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सोमवार, 10 अगस्त 2020

समय के सवालों से दो-चार होती अखिलेश श्रीवास्‍तव की कविताएं

कितना भी गले लगो गड़ासे से
एक अहिंसक गला, गड़ासे का मन कभी नहीं बदल सकता !

अखिलेश श्रीवास्तव बौद्धिक मिजाक के कवि हैं और उनकी कविताएं मुझे विचार कविताएं लगती हैं। उनकी कविताओं में एक हिसाब-किताब स्‍पष्‍ट दिखता है। इस सब के बावजूद वे प्रासंगिक हैं क्‍योंकि उनकी कविताएं अपने समय के जरूरी सवालों से दो-चार होती चलती हैं और इस तरह उनका हिसाब-किताब एक जरूरी कार्रवाई की तरह दिखता है। अपने हिसाबी-किताबी होने का पता है कवि को इसलिए अन्‍य विषयों के मुकाबले जब प्रेम पर वह लिखता है तो अपने हिसाबीपन को स्‍थगित कर देता है -

शब्दों के बीच कहीं रख देता हूँ
तुम्हारा कहा कोई शब्द
तो भले ही शिल्प बिगड़ता हो
पर उस कविता से भीनी खूश्बू आती है

अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएं


गेहूँ  का अस्थि विसर्जन : 

खेतो में बालियो का महीनों 
सूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहना 
तपस्या करने जैसा है 
उसका धीरे धीरे पक जाना हैं 
तप कर सोना बन जाने जैसा ।

चोकर का गेहूँ से अलग हो जाना 
किसी ऋषि का अपनी त्वचा को
दान कर देने जैसा है ।

जलते चूल्हे में रोटी का सिकना 
गेहूँ की अंन्तेष्ठी जैसा है 
रोटी के टुकड़े को अपने मुहं में एकसार कर 
उसे उदर तक तैरा देना 
गेहूँ का गंगा में अस्थि विसर्जन जैसा है ।
इस तरह 
तुम्हारे भूख को मिटा देने की ताकत 
वह वरदान है 
जिसे गेहूँ ने एक पांव पर 
छ: महीना धूप में खडे़ होकर 
तप से अर्जित किया था सूर्य से ।

भूख से 
तुम्हारी बिलबिलाहट का खत्म हो जाना 
गेहूँ का मोक्ष है ।

इस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं हैं
कोई आवाज नहीं हैं
शांत हो तिरोहित हो जाना 
मोक्ष का एक अनिवार्य अवयव है ।

मैं बहुत वाचाल हूं 
बिना चपर चपर की आवाज निकाले
 एक रोटी तक नहीं खा सकता ।

मुजफ्फरपुर : 

देवकी नंदन खत्री के शहर में बची रह गई है अय्यारी 
शाम होते होते सफेद लिबास में लिपटे अय्यार बदल जाते हैं काले धुँएँ में 
कहकहे गूँजते हैं और 
राजा के महल में हर रात गायब हो जाती है एक लड़की !

वैसे ये लड़कियाँ अपनी पूरी उम्र गायब ही रही 
ना माँ को मिली न पिता को 
रोज खोजती रही गुमशुदगी के पोस्टर में अपना चेहरा 
पलक झपकते ही 
गुम हुई चुप्पाई लिए कस्बों से 
बीच सड़क गली गलिआरों से 
जैसे बरसात में चलते हुए गटर के खुले मैनहोल पर पड़ गया हो पांव !

कुछ प्रेम में बरगलाई गई 
कुछ रात तक मारी जाने वाली थी 
कुछ ज़हर नहीं खा पाई 
कुछ इतनी डरपोक थी कि ट्रेन से कटने जाती 
तो उसकी आवाज़ से डर जाती 
आत्महत्या के असफल प्रयासों के किस्सों से भरी हैं ये  लड़कियाँ 
सुनाती हैं तो कमरा ठहाकों से भर जाता है
कुछ इतनी अनपढ़ थी कि स्वर्ग की तलाश में अपनी देह सहित भागी 
बहुत भटकने के बाद सदेह स्वर्ग न मिलने के मिथक का पता चला 
तो हताश होकर शून्य में निहारने लगी  
नर्क के दरवाजे खुले मिले तो उसी में घुस गई !

इनकी स्मृति में जस की तस है उन मर्दों की सूरत 
जिन्होंने इन्हें पहले पहल तौला और बेच दिया 
वैश्विक मंदी के दौर में भी हाथों-हाथ बिकी ये लड़कियाँ !
तुम्हारी भाषा वज्जिका में स्त्री को धरती कहते हैं 
पर अभी हम बच्चियाँ हैं 
तुम अपने भाषा संस्कार में हमें गढ़ई कहना 
ना, ना हम बहुत गहरे धँसे है गढ़ई से 
तुम हमें कुआँ कहना 
पर हम कैसे कुएँ है 
जो खुद चलकर जाते हैं प्यासे के पास 
इस तरह भाषा से भी बहिष्कृत हैं
उसके मुहावरे हम पर लागू नहीं होते !

खादी, गांधी टोपी, भगवा चोला, सत्यमेव जयते 
सब इस घुप्प अंधेरे कमरे की खूंटी पर चढ़ते उतरते रहते हैं
जन मन गण नहीं है 
गन धन गणिकायें हैं मुजफ्फरपुर की ये लड़कियाँ 

पिता: 

पिता कभी नही गये माॅल में पिक्चर देखने 
एक बार गये भी तो 
चुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहन कर 
अंग्रेजी न आने वाली शक्ल भी साथ ले गये थे  
लिहाजा खुद पिक्चर हो गये 
कई लोगों ने उनकी हिकारती समीक्षा की 
और नही माना आदमी 
पिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।

दालान से लेकर गन्ना मिल के कांटे तक 
जो खैनी हमेशा साथ रही 
जिसे वो अशर्फी की तरह छिपा कर रखते थें 
पेट के ऊपर बनी तिकोनी जेंब में
माॅल के दुआरें पर ही छींन ली गई 
माया के इन्द्रप्रस्थ में निहत्थें ही घुसे पिता ।

फर्श उनकी पीठ से ज्यादा मुलायम था 
माटी सानने के अभ्यस्त पांव रपटने को ही थे 
कि तलाशने लगें कोई टेक 
अजीब जगह है यह
दूर दूर तक कोई आधार ही नही दिखता 
फिर खिखिआयें कि 
माॅल में बाढ़ नही आती जो 
हर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ ।

रंगीन मछलियों की तैंरन देखीं  पर  
रोहूं, मांगुर नही कर पाये 
ठंड में खोंजने लगे गुनगुनाती धूप 
हर पांच मिनट में  पोंछ ही लेते गमछे से मुंह 
पसीना कही नही था पूरे देह में 
पर उसकी आदत हर जगह थी ।

भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिता
ऐसी मंडी वो अबतक नही देख पाये थे 
भुने मक्के का दाम नही बतायेंगे किसी को 
वरना पूरा जॅवार बोने लगेगा भुट्टा ।

माॅल के अंदर का दृश्य इतना उलट था 
खेत के दृश्य से  
कि बिना स्क्रीन में गये पलट कर बाहर भागे पिता
मैंने  रोकने की कोशिश की 
पर वो उस कोशिश की तासीर समझते थे सो 
नहीं रूके ।

पिता जीवन भर खेत, खैंनी और चिन्नीं में ही रहे 
माॅल में गुजारे समय को वो अपनी उम्र में नही गिनते ।


 कवि कर्म : 

मैं खाली पड़े तसलो में 
ताजमहल की मजार देख लेता हूँ 
सरकार की चुप्पी में सुन लेता हूँ 
पूंजी की गुर्राहट ।

तुम नदी की कल-कल सुनना
मैं सुनूंगा उसमें ज़हर से गला घुटने पर 
घों-घों की आवाज़
शीशम के दरख़्त कटने पर 
एक लंबी चोंss  में
उसकी अंतिम कराह सुनता हूँ 
उस दिन कोयल की कूक में
शोक का वह पंछी गीत सुन लेता हूँ
जो बेघर होने पर गाई जाती है ।

मैं मृग के नयन बाद में देखता हूँ 
उसके पहले ही उन आंखों में
भेड़ियों का डर देख लेता हूँ

मैं देख लेता हूँ
खाली कन्सतरों का अकेलापन
ठंडे चूल्हे की कम्पकम्पाहट 
सुन लेता हूँ
खेत में दवाई छिड़कने से
कीटों की सामूहिक हत्या होने पर 
फ़सल का विलाप
.
मैं दुख देख लेने का आदी बन चुका हूँ
मदिरा पीकर मुजरे में भी बैठता हूँ
तो साथी नचनियां  की नाभि देखते हैं
मैं पेट देखता हूँ और अंदाजता हूँ 
कितने दिन से भूखी है ये ठुमकिया।

तुम मेरे आंखों पर घोड़े का पट्टा भी बांध दो 
तब भी दो सोटों के बीच समय निकाल कर
देख ही लूंगा राह पर छितरे हुये दुख 
पथिक की प्यास 

तुम मेरे हिस्से का सारा शहद ले लो 
फिर भी मैं चख ही लूंगा तुम्हारे हिस्से का विष 

मैं दुख भक्षक हूँ, विषपायी हूँ 
मैं कवि हूँ 
मेरे रूधिर का रंग नीला है ।

परिचय




शिक्षा : केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक
संप्रति : बहुराष्ट्रीय कंपनी मे वरिष्ठ प्रबंधक 
संपर्क : 9687694020