐसे अनेक उदहारण दिए जा सकते हैं. इसे एक कवि की भाषिक कुशलता भी माना जा सकता है. लेकिन रघुवीर सहाय के लिए यह मात्र भाषिक चातुर्य नहीं है. हर कवि के सामने समय और समाज होता है. उसे देखने दिखाने के लिए भाषा होती है. वह भाषा, समय और समाज के नये सम्बन्धों की तलाश करता है. अगर किसी भाषिक संरचना से समाज की अवधारणा बाहर आ जाये तो वह कविता महत्वपूर्ण न हो सकेगी. महत्वपूर्ण हुयी भी तो वह दीर्घजीवी नहीं होगी. रघुवीर सहाय एक ऐसी काव्य भाषा की तलाश करते हैं, जिसमें बदलते हुए समाज का चेहरा शामिल हो. एक तयशुदा संरचना से निर्मित भाषिक बोध किसी जीवित या गतिशील समाज को व्यक्त नहीं कर सकता. समाज की अस्थिरता को कविता के प्रकट रूप से स्थिर शब्दों में दर्ज़ करना बड़ी चुनौती है. एक जटिल और गतिशील समाज की कविता भाषा की रचनाशीलता के रास्ते ही आगे बढती है. कवि शब्दों में नये अर्थ भरता है.
क्योंकि मैं ताकत से नहीं बोला
उम्मीद से बोला कि शायद मैं सही हूँ.

अगर इन पंक्तियों को देखे तो बहुत सहजता से यह समझा जा सकता है कि कवि ताकत की जगह उम्मीद को रख रहा है. लेकिन अगर बात बस इतनी ही है तो ये पंक्ति हमारे मस्तिष्क में गड़ क्यों जाती है? ताकत उम्मीद का विलोम तो नहीं है. फिर ताकत के विरुद्ध उम्मीद क्या करती है? यह तो स्पष्ट है कि ताकत के रास्ते कोई उम्मीद नहीं जगती.
अंग्रेज़ अपने साथ ताकत लेकर आये. उन्होंनें बुद्धि और विवेक को ताकत में बदल दिया. इस ताकत की दुनिया को कोई कवि किस तरह देखे? इस प्रश्न को हम ग़ालिब के रास्ते भी समझ सकते हैं. ग़ालिब के सामने तो सत्ताएं थी. ताकत की दो दुनियायें. मुग़ल दरबार में भी ग़ालिब का अपमान ही होता था. उनकी शायरी को दरबार के लोग नहीं समझते थे ? क्यों ?क्योंकि वे ताकत के साथ खड़े थे. ग़ालिब ताकत के विरुद्ध अपनी भाषा को अपनी संवेदना को जीवित रखने की कोशिश कर रहे थें. अंग्रेजी सत्ता से भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी. उम्मीद बस उनके भीतर थी और जब वे उसे बुझा हुआ पा रहे थे तो उन्हें लगता था   
“कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”

लेकिन क्या यह नाउम्मीदी यह नहीं बताती कि ताकत के विरुद्ध अंततः उम्मीद ही खड़ी होगी. एक कवि अपने भीतर ताकत के बदले उम्मीद जगाता है. कवि की उदासी उसकी नाउम्मीदी उम्मीद की एक किरण अपने भीतर लिए होती है. क्या यह बात हम ग़ालिब को पढ़ते हुए नहीं पाते? क्या यह नाउम्मीदी एक समाज, समुदाय, राष्ट्र और समय के रास्ते उम्मीद और प्रतिरोध में नहीं बदलती? एक कालजयी कविता यही करती है.
यहाँ उम्मीद की भूमिका उस ताकत के विकल्प की तरह है जिसमें उसके प्रतिकार का बोध अंतर्निहित है. इस बोध को सिर्फ और सिर्फ कला ही कह सकती है. यानी ताकत के विरुद्ध खड़े होने का विवेक तब विकसित होता है जब हम उम्मीद पैदा करते हैं. इसलिए ग़ालिब की इस निराशा में भी भविष्य में उस ताकत के प्रतिकार का बोध अंतर्निहित है. यह बोध सिर्फ और सिर्फ कविता ही जगाती है. रघुवीर सहाय की कविता ताकत के प्रतिरोध में उम्मीद की कविता है.  .
ताकत का एक अर्थ यहाँ हम विचारधारा भी समझ सकते है. बीसवीं सदी ने विचार को विचारधारा में बदला विचारधारा के रास्ते ताकत इजाद की गयी. क्या इस अर्थ में उम्मीद, विचार का पर्याय नहीं ठहरता? उम्मीद ने ही सबसे पहले विचारों को जन्म दिया होगा. रघुवीर सहाय उसी आदिम उम्मीद के रास्ते पर चलकर ताकत को नकारते हैं. यह उम्मीद कि एक दिन मनुष्य ताकत, वर्चस्व और क्रूरता की इस दुनिया को नकार देगा. 

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रघुवीर सहाय ने दूसरा सप्तक के वक्तव्य में शमशेर बहादुर सिंह के हवाले से लिखा “कि जिंदगी में तीन चीज़ों की बड़ी जरुरत है: ऑक्सीजन, मार्क्सवाद और अपनी वह शक्ल जो हम जनता में देखते हैं” . रघुवीर सहाय की कविता में जनता की शक्ल कभी धूमिल नहीं होती. किसी कवि के लिए यह सबसे कठिन होता है. आरम्भ में यह संभव है कि वह अपने अतीत और अनुभव के सहारे उस छवि को अपनी कविता में सहजता से उभार ले, लेकिन ज्यों-ज्यों वह जीवन और बोध की व्यापकताओं में उलझता जाता है- उसके लिए यह कठिन होने लगता है. वह अपनी ही सांस्कृतिक बोध की सीमाओं में उलझ जाता है. आरम्भ में जो उसकी शक्ति थी अब उसके लिए उससे मुक्त होना ही कठिन होने लगता है. ऐसे में वह एक यांत्रिक सृजन की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है. उसका आत्मानुभव ही उसके रास्ते में बाधा उत्पन्न करने लगता है. वह सरलीकरण और राजनैतिक मतवाद को कविता समझ बैठता है. इसके परिणामस्वरूप उसकी रचनाशीलता में अधिकांश तत्व पूर्वानुमान पर आधारित होने लगते हैं. ऐसे में पाठक रचनात्मक बोध की सहृदयता को प्राप्त नहीं कर पाता. किसी कवि के आत्मसंघर्ष का एक आयाम यह है कि वह अपने भीतर सांस्कृतिक बोध द्वारा निर्मित सीमाओं का अतिक्रमण कर सके. वह अपने चेहरे से भिन्न चेहरा अपने बोध रूपी आईने में देख सके. यह मात्र बाह्य ज्ञान को समृद्ध करने की प्रक्रिया से संभव नहीं. इसके लिए अन्तःकरण के आयतन को भी विस्तृत करना जरुरी है.
कविता के लिए बाह्य विचारों से ज्यादा जरुरी किसी कवि का आत्मविस्तार है. रघुवीर सहाय के यहाँ इस आत्मविस्तार को देखा जा सकता है .जो लोग कविता में यथार्थ को मात्र प्रकट रूप में चीन्हने की कोशिश करते हैं उन्हें रघुवीर सहाय की कवितायेँ मध्यवर्ग को इंगित करती हुयी लग सकती हैं. परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं. उदाहरण के तौर पर हम उनकी प्रसिद्द कविता रामदास को देखें. यह कविता किसे इंगित करती है? यह रामदास कौन है? वह क्या करता है? इन प्रश्नों पर कम ही विचार किया गया है.उसका शहरी होने मात्र से उसे मध्यवर्ग से जोड़ दिया गया है. यह कविता कई स्तरों पर एक जटिल सामाजिक यथार्थ को रखती है.
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी.

अगर हम थोड़ी बारीकी से इस कविता को पढ़ें तो हम यह जान सकते हैं कि यह रामदास कौन है? शहर की मुख्य सड़क से फूटती नीम अँधेरी गलियों में कोइ मध्य वर्ग का व्यक्ति नहीं रहेगा. दिन का वक्त घनी बदली को इस अर्थ में पढ़ा जा सकता है कि गलियाँ इस कदर तंग और संकरी हैं कि दिन के वक्त भी वहां घना अधेरा है. रामदास इसी तंग गली में रहता है. इसी गली से उसका सम्बन्ध है. लेकिन उसकी हत्या क्यों हो रही है? अब यहाँ हत्या को भी कई तरह से समझा जा सकता है, हत्या के मूल में उसकी उपस्थिति है. रघुवीर सहाय की कविताओं में सामाजिक मनोविज्ञान का पक्ष केन्द्रीय है. प्रगतिशील कविता में भी कवि अपनी वर्गीय चेतना का अतिक्रमण करता था, लेकिन वहां अतिक्रमण मूलतः वैचारिक ही होता था. वह संवेदनात्मक भावभूमि के स्तर पर उससे जुड़ा नहीं होता था. ऐसे में पाठक कविता और कवि के बीच की फांक को महसूस करता था. विचार और संवेदना के इस फांक को पार करने का एक रास्ता मुक्तिबोध के यहाँ दिखता है. मुक्तिबोध जिसे आत्मसंघर्ष कहते हैं, वह दरअसल अपनी सांस्कृतिक चेतना का अतिक्रमण ही है. मुक्तिबोध की कविताएँ वस्तुतः इसी अंतःसंघर्ष की जमीन पर खड़ी नज़र आती हैं. रघुवीर सहाय जब यह कहते हैं कि ‘अपनी वह शक्ल जिसे हम जनता में देखते हैं’ तो वह मुक्तिबोध के अंतःसंघर्ष की अगली कड़ी को सामने लाते हैं. रघुवीर सहाय के यहाँ कवि और कविता के बीच की फांक अगर पाठक को नहीं दिखती तो उसका बड़ा कारण यही है कि वे अपनी सांसकृतिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और अपनी चेतना को जनता की चेतना में घुला देते हैं. यह बात उनकी काव्य भाषा के रास्ते भी देखी जा सकती है. उनकी काव्यभाषा वहां नहीं है, जहाँ उनका अस्तित्व विराजमान है बल्कि वहां है जहाँ वे अपनी काव्यभाषा को अपनी चेतना की गतिशीलता से जोड़ते हैं. वे जिस समय और समाज की कविता लिख रहे होते हैं काव्यभाषा उसमे रुकावट नहीं बनती. वे उस दृश्य की संवेदना को भाषा में बदलते हैं.
रघुवीर सहाय ने पीड़ा, दुःख और करुणा को लेकर जैसी पंक्तियाँ लिखी हैं वे भाषा में अपनी मार्मिकता का अन्यतम रूप नज़र आती हैं तो इसका बड़ा कारण यही है कि वे अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को छोड़कर विषयवस्तु की पृष्ठभूमि से एक सहज संवेदनात्मक एवं अविभाज्य सम्बन्ध बना लेती हैं. कहना न होगा कि यह सहजता भाषा में जब ढलती है तो वह करुणा को करुणा और मार्मिकता को मार्मिक ही रहने देती है. देखे गये दृश्य की पीड़ा और शब्दों में अभिव्यक्त पीड़ा में भाषा और दृश्य माध्यम की भिन्नता भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती.
कितना कठिन है उसी दिन
बड़े होते जाना
ऐसे ही कई कई साल यह जानते रहना कि
मैं क्या हो गया क्या हो गया है समाज
उफ़ क्या बहुत पीछे जाना पड़ेगा यह जान लेने को
अब मेरे मन में दुःख हैं बहुत
पर मैं किसी को रुला नहीं सकता हूँ  


रघुवीर सहाय के यहाँ जो घुमड़ती हुयी पीड़ा है, जो ऐंठता हुआ दर्द है- वह दरअसल इसलिए है क्योंकि कवि जहाँ है और जहाँ वह जाना चाहता है, जहाँ तक पहुंचे उसके विचार है और वह जिस संवेदना और हाहाकार को देखता है, उसे लिखते हुए भोगता है और भोगते हुए लिखता है. ये कवितायेँ देखने की संवेदना और लिखने की भाषा को दो स्तरों पर नहीं, एक ही स्तर पर वहन करती हैं.
वहां स्वरलिपि और दृश्य संवेदना के मध्य- सतत पीड़ा के बीच के अंतरालों जितना ही फासला है. दर्द और कराह के बीच जितनी दूरी है उतनी ही दूरी शब्द और पीड़ा के बीच है. रघुवीर सहाय को पढ़ना एक राष्ट्रीय पीड़ा को अपने भीतर जाग्रत करना है.


3.
आधुनिक हिंदी कविता में अक्सर यह प्रश्न उठता है कि कविता के मूल्याङ्कन में कवि व्यक्तित्व की भूमिका को किस हद तक निर्णायक माना जाना चाहिए? क्या कविता कवि व्यक्तित्व से विच्छिन्न हो, यह संभव है? आधुनिक कविता के इस प्रश्न को हम इतिहास में ले जाकर हल करने की कोशिश करते हैं. ऐसा करते हुए हम भक्तिकाल तक चले जाते हैं. वहां के कवियों के व्यक्तित्व को, उनके काव्य विवेक को कविता के सर्वकालिक मूल्यों की तरह रखते हैं. परन्तु क्या इस तरह के मूल्याङ्कन के द्वारा हम इतिहास की सरलीकृत और एकरैखिकीय व्याख्या के शिकार नहीं हो जाते? आधुनिक कविता की बहसों को उस युग की जटिलता में ही हल किया जा सकता है. रघुवीर सहाय के संदर्भ में जब हम इस प्रश्न को देखते हैं तो पाते हैं कि उनकी कविता और उनके व्यक्तित्व के संदर्भ में परस्पर विरोधी बातें कहीं जाती हैं. ऐसा करते हुए हम व्यक्तित्व और कविता के संबंधो को हम युग सापेक्ष नहीं देखते. हम यह मान बैठते है कि साहित्य और संस्कृति के सम्बन्ध में जिन नैतिक सामाजिक मूल्यों को हमने स्वीकार कर लिया वे सर्व-कालिक हैं. उनमें किसी तरह के परिवर्तन का कोई विशेष अर्थ नहीं. पर क्या यह किसी कवि को पढने का सही रास्ता है? क्या कवि के वैयक्तित्व निर्माण में उसके युग की भूमिका नहीं. अगर ऐसा न होता तो यह कैसे संभव है कि एक ही युग तुर्गनेव, दस्तोवोस्की और तोल्स्तोय निर्मित करता है और दूसरा युग एक विराट शून्य.
अगर हम आधुनिक कविता के तीन बड़े कवियों निराला मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय को देखें तो तीनों के वैयक्तित्व और उनकी के कविता के अंतर्संबंध अपनी युग की गतिशीलता से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं.
निराला की कविता उनके वैयक्तित्व से अविभाज्य सम्बन्ध बनाती है. निराला हर क्षण कवि हैं. निराला के जीवन में कुछ भी कविता से बाहर नहीं है. यही वजह है कि वे सरोज स्मृति जैसी कविता लिखते हैं तो वहां उनका निजी दुःख एक युग एक, एक परिदृश्य का दुःख बन जाता है. जब वे कहते हैं ‘धन्ये मैं पिता निरर्थक कुछ भी तेरे हित कर न सका’ तो यह आत्म-धिक्कार किसी व्यक्ति या सम्बन्ध को नहीं पूरी सामाजिक संरचना और युग को इंगित करती है. उनके यहाँ जिस तरह की एकात्मकता है, वह आधुनिक कविता में एक दुर्लभ सी चीज़ है. यहाँ तक कि  उनके लिखे पत्रों की संवेदना और कविता की संवेदना के बीच भी कोई फांक नज़र नहीं आती. ऐसा क्यों? निराला जिस समाज से आते हैं वह कृषि समाज है. वहां व्यक्ति की सत्ता प्रमुख नही है. जीवन में कुछ भी अकेले संभव नहीं. खेती से लेकर तीज त्यौहार तक. कृषि सभ्यता मनुष्य के अकेलेपन को खत्म करती है. हम कामायनी को याद करें. मनु का अकेलापन सामूहिक जीवन में उसकी उपस्थिति से पूर्व का है, लेकिन जैसे ही वह सार्वजानिक जीवन में  प्रवेश करता है उसका निजी वैशिष्ट्य घुलने लगता है. कृषि कर्म की सामूहिकता मनुष्य के समूचे विवेक से उसकी निजता को निकाल देती है. ‘मैं’ की अवधारणा व्यक्ति को इंगित नहीं करती. वहां वह एक सामूहिक ‘मैं’ की ही प्रतिध्वनी लिए हुए है. निराला की कविताओं में जो ‘मैं’ है, उसके भी केंद्र में व्यक्ति नहीं है. व्यक्ति निराला और कवि निराला में लगभग कोई भेद नहीं. यही वजह है कि निराला को पढ़ते हुए हम प्रतिनिधि चरित्रों की दुनिया में चले जाते हैं. नायकत्व का बोध वैयक्तिक श्रेष्ठता का नहीं, बल्कि सामूहिक प्रतिनिधित्व का बोध है. क्या ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम और ‘कामायनी’ के मनु की परिकल्पना व्यक्ति के भीतर मौजूद सामूहिकता को इंगित नहीं करती ?
कृषि सभ्यता के विघटन के साथ यह सामूहिकता नष्ट होने लगती है. कवि और व्यक्ति के बीच एक फांक एक दरार दिखने लगती है. मुक्तिबोध का समस्त लेखन इसी फांक, इसी दरार को दर्ज़ करता है. मुक्तिबोध इस बात को महसूस करते हैं कि कवि होने की सामूहिकता और व्यक्ति के रूप में बचे रहने की दुविधा दोनों से मुक्त होना कठिन है. वे इस संघर्ष को, इस कश्मकश को अन्तःसंघर्ष में बदलते हैं. सवाल यह है कि यह कश्मकश क्यों? क्योंकि औद्योगीकरण ने जीवन को निजता के बोध में बदल लिया है. हर व्यक्ति एक विशिष्ट श्रम इकाई है. उत्पादन की व्यवस्था के अंतर्गत उसके श्रम का निर्धारित मूल्य है. यह मूल्य उसे एक व्यक्ति, एक इकाई, एक दिहाड़ी में बदल देता है. यही से उसके भीतर एक विलगाव की प्रक्रिया का आरम्भ होता है. मुक्तिबोध की कवितायेँ वैयक्तिकता के बीच आदमी के सामूहिक रहने की जद्दोजेहद की कविता है. यह औद्योगिकीकरण के बाद की कविता है. यहाँ मनुष्य का मूल्य उसके श्रम से निर्धारित है.
रघुवीर सहाय हिंदी कविता में शहरी जीवन बोध के पहले कवि हैं. उनकी कविताओं में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया के बाद के समाज की दशा और दिशा है. यह विलगाव की प्रक्रिया के बाद के मनुष्य की कविता है. अगर उनकी कविता में समाज हिंसक, क्रूर और आततायी नज़र आता है तो इस संदर्भ के साथ उसे समझा जा सकता है. वहां निराला की तरह व्यक्तित्व और कवि के मध्य मौजूद अखंडता नहीं बची हुयी है. न ही वहां मुक्तिबोध की तरह व्यक्ति और समाज के द्वंद्व में मौजूद रचनाशीलता.
यह कविता समाज की इकाई के रूप में मनुष्य के बचे रहने की कविता है. विलगाव के पश्चात् मनुष्य के आत्म छिछलन से उबर सकने के संघर्ष और भविष्य के बचे रहने की उम्मीद की कविता है. यही वजह है कि अगर हम रघुवीर सहाय के यहाँ व्यक्तित्व और कवि के बीच अखंडता की तलाश करेंगे तो हम गलत निष्कर्षों तक पहुंचेंगे. रघुवीर सहाय तक आते-आते यह प्रश्न ही अर्थ-हीन होने लगता है.
एडोर्नो जब यह कह रहे थे कि औश्वित्स (Aushwitz) के बाद अब कविता संभव नहीं रही, तो वे दरअसल कविता के समाप्त होने की बात नहीं कह रहे थे, बल्कि वे यह कह रहे थे कि कविता का पुराना क्रम अब चल नहीं सकता. हजारों वर्षों से चली आ रही क्रमिकता के अंत की बात वे कहते हैं . एक नई कविता का आरम्भ इसी अंत में मौजूद था. कहना न होगा कि रघुवीर सहाय की कविता भी इस क्रमभंग के बाद की कविता है.
इस दृष्टि से अगर हम उनकी कविताओं को पढ़ें तो पायेंगे कि उन्होंने विलगाव और चरम क्रूरता के दौर में असीम करुणा और मानवीय गरिमा को कविता का विषय बनाया.  
“मैंने कहा डपट कर
ये सेब दागी हैं
नहीं नहीं साहब जी
उसने कहा होता
आप निश्चिंत रहें
तभी उसे खांसी का दौरा पड़ गया
उसका सीना थामे खांसी यही कहने लगी”

प्रतिरोध की यह अन्तःस्फूर्त आवाज़ क्या एक नये तरह के काव्यबोध और करुणा से हमें नहीं भर देती? क्या “नहीं नहीं”, नहीं कह पाने की दुविधा उस डपटने को अधिक क्रूर नहीं बना देती? नकार के बोध को अपने अंतस में घोंट लेने की लाचारी, हमारे भीतर करुणा के निर्झर के सूख जाने की चेतावनी नहीं है? यहाँ एक बहुत महीन भाषा है. इसमें सीना थामे खांसी का शोर भी भयानक अर्थ पैदा करता है. भाषा के भीतर एक क्रमभंग अर्थ की सत्ता को उलट पुलट देती है. शब्द अपनी सत्ता खो रहें हैं. दो अर्थों के भय ने उन्हें धीरे-धीरे अर्थ-हीन बना डाला है.
मेरा सब क्रोध सब कारुण्य सब क्रंदन
भाषा में शब्द नहीं दे सकता
क्योंकि जो सचमुच मनुष्य मरा
उसके भाषा न थी

रघुवीर सहाय एक ऐसी भाषा की तलाश करते हैं जहाँ अर्थ-हीन हो रही मनुष्यता के लिए मानवीय ऊष्मा को बचाया जा सके. इस दृष्टि से उनकी कविता दयाशंकर मनुष्य समाज और आधुनिकता के नये आयाम को समझने की नई रौशनी देती है. लोककथा पर आधारित यह कविता, कविता की नई संभावनाओं की तरफ हमारा ध्यान खींचती है. विखंडित होते समय में समेटने की नई कोशिश इस कविता में देखी जा सकती है.
दयाशंकर एक दफ्तर में क्लर्क है. बीवी और चार बच्चे हैं. बीवी कहती है कि उसका मन पूआ खाने को करता है, लेकिन उसे यह संभव नहीं दिखता क्योंकि छः लोगों के लिए यह आयोजन  मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में जुटे एक परिवार के लिए असंभव है. यह एक ऐसी स्थिति जहाँ मनुष्य बने रहने का संघर्ष है. आप आप्टन सिंक्लेअर का उपन्यास जंगल पढ़िए और फिर यह कविता, आप पाएंगे कि सात दशकों में विलगाव ने मनुष्य पूरी तरह से घेर लिया है .पूआ न खा सकना अपने भीतर उस बहुत थोड़ी सी बची हुयी नमी को भी नष्ट करना हुआ. पूरा परिवार अमानुष होने के आखिरी पायदान पर खड़ा है.
“तब जरा देर कर इंतज़ार बीवी बोली
उठ पड़ो अभी हम लोग पका खाएं पूआ”

यह जो उठना है यह अपने भीतर बची बहुत थोड़ी मनुष्यता की खदबदाहट की आहट पाकर उठना है. मनुष्य जब भी उठता है, उसके भीतर का सौन्दर्यबोध दिपदिपाने लगता है “ वह उठी अरे वह कितनी सुंदर लगती थी”. यह सौन्दर्यबोध न हो तो फिर किस तरह कुछ बचेगा? मनुष्य की हर तरह की क्रियाशीलता में यह सौन्दर्यबोध बचा रहता है. यही सौन्दर्बोध उसमें जीवन के प्रति कल्पनाशीलता और प्रतिरोध भरता है.
ऐसे चुप चाप पकाए उसने चार पूए
जैसे पूआ ही मधुर मिलन कहलाता है  

एक पूए की अदद इच्छा जीवन दृष्टि को कितना मार्मिक बना देती है. यह जो उद्दात रघुवीर सहाय लाते हैं, उसी में मनुष्यता के भविष्य के बचे रहने के संकेत हैं. रघुवीर सहाय के यहाँ कविता का भाष्य और मनुष्यता का भविष्य एक ही है. इस कविता के अंत को हम मनुष्यता के नये आरम्भ की तरह पढ़ सकते हैं.
इतने में सब बच्चे एकदम से जगते हैं
उठ पड़ते हैं मुस्काते हैं सो जाते हैं.

यह मुस्कराहट ही वह आखिरी जमीन है जहाँ अब भी कविता के बीज बोये जा सकते हैं.
सूचना क्रांति ने मनुष्य के संवाद को सीमित कर दिया. मनुष्य का आत्मजगत उसके सामाजिक सह-अस्तित्व और संघर्ष की सामूहिकता पर टिका है. सूचना क्रांति उसे बदल देती है. यहाँ मनुष्य और मनुष्य के बीच एक यंत्र है, जो इस संवाद को हर तरह से नियंत्रित करता है. उन्नीसवीं सदी में राष्ट्रों को अधीन किया गया. इक्कीसवीं सदी तक आते-आते हमारा आत्मजगत भी अधीन होने लगा. हमारे होने की बुनियाद हमसे छीनी जा रही है. एक कवि इस स्थिति को महसूस करता है. वह स्वाभाविकता की बहुत बड़ी साजिश को देखता है. हत्या इतनी स्वाभाविक कि वह प्राकृतिक मृत्यु हो जाए -हमारे समय की यह सबसे बड़ी चेतावनी है.
कैसा इतिहास कि ठीक जिस समय एक आदमी
अन्याय के तन्त्र को चुनौती देता हुआ
उलझे हुए लोगों की भीड़ के सामने आता है
गोली चलती नहीं
प्राकृतिक मौत से वह मारा जाता है.

कवि की कल्पना इसी तरह यथार्थ बनती है. अस्सी के दशक के अंतिम दौर में लिखी इस कविता को इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में एक न्यायधीश की “प्राकृतिक” मृत्यु की तरह भी पढ़ा जा सकता है. क्या यह अतियथार्थ अब हमारी नियति है? कवि के कल्पना लोक में जो चीज़ें घटती है, जिन्हें वह शब्द देता है, उन्हें भविष्य में यथार्थ का रूप लेना है? कविता, कल्पना यथार्थ और वास्तविकता को एक कवि कैसे घंघोल देता है?
इस दुनिया में जब जीवित लोगों के लिए जगह लगातार कम होती जा रही हो. भय को मनुष्य की मुख्य संवेदना में बदला जा रहा हो. सही बात कहने वाले पागल साबित किये जा रहें हो. पैदल चल रहे शख्स का कुचला जाना स्वाभाविक बताया जा रहा हो. बच्चों के भीतर हिंसा और क्रूरता के बीज बोये जा रहे हों, झूठ बोलना राष्ट्र की सबसे बड़ी सेवा हो जाए. ऐसे में रघुवीर सहाय को पढ़ना इन तथाकथित स्वाभाविकताओं के विरुद्ध अपने भीतर विवेक का ऑक्सीजन भरने जैसा है. कविता के इस नये मुकाम पर मनुष्य के रूप में बचे रहना ही एक तरह का प्रतिरोध है. रघुवीर सहाय की कवितायेँ इस नये दौर में मनुष्यता के बचे रहने की आड़ी- तिरछी इबारतें हैं. इन्हीं इबारतों में हमारा वर्तमान हमारा भविष्य छिपा हुआ है.
ठहरिये ! एक बेहद महीन आवाज़ से आपका सामना हो रहा है, आपको अपनी खांसी पर काबू पाना होगा.

 

 

 

अच्युतानंद मिश्र - कवि, आलोचक

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

अंधेरे दौर में जनविमर्श : सुधीर सुमन


22 जून 2013

अनंत कुमार सिंह, अच्युतानंद मिश्र और कुमार मुकुल की किताबों पर  एक निगाह


एक ऐसे दौर में जब अखबारों के संपादक प्रगतिशील जनवादी आकांक्षाओं वाले साहित्य को छापने के बजाए उसका उपहास उड़ाने को अहमियत दे रहे हों और पूरी नई पीढ़ी के भीतर सर्वनकार और आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति को खूब प्रोत्साहित किया जा रहा हो, तब उन साहित्यकारों की आकांक्षाओं की थाह लेना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है, जो साहित्य को आज भी बदलाव का माध्यम समझते हैं और जो विचारधारात्मक मूल्यों की पहचान, उन मूल्यों को बचाए रखने की चिंता और नए जनपक्षधर मूल्यों की तलाश को ज्यादा अहमियत देते हैं।

हाल में मुझे तीन पुस्तकें मिलीं। पहला कहानी संग्रह है कथाकार अनंत कुमार सिंह का- ब्रेकिंग न्यूज। शीर्षक कहानी खुद ही एक ऐसे साहित्यकार के बारे में है जिसकी एक इलेक्ट्रानिक चैनल का एक्सीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनने के बाद साहित्य की दुनिया में भी पूछ बढ़ जाती है, पर वह अपनी सामाजिक नैतिकता खो देता है। औरतें सिर्फ उसके लिए उपभोग हैं और मीडिया महज मालिक के कारोबार का माध्यम। अपने पारिवारिक सामाजिक रिश्तों से भी वह पूरी तरह कट जाता है।

शिक्षा (लपटें), खेती (मुआर नहीं), कृषि संस्कृति (भुच्चड़), शहरी मेहनतकशों की जिंदगी (पहियों पर पहाड़, वाह रे! आह रे! चैधरी मुरारचंद्र शास्त्री) के प्रति लेखक गहरे तौर पर संवेदित है। ये अपने ही अहं और कुंठा में डूबे आत्मकेंद्रित मध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानियां नहीं हैं। और ऐसा नहीं है कि पुराने समाज के प्रति कोई अंधमोह है इनमें, वहां के शोषण और उत्पीड़न की स्मृतियां, खासकर अपने हक अधिकार से वंचित लोगों और अपने प्रेम से वंचित स्त्रियों (बसंती बुआ, मुखड़ा-दुखड़ा-टुकड़ा!) की बहुत मार्मिक स्मृतियां हैं, जो पाठक की चेतना को लोकतांत्रिक बनाती हैं। शहर और गांव और संगठित और असंगठित श्रमिकों को एकताबद्ध करने का स्वप्न (रात जहां मिलती है) भी इनमें है। कहानी संग्रह का समर्पण भी गौर करने लायक है- इस धरती को जहां रहता हूं मैं अपने शब्दों के साथ।

अपनी धरती और धरतीपुत्रों से जुड़कर उनकी व्यथाओं को कविता में लाने की ऐसी ही चिंता अच्युतानंद मिश्र के पहले कविता संग्र्रह ‘आंख में तिनका’ की कविताओं में दिखाई देती है। इसमें बदलते हुए खतरनाक समय की पूरी पहचान है और अपनी भूमिका की तलाश भी। संग्रह की पहली ही कविता है- मैं इसलिए लिख रहा हूं/ कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथ से जुड़कर/ उन हाथों को रोकें/ जो इन्हें काटना चाहते हैं।

अच्युतानंद की कविताओं को पढ़ते हुए प्रगतिशील क्रांतिकारी काव्य धारा की मुहावरा सी बन गई कई पंक्तियों की याद आती है, पर यह नकल नहीं, बल्कि उस काव्य पंरपरा का जबर्दस्त प्रभाव है। जो चीज इन कविताओं को उन कविताओं से अलगाती है, वह है इनमें मौजूद अपने समय के संकट की शिनाख्त। एक कविता का शीर्षक ही है- इस बेहद संकरे समय में। समय जो है वह मनोनुकूल नहीं है, चीजें सारी बेतरतीब हैं, जिनके बीच एक सलीके की तलाश है कवि को, सड़कें बहुत तंग हैं, पर कवि का मानना है कि ‘बड़े सपने तंग सड़कों/पर ही देखे जाते हैं।’ जाहिर है समय के संकटों का अहसास तो है पर वैचारिक पस्ती नहीं है, क्योंकि संकरे समय में रास्ते की तलाश भी है।
बेशक, वर्तमान से कवि संतुष्ट नहीं है, पर आस्थाहीनता की आंधी में वह बहने को तैयार नहीं है, उसे पूरा भरोसा है कि मेहनतकश हाथों से ही ‘दुनिया का नक्शा’ बदलेगा। इन कविताओं में शहर हैं, जो बस्तियों की छाती पर पैर रख जवान हुए हैं, देश है, जिसमें बच्चे भूखे ठिठुर रहे हैं, ‘किसान’ धीरे-धीरे नष्ट किए जा रहे हैं, नौजवान मरने को अभिशप्त हैं, औरतें उदास, उत्पीडि़त और पराधीन हैं, बच्चे उपेक्षित हैं। लेकिन शासकवर्ग देश ही नहीं, पूरी पृथ्वी की ही रक्षा का नाटक करता है। लेकिन त्रासदी यह है कि इस नाटक के बीच ‘डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता/ डूबती हुई पृथ्वी के बारे में’ (आखिर कब तक बची रहेगी पृथ्वी)।
एकालाप’ महज किसी लंबी कविता का शीर्षक ही नहीं है, बल्कि हर कविता मानो खुद से भी जिरह है। यही अगर इस संग्रह का शीर्षक भी होता, तो शायद ज्यादा उचित होता। यह एक ऐसी कविता है जिसमें कवि की वैचारिक बेचैनियों के कई स्तर नजर आते हैं और साथ ही एक जनधर्मी काव्य मुहावरा विकसित करने की जद्दोजहद भी- ‘सुरक्षित था जीवन/ आरक्षित था मन/ केंद्रित था पतन/ और ठगा जा रहा था वतन।’
संग्रह के फ्लैप पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने सही ही लिखा है कि अच्युतानंद पर्यवेक्षक कवि नहीं, अतटस्थ रचनाकार हैं। 

पर्यवेक्षण और परिवर्तन की चाहत का ऐसा ही द्वंद्व कुमार मुकुल की आलोचनात्मक लेखों के संग्रह ‘अंधेरे में कविता के रंग’ में दिखाई देता है। कवि से कर्ता होने का उनका आग्रह रहता है। वे श्रम की कीमत बताने तक कवि की भूमिका नहीं मानते, बल्कि श्रम की लूट को नष्ट करने का तरीका बताने का भी आग्रह करते हैं। राजनीतिक कविताआंे की जरूरत, अनिर्णयों का अरण्य बनती हिंदी कविता, अंधेरे में की पुनर्रचना जैसे लेख हिंदी कवियों से निर्णायक भूमिका की अपेक्षा रखते हैं। आलोचक का जो वैचारिक आग्रह कवि से है, वही समाज से भी है, इसलिए भी कि कविता को समाज से अलग करके वह कहीं नहीं देखता। इसलिए कविता में आलोचक को स्त्रीविरोधी कोई स्वर भूले से भी मंजूर नहीं है। रघुवीर सहाय और धूमिल से इसी कसौटी पर कुमार मुकुल अपनी असहमति जाहिर करते हैं। सविता सिंह, अनामिका, निर्मला पुतुल आदि कवियत्रियों की कविताओं के मूल्यांकन के दौरान स्त्रियों के प्रति उनकी संवदेनशीलता और उनकी मुक्ति के प्रति अटूट पक्षधरता दिखाई पड़ती है। अंधविश्वास, अवैज्ञानिकता, तथ्यहीनता और तर्कहीनता आदि के वे मुखर विरोधी हैं और इस आधार पर अपने प्रिय कवियों की पंक्तियों की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। किसी आलोचक द्वारा अपने पसंद-नापसंद को भी निरंतर जांचना और अपनी आलोचनात्मक समझ को दुरुस्त करते रहना सकारात्मक प्रवृत्ति है, जो आजकल के कम आलोचकों में दिखाई पड़ती है। फिर दूसरों की समझ और राय को भी महत्व देने और अपने आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में उसे भी जगह देने की जो आदत है, वह भी उनकी आलोचना पद्धति की खासियत है। वे प्रगतिशील जनवादी शब्दावलियों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम करते हैं, पर उनकी आलोचना में निहित जो वैचारिक आकांक्षा है, वह निःसंदेह प्रगतिशील-जनवादी है, आधुनिक है। उनके आलोचक ने विचारों और सपनों में यकीन नहीं खोया है।

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं। कुल मिलाकर ‘अंधेरे में कविता के रंग’ की आलोचना पाठक को हिंदी कविता और अपने समय के जरूरी सवालों और बहसों से जुड़ने को उकसाती है, यही इस किताब की खासियत है।

पुस्‍तकें - 


ब्रेकिंग न्यूज (कहानी संग्रह)
अनंत कुमार सिंह
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, मूल्य: 120 रुपये
आंख में तिनका (कविता संग्रह)
अच्युतानंद मिश्र
यश पब्लिकेशंस, दिल्ली, मूल्य: 150 रुपये
अंधेरे में कविता के रंग (आलोचना)
कुमार मुकुल
नई किताब, दिल्ली-92, मूल्‍य: 295 रुपये
                                        (समकालीन जनमत जून २०१३ से साभार)

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...कुमार मुकुल और अच्‍युतानंद मिश्र की बातचीत

कविता में आपका आना किस तरह हुआ ?

अध्ययन की जड. स्थितियों से उबिया कर मैं कविता में आ गया। पिता चाहते थे कि डाॅक्टर बनूं, राममोहन राय सेमिनरी में तीन महीने के कोचिंग के लिए मुझे भेजा गया था। वहां रोज ढड्डर का ढड्डर नोट्स लिखवाया जाता था कि आप उसका रट्टा मारें,तो तीन महीना पूरा होते ना होते मैं इस तरह की पढाई से उब गया। पिता ने समझाया कि कोचिंग पूरा कर लो, भले मेडिकल में ना बैठना। पर मन उचट गया सो मैं बोरिया-बिस्तर ले वापस आ गया। उस दौरान मेरे मिजाज में विचित्र बदलाव आ रहे थे। कोचिंग के दौरान मेरे मन में विचित्र कल्पनाएं जगने लगीं कि इस पढाई से अच्छा हो कि पटना में जाकर गुलाबों की खेती करूं। शाम गांधी मैदान में जा बैठता और चांद-तारों को निहारता रहता, दरअसल पिछले दो सालों की पढाई के दौरान मैं ज्यादातर गांव में रहा सो नदी,पेड,चांद,तारों के अलावे मुझे कुछ सूझता नहीं था। सो सहरसा जाकर वाकई सालों मैंने गुलाब के ढेरों पौधे उगाए। इस बीच जो मेरे साथी बने वे तीनों कविताएं करते थे। देखा-देखी मैं भी तुकें जोडने लगा, हालांकि आगे उनमें से कोई कविता के क्षेत्र में टिका ना रहा।

अप्रत्यक्ष रूप से पिता की भी भूमिका मेरे कवि बनने में है और मां की भी। मेरे पिता ने असहमति के बावजूद मेरे दो आरंभिक कविता संकलन छपवाए एक पर उन्होंने टिप्पणी भी लिखी। उनकी मेज पर 'मुक्तिबोध','नामवर सिंह','रामविलास शर्मा' आदि की किताबें पडी रहती थीं,अंग्रेजी के अध्यापक होने के नाते 'शेक्सपीयर' आदि को तो वे रटवाते ही रहते थे। सहरसा कोशी प्रोजेक्ट के सचिव जो पिता के मित्र थे घर के सामने रहते थे। उन्हें हम लोग सेक्रेटरी सहब कहते थे। वे अपने टेप पर 'बच्चन' की मधुशाला सुनाते थे तो आंरभिक कविताएं मैं उन्हें ही लिखकर पढाता था और वे सराहते थकते ना थे। उनमें से कोई कविता कहीं छपी नहीं या उस लायक नहीं थी पर उनकी हौसला अफजाई ने भी बढावा दिया। और मां की लाजवाब करने वाली मुहावरेबाजी के बारे में क्या कहना।

फिर मेरे पहले कविता संकलन पर 1987 में जिस तरह उस समय के दिग्गजों ''प्रभाकर माचवे'',''विष्णु प्रभाकर'',कवि ''रामविलास शर्मा'' आदि ने पत्र लिखकर उत्साहित किया उसने भी मेरा मिजाज बना दिया। माचवे जी ने तो प्रूफ की गलतियां ,पुस्तक पर अपनी राय और प्रकाशनार्थ सम्मति आदि अलग अलग लिखे थे। पर उस समय समीक्षा आदि का महात्तम मुझे पता नहीं था सो माचवे की वह सम्मति कहीं छपी नहीं। हां, ''मुकेश प्रत्यूष'' ने उस समय हिन्दुस्तान में एक समीक्षा लिख दी थी। मैं उसी से गदगद था।

बतौर कवि कविता के वर्तमान परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?

एक तरह की धुंध है,हालांकि बडे पैमाने पर नये कवि लिख रहे हैं पर उस परिवर्तनकामी चेतना का अभाव दिखता है जो कविता के मानी होते हैं। पर हमारे मुल्क में और इस महाद्वीप में अभी भी जिस तरह अशिक्षा और जहालत का बोलबाला है, जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे कविता का घेरा बढेगा। बाकी जमात को छोड कर खुद कवि हो जाने,होते चले जाने के कोई मानी नहीं हैं।

हिन्दी कविता में दिल्ली के कवियों की केंद्रियता के क्या खतरे हैं ?

वही जो दिल्ली केन्द्रित सत्ता के हैं , पर कोई कवि दिल्ली का नहीं होता जैसे राजनीतिज्ञ दिल्ली के नहीं होते। एक केन्द्रियता तो रहेगी ही उसे बार बार विकेन्द्रित करने की जरूरत होगी।

आठवें दशक के बाद जो पीढी आयी उसने कविता के कथ्य और शिल्प को किन अर्थों में बदला ?

मैं इस तरह दशकों में कविता को बांट कर नहीं देखता। यह बंटवारा इसलिए होता है कि उस छोटे से घेरे में आप महारथी दिखें। काहे का महारथी जब आपकी आधी से ज्यादा आबादी जहालत के घेरे में है, पहले उन्हें शिक्षित कर लें फिर उनके कवि होने का दावा और बंटवारा करें।

नहीं, मैं जानना चाहता था कि नवें दशक के कवि 'कुमार अंबुज','एकांत श्रीवास्तव','मदन कश्यप','विमल कुमार' आदि ने आठवें दशक के बरक्स कविता में कौन से नये बदलाव लाए ? ये आपसे ठीक पहले के कवि हैं।

इनमें मदन कश्यप के अलावे बाकी ने खुद को अपने समय की राजनीति से बचाव की मुद्रा में रखा। प्रकृति का वर्णन या अंतरमन के प्रसंगों को कविता में लाना जरूरी है पर यह हमें अपने समय की उठापटक से दूर करने का वायस बने यह जरूरी नहीं। विमल कुमार ने अपने पहले संग्रह के बाद राजनीति से अपना जुडाव दिखाने की कोशिश की पर वह जमीनी नहीं बन पाया।(अब 2018 में विमल जी अपने समय के मुकाबिल तनकर खडे दिखते हैं)

आज कुछ बडे प्रकाशक थोक भाव से कवियों को छाप रहे हैं कथाकारों और उपन्यासकारों को छाप रहे हैं, जैसे वे उनके दिशा-निर्देशक हों। इस तरह पीढियां बनाने के प्रकाशन की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?

देखिए , खुशफहमियां पालने का हक सबको है, जब नये रचनाकार ही खुशफहमियों से बाहर आने को तैयार ना हों तो प्रकाशक को क्या पडी है , वह उन्हें निर्देशित करेगा ही। वह उसके व्यापर का हिस्सा है। बाकी पीढी-पीढा प्रकाशक क्या उभारेंगे, वे अपनी गांठ सीधी करें इससे ज्यादा की उन्हें फुरसत कहां है...

''उर्वर प्रदेश'' पर जिस तरह से विवाद उठा है,उससे वर्तमान कविता और कवियों के बीच के अंतरविरोधों पर किस तरह रोशनी पडती है ?

यह एक राजनीतिक विवाद है। इसका रचनात्मकता से कोई लेना देना नहीं। पुरस्कार कोई भविष्य की गांरटी कैसे दे सकते हैं। हर राजनीतिक तमाशा एक सीमा के बाद चूकता है। उर्वर प्रदेश भी चूका अब जाकर। इस प्रदेश से बाहर हमेशा ज्यादा उर्वर कवि रहे।

आपने कविता के अतिरिक्त गद्य भी लिखा है...एक कवि के लिए गद्य लेखन को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

गद्य कविता में फार्मेट का अंतर है , बातें तो वही होती हैं। शमशेर ने कहा है ना कि 'बात बोलेगी' , तो कविता हो या गद्य ,बातों को बोलना चाहिए, ऐसा ना हो कि उनकी वकालत की जरूरत पडे। हां,गद्य लिखने से कवि अपनी सत्ता को जान पाता है कि वह कितनी ठोस है।

फिलहाल आप किसे बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं,कविता या आलोचना को ?

संभावना या बात जहां होगी वह बडी हो जाएगी। अपने आप में कविता या आलोचना से क्या संभावना ...!

पहले के किन कवियों ने आपके काव्य व्यक्तित्व और लेखन पर प्रभाव डाला है ?

अलग-अलग समय में अलग लोगों ने प्रभावित किया। जैसे 1987 में जब मेरा पहला कविता संकलन पिता ने छपवाया था तब मैं ''केदारनाथ सिंह'' के प्रभाव में था। उनके असर में उस संकलन में एक कविता भी लिखी थी मैंने जो संकलन का शीर्षक भी था,''समुद्र के आंसू''। आरंभ में 'तुलसी' और 'दिनकर','बच्चन' का प्रभाव था। विकास के साथ प्रभावित करने वाले कवि बदलते गये। केदारजी की कविता आज वह प्रभाव नहीं छोडती। ना दिनकर,बच्चन ही। लंबे समय से मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन का प्रभाव है। मुक्तिबोध,शमशेर का गद्य और कविता एक ही तरह से प्रभावित करते हैं और एक हद तक रघुवीर सहाय भी। टैगोर की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं वैसे रिल्के के पत्रों का सर्वाधिक प्रभाव खुद पर अनुभव किया।

प्रभाव से परे मेरे ''प्रिय कवि'' अलग हैं, आलोक धन्वा,विष्णु नागर,विष्णु खरे,ऋतुराज,लीलाधर मंडलोई,मंगलेश डबराल,विजय कुमार,असद जैदी,मदन कश्यप,अनामिका,सविता सिंह,निर्मला पुतुल,वंदना देवेंद्र। बांग्ला कवि नवारूण भटटाचार्य बहुत प्रिय हैं मुझे। अपने प्रिय कवियों की कविताएं मैं लोगों केा बारहा सुनाता हूं।

लंबी कविताओं के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ?

कविताओं को छोटी और लंबी में बांटना नहीं चाहता मैं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं। बस संगठन का फर्क है। वरना लंबी कविता भी आप एक सांस में पढ जाएं और छोटी भी आपको उबा दे। कुछ लंबी कविताओं ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोडा, जैसे आलोक धन्‍वा की ब्रूनो की बेटियां,सफेद रात,लीलाधर जगूडी की मंदिर लेन,लीलाधर मंडलोई की अमर कोली और कुमारेन्‍द्र पारसनाथ सिंह की लंबी कविताएं।

नयों में किनसे उम्मीद बंधती है ?

बहुत लोग बहुत तरह से लिख रहे हैं,उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...

 Thursday, July 8, 2010, को एक ब्‍लॉग पर पोस्‍टेड