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मंगलवार, 4 अगस्त 2020

खुद के विरोध में - राजाराम भादू

अनिल अनलहातु - बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ

अनिल अनलहातु के कविता-संकलन की अधिकांश कविताओं में अन्य साहित्यिक- कला कृतियों/ इतिहास की घटनाओं, पात्रों और स्थानों के प्रसंग और संदर्भ आते हैं। संकलन पर चर्चा से पहले, मुझे लगता है, हाल की एक घटना का संक्षिप्त विवरण देना जरूरी है जो मेरे हिसाब से इस कृति से संदर्भित है।

१.
यह प्रसंग फेसबुक पर मौजूद है। एक फेसबुक लाइव कार्यक्रम में कवि अदनान कफील दरवेश ने अपने कविता- पाठ के साथ कुछ चर्चा भी की। उन्होंने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहा कि जब बाबरी मस्जिद का फैसला आया तो हिन्दी ( जगत) में एक अश्लील शांति पसरी हुई थी। जब मस्जिद गिरायी गयी तब ऐसी शांति नहीं थी बल्कि कविता लिखने की होड थी। सबके सामने अपने को सेक्युलर प्रूव करते का चैलेंज था और उस वक्त सभी ने सिद्ध किया कि हिन्दी सेक्युलर भावों पर खड़ी है और हिन्दी सांप्रदायिकता की राजनीति के खिलाफ है।

धीरेश सैनी ने उनके इस वक्तव्य को सवाल की तरह जारी किया। आनंदस्वरूप वर्मा ने इस पर प्रत्युत्तर में लिखी एक लंबी पोस्ट के जरिए बताया कि कैसे दिल्ली से अनेक रचनाकार- बुद्धिजीवी घटना के तत्काल बाद लखनऊ गये और कैसे उन्होंने लखनऊ के लेखक- संस्कृतिकर्मियों के साथ मिलकर विरोध- प्रदर्शन किया। उन्होंने बाद में भी की गयी कई कार्यवाहियों का विवरण देते हुए आगे संयुक्त प्रतिरोध का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में अभिषेक श्रीवास्तव ने अपनी पोस्ट में बाबरी विध्वंस के बाद के वर्षों में देश भर में लंबे समय तक चली सिलसिलेवार प्रतिरोध कार्रवाहियों का विस्तृत विवरण दिया है।

मुझे ही नहीं, कइयों को लगता है कि अभी भी अदनान के सवाल को सही जबाब नहीं मिला। उस फैसले पर तो वैसी प्रतिक्रिया नहीं ही थी, यह सच्चाई है। लेकिन हिन्दी के साहित्यकार ही क्या, विपक्ष की तमाम राजनीतिक पार्टियां भी फैसले पर क्या बोल पायी थीं।‌ इसका एक बड़ा कारण यह है कि साम्प्रदायिक पक्षों से बहसों में उन दिनों यही कहा जाता था कि वे न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करें और कम से कम उस पर तो भरोसा करें। मस्जिद गिराने की कार्यवाही साफतौर पर गैर- कानूनी और आक्रामक थी। न्यायालय का निर्णय एक अलग प्रतिफलन था और उस निकाय ने अभी हाल तक अपना विश्वास नहीं खोया था। आप सीएए- एनआरसी विरोधी आंदोलन के संदर्भ में भी रचनाकार- संस्कृतिकर्मियों की भूमिका को देख सकते हैं। बेशक, इसकी शुरुआत बड़े शिक्षण- संस्थानों से हुई, फिर सडकों पर आन्दोलन की अगुवाई में मुस्लिम महिला और युवा जुड़े, किन्तु अपनी सीमाओं और क्षमताओं के साथ हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवी भी उनके साथ खडे हुए। दिल्ली दंगों की आड में हुआ दमन  भी उनके हौसले पस्त नहीं कर पाया लेकिन बाद में कोरोना के लाकडाउन ने ही आन्दोलनकारियों को घरों की चाहरदीवारी में पहुंचा दिया ।

बहरहाल, राजनीतिक घटनाओं का असल जबाब तो राजनीति से ही दिया जाना है और वह इस समय पस्तहिम्मत है। हालांकि सत्ता के माफिक फैसले देने के लिए जाने जाने वाले एक न्यायाधीश को जब राज्य सभा की सदस्यता बख्शी गयी तो राजनीतिक दलों सहित देश के तमाम बौद्धिक हल्कों से इसकी भर्त्सना की गयी। न्यायिक निकाय के क्षरण को लेकर आलोचना पर एक व्यक्ति अभी भी अवमानना की कार्यवाही झेल रहा है। तथापि, हिन्दी के साहित्य क्षेत्र में भी कमजोरियों से नकारना सच से मुंह चुराना है। वहाँ विचलन, विघटन और पतन भी है और राम मंदिर की नींव- पूजा के दृश्यों पर सच से गहरे सरोकार रखने वाले भी अवसन्न हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य व कलाएं भिन्न तरह से भी प्रतिक्रियाएं करते हैं।

२.
अनिल अनलहातु की बाबरी मस्जिद... संकलन की लगभग आधी कविताओं के मुख्य स्वर में आत्म- स्वीकार और आत्म- धिक्कार है। बाबरी मस्जिद शीर्षक दोनों कविताओं के आरंभ में बाबरनामा  से एक- एक अंश उद्धरित किया गया है। ये इस प्रकार हैं:

हे मेरे स्रष्टा, हमने अपनी आत्मा पर अत्याचार किया है, और यदि तू हमारे प्रति क्षमादान में उदार न हुआ तो यह निश्चित है कि हमारी भी गणना अभिशप्तों में होगी।

भीतरी घाव के धुएं से बच
आकबत नज्रे आह होती है,
एक दिन दिल न तोड- आह न ले
एक दुनिया तबाह होती है।

बाबरनामा में हो सकता है, यह बाबर का कुबूलनामा हो, लेकिन इन कविताओं में कवि बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी को खुद पर आयत्त करता है-
मैं जीता नहीं हूं, मैं हारता हूं,
हारते हुए भी हारता ही हूं
और हारते हुए ही जीवन जीता हूं।

यह संकलन २०१८ में प्रकाशित हुआ है और इन दो वर्षों में देश की नदियों में जाने कितना पानी बह गया ! कवि की आसन्न आशंका एक वास्तविकता में बदल गयी है :
और मैं अब इसका बाशिंदा हूं
क्योंकि वे नहीं हैं,
वे नहीं रहें
वे खत्म कर डाले गये
वे अब मारे जा रहे हैं
किसी दूर देश के संदर्भ में लिंचिग का आया संदर्भ इस देश में एक परिघटना में बदल गया है:
सामान्य एक आदमी को
असामान्य बनाकर
मार डालना हमारी
उपलब्धि है।
आत्म- प्रवंचना की आत्महंता स्थिति पर प्रश्नांकन है-
आखिर वह कौन- सी 
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे
खुद के खिलाफ ?
एक कविता ,विद्रोही आत्मा ,में कवि का आत्मावलोकन इस प्रकार है-
मैं एक शर्म में जीता हूं,
एक शर्म को जीता हूं,
जी.... ता नहीं हूं मैं
हारा हूं/ हारता ही रहा हूं
बस्स जीता हूं
एक शर्म जीता हूं
शर्मसार हूं।
कविताओं की विशेषता यह है कि ये पढने वाले में भी अपराध- बोध की प्रतीति कराती हैं। जीसस के शब्दों को कवि कुछ यूं उलट देता है -
... पिता! उन्हें कभी माफ नहीं करना
क्योंकि वे सारे जानते हैं
कि वे क्या कर रहे हैं।

कवि के अनुसार यह पूरा देश कुहरे और कुहासों से भरा है। इसके बाबजूद कवि आत्महत्या के विरुद्ध है। इन हताशाकारी मंजरों और ग्लानि- भाव से वह कोई विरेचन नहीं कर रहा बल्कि उद्वेलन के लिए बैचेन है। मैं खोकर खुद को ,खुद को पा रहा हूं। एक कविता में वे विश्व- विजेता सिकंदर, तैमूर और चंगेज खां के आतंक और उनके नष्ट हो जाने का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि आदमी के भीतर का कण कब तरंग में रूपायित हो जाएगा, कौन जानता है?
इन कविताओं में बुद्ध, उनके भिक्षु- भिक्षुणी और अन्य प्रसंग भी यत्र- तत्र आते हैं। मुझे लगता है, ये कवि के आत्मसंघर्ष की दार्शनिक दिशाएं हैं जिनसे वह दुख, करुणा और मूल्यवत्ता के सहसंबंध को स्थापित करने का काव्यात्मक उपक्रम करते हैं। जैसे कि-
जीवन के बिना पर
किसी भी पुरानी ध्वंस सभ्यता के
किसी नमूने की
प्रासंगिकता क्या है?

जब वह अपने लिए ऐसी भाषा प्रयुक्त कर सकता है तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उन कथित समानधर्माओं के लिए उसने कैसी भाषा इस्तेमाल की होगी जो विचलित और पतित हो चुके हैं। इसके औचित्य को लेकर मुझे भी एक प्रसंग ही याद आ रहा है। भंवरी बलात्कार कांड पर जब न्यायालय ने यह फैसला दिया कि गाँव के उच्च बुजुर्ग ऐसी हरकत नहीं कर सकते तो मराठी आपलां महानगर के संपादक निखिल वागले ने बहुत तीखा संपादकीय लिखा। नतीजतन उन पर कोर्ट की अवमानना की कार्रवाई हुई। उन्होंने बताया कि वे चाहते तो हल्की भाषा में लिख सकते थे लेकिन इन लोगों की मोटी खाल पर उसका कोई असर नहीं होता।  आज एक वर्ग जब अपने नैतिक मूल्य और संवेदना खो चुका है ,उनके लिए अनिल अनलहातु उचित ही अपनी भाषा और अभिव्यक्ति शैली को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।

३.
संकलन की बाकी कविताओं में घनीभूत पीडा और आक्रोश की अभिव्यक्ति है। दुनिया में छितराये मूलवासियों से कवि का भावात्मक तादात्म्य सघन है और समानुभूति के साथ वह उनकी ओर से बोलता है। यह भयावह विडंबना है कि दुनिया भर में देशज समुदाय लगभग समान नारकीय जीवन जी रहे हैं और उनके संसाधनों को कब्जाये वर्चस्वशील ताकतें भी विलासिता का समान जीवन जी रहे हैं। अनिल ने आदिवासियों को ही एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा है बल्कि उनके साथ उन तमाम वंचितों को भी शामिल कर लिया है जो तथाकथित विकास प्रक्रिया से बहिष्कृत कर दिये गये हैं। इन " अन्यों" में बेघर, भिखारी,अपाहिज और अर्ध- विक्षिप्त जैसी मनुष्य- इकाइयां तक शामिल हैं जिनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है।

डोडो कविता में वे हाशिये की ओर धकेली जा रही आदिम जनजातियों की तुलना डोडो पक्षी के रूपक में देखते हैं : डोडो मारीशस में पाए जाने वाले एक विलुप्त पक्षी का नाम है जो आज से ३०० वर्ष पूर्व इस पृथ्वी से लुप्त हो गया, विलुप्त कर दिया गया। एक विशालकाय पक्षी जो हानिरहित था, शांतिप्रिय और अहिंसक था, किसी पर हमले नहीं करता था किन्तु उसमें सर्प की भांति जहर नहीं था, नुकीले और खतरनाक चोंच और पंजे नहीं थे... उसका शिकार कर डाला गया, मार डाला गया, सफाया कर दिया गया। यह अकारण नहीं है कि पुर्तगालियों ने उसे डोडो नाम दिया जिसका पुर्तगीज भाषा में शाब्दिक अर्थ है- मूर्ख। हर वह जाति, नस्ल, सभ्यता या संस्कृति जो अपनी प्रवृत्ति और प्रकृति में शांतिप्रिय और अहिंसक है, जो करुणा, न्याय और शांति पर आधारित है, वह नस्ल, वह सभ्यता, वह संस्कृति चाहे वह इंका हो, एजटेक हो, मये हो, माओरी हो, रेड इंडियन हो- मेसोपोटामिया ( आधुनिक इराक) हो, फारसी हों, कुर्द हों या फिर असुर, राक्षस, अनार्य हों, दानव हों... वे नष्ट कर दिये जायेंगे, विलुप्त कर दिये जायेंगे, सभ्य और आर्य ( अर्थात कथित श्रेष्ठ) संस्कृति उनका होलोकास्ट कर देगी... संपूर्ण विनाश। 

वे अपनी एक कविता में उद्धरित भी करते हैं-
वे पेड - पौधों की  भांति चुपचाप
जीने वाले सीधे लोग हैं।

और ऐसा मानते हुए उन्हे सामान्य मनुष्यता से ही च्युत कर दिया जाता है। उन्होने आगे कहा है-
एक समूचे महादेश को
उसकी भाषा से वंचित कर देना
क्या अपराध नहीं है?

इस अपराध की गंभीरता को जानना है तो आप समाजविज्ञानी प्रो. गणेशदेवी के पिछले दिनों किये भाषा- सर्वेक्षण और उसके निष्कर्ष देखें। देश में जो भाषाएं खत्म हो रही हैं उनमें सर्वाधिक जनजातियों की भाषाएं हैं। यह भी कि एक भाषा के साथ उसके बोलने वालों का इतिहास और संस्कृति भी खत्म हो जाती है।

इन कविताओं में होलोकास्ट बार- बार आता है और रघुवीर सहाय की कविता का हरिकुशना जो फटा घुटन्ना पहने राष्टगीत गाता है, अब वह टेपचू और राम सजीवनों के साथ विलुप्ति के कगार पर है। प्रभुत्व का बुलडोजर ग्रामीण सामाजिक  कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध प्रोफेसर की उपलब्धियों को दरकिनार कर उन्हें हाशियाकृत कर देता है।

एक रेलवे प्लेटफार्म पर वंचना झेलते लोगों को देख कवि विस्थापन को पंत की पंक्तियों के साथ इस तरह रखता है-
कहां है भारतमाता ग्रामवासिनी??
क्या देश की आजादी ने उसे
ग्राम से प्लेटफार्म तक पहुंचा दिया है? 

क्योंकि, गाँव भी अब
वह और वहीं नहीं रहा,

आदिवासी युवती मकलू मुर्मू घरेलू नौकरानी के रूप में शहर में खट रही है। उसके त्रासद सपनों में कोई राजकुमार नहीं आता। उसके लिए भाषा का मतलब आदेश हैं। उसके होठों पर हंसी देखना एक लंबा और ऊबाऊ इंतजार है।
ऐसा ही एक रात का चित्र है-
बस- अड्डे के कोने में
एक औरत
गुडमुडियाई लेटी है
और कुछ कुविचार उछल रहे हैं...

उनकी कविता में आया नीग्रो जार्ज अब जार्ज फ्लायड है जिसकी शहायद से उपजे ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन ने नस्लभेद के पुराने प्रतीकों को ध्वस्त करते हुए पूरी दुनिया में आलोडन ला दिया है।

अनिल की कविताओं में विश्व-साहित्य और इतिहास -प्रसंगों से जो अनक्डोट आते हैं, वे कई बार पाठ के अवगाहन में अवरोध जैसे लग सकते हैं। लेकिन वस्तुतः ये उनकी कविता को संदर्भ- विस्तार देते हैं। यदि आज मूलवासी वैश्विक स्तर पर संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं तो उनकी कविता का वैश्विक परिप्रेक्ष्य होना चाहिए। हिन्दी कविता में ऐसा कम रहा है जबकि अन्य देशों की कविता में  ऐसे संदर्भ  सामान्य बात हैं। इलियट की एक कविता के अंश में आये संदर्भों का उन्होंने उल्लेख किया है। डब्ल्यू वी यीटस की एक कविता है- माड गान। यह एक आयरिश क्रांतिकारी महिला पर है जिसकी वहाँ प्रतिमा स्थापित है। आयरलैंड से बाहर इसे फुटनोटस के साथ छापा जाता है।

शायद इसीलिए अनिल ने संकलन में कई सम्मतियों को शामिल किया है। उदय प्रकाश के अनुसार अनिल अनलहातु  एक विरल ज्ञानात्मक- ऐन्द्रिकता के ऐसे बौद्धिक युवा कवि हैं जिनकी कविताएँ मुक्तिबोध की कविताओं की पंक्ति में अपनी जगह बनाती चलती हैं। अवधेश प्रीत उनकी कुछ कविताओं को शोकान्तिका की तरह मानते हुए उनमें धूमिल का भी प्रभाव देखते हैं। प्रभात मिलिंद वहाँ सभ्यताओं की अन्तर्यात्रा चीन्ह रहे हैं तो विनय कुमार उनके यहां संदर्भों को उनकी शोधवृत्ति से जोडते हैं। मुक्तिबोध शताब्दी वर्ष के आयोजनों में मेरी कोशिश इस तरफ ध्यान आकर्षित करने में रही कि मुक्तिबोध के तमाम महिमामंडन के बाबजूद कविता और आलोचना पर उनका कितना असर पडा, कभी इसका भी आकलन किया जाये। सच तो यह है कि समकालीन कविता पर रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह का कहीं ज्यादा प्रभाव रहा है। अनिल अपने को मुक्तिबोध और धूमिल ही नहीं बल्कि गोरख पांडेय से घोषित रूप से जोडते हैं। उनके यहां मुक्तिबोध जैसा आत्मसंघर्ष और ज्ञानात्मक संवेदना है तो धूमिल की तेजाबी भाषा तथा गोरख पांडेय- सी जन- संलग्नता। कहना न होगा कि परंपरा में होने का अर्थ अनुसरण नहीं होता और इस कविता में वैश्विक सृजन की भी प्रतिच्छाएं व अनुगूंजें हैं।

#पढते-पढते-४१

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

प्रेम और प्रतीक्षा - अनुपमा गर्ग

प्रेम और प्रतीक्षा की ये  कविताएं एक नए जेंडर डिसकोर्स की तलबगार हैं। जो प्रेम में पुरुष और स्त्री के द्वैध को मिटा  डालने का आग्रह लेकर आती हैं।  इस प्रेम में पुरुष हो या स्त्री दोनों के लिए प्राथमिक शर्त है कि वे अपने अहं भाव को तिरोहित कर दें । अहं भाव के विसर्जन और ग्रंथि रहित निर्ग्रन्थ होकर ही प्रेम या फिर मुक्ति की तलाश पूरी हो सकती है।  कवयित्री कहती है कि जो भी (मुमुक्षु) मिला वह ज्ञान का अथाह भंडार लेकर मिला जबकि वह (यानी मुक्ति की चेतना)  प्रेम की तलाश में भटक रही थी । ज्ञान विमर्श कर सकता है, मुक्ति नहीं पा सकता।  उसके लिए तो उत्कट भक्ति और प्रेम की आवश्यकता होती है।  इसलिए दोनों अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं, समय की इस अथाह अनंत नदी के पार।

 इसी तरह कोई हिंसा और अत्याचार लेकर मिलता है, तो कोई सहज स्वीकृति का भंडार लेकर तो कोई असमंजस और संकोच लेकर।  जो भी आया अपने अहं की पोटली के साथ आया और इसलिए कवयित्री कहती है कि-  
" हम चल दिए अलग-अलग रास्तों पर 
समय की अथाह नदी के पार ."

वह उस प्रेम की प्रतीक्षा में है,जहां कोई उसके पास अपने नग्न हृदय और भग्न प्रतिमान के साथ आए।  नग्न हृदय  यानी अपने प्राकृतिक या नैसर्गिक रूप में आए उसमें कोई आवरण , छद्म या मलिनता  न हो तथा अपने सारे प्रतिमानों को भग्न करके यानी अपने अहं भाव को तोड़कर , छोड़कर और विसर्जित करके आए तब उस अवस्था में कवयित्री अपनी पुरातन मगर अजर, अमर (आत्मा रूपी) प्रेमिल हृदय का द्वार खोल देगी, जहां दोनों जीवात्माएं द्वैत भाव के खत्म हो जाने पर , संग मिलकर , बैठकर बातें करते हैं, भिक्षान्न पकाते ,नदी का निर्मल जल अंजुली में भरकर पीते हैं और तब फिर चल देते हैं  जीवन मरण के चक्रीय पथ पर समय की अथाह नदी के पार । कबीर भी प्रेम की परिभाषा गढ़ते हुए यही कहते हैं-

"कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं।
सीस उतारे भुइँ धरे , तो पईसे घर माहीं।।"

यानी प्रेम रूपी घर में उसी का प्रवेश हो सकता है जो अहंकार रूपी अपने सिर को काट का पृथ्वी पर धर दे।
पहली कविता में जहां प्रतीक्षा थी उस प्रेम की जहाँ  स्त्री-पुरुष का द्वैत भाव , अहम् भाव  के तिरोहित होने की,  ताकि दोनों संग- साथ मिलकर ,बैठकर ,बातें करें और भिक्षान्न  पकाते और नदी का निर्मल जल ग्रहण करते यानी सांसारिकता  का भोग करते हुए फिर अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं , फिर से जन्म लेने को,  वहीं दूसरी कविता में संघ के साथ-साथ संग को भी सहजता से स्वीकारे जाने की प्रतीक्षा है । और कवयित्री  कहती है कि यदि वह प्रतीक्षा खत्म हो गई हो और उचित समय आ गया हो-

" तो चलो पुरुष
भिक्षान्न  पकाते हैं,साथ मिलकर
नदी तट से शीतल जल पीते हैं,ओक भर कर
बाउल गाते हैं ,स्वर रचकर
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग -अलग नहीं
इस बार साथ-साथ ."

यहाँ दोनों अलग-अलग रास्तों पर न जाकर एक साथ महाप्रयाण के एक ही रास्ते पर जाना चाहते हैं,  यही वह सच्चा प्रेम है, जहाँ दो व्यक्तियों का एकत्व स्थापित होता है, जब उनका अलग-अलग वजूद खत्म हो जाता है।  शायद प्रेम की गली इतनी संकरी होती है जिसमें दो लोग समा नहीं सकते।  इसे ही कबीर अपने दोहे में कहते हैं-

 " प्रेम गली अति सांकरी , जा मे दो न समाहीं।"

इन कविताओं  में एक तरफ जहां लौकिक प्रेम की प्रतीति होती है, वहीं दूसरी तरफ आध्यात्मिक या पारलौकिक प्रेम भी संचरित होते दिख पड़ता है । एक तरफ तो दो जीवात्माओं या स्त्री-पुरुष के ऐहिक या लौकिक प्रेम के जरिए दोनों की मुक्ति का मार्ग बताया गया है ,वहीं दूसरी तरफ जीवात्मा और ब्रह्म के प्रेम और जीवात्मा की मुक्ति या निर्वाण को भी दर्शाया गया है।  आशय स्पष्ट है कि कवयित्री  लौकिक या ऐहिक प्रेम के माध्यम से प्रेमी-प्रेमिका दोनों की मुक्ति या निर्वाण का पथ तलाश रही है।  ऐहिक या लौकिक प्रेम को आध्यात्मिकता की उस ऊंचाई तक कवयित्री  ले जाती है जहां पुरुष और स्त्री दोनों एक साथ ही मुक्त होते हैं और कवयित्री का भी यही काम्य है । वह चाहती भी यही है कि पुरुष और स्त्री दोनों का प्रेम ऐसा हो जहां दोनों की मुक्ति अलग अलग न होकर साथ-साथ हो, ताकि इस जहां और जहां के बाद भी वे  साथ-साथ  ही रहें - अनिल अनलहातू

अनुपमा गर्ग की कविताएं -


प्रेम और प्रतीक्षा - 1

वो मिला मुझे,
ले कर ज्ञान का अथाह भण्डार
मैं प्रेम की तलाश में भटक रही थी
हमने विमर्श किया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर हिंसा, अत्याचार
मैं क्षमा की याचिका थी
हमने रक्त बहाया और चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर सहज स्वीकृति का भण्डार
मगर इस बार मैं प्रेम की क्षत्राणी थी
हम बैठे, हमने शाब्दिक विवाद भर किया ,
और फिर चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

वो मिला मुझसे,
लेकर असमंजस, संकोच
लेकिन मैं विश्वस्त थी,
उसका हाथ  थाम, पहले बैठाया,
फिर उसके मन की सुन कर उसे विदा किया मैंने,
हम चल दिए, अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार

काश, कोई अपना नग्न ह्रदय
और भग्न प्रतिमान ले कर मिलता
खोल देती मैं उसके लिए,
पुरातन, मगर अजर, अमर,
प्रेमिल ह्रदय के द्वार
हम बैठते, बात करते,
भिक्षान्न पकाते, नदी का निर्मल जल ओक भर कर पीते
और फिर चल देते
अलग अलग रास्तों पर
समय की अथाह नदी के पार |
आखिर और भी तो हैं,
जिन्हें प्रतीक्षा है !


प्रेम और प्रतीक्षा - 2

भंते! क्या तुम्हारा और मेरा संघ में होना,
एक जैसा है ?
क्या साधु और साध्वियाँ वाकई देख पाते हैं,
आत्म का स्वरूप,
देह के पार ?
आँखों में, विचलित हुए बिना ?

यदि नहीं,
तो क्यों न सब संघों, सब मठों को विघटित कर दिया जाये?
क्यों न उन सब प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया जाये
जो आधी आबादी से कहते हैं,
"साध्वी मत बनो, रहो अपने अदम्य आप का तिरस्कार कर"
जो आधी आबादी को भिक्खुणी बनाते तो हैं, मगर मन मार कर |

कहो तो भद्र,
क्या संघ में होना वैसा ही है,
जैसा संग में होना?

कहो देव!
क्या मठ में होना वैसा ही है,
जैसा एक मत में होना?

अगर संग होते हम, तो रक्त मेरा,
तुम्हारे लिए शायद उत्सव का विषय होता
अब क्या है?
करुणा का विषय?
या लज्जा का ?
या विरक्ति का?
या ऐसा है कि जिस कोख से उपजे थे
तुम और तुम जैसे कई सहस्त्र कोटि
उसी गर्भ से, उसी शरीर से जुगुप्सा होती है तुम्हें?

तुम सोचते होंगे, तुमसे क्यों इतने प्रश्न?
क्या करूँ?
बुद्ध तो अप्प दीपो भव कह कर चल दिए |
और शंकर ने शिवोहम कहा, मगर मुझे उसके अयोग्य मान कर |

सोचो आर्य,
जिसे तुम भिक्खु  होना कहते हो,
वो संसार की अगणित स्त्रियां
सहज ही कर जाती हैं |
बिना महिमामण्डन के |
ऐसे में, देव!
भिक्खु (णी)? मैं
साध्वी? मैं
और तुम?

तो क्या फिर समय आ गया है ?
संघ के साथ साथ संग को भी सहजता से स्वीकार करने का?

क्या समय हो गया आर्य?
मठ में भिन्न शरीर और भिन्न मत भी, अङ्गीकार करने का?

यदि आ गया हो उचित समय,
तो चलो पुरुष,
भिक्षान्न पकाते हैं, साथ मिल कर |
नदी तट से शीतल जल पीते हैं, ओक भर कर |
बाउल गाते हैं, स्वर रच कर |
और फिर करते हैं प्रयाण
अलग अलग नहीं
इस बार साथ-साथ |

आखिर और भी तो हैं
जिन्हें प्रतीक्षा है !


अनुपमा बेचैनी में  लिखती हैं | घर में पाँव टिकते नहीं, बाहर मन ठहरता नहीं | पूजा, ध्यान, प्रार्थना, गायन, वादन, सब कागज़ और कलम में आ कर टिक जाता है | दरअसल कुछ लोगों के लिए अपना होना भर ही छटपटाहट का सबसे बड़ा  कारण होता है | इसी छटपटाहट में से उनकी पुस्तकें भी उपजती हैं, और उनकी कवितायेँ भी | चाहे वो 'दिल्ली की रोटी'  हो, 'अधनंगा, भूखा हिंदुस्तान', 'सीता की अग्निपरीक्षा', या फिर 'कॉन्डोम-कथा' | अनुपमा को जानने, पढ़ने, या उन्हें और उनके विचारों को स्वीकार कर पाने के लिए, उनसे पूर्वाग्रहों के पार, विमर्श की घाटी में मिलना ही इकलौता तरीका है |