मंगलवार, 18 अगस्त 2020

प्रेम की चिर-कालीन संवेदना

अनु चक्रवर्ती की कविता उतनी ही बहिर्मुखी है, जितनी मन के कोनों को  खंगालने वाली । उनकी कविताओं में मॉडर्न फेमिनिज्म भी दिखता है, जहाँ वो देह की अकुलाहट को बयां करती हैं, और प्रेम की चिर-कालीन संवेदना भी । प्रेम से ले कर युद्ध तक की सीमाओं को छूती हैं उनकी कविताएं । प्रेम, प्रकृति, पुरुष का मन, और जीवन की विडम्बना भरी चुनौतियाँ, इन सब को अनु बहुत अच्छे से संजोती हैं अपनी रचनाओं में । उन्हें समझना उतना ही आसान है, जितना खिले हुए पुष्पों को, और उतना ही दुरूह जितना प्रेम में पड़ी जोगन को - अनुपमा गर्ग


अनु चक्रवर्ती की कविताएं


दो लोगों के बीच का सच !

दो लोगों के बीच का सच
हमेशा ही बना रहता है एक रहस्य ..
बन्द कमरे के अंदर का सन्नाटा 
लील जाता है पूरी तरह से 
जीवन के उल्लास को  ...
अकुलाते देह के भीतर 
जब कसमसाती हैं भावनाएं
तब मन की
 पीड़ा का बोझ 
बढ़ जाता है 
थोड़ा और ...
स्त्री जब प्रेम में होती है 
तब तन , मन ,
 और धन से 
करना चाहती है 
समर्पण !
खो देना चाहती है
 अपना सम्पूर्ण वजूद ....
एक ओंकार की तर्ज़ पर ,
बह जाना चाहती है ..
सम्वेदनाओं की सरिता में ।
किंतु सुपात्र ! 
की तलाश में 
 उन्मत्त  भी रहती है -  
उम्र भर ....
फ़र्ज कीजिये -
किसी जोगन को अगर लग  जाए 
प्रेमरोग !
 तो विडम्बना की पराकाष्ठा 
भला इससे बड़ी और क्या होगी....
वास्तव में ,
प्रेम में निर्वासित स्त्री ही 
वहन कर सकती है
सम्पूर्ण मनोभाव से योग......
अपनी भूख , प्यास ,
और नींदें गंवाती है....
मात्र प्रीत के ,
स्नेहिल स्पंदन की तलाश में ..
और
उसकी ये तलाश 
शायद !
अधूरी ही रह जाती है 
जन्मों तक ...
क्योंकि 
कहीं न कहीं 
प्रेम !
संकुचन का अभिलाषी होता है
जबकि श्रद्धा !
चाहती है विस्तार .....


हे अर्जुन !!


हे अर्जुन !
आज मै भी समझ सकती हूँ ..
तुम्हारे दर्द को पूर्णतः  ....
निश्चित,
कितनी असीम पीड़ा को तुमने सहा होगा...
अपनों को अपने ही, ह्रदय से दूर कर देने का दंश 
सिर्फ,  
तुम्हारी ही छाती वहन  कर सकती है  प्रिये ! 
किन्तु,  
तुम सदा से ही थे भाग्यवान !!
क्यूंकि
कृष्ण !!
जैसा मित्र और सारथी 
भला  किसे मिला है इस जहान में...?
जो विश्व कल्याण के  लिए ,
प्रशस्त कर सके विहंगम मार्ग भी ....
भर सके चुनौती प्रेम से आसक्त उर में....
समझा सके , 
सत्य और असत्य का भेद...
और तैयार कर सके भुजाओं को ...
ताकि गांडीव में 
दुगुनी ऊर्जा का हो सके संचार....
और लोक हित में ,
बनी रहे मर्यादा कर्तव्यनिष्ठा की...
हे पार्थ..!
सच, ह्रदय पर तुमने लिया होगा 
ना जाने कितना घाव...
जब प्रत्यंचा चढाई होगी 
तुमने पहली बार
अपने ही परिजनों के विरुद्ध ....
बाल्यकाल... राजमहल ...और गुरुजनों 
के स्नेह को करके परे....
तुमने भर ली होगी  अग्नि 
अपने दोनों अश्रुपूरित  नयनों में...
हे द्रोण प्रिय !!
काश ! 
हम भी ले सकते सही निर्णय 
समय निर्वहन के साथ- ही- -साथ...
और उजास से भर सकते
वर्तमान को ..
त्याग आत्मिक संबंधों काे ,
उज्जवल भविष्य की परिपाटी  के लिए ...
केवल युग-पुरुष ही कर सकते हैं,  शायद...!!


नींद


तुम्हारे साथ उम्र की 
सबसे सहज नींद का उपभोग किया है मैंने !
तुम्हारा हाथ थामे - थामे 
बादलों के देश भी घूम आई हूँ
कई बार ....
तुम्हारे पास होने पर 
सपनों जैसा कुछ नहीं होता ...
बल्कि
दर हकीक़त !
सिलसिलेवार मन के  सारे ख़्याल
भी पूरे होने लगते हैं ....
मुझे   ऐसी बेख़ौफ नींद से जागना 
कतई मंजूर नहीं होगा ...
तुमने कहा था - कि 
तुम मुझे सुलाने के लिए 
नींद की गोलियां कभी नहीं दोगे ....



शिरीष के पुष्प

जब  उमस से भरी यह धरती 
लू के थपेड़ों को सहती है 
 काल बैशाखी की विकल घटाएं 
शाखों की उंगलियां मरोड़ती हैं .....

जब संसार  की सारी मनमर्ज़ियाँ
 उदासी  का पैरहन ओढ़ लेतीं हैं
जब  इंसान के मन की बेचैनियां
शुष्क गलियों से गुज़रतीं हैं ...

जब पानी की एक - एक बूंद को 
सारी  प्रकृति तरसती है 
जब सूरज की  तेज़ किरणों से 
वनस्पतियां भी झुलसती हैं ...

जब हरित धरा धूसर हो जाती है
और राग - रागिनी कहीं खो जाती है 
 तब सर  पर कांटो का ताज लिए
 यह  रक्तिम आभा बिखेरते  हैं  .....

यूँ छुईमुई -सी  लजाती शिरीष !
विषमता में अपना शौर्य दिखलाती है 
वसंत से लेकर आषाढ़ तक केवल
यह अजेयता का मंत्र दोहराती हैं  ...


 जो - जिसने


जो छोड़कर गया है, वो एक दिन लौटेगा 
अवश्य ....

जिसके लिए नीर बहाया है तुमने 
उसे लगेगा अश्रुदोष ....

जिसने अनुराग को समझा मनोविनोद 
उसे स्वस्ति नहीं मिलेगी कभी....

जिसने पूर्ण समर्पण को किया अनदेखा
वो भोगेगा संताप भी ...

जिसने प्रेमत्व के बदले देना चाहा किंचित सुख
वह उपालंभ के अधिकार से भी होगा वंचित ....


अपनाना इस  बार !

मैं बाहर से जितनी आसान हूँ !
अंदर से उतनी ही मुश्क़िल भी ....
 भीतर से जितनी सरल हूँ !
ऊपर से उतनी ही कठिन भी ...

आज ससम्मान सौंपना  चाहती हूं 
तुम्हारा हाथ उसे ,
जिससे तुम करते आये हो निरंतर प्रीत !
और जिसकी भीति से तुमने 
उत्सर्ग किया है मेरे अनुरागी मन का ...

 जो कभी मुझे सचमुच में अपनाना चाहो
 तो  ऐ साथी ,
अपनाना अपने व्यस्ततम एवं दुसाध्य  क्षणों में ...
जो मेरे पास आये  तुम केवल  फ़ुर्सत के पलों में....
तो ये तय है -
क़े  फ़िर कभी पा न सकोगे मुझे !

क्योंकि मैं  सामने से जितनी मुलायम हूँ 
पर्दे के ठीक पीछे ,उतनी ही सख़्त भी ......

परिचय 

श्रीमति अनु चक्रवर्ती 
C/O श्री एम . के . चक्रवर्ती
C - 39 , इंदिरा विहार 
बिलासपुर ,छत्तीसगढ़ 
Pin - 495006 
Ph- 7898765826

: वॉयस आर्टिस्ट  , रंगकर्मी , मंच संचालन में सिद्धहस्त , विभिन्न पत्र पत्रिकाओं , बेव पोर्टल्स ,और सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित , तीन फ़ीचर फ़िल्म में अभिनय करने का अनुभव , स्क्रिप्ट राइटर ।

तुम कभी नहीं समझ सकते उस जिंदगी को

अपनी कविताओं में विधान कुछ मौलिक सवाल उठाते हैं जो आपको सोचने-विचारने को बाध्‍य करते हैं कि आपके खुद की निगाह में अजनबी होने का खतरा पैदा होने लगता है। इन कविताओं से गुजरने के बाद चली आ रही व्‍यवस्‍था को लेकर आपके मन में भी सवाल उठने लगते हैं और उसके प्रति आंखें मूंदना आपके लिए असुविधाजनक होता जाता है।

विधान की कविताएं


भाग गया ईश्वर

 
मुर्गे की जान की कीमत
एक सौ बीस रुपये
लगाने वाला कौन है?

कौन हैं वो
जो जान की क्षति पर
घोषि‍त करते हैं

चंद लाख का मुआवजा?

कौन  बेचारे मेमने पर
दो गोली दाग़ गया

इस बीच तुम्हारा  ईश्वर 
किधर भाग गया!
   
2

घर लौट रहे लोग मूर्ख नहीं
 

शायद तुम्हे मालूम न हो
कई दिनों तक भूखे पेट रहने का परिणाम

तुम्हारे पिता की मृत्यु महँगी शराब के अत्यधिक सेवन से हुई हो
या तुम्हारे भाई की मृत्यु की वजह रही हो किसी कार की तेज़ रफ़तार ।
तुमने रोटी से दब कर एक मर्द के स्वाभिमान को मरते नहीं देखा
या तुम्हारे लिए कभी घर लौटना उस बाप की तरह जरूरी नहीं रहा
जिसके दिन भर की कमाई से लाया जा सकेगा
शाम के भोजन के लिए सब्जी, आटा और चावल
अपने भूखे परिवार का पेट भरने की खातिर!

तुम कभी नहीं समझा सकते उस जिंदगी को
अनुशासन का पाठ
जो भली भांति समझता है
जिंदगी से मौत की दूरी के गणित को।

साहब ,गरीब शिक्षित नहीं पर जानता है
तुम्हारे वादों की काल्पनिकता और हकीकत के अनुपात को।
दरअसल उसे वायरस से मरने का खौफ उतना नहीं
जितना 'इस बज़्ज़ात भूख से'
अपने बाप की तरह
सरकारी मदद पहुँचने से ठीक पहले मर जाने का है!

3
मेरी फिक्र

अब जब कोई
आने लगता है करीब
इस दिल के
या फिर ये दिल जाने लगता है
 करीब किसी के

तो  बढ़ जाती है मेरी फिक्र!

सोचने लगता हूँ मैं
जगह बनाने की
अपने जख्मी बदन पर
फिर कुछ उँगलियों के
नए ज़ख्मों की ख़ातिर!
     
4

तेरी जात का                                                   

तुम्हें  मालूम नहीं   क्या?
कैसी बात करते हो तुम!
आज जिसके पास खड़े होते ही
सिकुड़ गयी थी तुम्हारी नाक
उसी धोबी ने  धोये थे कल तुम्हारे वस्त्र
वो भी मसल मसल के
 अपने शूद्र हाथोँ  से

हे राम
ये कैसी उच्च जाति से हो तुम!
कि भूल गए दहलीज पर रखे
दफ्तर जाने का इंतजार करते उस जूते को
जिसपे फेरे  हैं  सैकड़ों दफा
उस चमार ने अपनी उंगलियां
जिसकी पहचान और काम को
दूषित समझते आये हो तुम

छी छी

क्या सच तुम्हें नही आती
अपने दूध से
ग्वाले के अंगूठे की महक!
राम राम!
कितना बड़ा धोखा हुआ तुम्हारे साथ
कि तुम्हें अपने घर की दीवार, छत
बगान ,कुर्सी से ले कर मेज तक
बनाने के लिए नहीं मिले 

एक भी शुद्ध सवर्ण हाथ!

5

ये बच्चा नहीं एक देश का मानचित्र है

मुझे भ्रम होता है कि एक दिन ये बच्चा
बदल जायेगा अचानक
'मेरे देश के मानचित्र में'

और सर पर कश्मीर रख ढोता फिरेगा
सड़कों - चौराहों पर
भूख भूख कहता हुआ

मुझे भ्रम है कि कल इसके
कंधे पर उभर आयेंगी
उत्तराखंड और पंजाब की आकृतियां
भुजाओं पर इसकी अचानक उग आयेंगे 

गुजरात और असम

सीने में धड़कते दिल की जगह ले लेगा
मध्यप्रदेश

नितंबों को भेदते हुए निकल आएंगे
राजस्थान और उतरप्रदेश
 

पेट की आग से झुलसता दिखेगा 
तेलंगाना

फटे  चीथड़े पैजामे के  घुटनों से झाँक रहे होंगे
आंध्र और कर्नाटक

और पावँ की जगह ले लेंगे केरल औऱ तमिलनाडु
जैसे राज्य।

मैं जानता हूँ ये बच्चा कोई बच्चा नहीं
इस देश का मानचित्र है
जो कभी भी अपने असली रूप में आ कर

इस मुल्क की धज्जियां उड़ा सकता है!

6


क्योंकि काकी अखबार पढ़ना नहीं जानती थीं


अखबार आया
दौड़ कर गयी काकी

खोला उसे पीछे से
और चश्मा लगा पढ़ने लगी राशिफ़ल
भविष्य जानने की ख़ातिर !
वो नही पढ़ सकीं वो खबरें
जिनमें दर्ज थीं कल की तमाम वारदातें

ना ही वो जान सकीं क़ातिलों को
और उन इलाकों को
जो इनदिनों लुटेरों और क़ातिलों का अड्डा थे !

अफसोस, काकी भविष्य में जाने से पहले ही
चली गयी उस इलाके में

जहाँ जाने को मना कर रहे थे अखबार !

अब उनकी मृत्य के पश्चात -
काका खोलते हैं
भविष्य से पहले अतीत के पन्ने
जो चेतावनी बन कर आते हैं अखबार से लिपट

उनकी दहलीज़ पर!

परिचय

शिक्षा- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
संपर्क- 8130730527

सोमवार, 17 अगस्त 2020

जीवन और अंतरमन के द्वंद्व - पूनम सोनछात्रा की कविताएं

जीवन और अंतरमन के द्वंद्व व विडंबनाओं को पूनम की कविताएं बड़ी कुशलता से अभिव्‍यक्‍त करती हैं। एक स्‍त्री जब एक मनुष्‍य की तरह सोचना-विचारना चाहती है तो बराबरी व समानता के पाखंड की धज्जियां बिखरने लगती हैं। पूनम की कविताएं इन धज्जियों को बखूबी समेटती इस समाज को उसका चेहरा दिखलाती हैं।

पूनम सोनछात्रा की कविताएं

बातों का प्रेम 
**********
अनेक स्तर थे प्रेम के
और उतने ही रूप

मैंने समय के साथ यह जाना कि
पति, परमेश्वर नहीं होता 
वह एक साथी होता है 
सबसे प्यारा, सबसे महत्वपूर्ण साथी 
वरीयता के क्रम में 
निश्चित रूप से सबसे ऊपर.. 

लेकिन मैं ज़रा लालची रही.. 

मुझे पति के साथ-साथ उस प्रेमी की भी आवश्यकता रही
जो मेरे जीवन में ज़िंदा रख सके ज़िंदगी.. 
सँभाल सके मेरे बचपन को
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर.. 
जो मुझे याद दिलाए
कि मैं अब भी बेहद ख़ूबसूरत हूँ.. 
जो बिना थके रोज़ मुझे सुना सके
मीर और ग़ालिब की ग़ज़लें.. 
उन उदास रातों में 
जब मुझे नींद नहीं आती 
वो अपनी गोद में मेरा सिर रख
गा सके एक मीठी लोरी... 

मुझे बातों का प्रेम चाहिए था 
और एक बातूनी प्रेमी.. 
जिसकी बातें मेरे लिए सुकूनदायक हों.. 

क्या तुम जानते हो कि 
जिस रोज़ तुम
मुझे बातों की जगह अपनी बाँहों में भर लेते हो
उस रोज़ 
मैं अपनी नींद और सुकून 
दोनों गँवा बैठती हूँ... 


#
मुक्ति 
****
चरित्र के समस्त आयाम
केवल स्त्री के लिए ही परिभाषित हैं... 

मैं सिंदूर लगाना नहीं भूलती... 
और हर जगह स्टेटस में मैरिड लगा रखा है... 
जैसे ये कोई सुरक्षा चक्र हो.... 

मैं डरती हूँ
जब कोई पुरुष मेरा एक क़रीबी दोस्त बनता है... 

मुझे बहुत सोच समझ कर करना पड़ता है 
शब्दों का चयन... 

प्रेम का प्रदर्शन 
और भावों की उन्मुक्त अभिव्यक्ति 
सदैव मेरे चरित्र पर एक प्रश्न चिह्न लगाती है.... 

मेरी बेबाकियाँ मुझे चरित्रहीन के समकक्ष ले जाती हैं 
और मेरी उन्मुक्त हँसी 
एक अनकहे आमंत्रण का
पर्याय मानी जाती है... 

मैं अभिशप्त हूँ 
पुरूष की खुली सोच को स्वीकार करने के लिए 
और साथ ही विवश हूँ 
अपनी खुली सोच पर नियंत्रण रखने के लिए.. 

मुझे शोभा देता है 
ख़ूबसूरत लगना
स्वादिष्ट भोजन पकाना 
और वह सारी जिम्मेदारियाँ 
अकेले उठाना 
जिन्हें साझा किया जाना चाहिए... 

जब मैं इस दायरे के बाहर सोचती हूँ 
मैं कहीं खप नहीं पाती... 

स्त्री समाज मुझे जलन और हेय की 
मिली-जुली दृष्टि से देखता है... 
और पुरुष समाज 
मुझमें अपने अवसर तलाश करता है... 

मेरी सोच.. मेरी संवेदनाएँ... 
मेरी ही घुटन का सबब बनती हैं... 

मैं छटपटाती हूँ... 
क्या स्वयं की क़ैद से मुक्ति संभव है....? 


#
अपराध बोध
**********

वक़्त बीत जाने पर मिलने वाला प्रेम
नहीं रह पाता उस गुलाब की कली के जैसा 
जिसे बड़े जतन से 
जीवन की बगिया में खाद और पानी के साथ
उगाया गया हो..

ये बात और है कि 
उसमें शिउली की महक होती है 
रात रानी की तरह ही 
वो रात के अंधेरे में 
अपनी भीनी-भीनी ख़ुशबू से पूरी बगिया महकाता है 
लेकिन दिन के उजाले में 
उसे खो जाना होता है 
ज़िम्मेदारियों की पथरीली पगडंडी पर..

एक प्रेमिका 
पति की बाँहों में 
जब प्रेमी की बातें याद कर मुस्कुराती है
उसकी आत्मा को 
शनैः शनैः एक अपराध बोध ग्रस लेता है..

जब कभी उफन जाता है दूध
जल जाती है सब्ज़ी 
हो नहीं पाती बिटिया के कपड़ों पर इस्त्री 
रह जाता है अधूरा उसका होम वर्क 
या छूट जाती है 
सुबह-सवेरे स्कूल की बस

सवालों के कटघरे में केवल प्रेम होता है ...

वक़्त बीत जाने पर 
पूरी होने वाली इच्छाएँ 
केवल और केवल अपराध बोध देती हैं....


#
नौकरी पेशा औरतें 
***************

काफ़ी कुछ कहा जाता है इनके बारे में 
उड़ने की चाह लिए 
पैर घुटनों तक ज़मीन में गड़ाए... 
दोहरी ज़िंदगी जीने वाली ये औरतें 
ईश्वर की बनायी 
एक ऐसी आटोमेटिक मशीन हैं 
जो कभी भी 
सिर्फ़ पैसों के लिए काम नहीं करतीं.. 

ये सुनती हैं पास-पड़ोस की कानाफूसी से लेकर
पति की मीठी झिड़की तक
साथ ही सास के कर्कश ताने भी 
"कौन सा हमारे लिए कमाती हो "
ये बात और है कि 
अगर ये पैसे न कमाएँ.. 
तो सूखी ब्रेड पर कभी बटर न लगे.. 

ये बड़ी - बड़ी पार्टियों में 
पति का स्टेटस सिंबल होती हैं 
अगर अपनी आँखों के नीचे के काले घेरे 
पूरी कुशलता के साथ मेकअप से छुपा सकें ..

सास की भजन मंडली के लिए 
बेहतर नाश्ते के साथ 
बेहतर उपहारों की व्यवस्था कर
ये अपनी सास के गर्व का कारण बनती हैं.. 

सुबह बस पकड़ने की दौड़ लगाते समय 
जो बात इन्हें सबसे ज़्यादा परेशान करती है 
वो यह कि निकलने के पहले गैस का नाॅब बंद किया या नहीं.. 
और वापस लौटते समय 
यह परेशानी रात के खाने, सुबह के नाश्ते से लेकर
बच्चों के होमवर्क तक 
चिंता के एक पूरे ब्रह्माण्ड का सृजन करती है.. 

सुबह से सुबह की इस दौड़ में 
अगर उनकी चेतना को 
पूर्ण रूप से कोई झकझोरता है 
तो वो है सुबह का अलार्म.. 

रात एक चुटकी बजाते निकल जाती है... 
वे इतना थक जाती हैं 
कि यह भी भूल जाती हैं
कि वो क्या वजहें थीं
जिनके लिए वे नौकरी करना चाहती थीं.. 

स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई में 
स्वयं को ही गँवा देना.. 
आप ही बताइए 
ये कहाँ तक उचित है..?


#
अंतिम विदा
*********
पृथ्वी का वह बिंदु 
जहाँ उत्तरी ध्रुव मिलता है दक्षिणी ध्रुव से 
उसी जगह हुई थी
मेरी और तुम्हारी मुलाक़ात.. 

तुमसे बातें करते वक़्त 
मैंने हमेशा यह सोचा
कि मेरे जैसी लड़की को
तुम्हारे जैसे लड़के से 
कभी भी बात नहीं करनी चाहिए.. 
हो सकता है 
कि ठीक यही तुमने भी सोचा हो.. 

तभी तो हम दोनों ही अक्सर 
एक-दूसरे से ये कहते रहे 
कि ऐसी बातें सिर्फ़ तुम्हारे साथ की जा सकती हैं.. 

तुम्हारी बेबाकी मेरी पहली पसंद थी 
हो सकता है 
तुम्हें मेरा अल्हड़पन पसंद रहा हो

हाँ, मैं यह मानती हूँ 
कि प्राथमिकताओं के क्रम में हम-दोनों ही
कभी भी एक दूसरे के लिए सर्वोपरि नहीं रहे

लेकिन इस सच की स्वीकृति ही
हमारे रिश्ते का आधार थी
और हमारे संवाद 
हमारे चमत्कारिक रिश्ते की प्राणवायु.. 

ठीक उसी पल
जिस पल तुमने संवादों के पुल को तोड़ा 
हमारे रिश्ते का अंत तुमने स्वयं चुना...

मुझे अब भी लगता है 
कि प्रत्येक रिश्ता कम से कम 
एक अंतिम विदा का हक़दार अवश्य है..

#
पत्थर 
*****
मैं तुम्हारे नाम पर कविताएँ लिख कर
कुछ इस तरह छोड़ देती हूँ.. 
जिस तरह कोई मंदिर में
बुत के पैरों पर पूजा के फूल रख कर चला जाए..

क्या फ़र्क़ पड़ता है
दोनों पत्थर ही हैं...

#
अपवाद 
*******

मैंने कहा, 
"तुम्हारे होंठ काले हैं...
उफ़्फ़... कितनी सिगरेट फूँकते हो..."

उसने बड़ी बेरूख़ी से जवाब दिया,
"और तुम तो ज़िंदगी फूँकती हो... 

कमाल तो बस इतना है
कि उसके बाद भी इतनी ख़ूबसूरत हो..." 

मैं उसे कैसे समझाती, कि
व्याकरण के नियमों के भी अपने अपवाद होते हैं..

#
अदृश्य डोर 
*********

कई दिनों से देख रही हूँ
घर के पीछे
एक पुराने पेड़ पर
एक नई पतंग अटकी हुई है

हवा की दिशा में
बदलती है कोण और फलक
कभी इस डाल तो कभी उस डाल
उड़ने को बेक़रार
लेकिन उस लगभग अदृश्य डोर से बँधी
जो उस पुराने पेड़ की
डालियों में बेतरह उलझी हुई है

मुझे उस पतंग में अपना अक्स नज़र आता है.. 

नहीं मिलती
तो बस वो अदृश्य डोर...
परिचय

नाम - पूनम सोनछात्रा
शिक्षा - एम.एस.सी.,बी. एड.
व्यवसाय - दिल्ली पब्लिक स्कूल में गणित की शिक्षिका, स्वतंत्र लेखन
रेख़्ता में ग़ज़लें एवं 'अहा ज़िंदगी' सहित अन्य पत्र-पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन

आत्मा की भाषा - मंजुला बिष्ट

मंजुला गृहिणी हैं पर उनका विश्‍वास कविता पर है, भाषा पर है और यह इस हद तक है कि वे इसकी बदौलत इस कठोर दुनिया को चुनौती देने की हिम्‍मत रखती हैं। मंजुला के लिए कविता घरेलू जद्दोजहद भरी जिंदगी में जीवन का कोमल अहसास है। इन कविताओं में उस बौद्धिकता के दर्शन होते हैं जिन्‍हे मंजुला ने दैनिक जीवन की चक्‍की में पिस कर मिटने नहीं दिया है। यह बौद्धिकता उन्‍हें घर-बाहर के सूत्रों को जोड़ने, उसे नये सिरे से देखने-समझने की ताकत देती है। 

मंजुला बिष्ट की कविताएं

1)

निहत्थे का हथियार

कठोर होती इस दुनिया में 
अभी भी एक कलम इतनी उद्दात है
कि वह आपकी मुलाक़ात 
कागज़ पर एक कविता से करा देती है

जहाँ धीरे-धीरे
कविता की देह भरने लगती है
उसके भीतर ही कहीं
आप बार-बार स्वयं से स्पर्शित होते रहते हैं

अब जबकि मेरी ही तरह 
आप भी अपनी आत्मा की भाषा को लगभग भुला चुके हैं
तब यह स्पर्श 
कितना मायने रखता है न !

कविता की उमगती देह के परे
मुझे कोई एक कुंद हथियार तक नहीं दिखता है
जिसे थामकर
मैं अपने हत्यारों का सामना कर सकूँ
उन्हें अडिग-चुनौती दे सकूँ

कविता 
मेरे जैसे निहत्थे के लिए
कुछ अधिक साँसों को बचा लेने का कुशलतम हथियार है ;
बाक़ी तो..जिंदगी हर पल प्रारम्भ है ही।

2)
मृत्यु से लौटती हव्वाएँ

वह जितनी बार मुट्ठी कसकर
मरने के तरीक़े सोचती
उतनी ही बार 
एक ज़रूरी काम पुकार लेता उन्‍हें

दुःखों के बीज नाभि से निकाल फेंकती रही वह

उसे याद आती
वह एक हव्वा
जो निकली तो थी
रेल की पटरी पर लेटने को 
लेक़िन साँझ होते ही लौट आयी थी

दबे पाँव पालने के पास खड़ी हो ख़ुद को ललचाती 
"छाती से दूध उतर रहा...सूखने तक ठहर जाऊँ क्या?"

दहलीज़ के पार भले ही किसी ने 
उसे पटरी की तरफ जाते देख शक़ किया हो
लेक़िन दहलीज़ ने कभी संलग्न दीवारों तक को नही बताया
कि अमूनन हव्वाओं की छातियाँ कभी नहीं सूखती 

हव्वाओं की दूध उतरती छाती
सभी दुःख झेल जाने की असीम क्षमता रखती है

जो हव्वाएँ सन्तति को ले कुएँ में उतर गई
या जो पटरी पर पायी गयी कई टुकड़ों में ..
उन्होंने जरूर दुःखों को दिल पे ले लिया होगा
नाभि पर नहीं!

3)

भोथरा-सुख

क्यों नहीं भोथरे हो जाते हैं
ये हथियार,बारूद व तीखें खंजर
जैसे हो गई है भोथरी
धूलभरे भकार में पड़ी हुई 
मेरी आमा की पसन्दीदा हँसिया!

पूछने पर मुस्काती आमा ने बताया था
कि अब कोई चेली-ब्वारी जंगल नहीं जाती 
एलपीजी घर-घर जो पहुंच गई है।

क्या अभी तक हम नहीं पहुंचा सकें हैं
रसद व सभी जरूरी चीजें
जो एक आदमी के जिंदा बने रहने को नितांत ज़रूरी हैं
जो ये हथियार अपने पैनेपन के लिए
बस्तियों पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठे हैं।

क्यों नहीं 
कोई आमा के पास बैठकर
अपने हथियार चलाने के कौशल को
भूलकर सुस्ताता है कुछ देर
और समझ लेता है 
एक हँसिया के भोथरे हो जाने के पीछे का निस्सीम-सुख

क्या हथियार थामे हाथ नहीं जानते हैं सच
कि हत्थे पर से नहीं मिटती है रक्तबीज-छाप
हथियारे की!

हथियारों से टपकती नफ़रते
चूस लेती है सारा रक्त
राष्ट्र की रक्तवाहिनियों से;
हथियार अगर सन्तुष्ट होकर लुढ़क भी जाएं
एक खाये-अघाये जोंक की मानिंद
तो रक्तवाहिनियों में निर्वात भर जाता है

येन-केन प्रकारेण
अपने हथियारों के बाजार बढ़ाते देशों के लिए
आख़िर यह समझना इतना कठिन क्यों है कि
दुनिया के सारे हथियारों की अंतिम जगह
मेरी आमा का धूलभरा भकार है।

4)

 बगैर 'सुसाइड-नोट'

यदि मिली ख़बर के मुताबिक़
उसने कलाई नहीं काटी
चलती रेल के सामने नहीं कूदा
कनपटी पर गोली नहीं दागी
पेट मे छूरा नहीं घोंपा
खूब ऊँचाई से नहीं कूदा
फंदे से नहीं झूला
आग में पूरा जला नहीं

बस..
उसने चुपचाप निगल ली कुछ 
ज्यादा स्लीपिंग पिल्स
या खा लिया ..अन्य को भी खिला दिया
कुछ विषाक्त खाद्य-पदार्थ
बगैर छोड़े कोई भी'सुसाइड नोट'
नहीं छोड़ गया कोई जी का जंजाल
चुन ली थी
एक शांत गरिमामयी असमय मौत

तो इसका अर्थ क्या यह था कि
वह ज्यादा डरपोक था
पूर्व तरीकों से मरे
आत्महत्या करने वालों से !

क्या 
जो जिंदा विचरते हैं अभी तक
वे सचमुच
बहुत ज्यादा खुश हैं
स्वयं से व इस संसार से!

5)

 रोना निषेध है

लड़के सुनते रहे अपने पिता से
"लड़कियों की तरह क्या रोता है!"
लड़कियां भी सुनती रही अपनी माँ से
"यह लड़कियों की तरह रोना बन्द करों!"

रोना
एक तरह की सामान्य व नैसर्गिक क्रिया न होकर
स्त्रियोचित कमजोरी व अवगुण सिद्ध किया गया

लड़के को पुरूष बने रहने के लिए
कठोर बने रहना था
और लड़की को पुरुष जैसा बनने के लिए
अधिक कठोर होना था

अब तुम अफसोस करते हो कि
यह दुनिया इतनी कठोर क्यों होती जा रही है!

जबकि
सबसे आसान था
मद्धिम रोकर कोमल बने रहना।

6)

यथोचित बहन

साथिन ने बतायें थे
कुछेक किस्से
कि कैसे वह भाई की प्रेमिकाओं तक
छिटपुट-पुरचियाँ पहुंचाती रही थी
स्कूल-कॉलेज के दिनों में

वह अब भी पहचानती है
लगभग उन सभी प्रेमिकाओं के नाम-पतें
व राज़ कुछ उनके मध्य के

ये सब बताते हुए 
पहले तो लम्बी शरारती मुस्कान थिरकी
फ़िर लगा
जैसे गझिन उदासी कांधों पर उतरी आई है 

पूछा तो 
पल्लू झाड़कर उठ खड़ी हुई

अब इतनी भुलक्कड़ मैं भी नहीं 
कि याद न रख सकूँ
उसकी वो दीन-हीन कंपकँपी
जो नैतिक शास्त्र की किताब के बीच
मिले एक खुशबुदार गुलाबी ख़त से छूटी थी

जिसे सिर्फ एक बार ही देखा..
आधा-अधूरा पढ़ भी लिया था शायद
फ़िर तिरोहित किया,
ऐसा उसकी एक साथिन ने फुसफुसाया था

ऐसे अवसरों पर उसे 
भाई याद आ जाता था
"तू अगर गलत नहीं तो...पूरी दुनिया से लड़ लूँगा!"

उस गर्वोक्ति को दुहराते हुए
उसने हर बार 
प्रेम को बहुत गलत समझा
व दुनिया को प्रेम-युद्ध की मुफीद जगह!

लेक़िन भाई की प्रेमिकाओं के पते बदस्तूर याद रहें!

7)

मुहावरे की व्याख्या
एक वृक्ष 
जिसकी देह पर
कई जोड़ी उम्रदराज़ आँखें उग आयी थी
मैंने उसकी वसीयत के बाबत पूछा--

उसने पत्तियों को..वस्त्र व संदेशवाहक कहा
डालियों को..नीड़,झोपड़ी व झूलों के लिए चुन लिया
फूलों को..श्रद्धा,प्रेम,अभिनन्दन व विदा हेतु सहेजा
जड़ों को... जीवन में सम्भावना व विश्वास पुकारा 

फ़िर अंत में 
तने को..भविष्य 
व बीज को ..सगर्व उत्तराधिकारी घोषित किया

उसने मेरे सम्मुख
पुरखों के समय से लिखी यह वसीयत पढ़ी
फ़िर.. और अधिक झुककर खड़ा हो गया

तभी मनुष्य आया
उसने तने को पूरा काट डाला!

कुछ दिनों के बाद
ठूँठ पर कोपलें निकली
जिसे मनुष्य की बकरी ने चरा

और वह मनुष्य ठूँठ पर बैठ
अपनी सन्तति को
"अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना" मुहावरे की व्याख्या कर रहा था!

8)

मनचाहा इतिहास 

हर शहर में 
कुछ जगहें जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था

वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख भरी खेती
जिन्हें काटते हुए अँगुलियों में खरोंच कुछ कम होती

वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना 
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती

वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान 
किसी आतातायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नही
मात्र उसका अपना खोया 'पता' होता।
वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से

जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नही बताता कि;
उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं

लेक़िन ..
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना 
उसे अडोल व दीर्घायु रखता आया है

शहर की कुछ वैसी ही जगहें
अभी तक 'वर्तमान' घोषित हैं
मगर कब तक...!

9)

 उम्मीद बाक़ी है

होश सम्भालते ही 
धरा के हर हिस्से की बाबत
मुझे यही ताक़ीद किया गया कि
"हर रोज़ सूरज के डूबने का अर्थ--घर लौट आना है
उसके बाद किसी पर-पुरूष का कोई भरोसा ही नहीं है!"

अब आप समझ सकते हैं कि
मेरी ज़ात
दुनिया पर भरोसा करते रहने के लिए
सूरज के उगने का कितना इंतजार करती है!

और क्या आप यह समझ सकते हैं कि
हमारे लिए अँधेरें के बाद 
किसी पर किया जाने वाला भरोसा
कितनी दुर्लभ घटना है!

अगर मैं यह कहूँ कि
मेरी ज़ात सिर्फ व सिर्फ अँधेरे से डरती है
तो उन तमाम अव्यक्त थरथराहटें का क्या?

जो उनके भीतर 
उजाले को देखकर भी पैदा होता है
घर के परदों की घनी मोटाई के पीछे
वे अपने हिस्से के अँधेरें को रोज़ गाढ़ा करती हैं।

अँधेरे-उजालों में अपने भय को रोज़
घटाती-बढ़ाती मेरी हमजातों 
की कमर कसते रहने की सौ जिद को
आप भले ही ऐतिहासिक पल का दर्जा देने लगे हों

लेक़िन 
मैं अभी भी उसे इतिहास पुकारने का पाप नहीं करना चाहती।

10)

कपड़े व चरित्र

उनके पास कपड़े थे
किसी के पास ढेर सारे
तो किसी के पास बनिस्पत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
कुछ लोगों ने उन्हें नग्न कहा

और जिन लोगों ने नग्न कहा
उनके पास भी खूब कपड़े थे
तो किसी के पास बनिस्पत कुछ कम
जिन्हें पहनकर निकलने पर
उन्हें कोई नग्न नहीं कह सकता था

फिर हुआ यह कि
कपड़ों व चरित्र के मध्य नैतिक जंग छिड़ गई
यह ज़ुबानी जंग धीरे-धीरे उनकी देह-आत्मा पर उतर आई...

अब 
हालात यह है कि
पहले वे पायी जाती थीं
अधमरी या पूरी तरह गला घोंटी हुई
रेल-पटरियों पर कटी-फटी 
गीली सड़ी-गली लाश के रूप में

अब वे बरामद होने लगीं हैं
अधजली...या पूरी तरह जिंदा भुने हुए गोश्त के रूप में
जिनकी चिरमिरायी गन्ध से मानसिक-विचलन तो है
कि हमारी गेंद किस पाले में होनी चाहिए

लेकिन सबकी पीठ
धरा पर बढ़ते जा रहे
इन जिंदा सुलगते श्मशानों की तरफ़ है
हमारी व्यक्तिगत-प्रतिबद्धताएं मुँह बाये खड़ी है..!

प्रतीक्षा करें!
शीघ्र ही...हम सब 
फ़िर अगली तीख़ी नैतिक-ज़ुबानी जंग हेतु लामबंद होंगे!        

            
          

परिचय

गृहणी,स्वतंत्र -लेखन
कविता व कहानी लेखन में रुचि
उदयपुर (राजस्थान)में निवास

रचनाएँ -
हंस ,अहा! जिंदगी,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही व स्वर्णवाणी पत्रिका में, दैनिक-भास्कर,राजस्थान-पत्रिका,सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र में व समालोचन ब्लॉग,हस्ताक्षर वेब-पत्रिका ,वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा ,पोशम्पा ,तीखर पेज़ व बिजूका ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित हैं।

रविवार, 16 अगस्त 2020

सुदर्शन शर्मा की कविताएं

सुदर्शन शर्मा की कविताओं में भाव पक्ष से ज्‍यादा उनका ज्ञान पक्ष प्रबल दिखता है। अपने ज्ञान की बदौलत वे सफलता से परकाया प्रवेश करती हैं और उसे जान-समझ कर उसके उजले-काले पक्ष को अभिव्‍यक्‍त करने की कोशिश करती हैं। अपनी इस क्षमता के बल पर परंपरा की रूढियों से टक्‍कर लेती उसे चुनौती देती दिखती हैं वे।

सुदर्शन शर्मा की कविताएं 


डेटाबेस
______________
आंकड़ों में शुमार नहीं होतीं
ख़ुदक़ुशी कर चुकीं
बहुत सी औरतें

औरतें
जो ख़ुद को मार कर
सजा देती हैं बिस्तर पर
पूरे सोलह सुहाग चिन्हों के साथ

औरतें
जो जला कर मार डालती हैं ख़ुद को
रसोईघर में
और बेआवाज़ पकाती रहती हैं
सबकी फरमाइश के पकवान

औरतें
जो लांघ गई थीं कभी
खींची गई रेखाएँ सभी
प्रेम के अतिरेक में ....
और डूब मरी थीं
रवायतों के चुल्लु भर पानी में
अब भी तैरती रहती हैं
घूरती आँखों के समंदर में
सुबह से शाम तक

मुर्दा रूहों पर
तेजाब से झुलसे
चेहरे चढ़ाए औरतें

कीमत की तख्ती थामे
मण्डी में खड़ी
कलबूत औरतें

बहुत-बहुत सारी
आत्महत्यारिन औरतें
जिनकी कभी कोई गणना नहीं हुई
मुकदमे दर्ज हुए
पर सुनवाई नहीं हुई
सज़ा हुई
पर रिहाई नहीं हुई

शायद रेल की पटरी पर लेटी,
दरिया के किनारे खड़ी
या
माचिस घिसने को तैयार
औरत के पास है
इनका डेटाबेस।


देह के अनुबंधित श्रमिक
___________________

प्रेम की ऋतु घटने से पूर्व ही
हम में से अधिकांश
मन के ऊष्ण महाद्वीप तज कर
देह के ध्रुवों की ओर कूच कर चुके होते हैं

हम,
देह के अनुबंधित श्रमिक,
मन तोड़ मेहनत कर उगाते हैं
उम्र के चंद बेस्वाद बरस

बरसों बरस में
हम इतने दूर निकल जाते हैं
कि राह में ही खो जाती हैं
सही पतों पर भेजी
मन की आधी चिठ्ठियां

बीच के सात समंदर लांघ
जब प्रेम के घटने का प्रथम संवाद लिये
पहुँचती है
कोई पाती
तो हम उसे यों देखते हैं
जैसे तेहरवीं के बाद मिली हो
किसी बेहद अज़ीज़ की वफ़ात की ख़बर


स्त्री के भीतर की कुंडी
__________________

एक स्त्री ने भीतर से कुंडी लगाई
और भूल गयी
खोलने की विधि
या कि कुंडी के पार ही जनमी थी
एक स्त्री

उस स्त्री ने केवल कोलाहल सुना
देखा नहीं
कुछ भी,

नाक की सीध चलती रही
जैसे कि घोड़ाचश्म पहने जनमी थी वो स्त्री
जैसे कोई पुरुष जनमा था
कवच,कुंडल पहने

दस्तकों ने बेचैन किया
तो सांकल से उलझ पड़ी वो स्त्री

इस उलझन पर बड़ी गोष्ठियां होती रहीं
पोप-पादरी
क़ाज़ी -इमाम
से लेकर
आचार्य-पुरोहित
ग्रह नक्षत्र
सब एकत्रित हुए

उन्होंने कहा
करने को तो कुछ भी कर सकती है
किंतु सांकल से नहीं उलझ सकती
 वो‌ स्त्री

उस स्त्री के भीतर की सांकल पर
संस्कृतियों के मान टिके हैं
और बंद कपाट के सहारे खड़ा है
गर्वीला इतिहास

उन्होंने कहा
ईश्वर को ना पुकारे वो स्त्री
वो नहीं आयेगा
क्योंकि एक स्त्री के भीतर की बंद कुंडी
'धर्म की हानि' नहीं है

इस समय
मैं भीतर हूँ उस स्त्री के
और जंग खायी कुंडी पर डाल रही हूँ
हौसले का तेल,

मैं सिखा रही हूँ
एक स्त्री को भीतर की कुंडियां खोलना

क्या आपको आता है
किसी स्त्री के भीतर जा कर
बंद कुंडियां खोलने का हुनर?


जूलियट की पाती
______________

यह प्रेम का संक्रमण काल है रोमियो
इस समय मुहावरों में तुम्हारी उपस्थिति घातक हो सकती है
हम दोनों के लिये

चौतरफा घात सहने को बाध्य है
शब्दकोष के खूंटे से बंधा असहाय प्रेम

प्रेम के पर्यायवाचियों में से
घड़ा,बालकनी,
दरिया,सहरा
जैसे कतिपय शब्द
निरस्त कर दिये गये हैं

वे प्रेम को आत्मघाती हमलावर कहते हैं
और सूंघते रहते हैं इसे
संस्कृति के सार्वजनिक स्थानों पर

अर्थों के लिये शब्द ढूंढते खंगाल डालते है सारा शब्दकोष
और बना देते हैं नाम को मुहावरा
मुहावरे को नाम

मैं भी खंगाल रही हूँ इन दिनों
अलमारियां, आले,गमले और गुलदान

वे मेरे हाथ की किताब,
मेरे पालतू की नस्ल
और मेरे अंतःवस्त्रों की राष्ट्रीयता से तय करेंगे
कि मुझे तुमसे प्रेम करना है
या किसी और से

मैं बालकनी का दरवाज़ा
स्थायी रूप से बंद करने की भी सोच रही हूँ
प्रेम, जैसा कि तुम्हें ज्ञात है,
शातिर होता है
शब्दकोष का खूंटा तुड़ा भाग लेता है
और चढ़ बैठता है
प्रेमिकाओं के कमरों की बालकनियों में

यह मुहावरों मे से मेरा,तुम्हारा और बालकनी का नाम निकाल लेने की कवायद भर है

वैसे मैं जानती हूँ
वे प्रेम से डरते हैं
बेहद


गोपनीय सूचनाएँ
_______________
मुझ पर आरोप है
कि मैंने सार्वजनिक की हैं
ईश्वर से संबंधित
कुछ अति संवेदनशील
और गोपनीय सूचनाएँ

मसलन मैंने लोगों को इत्तला दी
कि अर्से से
किसी जानलेवा रोग से ग्रस्त है ईश्वर,
और अपनी आख़िरी साँस से पहले चाहता है
तमाम इबादतगाहों को
तालीमी इदारों में तब्दील करना,
जहाँ मुहैया हो
सबक आदमियत का

जाने से पहले
ईश्वर बदलना चाहता है
परिभाषा
जायज और नाजायज की,
और करना चाहता है
अदला बदली
कुछ तयशुदा किरदारों की

ईश्वर घिरा है अपने नुमाइंदों से
जो चाहते हैं
शीघ्र मर जाए ईश्वर
इस लिए बंद कर दिए गए हैं
सभी रास्ते 'उसके' घर तक,
तुम्हारे साथ साथ
वैद्यों हकीमों के लिए भी

संभव है
आरोपों के चलते
जलावतन कर दिया जाऊँ मैं,
और सिद्ध होने पर
वंचित कर दिया जाऊँ
अपने नाम और उपनाम से भी

दोस्तो!
मेरी कलम से रखना तुम
पहचान मेरी



यदि
________________
किसी टूटी हुई स्त्री ने आकर
तुम्हारे कंधे पर सर रख दिया हो कभी चुपचाप 
तो बेहिचक बताना 
कि संसार के सबसे भरोसेमंद पुरुष हो तुम 

यदि कोई रोता हुआ बच्चा 
मुस्कुरा दिया हो अचानक 
तुम्हें देख कर कभी 
तो कह देना 
कि संसार का सब से निश्छल चेहरा तुम्हारा है 

यदि कोई परास्त पुरुष 
तुम्हारे पास आकर टूट गया हो 
और बह गया हो 
फूटफूट कर 
तो कहना 
कि संसार के सबसे गहरे मित्र होने के पात्र हो तुम 

यदि तुम्हें नहीं सूझे कभी भी, कोई भी सवाल उसके लिए 
जिसके प्रेम मे हो तुम 
तो समझ लेना 
कि संसार के सबसे सच्चे प्रेमी हो तुम

यदि अपनी भूख से अधिक एक दाना बेचैन कर दे तुम्हें 
और तुम निकल पड़ो उसके असली हकदार को ढूंढने 
और ढूंढे बिना लौट न पाओ वापस थाली पर 
तो मनुष्यों में सर्वाधिक मनुष्य कह देना अपने आप को
बेहिचक


स्त्री का स्त्री होना
_________________

सभ्यताओं के विकास क्रम में
बहुत सी बातें गोपनीय रखी गयीं
स्त्री का स्त्री होना उनमें से एक बात थी

स्त्री को स्त्री बनाती सभी बातों
और घटनाओं को ढांपने के लिए
स्त्री के स्त्री होने के संदर्भ में कुछ तथ्य गढ़े गए
और उन्हें स्त्री की स्त्री होने पर अबरी की तरह चढ़ा दिया गया

ऐसा नहीं था कि स्त्री को
स्त्री बनाते तथ्य विद्रूप या भौंडे थे
वे सभी घटनाएं सुंदर और दिव्यता से भरी थीं

जाने कौन लोग थे जो सुंदरता और दिव्यता से डरते थे
निश्चय ही वे बहुत कुरूप और ईर्ष्यालु रहे होंगे


झुंड में आदमी
________________

आजकल मुझे जो भी आदमी मिलता है,
झुंड में मिलता है

कवि आदमी,
पागल आदमी,
अभियंता आदमी,
दुकानदार आदमी,
इनके झुंड के झुंड मुझे घेर लेते हैं

मैं किसी भी प्रकार के आदमी से मिलना चाहूं ,
आदमी अकेले में मिलने से मना कर देता है,
साफ़

मुझे बहुत से काम हैं
अकेले आदमी से

अकेले कवि से मुझे लिखवानी है एक घटनाजयी कविता,
जिसे हर घटना के बाद
बिना लय और राग बदले
सस्वर पढ़ा जा सके

पागल आदमी यदि मिले अकेले में
तो एक घुटने पर बैठ कर,
हाथ में ब्लू लिलि का गुच्छा थाम
कहना चाहूंगी,
कि इस विकट समय में
जब राजा का समूचा तंत्र
परिभाषाओं को बदलने की गुप्त नाइट ड्यूटी करके
इतनी बोझिल आंखें लिए काम पर पहुंचता है,
कि हत्या को लिख देता है सेवा
और बलात्कार दर्ज कर देता है 'प्रशासन को धन्यवाद' के खाने में,
क्या वो तैयार है
मुझसे निस्वार्थ प्रेम करने का जोखिम उठाने को?

प्रेम के मामले में पागल आदमी
मेरी एकमात्र उम्मीद है अब

मगर समस्या ये है श्रीमान
कि आदमी अब अकेले में मिलता ही कहां है?

आदमी या तो झुंड में मिल रहा है
या आदमी के अंदर झुंड मिल रहा है

बैरकों के नीचे कहीं
आदमी को झुंड बनाने के कारख़ाने जारी हैं

'आदमी को झुंड में कौन तब्दील कर रहा है?'
इस बात पर जब जब तहकीक़ात की बात चलती है
आदमियों का एक नया झुंड सामने आ खड़ा होता है
और झुंड में आदमी
झंडा, झुनझुना या झकझक
कुछ भी हो सकता है

पढ़ते पढ़ते आपके मन में मुझसे मिलने की इच्छा जो इच्छा जागी है
वो ख़ासी दिलचस्प है
मैं तो ख़ैर मुद्दत से आपसे मिलने का मुंतज़िर हूँ

तो चलिए
पहले झुंड से आदमी बनने की ओर बढ़ते हैं
शायर ने भी कहा है कहीं
'ज़िंदा रहने के लिए...
इक मुलाक़त ज़रुरी है.


पते
__________

इस समय
जब सबसे ज़रूरी है पते एकत्रित करना
हम भाषा पर खर्च हो रहे हैं
रोज़ाना
ज़रा ज़रा

भाषाएँ उद्वाचित कर ही ली जाती हैं
सभ्यता के किसी मोड़ पर
संप्रेषण के लिए ज़्यादा ज़रूरी होते हैं
पते

पते के अभाव में
लिफाफों या डायरियों में
उम्र बिता देती हैं
हाफ विडो चिठ्ठियाँ
या पहुँच जाती हैं
गलत लेटर बॉक्स में

कभी
कुछ सही लोग खोल लेते हैं गलत लिफाफे
और बांचते रहते हैं झूठ
ता उम्र
फिर एक दिन
गल कर झड़ जाती हैं
उनकी ज़ुबानें

कभी
कुछ गलत लोगों के हाथों
बंधक हो रहती हैं सही चिठ्ठियां
और फिरौती की शून्यता में
हलाक़ कर दी जाती हैं
घच्च से

चिठ्ठियों की भाषा और मजमून
सदा से तय है
पते खोजने की यात्रा पर भेजे गये
हम भाषा खोजने लगे
और पते खो बैठे

सोचो
कि जब भाषा नहीं थी
तब भी लिखी जाती थीं
चिठ्ठियाँ
और पहुँचती थीं सटीक जगह
क्योंकि तब पते
पता रहते थे।


प्रार्थनाओं से बचना
__________________

दुखों में बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना

प्रार्थना रत हथेलियों के बीच से बह जाता है
एक हिस्सा जुझारूपन
एक हिस्सा जिजीविषा

प्रार्थनाएं प्रमेय हैं
जो सिद्ध करती हैं
कि तुम्हारे स्व की परिधि से बाहर स्थित है
सत्ता का अंतिम केंद्र

प्रार्थनाएं तुम्हें कातर बनाती हैं
और तुम खो बैठते हो
जन्मसिद्ध युयुत्सा,
भूल बैठते हो
गर्भ की अंधकोठी की
मूक प्रतीक्षा,
विस्मृत कर जाते हो
गर्भ भेद नीति
चरण प्रति चरण

प्रार्थनाएं रोक लेती हैं
व्यूह द्वार पर तुम्हारा रथ
और तुम चाहने लगते हो
कोई और लड़े तुम्हारी ओर से

याद रखो
तुम्हारे दुख केवल तुम्हारे हैं
आदि से अंत तक

याद रखो
जिजीविषा के समानुपातिक होते हैं दुख,

हमेशा
याद रखो
प्रार्थनाएं तीसरा चर है
यह गड़बड़ा देंगी
दुख और जिजीविषा के समस्त समीकरण,

प्रार्थनाएं
खींच लेंगी पौरुष का समस्त ओज,
एक दिन
मान लोगे तुम स्वयं को
नपुंसक,
निर्बल तुम
भेंट कर दोगे
अपना मस्तक
एक दिन
दुख को

इसीलिए
दुखों में
बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना
हमेशा



परिचय

*जन्म*- 20 जून 1969
मूल रूप से पिंड मलौट, ज़िला मुक्तसर,पंजाब से।
फिलहाल श्रीगंगानगर (राजस्थान) में निवास
*शिक्षा* -
अंग्रेज़ी, हिंदी और शिक्षा में स्नातकोत्तर।

 *वृत्ति* -अध्यापन 

*पुस्तक* - 'तीसरी कविता की अनुमति नहीं' पहला और एकमात्र काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन , जयपुर की 'दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना - 2018 के अंतर्गत प्रकाशित ।

हिंदी पंजाबी की  कुछ पत्रिकाओं, कुछ सांझा संकलनों और ब्लाग्स पर  कुछ रचनाएं प्रकाशित।

बौद्धिक माहौल और नशा मुक्ति केंद्रों की यातनाएं - सतीश छिम्पा

डायरी - सतीश छिम्पा

किताब का यह पन्ना - अस्त व्यस्त, बिखरे स्याही के धब्बों  वाला, जाने कैसे बेतरतीबी पाले बैठा है...

........   न  एथेंस या स्पार्टा,  दिल्ली या हल्दीघाटी या खानवा का मैदान या कोई सा भी हो 'पन्ना' - इतिहास बीमारियों को ढोता नहीं है। इतिहास की तिलिस्मी दुनिया या गूंजळक या भूलभुलैया या आकर्षण या जो भी हो, मुझे खींचता है - वियना नही देखा कभी मगर स्टीफ़न स्वाइग से साक्षात्कार कर रहा होता हूँ, मैं, सतीश या शेखर, क्या कुछ फर्क पड़ता है ?... 

.......शराबी, लंपट, घमंडी, बदतमीज और भी जाने कितने ही अलंकार है जिसके हिस्से.... 

     -- अकेला रहना पसंद है जिसे / निज बोल नही बोलता तो धमकाया जरूर जाता है, खुद ही के अंतर से,   उफ़्फ़, सच में कैसा बावळी लोल है...

 पन्ना -१

 'माहे मीर'' का यह कथन चर्चित है, " आजकल जो लोग लिख रहे हैं उन सबमें तुम सबसे ज्यादा योग्य और अपने आप में बेहतरीन ग़ज़लगो हो। यह वे लोग भी जानते हैं जो तुम्हे मिटा देना चाहते हैं। मगर अफ़सोस कि तुम नहीं जानते और जिस दिन जानोगे, अदब में कयामत आ जाएगी।"

पन्ना-२

अकेलेपन का शिकार अकेला बैठा हूँ। अब तो इस अकेलेपन को पसन्द भी करता हूँ। लोक में ऐसे आदमी को इक्कलखोर कहा जाता है, शायद मैं इक्कलखोर हूँ। कारण क्या हो सकता है इसके पीछे- यह कोई मायने नही रखता है। मेरी सपनो की बहुत ही ख़ूबसूरत दुनिया है।
एक ऐसी दुनिया जहां किसी का कोई दखल न हो। किसी का किसी से कोई वैर विरोध न हो, कोई अन्याय, शोषण और नफरत न हो, जहां हर ओर प्यार, मोहब्बत और सम्मान की भावना हो। योग्यता का सम्मान हो। ख़ूबसूरती को सम्मान की दृष्टि से देखा जाए। कोई गरीब न हो, कोई इज्जत और कोई बेइज्जत न हो।
मुझे ये सब सोचना, देखना अच्छा लगता है। मुझे पेड़ों, पहाड़ों, नदियों, झरनो और सागर का असीम विस्तार, हिरण, गाय, बच्छे, शेर, मोर, कोयल के सपने देखना बहुत भाता है। ख़ूबसूरती और प्रेम के यथार्थ और आदर्श रूप को देखना अच्छा लगता है।
उस लड़की को चूमते निकल जाना अंतिम छोर तक....  बरसात के मौसम और फूलों का खिलना, कोपलों का दमकना और तितलियाँ, तारे और धरती, मेरे सपनो के केंद्र में रहते हैं।
सपनो में मैं उड़ता हूँ, समुद्र में तैरता हूँ, दौड़ता हूँ, चलता हूँ, टहलता हूँ...  फ़िल्म देखता हूँ, गाने गाता हूँ, प्यार करता हूँ... . लोक रंग के किसी रंगीन कार्यक्रम मे जीवन के उत्सव को मनाता हुआ मैं रेड वाइन के पेग लगाता हूँ। महफिलें सजाता हूँ। जहां होड़ आगे निकलकर धन कमाने की नहीं हो बल्कि अपने कम्यूनों को   मजबूत बनाने का सपना हो।
उड़ता हुआ मैं तारों को छूकर धरती से मिला देता हूँ.....
एक हजार उधार, पव्वा एक और फिर सड़क पर- सुबह पता लगा- बेवड़ा गिर गया था....

पन्ना-३

दिल करता है आग लगा दूं। नेस्तोनाबूत कर दूं, मिटा दूं इस वहशी समाज को...  उफ़्फ़ ये हकीकत। आप जितने ज्यादा सीधे सरल होते हैं उतनी ज्यादा आपकी जड़ें काटी जाती हैं और आर्थिक तौर पर जितने मजबूत होंगे- उतना ही आपका सम्मान होगा। कुकर्म तक भुला दिया जाता है।
सरकारी अधिकारी या उच्चाधिकारी हैं तो आप आलोचकों की नज़र में नाजिम हिकमत या नेरुदा या निराला या दुष्यंत होंगे।
किसी स्थापित और चर्चित लेखक की जात के हैं तो एक ही दिन में आपकी किताबों का मूल्यांकन हो जाता है।

पन्ना :- ४

विद्रोह मेरे भीतर ज्वालामुखी के लावा सा दहकता है। दिन खतरनाक हैं, मायकोव्स्की के अंतिम दिन या हावर्ड फ़ास्ट के शहीदनामा के सजायाफ्ता मजदूर या द इडियट का निकोलायविच .. बेचैन सा। 
लेखन में कुछ स्थापित नामों से असहमति नहीं ... बल्कि घनघोर नफरत करता हूं।

पन्ना-५

यह दुनिया दगा, कपट और छल से भरी हुई है। कपट से भरे कपटी लोग और साथ जहर से भी भरे। उनमें किसी भी तरह की प्रतिभा नहीं है। वे पूंजी और मिडिया के कारण मुख्य धारा में बने हुए हैं। अमानुष विचारों को ढोते मुर्दा लोग।

पन्ना-६

.....''लड़ाई मत किया करो यार-- कभी देखा है किसी को  बोलते हुए या किसी को सुना है- प्रतिरोध में खुलेआम बोलते हुए ?''

एक दिन चला जाऊंगा कहानियों पर सवार होकर कल्पनाओं से दूर बहुत दूर.......तब-मत खोजना उस भूख से भयभीत, जीवन के संक्रमण से डरे हुए, पीड़ाओं और पनियाए लाल आँखों वाले लड़के को

पूरे दिन आंधियां चलती रहीं और बादल जिन्हें बरसना था मरुधरा और मैदान और घग्घर नदी के इस बहुत सुंदर और रमणीय और कामनाओ को जगा देने वाली सबसे प्यारी धरती, धरती के इस बहुत प्यारे हिस्से, जिसको हम कहते हैं नखलिस्तान -- बरसना था और झूमना था। नहाना था शेखर को- नहीं, मेरा नाम ही शेखर है- बावळी टाट..... क्या हुआ था उस दिन या उस समय या उस जगह जहाँ कभी कुछ समझ हीं नही आता.... पता लगा

-- वो जो सदियों की गुलामी तोड़ने, अन्याय और ज़ुल्म का मुंह मोड़ने आदि का का नारा ललकारा स्टाइल में फैंकते, लाल टोपी और लाल जैकेट आदि के फैशन को मार्क्सवाद या कम्युनिष्ट की पहचान कहने वाले जब पुरस्कार के लिए किसी दल्ले के सामने कोड कोड में कोड्डे होकर, उफ़्फ़...

पन्ना- ७

तुम फ़िक्र मत करना मेरे शहर

मैं नहीं लौटूंगा, नहीं लौटूंगा तेरी जगमगाती दुनियां में

नहीं आऊंगा तेरे प्यार के बाज़ार में सजी

पीड़ाओं की दुकानों पर

मैं इस बात से फिक्रज़दा नहीं कि मेरी याद की परछाइयों के साथ कोई चलेगा कि नहीं

या कोई चमकते जुगनुओं से पूछेगा मेरा पता


पर मैं सोचता हूँ

हाँ, मैं सोचता हूँ

ढलते दिन जब मैं विदा लूँगा तेरी गली में उगे सूखे बरगद से तब- क्या वो विदाई के इस मुश्किल वक्त में

मुझे ख़ुद की बांथ भरने देगा

क्या वो

दूर होते मेरे साये को लगातार खड़ा देखेगा

चांदनी पर सवार होकर

क्या उसकी नज़रें आएँगी मेरी पैड़ सहलाने

नहीं- मेरे शहर

मैं अब नहीं लौटूंगा तुम भी किसी भावुकता से भरे

अकेलेपन को ढोते बच्चे में मत खोजना

मेरे बचपन के उदासी भरी आंखों और चेहरे के अक्स

पन्ना- ९

उम्मीदें जहाँ हार जाती हैं..... ज़िंदगी वहाँ मौत बन कर हमे बाँहों में कसती...

सल्फास मिली नहीं, फंदा डाला नहीं, स्प्रे ताले में है-- और मैं, मैं डर गया, हिम्मत नहीं पड़ी---

पन्ना- १०

कितनी बार इन बेतरतीब कागज़ो और डायरियों को तरतीब देकर लिखा, सहेजा, बचाव किया और फिर हर बार फ़ंटेसी, कहानी या जीवनी या जो भी हो, ढालने की कोशिश की, मगर नहीं..... उफ्फ, यह बेचैनी, जैसे कील दिया गया हो उन्हें या किसी तिलिस्म में बांधा गया हो।
किसी कवि का किस्सा लोग हवाओं की सरसराहट में तलाशते हैं। कयास लगाते - वो एक  बीमार कवि था। एक  शराबी  जिसने खुद को खत्म कर लिया।
मोहब्बत या बेरोजगारी या क्रांति या उपेक्षा, दलगत राजनीति करते लेखक, गांजा, पोस्त या शराब या जो भी हो, वही कारण था उसका, उसकी बर्बादी ...

 पन्ना- ११

एक बीमारी खुद मेरे अस्तित्व की ... जो हर बार  हीरो, बौद्धिक स्टार या ऐसा ही कुछ समझने के फेर में हास्यास्पद हो जाता , टॉलस्टॉय के उपन्यास 'इडियट' की नस्तास्या फिलिप्पोवना से इश्क करता --
--- सुबह सुबह हैंगओवर से बचाव के लिए एक पव्वा दारू या-- पूरे दिन पीते रहना और- जब जब भीतर भूकंप उठे तो 'बिफोर रेन'- की श्यामवर्णीय ज्वाला सी दिखती नायिका के होठों की शेप पर फिदा होकर  कविता लिखता है, बुरा क्या है ? .... भला भी तो नही है ना ।
-- स्वप्नदोष से झरकर बन गए दाग- चाँद में अब भी दिख रहे हैं - मर चुके शुक्राणुओंं की लाशें....
आदमी अब कहाँ है
" यह टूम तो गई काम से-- सुबह चार बजे से दारू पी रहा है....'' कौन था, पागल साला।
मैंने उसको देखकर पुकारा शेखर नाम लेकर  तो, ''शेखर ? कॉमरेड ?''...... उसने कहा । सही सोचा था शायद । वही शेखर जो लाल लाल आंखों और बेतरतीब सी जिंदगी जी रहा घनघोर अराजक कवि। शेखर या खुद मैं ??? जाने क्यों आज बरसात नही हुई।

पन्ना--१२

"यह निहायत गलत है या सही, पता नही, नीलम दोस्त है और दिवाकर की प्रेमिका - (नाम बदल हए हैं।) एक या दो बार गलतफहमी या जो हो उसे समझा जा सकता है- आज अठाइस दिन हुए- अनवांटेड की कितनी गोलियां दे दी- या वो दूसरे वाली.... वो चली गई, दिवाकर का ब्रेकप क्या मैंने करवाया था - साले....
सब कुछ उजड़ा हुआ हो जैसे
(हम सब पागल है, मंडी के उत्पाद)
--''एक तो आवारा, नहाता नहीं है इसलिए बदबू आती है।" जैसे ही उसने सोचा, खुद से ही शर्मिंदा हुआ क्योंकि वो सलीके से रहता है। अरे उसने मतलब मैंने।
" औसत नयन नक्श और दिखने में भी औसत, बेवकूफ सा लड़का है। '' इस बेइज्जती को अहम बनाऊं या बिल्कुल ही छोड़ दूं ..
अब यह मैं नही, कोई महाकवि है जो कह रहा है कि
"मैं हैरान रह गया था जब पहली बार उसके बारे में सुना और बाद में एक झलक देखा भी।  वो पांच फ़ीट दस इंच लम्बा, हट्टा-कट्टा युवा है। अपने भीतर की दुनिया को बाहरी दुनिया से एकमेक करने के यत्न में अक्सर कुछ गड़बड़ कर देता है। आज जब मैं दोस्त के घर स्वादिष्ट खाने का लुत्फ़ उठाकर वापस लौट रहा था तो वो मुझे घग्घर वाली बाईपास पर मिला, हमने हाथ मिलाए, हाल चाल पूछे और उसने मुझे गोल्ड सिगरेट पेश की, सिगरेट जलाते हुए मैंने उससे उसकी योजनाओं के बारे में पूछा तो वो बोला....

- "आत्महत्या और जीवन मे महीन सा ही फर्क होता है।"
कैसा तो होगा वो पल, जब सांस रुकेगी
कैसा तो वह रस्सा होगा, जन्नत की कुंजी।
'आत्महत्या' उफ़्फ़...
ज़िन्दगी नरक होने वाली है.... और आत्महत्या, इसको भविष्य पर छोड़ते हैं।
यूँ ही सोच रहा था। और स्थाई किए जा रहा था सब के सब बीमार मूल्य।

कविता, उन दिनों कोई आमद नही हुई, क्यों नही हुई, अन्याय है यह कुदरत का घोर अन्याय और एक गाली... शब्द बिखर गए
" मैं चिड़िया की आँखों में मचलते संगीत को सुनना चाहता हूँ। गौरैया के गीत एक लड़की के होटों पर सजा देना चाहता हूँ, उसको बताना चाहता हूँ कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ। फिजूल शब्द नही, जीवन के जीवंत शब्द।
... और हाँ मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ जिसमे वो दुनिया होगी, जिसका मैं सपना देखता हूँ"
" तुम किस दुनिया के सपने देखते हो ?? " मैंने सुट्टा लगाते हुए पूछा
" एक ऐसी दुनिया जो ख़ूबसूरत हो, जहाँ सब अपने हों, ना अकेला दुःख हो और ना अकेला सुख ही हो। शोषण, अन्याय, असमानता ना हो। "
"  तो क्या इस दुनिया में सब अपने नहीं है" खुद से खुद ही मुखतिब मैं...

" सब अपने नहीं हैं। सबके सब अवसरवादी, कपटी जानवर हैं और आगे निकलने के कॉम्पिटिशन में इतने डूब चुके हैं कि इन्हें पता ही नहीं कि कब ये किसी दूसरे के कंधों पर पैर रखकर कामयाबी को छू लेते हैं और दूसरा, जिसके कंधों पर पैर रखा गया होता है, वो भी किसी दूसरे के कंधों को तलाश करता है। ये चालें, बिसातें, छल, कपट, दिलों के मैल से भरी दुनिया मेरी नहीं है, ये दुनिया जो किसी भूखे को दुत्कार दे, किसी नाकारा को काम ना दे सके, ये दुनिया मेरी नहीं है।
भाई बहन संग पकड़ा गया किसी गांव के गैराज में और समाज सड़ने लगा--  ये रोज रोज धर्म, जाति, भाषा के नाम पर कत्ल जो हो रहे हैं, एक सम्पन्न बाप द्वारा अपने नाकारा बेटे को स्थापित करने के लिए, एक चालबाज धूर्त बाप द्वारा अपने बंजर बेटे को कलाओं में स्थापित करने के लिए जमीर मार ले खुद का, वो मेरा नहीं है।
 यह सोचना कितना मजेदार है कि हम महान हैं

पन्ना - १३

जहां खुलकर प्यार करना। प्यार का इज़हार करने को छेड़ना समझा जाता है। जहाँ  एक परिवार द्वारा अपनी बेटी को ब्लैकमेलिंग का हथियार बनाकर घरों को उजाड़ने के लिए साजिशें रची जाती हैं। एक कोई लड़की या लड़का बेरोज़गारी के कारण जिल्लत सहते हैं। किसी क्रांतिकारी लेखक को हाशिए पर पटक दिया जाता है। कोई जो नौकरी के लिए जिस्म का सौदा कर लेते हैं।  .... वे इसी दुनिया का हिस्सा है।
उसने फ़िल्मी हीरो की तरह डायलॉग बोले तो मैंने सिगरेट का गुल झाड़कर पूछा -" तो तुम नयी और ख़ूबसूरत दुनिया बनाने के लिए क्या कर रहे हो"
" मेरे दोस्त ये दुनिया बहुत कठोर है, उबड़ खाबड़ है, भावों और सपनों की कातिल है। शब्द की तौहीन करने वाला जाहिल समाज क्या जाने कि प्यार का इज़हार करते शब्द, दुनिया के सबसे सुंदर शब्द हैं। फिर भी मैं पढ़ता हूँ, सपने देखता हूँ, जब मेरे बस में कुछ नहीं रहता तो शराब पीकर बेसुध हो जाता हूँ "
" पार्टनर ऐसे तो ख़ूबसूरत दुनिया बनेगी नहीं"
" बनेगी मेरे भाई जरूर बनेगी, वो वक्त भी आएगा।
तुम देखना एक दिन जब दिन हमारे होंगे......।"

कहते हुए वो जो मेरा एक हिस्सा था उधर, उस  बाएं तरफ़ के खेतों की ओर चल दिया। सोचा, जो लोग इसके साथ चले थे साम, दाम और बुरी चालों के चलते स्थापित हो गए हैं। यह कितना प्रतिभाशाली था / नहीं अभी भी है।... और फिर  मैंने आसमान की तरफ देखा, बगुलों की डार से एक बगुला बिछड़ गया और इधर-उधर गोते खा रहा है, मैं घर की तरफ़ बढ़ गया....
घर ?? कहाँ है घर?? मालिक कौन है- रात डंडे मारे गए सपनो के और फिर अस्पताल

क्रमशः.....जारी...


​​परिचय

नाम - सतीश छिम्पा
जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरयाणा)
रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, लोकमत , लोक सम्मत, मरुगुलशन, जागतीजोत, कथेसर, ओळख, युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित
संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन   के मुक्ति संघर्ष के हक में], आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता) , वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास)
संपादन- 
किरसा (अनियतकालीन)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
भूमि (संपादक, अनियतकालीन)

मोबाइल 7378338065

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

चौतरफा जीवन ही जीवन - डॉ अवनीश सिंह चौहान के नवगीत


अवनीश सिंह चौहान के नवगीतों में लोक जीवन का जीवट टिमटिमाता रहता है, जो हममें नये प्राणों का संचार करता रहता है। आशा से पूर्ण यह जीवट ठेठ गंवई जमीन से अपनी ताकत प्राप्‍त करता, विश्‍वास प्राप्‍त करता अंतरमन को जगमगाता रहता है। हालांकि पुरानी गंवई जमीन को नागर प्रदूषण बंजर बनाता बढता जा रहा पर कवि की आशा का कठजीव सांस लेता रहता है।


डॉ अवनीश सिंह चौहान के नवगीत


असंभव है

चौतरफा है
जीवन ही जीवन
कविता मरे असंभव है

अर्थ अभी घर का जीवित है
माँ, बापू, भाई-बहनों से
चिड़िया ने भी नीड़ बसाया
बड़े जतन से, कुछ तिनकों से

मुनिया की पायल
बाजे छन-छन
कविता मरे असंभव है

गंगा में धारा पानी की
खेतों में चूनर धानी की
नये अन्न की, नई खुशी में
बसी महक है गुड़धानी की

शिशु किलकन है
बछड़े की रंभन
कविता मरे असंभव है।

पगडंडी

सब चलते चौड़े रस्ते पर
पगडंडी पर कौन चलेगा?

पगडंडी जो मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत केवल-केवल
खेतों से औ' गाँवों से

इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?

जहाँ केन्द्र से चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में

मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?

कार-क़ाफिला, हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा

कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?

अपना गाँव-समाज

बड़े चाव से
बतियाता था
अपना गाँव-समाज
छोड़ दिया है
चौपालों ने
मिलना-जुलना आज

बीन-बान लाता था लकड़ी
अपना दाऊ बाग़ों से
धर अलाव, भर देता था, फिर
बच्चों को अनुरागों से

छोट-बड़ों से
गपियाते थे
आँखिन भरे लिहाज

नैहर से जब आते मामा
दौड़े-दौड़ै सब आते
फूले नहीं समाते मिलकर
घंटों-घंटों बतियाते

भेंटें  होतीं,
हँसना होता
खुलते थे कुछ राज

जब जाता था घर से कोई
पीछे-पीछे पग चलते
गाँव किनारे तक आकर सब
अपनी नम आँखें मलते

तोड़ दिया है किसने
आपसदारी
का वह साज।

चिड़िया और चिरौटे

घर- मकान में क्या बदला है,
गौरेया रूठ गई

भाँप रहे बदले मौसम को
चिड़िया और चिरौटे
झाँक रहे रोशनदानों से
कभी गेट पर बैठे

सोच रहे अपने सपनों की
पैंजनिया टूट गई

शायद पेट से भारी चिड़िया
नीड़ बुने, पर कैसे
ओट नहीं कोई छोड़ी है
घर पत्थर के ऐसे

चुआ डाल से होगा अण्डा
किस्मत ही फूट गई।

हिरनी-सी है क्यों

छुटकी बिटिया अपनी माँ से
करती कई सवाल

चूड़ी-कंगन नहीं हाथ में
ना माथे पर बैना है
मुख-मटमैला-सा है तेरा
बौराए-से नैना हैं

इन नैनों का नीर कहाँ-
वो लम्बे-लम्बे बाल

देर-सबेर लौटती घर को
जंगल-जंगल फिरती है
लगती गुमसुम-गुमसुम-सी तू
भीतर-भीतर तिरती है

डरी हुई हिरनी-सी है क्यों
बदली-बदली चाल

नई व्यवस्था में क्या, ऐ माँ
भय ऐसा भी होता है
छत-मुडेर पर उल्लू असगुन
बैठा-बैठा बोता है

पार करेंगे कैसे सागर
जर्जर-से हैं पाल।


परिचय :

बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत कवि, आलोचक, अनुवादक डॉ अवनीश सिंह चौहान (Dr Abnish Singh Chauhan) हिंदी भाषा एवं साहित्य की वेब पत्रिका— 'पूर्वाभास' और अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका— 'क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म' के संपादक हैं। 'शब्दायन', 'गीत वसुधा', 'सहयात्री समय के', 'समकालीन गीत कोश', 'नयी सदी के गीत', 'गीत प्रसंग' 'नयी सदी के नये गीत' आदि समवेत संकलनों में आपके नवगीत संकलित। आपका नवगीत संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का' साहित्य समाज में बहुत चर्चित रहा है। आपने 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' पुस्तक का बेहतरीन संपादन किया है। 'वंदे ब्रज वसुंधरा' सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले इस युवा रचनाकार को 'अंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान', मिशीगन- अमेरिका से 'बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड', राष्ट्रीय समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका' का 'सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार', अभिव्यक्ति विश्वम् (अभिव्यक्ति एवं अनुभूति वेब पत्रिकाएं) का 'नवांकुर पुरस्कार', उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान- लखनऊ का 'हरिवंशराय बच्चन युवा गीतकार सम्मान' आदि से अलंकृत किया जा चुका है।