बुधवार, 12 दिसंबर 2018

अपने दुख से सौंदर्य की रचना करो : वॉन गॉग - कुमार मुकुल

चित्रकार बनने की आकांक्षा वॉन गॉग में शुरू से थी। गरीबी और अपमान में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले महान चित्राकार रैम्ब्रां बहुत पसंद थे विन्सेन्ट को और उसका अंत भी रैम्ब्रां की तरह हुआ और दुनिया के कुछ महान लोगों की तरह उसकी पहचान भी मृत्यु के बाद हुई। जीते जी तो कला के प्रति उसकी दीवानगी अभाव और उपेक्षा की आंच में झुलसती रही पर मरने के बाद प्रसिद्धि ने कभी उसका दामन नहीं छोड़ा। उसके चित्रा दुनिया के सबसे महंगे चित्राों की सूची में हमेशा जगह बनाये रहे। आज वॉन गॉग के सेल्फ पोर्टे्रट की कीमत तीन अरब है। और दुनिया के सबसे महंगे दस चित्राों में उसके चार चित्रा शामिल हैं। उनके शिक्षक मेन्डेस ने उससे कहा था-÷...तुम्हें कई बार लगेगा कि तुम हार रहे हो लेकिन आखिरकार तुम खुद को अभिव्यक्त करोगे और वह अभिव्यक्ति तुम्हारे जीवन को मायने देगी।'
और विन्सेन्ट की रचनाओं ने, चित्राें ने उसके जीवन को जो मायने दिये उनके अर्थ उसकी मौत के बाद खुले तो खुलते चले गए और आज उसके रंग दशों दिशाओं में फैलते चले जा रहे हैं।इक्कीस साल की उम्र में विन्सेन्ट को उन्नीस साल की एक गरीब, पतली-दुबली लड़की उर्सुला से प्यार हो गया था। त्राासदी यह कि उर्सुला की मंगनी हो चुकी थी और जब विन्सेन्ट ने प्यार का वास्ता दे उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो रोते हुए उर्सुला ने कहा-÷क्या मुझे हर उस आदमी से शादी करनी होगी जिसे मुझसे प्यार हो जाए?' आखिर वह नहीं मिली उसे और इस विडंबना ने अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसके जीवने में जो भी स्त्राी उसके निकट आई और जिसे भी उसने अपने अंतर्तम से प्यार किया उसे खो दिया विन्सेन्ट ने। इस दौरान राग-विराग के दौर में कभी तो उसने पादरी बनने की कोशिश की, कभी शिक्षक और कभी खदान मजदूर का जीवन जीते उसने खुद को भूखा रखकर मौत की कगार तक पहुंचा दिया। पादरी बनने की कोशिश के दौरान वे उपदेश देते-÷...कोई भी दुख बिना उम्मीद के नहीं आता...'। वह प्रार्थना करता-÷...कि हमें न निर्धनता दे न धन, हमें उतनी रोटी दे जितना हमारा अधिकार बनता है।' अंत तक यह उपदेश जैसे उसके साथ खुद को प्रमाणित करता रहा।बोरीनाज के खदान मजदूरों को उपदेश के दौरान जब उसे लगा कि उसके गोरे चिट्ठे रंग के चलते मजदूर दूरी महसूस करते हैं तो उसने अपने चेहरे पर कोयले की धूल मलनी आरंभ कर दी ताकि उन जैसा दिख सके। अंत में यह नाटक भी खत्म किया उसने और मजदूरों सा जीवन जीना आरंभ किया और भूखे रहने की आदत डाल ली और खुद को बीमार करता मौत की कगार पर पहुंचा दिया। मार्क्स ने जिस डिक्लास थ्योरी की बात की है उसे उसने आजीवन खुद पर लागू किया। इसी जिद में उसने खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर लिया।पहले प्रेम में असफलता से पैदा विराग ने उसे कैथोलिक पादरी या धर्मोपदेशक बनने की राह पर डाल दिया था। पर मजदूरों को उपदेश देते और उनके जैसी जिन्दगी जीते उसे भान हुआ कि उनका कष्ट अपार है। उसने खान के मैनेजर से प्रार्थना की कि आप कम से कम कुछ ऐसा तो कर ही सकते हैं जिससे खान में दुर्घटनाएं कम हों और मजदूरों की मौतों में कमी आए। पर मैनेजर के जवाब, कि हमारे पास निवेश के लिए एकदम पूंजी नहीं है, ने विन्सेन्ट को भीतर से निराश कर दिया और उसने सोचा कि एक दृढ़निश्चयी कैथोलिक से वह नास्तिक बनता जा रहा है। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ÷इतनी दयनीय निर्धनता में शताब्दी दर शताब्दी रह रहे लोगों के लिए ईश्वर ऐसी दुनिया की रचना कैसे कर सकता है, जिसमें जरा भी दया न हो।'
आखिर जब चर्च के लोग उस प्रदेश में धर्म की प्रगति जानने पहुंचे तो पाया कि वॉन गॉग उनके पवित्रा, उज्ज्वल धर्म को गरीबी और निर्धनता में लथेड़ चुका है। दो सौ मजदूरों के बीच बैठा वह खान में दबकर मर गए सत्तावन मजदूरों के लिए प्रार्थना करने को था कि जांच के लिए पहुंचे चर्च के लोगों के लिए वहां की गंदगी को बर्दाश्त करना कठिन हो गया। वॉन गॉग को झिड़कते हुए उन्होंने कहा-लगता है हम अफ्रीका के जंगल में हैं...किसने सोचा था कि यह आदमी इतना पागल निकलेगा...मैं तो इसे शुरू से ही पागल समझता था...।' अंत में उन्होंने उसे कहा कि तुम हमारे चर्च का अपमान करना चाहते हो, कि अब तुम अपनी नियुक्ति निरस्त समझ सकते हो।दब कर मर गए मजदूरों के लिए हड़ताल करते मजदूरों को आखिर समझाकर काम पर भेजने के बाद वॉन गॉग ने पाया कि बाइबिल अब उनके किसी काम की नहीं थी, कि ईश्वर ने उनकी तरफ पत्थर के कान कर रखे हैं।
इन सब चीजों ने उसे फिर एक बार गहरी हताशा की ओर ढकेल दिया। उसने पाया कि ईश्वर कहीं नहीं था...एक हताश, क्रूर, अंधी अस्त-व्यस्तता थी...इस पागलपन से निकलने के लिए वह फिर अपने पुराने पागलपन की ओर मुड़ा और चित्राकारी शुरू कर दी और बोरीनाज के खदान मजदूरों के चित्रा बनाने लगा। कुछ चित्रा बना लेने के बाद विन्सेन्ट को लगा कि उसे अपने चित्राों के बारे में किसी की राय लेनी चाहिए, और उसे वहां से अस्सी किलोमीटर दूर ब्रुसेल्स में रह रहे चित्राकार रैवरैण्ड पीटरसन की याद आई और उसने उनसे मिलने का इरादा किया। उसके पास टिकट के पैसे नहीं थे और वह पैदल ही निकल पड़ा। उसके पास मात्रा तीन फ्रैंक थे। करीब छत्तीस घंटे की यात्राा के बाद उसके जूते के तल्लों ने जवाब दे दिया और उसके जूते को फाड़ अंगूठे बाहर झांकने लगे। पांवों में छाले पड़ चुके थे। इस हालत में एक रात का विश्राम लेकर भूखा-प्यासा वह फिर निकल पड़ा और बु्रसेल्स पहुंचा। मानव इतिहास में किसी रचनाकार की जिजीविषा का ऐसा उदाहरण और कहां मिलेगा? खाक और धूल में लिथड़ी विन्सेन्ट की सूरत देख रैवरैण्ड की बेटी चीखती भाग खड़ी हुई। आखिर जब रैवरैण्ड ने उसे पहचाना तो बोले-तुम्हें देखना कितना सुखद है, सीधे भीतर चले आओ। विन्सेन्ट कितना खुश हुआ होगा, यह हम सोच सकते हैं। आखिर ईसा के उस कथन के, जो विन्सेन्ट को प्रिय था, कि कोई भी दुख बिना उम्मीद के नहीं आता, निहितार्थों को यहां समझा जा सकता है।
रैवरैण्ड के साथ कुछ दिन बिताने के बाद जब विन्सेन्ट वास्मेस गांव लौटने लगा तो रैवरैण्ड ने उसे अपना पुराना जूता और लौटने के टिकट के पैसे दिये।रैवरैण्ड से मिली सलाह और उत्साहवर्धन के बाद उसने कुछ और चित्रा बनाये। फिर सोचा कि इसे उस समय के चर्चित चित्राकार जूल्स ब्रेतों को दिखाए। पर ब्रेतों वहां से एक सौ सत्तर किलोमीटर दूर रहता था और हमेशा की तरह उसके पास पैसे नहीं थे। थोड़ी दूर वह ट्रेन से गया और फिर पांच दिन-रात पैदल चलकर जब कूरियेरेस में ब्रेतों के स्टूडियो तक पहुंचा तो उसकी भव्यता देख उसकी हिम्मत नहीं पड़ी भीतर जाने की और वह वापिस चल पड़ा-भूखा, प्यासा, पैदल। भूख लगने पर वह अपने चित्राों को देकर बदले में पावरोटी मांग कर खाता, सप्ताहों की पैदल दिन-रात की यात्राा के बाद घर पहुंचा। इस यात्राा में वह अपना कई पौंड वजन कम कर चुका था और बुखार की चपेट में आ चुका था। इसी अर्धमृतावस्था में उसका भाई थियो वहां आ पहुंचा और उसने अपने प्यारे भाई को संभाला। थियो ने हमेशा विन्सेन्ट को उसके पागलपन के साथ प्यार किया और न्यूनतम जीवनयापन की उसकी व्यवस्था में उसका अहम योगदान रहा। पहले प्यार की त्राासदी, बाईबिल के अध्ययन और कठोर जीवन शैली के चुनाव ने हमेशा विन्सेन्ट के भीतर एक चिंतक को जाग्रत और विकसित किया। पर भाई की संगत और प्यार में वह भावुक हो जाता था। एक जगह वह थियो से कहता है-÷क्या हमारे अंदर के ख्याल बाहर से दिखाई पड़ सकते हैं? हमारी आत्मा में एक आग जल रही हो सकती है जिसे बगल में बैठकर तापने कोई नहीं आता। आने-जानेवालों को सिर्फ चिमनी से निकलता धुंआ दिखाई पड़ता है...।'विन्सेन्ट को ÷लैंडस्केप से प्रेम था पर उससे भी ज्यादा उसे जीवन से भरपूर उन चीजों से प्रेम था, जिनमें उत्कट यथार्थवाद होता था...।' वह जानता था कि अभ्यास को किताबों के साथ नहीं खरीदा जा सकता और उसका कोई विकल्प नहीं होता इसलिए जीवन भर वह श्रम करता अपनी कला को लगातार धार देता रहा।
उसके चचेरे भाई मॉव का कथन था कि आदमी चित्राों पर या तो बातें कर सकता है या चित्रा ही बना सकता है। ...कि ÷कलाकार को स्वार्थी होना चाहिए। उसे काम करने के हर क्षण की रक्षा करनी चाहिए।' विन्सेन्ट श्रम तो करता रहा पर स्वार्थी नहीं हो सका। उसकी माली हालत को देखकर मां सलाह देतीं कि वह धनी महिलाओं के चित्र क्यों नहीं बनाता तो उसका जवाब होता-÷प्यारी मां, उन सबका जीवन इतना सुविधापूर्ण होता है कि उनके चेहरों पर समय ने कोई भी रोचक चीज नहीं बनाई होती।' मां पूछती कि गरीबों के चित्रा बनाकर क्या फायदा, वे तो उसे खरीदेंगे नहीं। मां की नीली, गहरी साफ आंखों में शांतिपूर्वक देखता विन्सेन्ट बोलता-÷अंततः मैं अपने चित्रा बेच सकूंगा...'। एक पुरानी कहावत हमेशा विन्सेन्ट को याद रही-÷अपने दुख से सौंदर्य की रचना करो।' और दुख से रचे उसके चित्राों की कीमत अंततः मरने के बाद ही जानी जा सकी।अठ्ठाइस साल की उम्र में विन्सेन्ट को फिर प्रेम हुआ के से जो जॉन की मां थी। पर उसके मृत पति वॉस से उसे नफरत थी जिसे के भुला नहीं पा रही थी। उस दौरान मिशेले को पढ़ते हुए एक पंक्ति उसे जंच गई-÷यह जरूरी है कि एक स्त्राी आप के ऊपर बयार की तरह बह सके ताकि आप पुरुष बन सकें।' उसे लगा कि उर्सुला से मिली यातना को के ही दूर कर सकेगी पर के वॉस को भुला न सकी और दूसरा प्रेम भी विन्सेन्ट के लिए एक त्राासदी ही साबित हुआ। इससे पार पाने के लिए वह फिर द हेग में अपने कजिन मॉव के पास चला गया। फिर वही भूख और चित्राकारी की दीवानगी का दौर। ऐसे में उसे मिली क्रिस्टीन जो लॉन्ड्री में कपडे+ धोती थी और उससे पेट नहीं भरता तो पेशा करती थी। विन्सेन्ट को उसका साथ भा गया और उसके साथ वह रहने लगा। क्रिस्टीन ने विन्सेन्ट के जीवन में प्रेम की कमी को अंशतः पूरा किया। वह उससे मॉडल के रूप में भी काम लेता था। इसके अलावा मजदूरों और बूढ़ी स्त्रिायों को वह थोड़े पैसे के लिए मॉडल बनने का आग्रह कर अपने झोपड़ीनुमा स्टूडियो में ले आता था।वह सोचता, काश, वह अपने काम से अपनी रोटी भर कमा सके। उसे और कुछ नहीं चाहिए था। और वह कभी ठीक से अपनी रोटी भी नहीं कमा सका और आज उसकी कृतियां अरबों-खरबों कीमत की हैं-क्या यह उसी भूख की कीमत है ! भूख से कीमती कुछ भी नहीं शायद। विन्सेन्ट जानता था भूख अर्जित करने की कला। और, आज पूरी दुनिया का पेट भर दिया उसने। और यह दुनिया कभी उसका पेट नहीं भर पाएगी। उसका कर्जदार रहेगी यह दुनिया, जब तक रहेगी।ऐसा नहीं था कि विन्सेन्ट यूं ही ऐसा था। उसके आस-पास की दुनिया और उसके सलाहकार भी ऐसे ही थे। उस समय के राष्ट्रीय ख्याति के चित्राकार वाइसेंनब्रूख विन्सेन्ट को समझाते हुए कहते-÷...साठ साल के हर कलाकार को भूख से मरना चाहिए। तब शायद वह कैनवस पर कुछ अच्छे चित्रा बना सकेगा।...हुंह! तुम चालीस से ऊपर नहीं हो और बढ़िया काम कर रहे हो।' ॥अगर भूख और दर्द किसी आदमी को मार सकते हैं तो वह जीने के काबिल नहीं। इस धरती के कलाकार वही लोग होते हैं, जिन्हें ईश्वर या शैतान तब तक नहीं मार सकता जब तक वे उन सारी बातों को नहीं कह देते, जिन्हें वे कहना चाहते हैं।'
पर अभाव ने घर में कलह को जन्म देना शुरू कर दिया था। क्रिस्टीन और विन्सेन्ट झगड़ने लगे थे। एक दूसरे को समझते हुए वे एक साथ नहीं बारी-बारी गुस्सा होते। और अपनी भड़ास निकालते।कभी-कभी विन्सेन्ट को निराशा होती कि उसके समकालीन डी बॉक के चित्राों पर लोग पैसा लुटाते हैं और उसे काली डबलरोटी और कॉफी तक नसीब नहीं होती पर फिर वह अपने को संतोष देता-मैें सच्चाई और मेहनत की जिंदगी जीता हूं और यह ऐसी सड़क नहीं जहां किसी की मौत हो जाए। साफ है कि वह भविष्य की बाबत कह रहा था और वह सच्चाई थी, और विन्सेन्ट के बाद विन्सेन्ट की तरह भला कौन जिन्दा रहेगा ! उसके बनाये सूर्यमुखी सूर्य की तरह आज पूरी दुनिया में खिल रहे हैं उद्भासित होते अपने अनंत रंगदृश्यों के साथ।क्रिस्टीन के साथ रहने के चलते विन्सेन्ट को द हेग के सारे कलाकारों ने नीचा दिखाना शुरू किया। उसके चित्राकार भाई मॉव ने एक दिन कहा कि तुम दुष्ट चरित्रा के आदमी हो, तो विन्सेन्ट ने खुद को कलाकार बताया। मॉव ने मजाक उड़ाते हुए कहा-आज तक तुम्हारा एक चित्रा नहीं बिका और तुम कलाकार हो। विन्सेन्ट ने भोलेपन से पूछा-क्या कलाकार का मतलब बेचना होता है? मैं समझता था कि बिना कुछ पाए खोज में लगे रहना कलाकार का काम है। इसी तरह एक दिन डी वॉक ने कहा-हर कोई जान गया है कि तुमने एक रखैल रख छोड़ी है। क्या तुम्हें कोई और मॉडल नहीं मिली। विन्सेन्ट ने आपत्ति की कि यह मेरी पत्नी है। यह विवाद बढ़ता गया और उसकी रोटी पर भी आफत आने लगी। जिस माहौल से वह आई थी उसमें शराब और सिगरेट की आदतें बुरी तरह उसे जकड़े थीं। वह बीमार रहने लगी थी। उसके इलाज की व्यवस्था करता विन्सेन्ट सोचता-÷बेचारी ने अच्छाई कभी देखी ही नहीं...वह खुद अच्छी कैसे हो सकती है?' आखिर इस हद तक मानवीय होने पर दुनियावी समाज किसी को पागल ही तो समझता है, और एक दिन थक-हारकर व्यक्ति समाज के पागलपन को स्वीकृति देता हुआ अपने तथाकथित पागलपन को बचाए रखता है। आखिर वही तो उसकी पूंजी होती है। भविष्य में उसे पागल कहता समाज ही तो उसकी अरबों कीमत लगाता है, इस बात को विन्सेन्ट जैसा हर कलाकार जानता होता है।
क्रिस्टीन से शादी को लेकर एक दिन तेरेस्टीग ने भी उसकी फजीहत करते हुए कहा-÷दिमागी तौर पर बीमार आदमी ही ऐसी बातें कर सकता है।' पर विन्सेन्ट सोचता है-÷आदमी का व्यवहार, मौश्ये, काफी कुछ ड्राइंग की तरह होता है। आंख का कोण बदलते ही सारा दृश्य बदल जाता है...यह बदलाव विषय पर नहीं बल्कि देखनेवाले पर निर्भर करता है।' त्रासदी यह थी कि ये सारी बातें क्रिस्टीन के सामने संभ्रांत भाषा में होती थीं, थोड़ा बहुत क्रिस्टीन इसे समझती भी थी और दर्द से भर उठती थी। उसके मित्रा वाइसेनव्रूख ने एक दिन मजाक में कहा-÷...मैं चाहूंगा तुम्हारा चित्रा बनाना। मैं उसे ÷होली-फैमिली' कहूंगा!' इतना सुनकर विन्सेन्ट गाली बकता उसे मारने दौड़ा...।महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसका भाई थियो, जो चित्राों का व्यापार करता था और हमेशा विन्सेन्ट की चिन्ता करता था, भी कम पागल नहीं था। उस दौर में विन्सेन्ट को उसके मित्रा चित्राकार यह कहकर डराते थे कि उसके भाई से शिकायत करेंगे वे उसके आचरण की और उसे थियो पैसे भेजना बंद कर देगा। उधर थियो था कि उसे भी भाई का दर्शन भाने लगा था। एक दिन उसने विन्सेन्ट को पत्रा लिखा कि उसने एक बीमार और आत्महत्या पर उतारू स्त्राी को अपने साथ जगह दी है और उससे शादी करना चाहता है। अभाव में क्रिस्टीन के साथ कठिन होते जीवन को देखते हुए उसने सलाह दी कि-वह इंतजार करे...उसके लिए जो संभव हो करे और प्रेम को पनपने दे, हड़बड़ी में शादी ना करे। उसकी आर्थिक स्थिति को देखते क्रिस्टीन ही शादी पर आपत्ति करने लगी थी। आखिर वह अपने गांव अपनी मां के पास लौट गया, शांति की खोज में। उसे स्टेशन छोड़ने क्रिस्टीन भी आई थी।गांव में वह पीठ पर ईजल टांगे खेतों में चित्रा बनाता घूमता रहता। इसी बीच उसके पड़ोस की एक स्त्राी मारगॉट उसके निकट आई। वह हिस्टीरिया की मरीज थी और बचपन से ही मन ही मन विन्सेन्ट को चाहती थी। एक दिन उसने मारगॉट को बताया कि प्यार करना तो आसान होता है मारगॉट ने कहा-हां, मुश्किल होता है बदले में प्यार पाना। मारगॉट ने उसे बताया कि वह सोचती थी कि बिना प्यार किए वह चालीस की नहीं होगी और उनचालीसवें साल में आखिर उसे विन्सेन्ट मिल गया। इस प्रेम ने उसके जीवन में सूखते सोते को जीवित कर दिया। मारगॉट की निगाहों में डूबा वह खेतों में घूमता चित्रा बनाता और समझाता-÷जिंदगी भी मारगॉट, एक अनंत खाली और हतोत्साहित कर देनेवाली निगाह से हमें घूरती है, जैसे यह कैनवस करता है।...लेकिन ऊर्जा और विश्वास से भरा आदमी उस खालीपन से भयभीत नहीं होता, बल्कि वह...रचना करता है और अंत में कैनवस खाली नहीं रहता बल्कि जीवन के पैटर्न से भरपूर हो जाता है।'क्रिस्टीन को बचा ना पाने के दर्द को समझते हुए मारगॉट उसे समझाती कि इसमें उसका क्या कसूर, क्या वह बोरीनाज के खदान मजदूरों को बचा पाया था। पूरी सभ्यता के खिलाफ एक आदमी क्या कर सकता है। मारगॉट की बात सही थी पर विन्सेन्ट तो वही आदमी था, पूरी सभ्यता के खिलाफ संघर्षरत, उसका रुख मोड़ देने को आतुर, वह भी प्रेम से, विश्वास की ताकत से। आखिर यह पागलपन ही तो था।
मारगॉट से प्यार के वक्त वह इकतीस का था। फिर उसकी पांच बहनें अविवाहित थीं। दोनों के घरवाले विवाह को तैयार नहीं थे। सबसे ज्यादा आपत्ति मारगॉट की बहनें कर रही थीं। विन्सेन्ट के इस तीसरे प्यार की त्राासदी ने उसके कैनवस के रंगों को और प्रभावी बनाया। उसे वाइसेनब्रूख का जीवन-दर्शन सही लगता-÷मैं कभी भी यातना को छिपाने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि अक्सर यातना ही कलाकार की रचना को सबसे मुखर बनाती है।' इस यातना से कब पीछा छूटना था विन्सेन्ट का और अब वह नये रूप में आनेवाली थी। मारगॉट प्रसंग के चलते विन्सेन्ट ने अपना गांव ब्रेबेन्ट छोड़ा और नुएनेन में एक किसान परिवार के साथ मित्राता की। वहां उसे एक किसान की लड़की सत्रह साल की स्टीन मिली, जिसमें ÷हंसने की नैसर्गिक प्रतिभा थी।' वह उसके पास मॉडल के रूप में काम करने आती थी। गुस्साने पर वह विन्सेन्ट के चित्राों पर काफी फेंक देती या आग में झोंक देती। इसी किसान परिवार का आलू खाते चित्रा बनाया था विन्सेन्ट ने जो ÷द पोटैटो इटर्स' नाम से ख्यात हुआ। फिर स्टीन को लेकर भी स्थानीय पादरी ने आपत्तियां शुरू कीं। आजिज आकर वह अपने चित्राों के साथ पेरिस आ गया। अपने प्यारे भाई थियो के निकट।विन्सेन्ट को वही चित्रा पसंद थे जो कि वैसे बनाई गए हों जैसे कि वो नजर आ रहे थे। चाहे वो बदसूरत ही हों। वैसे चित्रा उसे जीवन पर धारदार वक्तव्य जैसे नजर आते रहे। उसकी नजर में वही सौेंदर्य था। विन्सेन्ट सोचता-चित्राों में नैतिकता थोपना या कोरी भावुकता में उन्हें चित्रिात करना उन्हे बदसूरत बना देना है।पेरिस में चित्राकार लात्रोक को यही समझा रहा था विन्सेन्ट। चित्राों के व्यापारी उसके भाई को पेरिस के सभी चित्राकार जानते थे और विन्सेन्ट को वहां अच्छी मंडली मिल गई। पाल गोगां, जॉर्जेस, स्योरो, लॉत्रोक आदि। प्रेम में लगातार मिली विफलता, भूख और अथक श्रम ने विन्सेन्ट को त्रास्त कर दिया था। अब एक उन्माद में वह खुद को झोंकता रहता था काम में। जीवन में मिली यातनाओं को रूपाकार देता वह पागल की तरह भिड़ा रहता था। अतीत से जूझता वह हिस्टीरिया के मरीज सा हो गया था। उसे दौरे भी पड़ने लगे थे। एक बार उसके चित्राों को देखते हुए पाल गोगां ने कहा-÷क्या तुम्हें दौरे पड़ते हैं, विन्सेन्ट।...तुम्हारे चित्राों को देखकर लगता है कि जैसे... वे कैनवस से फटकर बाहर आ जाएंगे...ऐसी उत्तेजना छा जाती है कि मैं उस पर काबू नहीं कर पाता।...वे हफ्‌ते भर में मुझे पागल कर देंगे।' गोगां ने कितना सच कहा था, विन्सेन्ट के बाद पूरी दुनिया उसके चित्राों के पीछे पागल है।
हड्डियों में घुसती पेरिस की ठंड से आजिज वहां के चित्राकार अक्सर सूरज की चर्चा करते। विन्सेन्ट ने भी एक दिन अपने भाई थियो से सूरज की रोशनी में दिन बिताने के लिए अफ्रीका जाने की जिद की। थियो ने कहा कि वह तो दूर है। अंततः उसने एक पुरानी रोमन बस्ती आर्लेस जाना तय किया। आर्लेस की धूप कुछ ज्यादा ही तेज थी। तिस पर विन्सेन्ट बिना हैट के सारा दिन पीठ पर ईजल टांगे यहां-वहां चित्रा बनाता दिन बिताता। वहां के लोग उसे सनकी पागल कहते।
विन्सेन्ट सोचता-शायद मैं पागल हूं, पर मैं क्या कर सकता हूं। घर, पत्नी, बच्चों और परिवार के बिना यातना से भरा जो उसका जीवन था उसका हल उसे इस पागलपन में सूझता था। एक रचनात्मक ऊर्जा में बदल रहा था वह इस यातना को। यह सूरज की रोशनी और उसकी आग में खुद को डुबो देने का पागलपन था। भूखों मरने का पागलपन था। वह सोचता-बना हुआ कैनवस खाली कैनवस से अच्छा होता है और वह लगातार कैनवसों पर काम करता रहता। गरीब कामगार लोगों के बीच काम करते उसे लगता कि ये कितने पवित्रा लोग हैं, अनंत काल तक ÷निर्धन बने रहने की प्रतिभा' से पूर्ण। अर्लेस में ही एक पेशेवर लड़की रैचेल से विन्सेन्ट की भेंट होने लगी थी। पांच फ्रैंक में वह विन्सेन्ट का साथ देने को तैयार हो जाती थी। पर विन्सेन्ट के पास जब पांच फ्रैंक भी नहीं रहते तो वह मजाक में कहती तब तुम बदले में अपने कान दे देना। और एक दिन जब विन्सेन्ट के पास पांच फ्रैंक भी नहीं थे तो यातना से भन्नाया विन्सेन्ट शीशे के सामने गया और चाकू से अपना दायां कान काट उसे रूमाल में लपेट रैचेल को देने चल दिया। रूमाल में कटे कान देख वह बेहोश हो गिर पड़ी। उधर घर पहुंच कर वह खुद बेहोश हो गया। सुबह उसे अस्पताल में भर्ती किया गया और किसी तरह बचाया गया। डॉक्टर ने बताया कि ऐसा सनस्ट्रोक के कारण हुआ।सामान्य होते ही वह फिर वैसे ही बिना हैट लगाये तेज धूप में पागलों सा ईजल लिए मारा-मारा फिरने लगा। डाक्टर रे ने एक दिन उसे समझने और समझाने की कोशिश करते हुए कहा-÷...कोई भी कलाकार सामान्य नहीं होता। सामान्य लोग कला की रचना नहीं कर सकते। वे सोते हैं, खाते हैं, सामान्य धंधे करते हैं और मर जाते हैं। तुम जीवन और प्रकृति को लेकर ज्यादा संवेदनशील हो ...पर यदि तुमने ख्याल नहीं किया तो तुम्हारी यह अतिसंवेदनशीलता तुम्हें तबाह कर देगी...।' अब उस इलाके के बच्चे उसके पीछे सारा दिन पड़े रहते, उसे पागल कह चिढ़ाते, उससे उसका दूसरा कान मांगते हुए। एक दिन तंग आकर उसने खिड़की से सारा सामान बच्चों पर फेंक मारा और खुद बेहोश हो गिर पड़ा। फिर तो उसे खतरनाक पागल घोषित कर गिरफ्‌तार कर लिया गया। अब डाक्टर की सलाह से उसे विस्तृत मैदानोंवाले एक पागलखाने में भर्ती किया गया। वहां डाक्टर पेरॉन उसकी देख-रेख के लिए थे। डाक्टर ने उसे धार्मिक गतिविधियों में भाग न लेने की छूट दिला दी और उसे कई बार नहाने की सलाह दी।आस-पास के पागलों को देख विन्सेन्ट परेशान हो जाता तो डाक्टर उसे समझाते-÷...इन्हें अपने बंद संसारों में जीने दो...तुम्हें याद नहीं ड्राइडन ने क्या कहा था? अवश्य ही पागल होने में भी आनंद है, जिसे केवल पागल ही जान सकता है...'। मजदूर और किसान हमेशा से विन्सेन्ट को पसंद थे। वह खुद को किसानों से नीचा समझता था। वह उनसे बोला करता-आप खेतों में हल चलाते हैं, मैं कैनवस पर। दुनिया कभी उसे ठीक से समझ नहीं पाई। जब वह पागलखाने में था तब फ्रांस की एक पत्रिका में जी अल्बर्ट ऑरेयर ने उसके चित्राों के बारे में लिखा-÷विन्सेन्ट वॉन गॉग हॉल्स की परंपरा का कलाकार है, उसका यथार्थवाद अपने स्वस्थ डच पूर्वजों के कार्य से कहीं आगे के सत्य को उद्घाटित करता है। उसके चित्राों की विशेषता है आकृति का सचेत अध्ययन, प्रत्येक वस्तु के मूल तत्त्व की खोज और प्रकृति और सत्य के प्रति उसका बाल सुलभ प्रेम। क्या यह सच्चा कलाकार और महान आत्मा दोबारा से जनता द्वारा स्वीकार किए जाने के अनुभव को पा सकेगा? मैं नहीं समझता। वह काफी साधारण है और साथ ही हमारे समकालीन बुर्जुआ समाज के समझने के लिए काफी जटिल भी, उसे उसके साथी कलाकारों के अलावा कभी भी कोई नहीं समझ पाएगा।
अंत में विन्सेन्ट को एक होमियोपैथिक डाक्टर गैशे मिले जो दिमागी बीमारियों के ही नहीं, चित्राकारों के भी विशेषज्ञ थे। विन्सेन्ट ने उनके अनगिनत चित्रा बनाये जो दुनिया की सबसे महंगी तस्वीरों में शुमार हुए।विन्सेन्ट के अंतिम दिनों के हालात देख मुक्तिबोध, निराला के अंतिम दिन याद आते हैं। दरअसल ये वो कलाकार हैं जो गालिब की तरह दुनिया की हकीकत समझते हैं पर उससे दिल बहलाने की जगह उस हकीकत का पर्दाफाश करना चाहते हैं। और पागल घोषित कर दिये जाते हैं क्यों कि दुनिया के बाकी तमाशाईयों की तरह ये अपने पीछे कोई कुनबा, गिरोह या अनुयायियों की फौज खड़ी कर अपने इलहाम को निर्वाण घोषित करने की बेहयाई नहीं कर पाते। उससे बेहतर वे अपने दर्द और अकेलेपन में डूब मरना मानते हैं। आखिर उनके मत को भी दुनिया समझती है और किसी भी मत के माननेवालों से ज्यादा बड़ी तादात होती है उनकी, पर वह एक घेरा नहीं बनाती, उसका लाभ उठाने को, क्योंकि स्वतंत्राता के विचार का सम्मान करना वे उससे सीख चुके होते हैं।
दोनों भाईयों को लेने डाक्टर गैशे खुद स्टेशन पहुंचे थे। भाई थियो ने अकेले में जब आशंका जाहिर की। विन्सेन्ट की दिमागी हालत की बाबत तो गैशे ने समझाया-÷हां, वो सनकी है...सारे कलाकार सनकी होते हैं...किसने कहा था, ÷कि हर आत्मा के भीतर थोड़ा-बहुत पागलपन मिला होता है। शायद एरिस्टोटल ने।' एक दिन गैशे उसके बनाए सूरजमुखी को देखते हुए बोला-÷अगर मैं ऐसा एक भी चित्रा बना पाता तो मैं समझता कि मैंने अपने जीवन के साथ न्याय किया है, विन्सेन्ट! मैंने पूरी जिन्दगी लोगों के दर्द का इलाज करने में काटी...वे सब अंत में मर गए...क्या फर्क पड़ा इस सबसे? ये सूरजमुखी तुम्हारे, ये लोगों के दिलों का इलाज करेंगे...ये लोगों के पास खुशियां लाएंगे...सदियों तक...।' एक दिन विन्सेन्ट ने डाक्टर गैशे से बातचीत के दौरान पूछा कि आखिर मिर्गी के उन मरीजों का क्या होता है डाक्टर, जिनका दौरा आना नहीं रुकता। गैशे ने कहा कि वे पूरी तरह पागल हो जाते हैं। यह बात विन्सेन्ट के दिमाग में घर कर गई और उसने सोचा कि वह एक पागल की मौत नहीं मरेगा।एक दिन उसने मकई के खेत में काम करते हुए कौओं का चित्रा बनाया और शीर्षक दिया ÷क्रोज अबव ए कार्नफिल्ड'। फिर इसी तरह एक दिन खेतों में खडे+ सूर्य को निहारते हुए उसने अपनी कनपटी पर गोली मार ली। घायल अवस्था में वह एक दिन जिन्दा रहा। गोली उसके मस्तिष्क में फंसी रही। उस दौरान थियो उसे बता रहा था कि वह अपनी पहली प्रर्दशनी विन्सेन्ट के चित्राों की लगाएगा। पर उसे देखने के लिए विन्सेन्ट जिन्दा नहीं रहा। उसकी मृत्यु के छह माह बाद थियो भी मर गया। गालिब की तरह ख्यालों से मन बहलाने का शौक नहीं था विन्सेन्ट को, उसके पास मन बहलाने का एक ही तरीका था काम करना और करते जाना। श्रम की इस निरंतरता ने उसकी कला को अनंत बना दिया, उसकी मृत्यु अनंत हो गई।(इरविंग स्टोन लिखित उपन्यास लस्ट फॉर लाइफ महान चित्राकार विन्सेन्ट वॉन गॉग के जीवन पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण कृति है जिसका अनुवाद अशोक पांडे ने किया है। संवाद प्रकाशन, मेरठ से आई इस किताब को पढ़ना वॉन गॉग के जीवन से गुजरने के समान है।)