शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

कितने कम हैं कवि ... - प्रदीप सैनी की कविताएं

झटपट फौरी तौर पर कवि होने की हलतलबी से भरे इस समय में प्रदीप सैनी की कविताएं हमें जीवन संघर्ष में उतरने, उसे जानने-समझने और फिर दर्ज करने का हौसला देती हैं, यह बात आश्‍वस्‍त करती है।

प्रदीप सैनी की कविताएं

मुआफ़ी

यूँ तो मुआफ़ी माँगना भी अब
मुआफ़ कर देने की तरह भरोसे के लायक नहीं रहा
फ़िर भी ये मुआफ़ी
हरगिज़ उन रिश्तों के लिए नहीं माँग रहा
जिनकी यादों का कोलाज भर हूँ मैं
और जिनसे होकर तुम तक पहुँचा हूँ

यह मुआफ़ी मैं अपने अभ्यस्त संवादों
और भाव भंगिमाओं के लिए माँग रहा हूँ
जिनमें दिख पड़ता कुछ भी नवीन
किसी पुरातन का ही संस्करण है
और इसलिए भी कि तुमसे कहने को मेरे पास
अब ऐसा सच बचा है जो किसी झूठ का ही हमशक्ल है

प्रेम में कच्चा होना ही दरअसल सच्चा होना है
मुआफ़ करना मुझे तुम
मेरे निरंतर अभ्यास ने जबकि
प्रेम को कला में बदल दिया है।


दुःख का एक ताप होगा उनके भीतर
 
उनके पैरों में बेड़ियाँ डाली हमने
और रास्तों में दीवारें खड़ी की

उन्हें सदा के लिए रोकना हमारे लिए आसान नहीं था
तो कहने को नए रास्ते दिए उन्हें
जो दरअसल अंतहीन अँधेरी सुरंगें थीं

हमारी नज़र उनके चमकते हुए नीले पर रही
जिससे हमारा पीलापन हरा हो सके
इस तरह उनके नीले से अपने पीले को हरा किया हमने

उनकी गति से चमक चुराकर हमने
अपनी दुनिया को रोशन किया

उनके किनारे जन्मी हमारी सभ्यताएँ
जिन सभ्यताओं ने उन्हें किनारे पर ही रखा

देवी कहा उन्हें हमने
और अपनी सभ्यता से निकलता गन्दा नाला
उनके भीतर छोड़ दिया

उनमें एक डुबकी लगाने का पुण्य लूटा
और अपने पापों से उनके घाट रंग दिए
जिसे वे ढोती रहीं उम्र-भर भीतर लिए-लिए

कितनी जगहों से होकर गुज़रीं वे
कोई जगह मगर उनकी न हुई

दुःख का एक ताप होगा उनके भीतर
वे अपने ही पानी में सूखती चली गईं

हमें अब याद नहीं पड़ता  वे नदियाँ थीं या औरतें।  


इलाज

मेरा फ़ोन मेरी तरह रह-रहकर अटकता था
उसके पास ज़रूरत से ज्यादा स्मृतियाँ हैं
ऐसा बताया एक फ़ोन मरम्मत करने वाले ने
इतनी कि वे उसका दिमाग ठस कर देती थीं   

मैंने फ़ोन को सही करने का जतन डरते हुए पूछा था
उसने कहा कि इसे दरुस्त किया जा सकता है
बशर्ते हम मिटा दें इसकी फ़िज़ूल स्मृतियाँ   

उपयोग में लाए जा सकने वाले
लगभग स्मृतिहीन फ़ोन के साथ
वापिस घर लौटकर मैं एक कॉल करता हूँ
और मनोचिकित्सक से ली हुई
अपनी अपॉइंटमेंट रद्द कर देता हूँ।  


लतीफ़ा बनाकर मार डाला

ये मूर्खता इतिहास में दर्ज़ है कि उन्होंने
उसके विचारों को मारने के लिए
उसे गोली से मार दिया

गोली से मरकर वह ज़िंदा है आज भी
विचार गोली से भला कहाँ मरते हैं

मूर्ख हमेशा मूर्ख ही रहेंगे
ऐसा सोचना भी एक  मूर्खता है

वे अब चालाक हैं
शातिर हैं
अब वे उसे झूठ से
मक्कारी से
प्रपंच से मार रहें हैं धीरे-धीरे

हमने अगर ऊँचा नहीं किया प्रतिरोध में अपना स्वर
बेनकाब नहीं किए उनके झूठ, मक्कारी और प्रपंच
तो आने वाला इतिहास करेगा दर्ज़ यह  भी
कि गोली से नहीं मरा था विचार जो
उन्होंने उसे लतीफ़ा बनाकर मार डाला।

मुफ़्त का टिकट

हम उजालों से थके हुए और
अपने हल्केपन से बेज़ार
किसी रोमांच की तलाश में भटक रहे थे

मुफ़्त का टिकट लेकर हम
इस अंधकार में बस एक ऐसी  फ़िल्म देखने आ गए
जिसका अंत टिकट के पीछे पहले से ही लिखा हुआ था

जिज्ञासा इतनी विकट थी कि हमने
यह जान लेने में एक उम्र खपा दी
कि वह अंत जो टिकट पर लिखा हुआ था
और जिसे हम बीच में भूल जाते थे
हम तक कैसे पहुँचा ?

इस तरह मुफ़्त का ये टिकट बड़ा महंगा पड़ा  हमें।


एक ज़िद्दी धुन

एक टूटी हुई धुन घुमड़ती है रह-रहकर
कोई सिरा उसका कहीं नहीं मिलता

वही बेतरतीब ज़िद्दी धुन लौटती है बार-बार
कहाँ सुना था इसे कुछ याद नहीं पड़ता

ऐसे जैसे ठीक से लग नहीं रहा हो स्टेशन
बीच में ही छूट-छूट जाती हो जैसे आवाज़

मुझे पकड़ना है इस धुन को समय रहते
ये बाजा भी नित पुराना पड़ रहा है।


कितने कम हैं कवि

कवि वो जादूगर है जो
आँसू, पसीने और लहू को बदल सकता हो स्याही में  

जो सपनों, हक़ीक़तों, हताशाओं और उम्मीदों को
इस स्याही में डुबोकर लिखता हो कागज़ पर
और एक कविता छपती हो आपके भीतर

लेकिन वो जादूगर कवि नहीं
जो ख़रगोश जैसे मुलायम
कबूतर जैसे फड़फ़ड़ाते
या रेशमी रुमाल जैसे चमकते शब्दों को
अपनी टोपी में डाल
उसमें से एक कविता निकाल लेता हो

जिसके प्रदर्शन को हैरत से ताकते हुए आप
ताली बजाते-बजाते लौट आते हों
ऐसी नज़रबंदी से बाहर खाली हाथ

कितने कम हैं कवि
और यह दुनिया मेरे जैसे जादूगरों से भरी पड़ी है।


हाथों-हाथ बिकती त्रासदी


तुम पानी की शुद्धता पर मुग्ध होकर
ढक्कन हटा मिटाते हो अपनी प्यास

उसके इतना पारदर्शी होने के बावजूद
तुम देख नहीं पाते हो उसमें
डूबकर मर गई गिरवी रखी हुई किसी की प्यास

पानी का बोतल में बंद होना
हमारे युग की हाथों-हाथ बिकती त्रासदी है।  


घर की छाँह   

[ कवि देवेश पथ सारिया के लिए ]


तुम जाओ दुनिया के किसी भी कोने
तमतमाता हुआ सूरज हो आसमान में कहीं भी
घर की छाँह हमेशा पड़ती है तुम पर

घर से दूर होने पर
कितनी दूर होता है दूर होना।


परिचय

जन्म : 28/04/1977
शिक्षा : विधि स्नातक
सृजन : कविताएँ वागर्थ, विपाशा, समावर्तन, सेतु, आकंठ, जनपथ, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं के अलावा अनुनाद, असुविधा, पहली बार, अजेय, अनहद, आपका साथ, साथ फूलों का व पोषम पा ब्लॉग्स पर प्रकाशित एवं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के शिमला केंद्र से प्रसारित।
सम्प्रति : वकालत
पता : चैम्बर नंबर 145, कोर्ट काम्प्लेक्स, पौंटा साहिब, जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश।
मोबाइल : 9418467632, 7018503601
ईमेल : sainik.pradeep@gmail.com




रविवार, 20 सितंबर 2020

हिदायत - विस्लावा सिम्बोर्स्का

जिंदगी तो वो थी ...

मेरी मानो 
मत ले जाओ  
इन विदूषको को 
आसमान के पार 

चौदह बेजान ग्रह 
ये थोड़े धूमकेतु 
दो तारे 
और जब तक तुम तीसरे का रुख करोगे 

तुम्हारे विदूषक भूल चुके होंगे 
हंसने हंसाने की बातें 


क्या है कि 
वह लोक 
और इहलोक वाली 
यह दुनिया ---
जो है सो हइये है 
माने 
एकदम पूर्ण !

ये मसखरे
इस पूर्णता को 
कभी क्षमा नहीं करेंगे 
लिख लो

उन्हें क्या मजा आएगा 
इन सब में 

इस समय में ( जो न जाने कब से है )
यह सौंदर्य (कोई कमी  ही नहीं जिसमे )
और तुम्हारा यह गुरुत्व ( इसमें कहाँ है कोई गुंजाइश मुस्कराने भर की भी  )
जिस पूर्णता को देख 
लोगों के मुँह 
खुले के खुले रह जाते हैं 

विदूषक जम्हाई लेगा उसे देख कर 

जब तक तुम चौथे तारे की ओर बढ़ोगे
हालात और बिगड़ जाएंगे 
तिरछी मुस्कान, 
बेदार रातें
और यह मारक संतुलन 

कोई बड़बड़ाता है---
चोंच में रसगुल्ला दबाए वो कौआ याद है 
याद है महाराज के फोटो पर मक्खियों का भनभनाते हगते जाना
झरने में नहाता वो बंदर भी न...

जिंदगी तो वो थी
  
अनुवाद - सत्‍यार्थ अनिरुद्ध

सोमवार, 7 सितंबर 2020

अफवाह, इतिहास और इतिहास बोध - डॉ. राजूरंजन प्रसाद

अफवाह और इतिहास

हमारे महापुरुष जितना इतिहास की किताबों में हैं, अफवाहों में उससे तनिक कम नहीं हैं। सबसे ज्यादा अफवाह गांधी बाबा को लेकर है। मेरी मां बताया करती थीं कि गांधी को उनकी इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजी सरकार भी जेल में बंद नहीं रख सकती थी। गांधी में 'चमत्कारी' शक्ति थी और वे इस शक्ति की बदौलत जब चाहते थे, जेल का फाटक खुल जाता था और वे बाहर निकल जाते थे। गांधी जब चंपारण आए तो चमत्कारी शक्तियां भी उनके साथ आयीं। बेतिया के आसपास के इलाकों में पेड़-पौधों से लेकर छप्पर के कद्दू तक पर गांधी की आकृति उभरने लगी। इस सब की जड़ में लोगों का यह विश्वास था कि गांधी कोई साधारण आदमी नहीं बल्कि 'अवतारी पुरुष' हैं। गांधी को आदमी से अवतारी पुरुष बनाने में इन अफवाहों की खासी भूमिका रही है।

अकारण नहीं है कि उस समय के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण लेखक उपन्यास ‘मैला आँचल’ लोक स्मृति के बनने की प्रक्रिया के साथ शुरू होता है-‘यद्यपि 1942 के जन-आंदोलन के समय इस गाँव में न तो फौजियों का कोई उत्पात हुआ था और न आंदोलन कि लहर ही गाँव तक पहुँच पाई थी, किन्तु जिले भर की घटनाओं की खबर अफवाहों के रूप में यहाँ तक जरूर पहुंची थी.’ और अफवाह थी कि ‘मोगलाही टीशन पर गोरा सिपाही एक मोदी कि बेटी को उठाकर ले गए. इसी को लेकर सिख और गोरे सिपाहियों में लड़ाई हो गई, गोली चल गई. ढोलबाजा में पूरे गाँव को घेरकर आग लगा दी गई. एक बच्चा भी बचकर नहीं निकल सका. मुसहरू के ससुर ने अपनी आँखों से देखा था-ठीक आग में भूनी गई मछलियों की  तरह लोगों की लाशें महीनों पड़ी रहीं, कौआ भी नहीं कहा सकता था; मलेटरी का पहरा था. मुसहरू के ससुर का भतीजा फारबिस साहब का खानसामा है; वह झूठ बोलेगा?’  

इन अफवाहों के स्रोत प्रायः निम्नवर्गीय, निम्नजातीय एवं निरक्षर लोग हैं. ‘मैला आँचल’ के महंत सेवादास को ‘सतगुरु साहेब’ सपने में दर्शन देते हैं और गांधीजी की ‘पैरवी’ करते हैं. कहते हैं, ‘तुम्हारे गाँव में परमारथ का कारज हो रहा है और तुमको मालूम नहीं? गांधी तो मेरा ही भगत है. गांधी इस गाँव में इसपिताल खोलकर परमारथ का कारज कर रहा है. तुम सारे गाँव को एक भंडारा दे दो.’ लक्ष्मी कोठारिन, बालदेव जी को ‘करुणा के अवतार’ गांधी के बारे में समझाती है-‘महतमा जी के पंथ को मत छोड़िए, बालदेव जी! महतमा जी अवतारी पुरुख हैं. .. जिस नैन से महतमा जी का दरसन किया है उसमें पाप को मत पैसने दीजिए. जिस कान से महतमा जी के उपदेस को सरबन किया है, उसमें माया की मीठी बोली को मत जाने दीजिए. महतमा जी सतगुरु के भगत हैं.’

नेहरू भी अफवाह बनने से बचे नहीं हैं। जब मैं छोटा था तो अक्सर लोगों के मुख से सुनता था कि नेहरू के कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे। तब मेरा बालसुलभ ज्ञान इसका काट नहीं जानता था बल्कि एक स्थापित तथ्य की तरह इसे मानकर चलता था। नतीजतन मेरी किशोरावस्था नेहरू की आलोचना, बल्कि कहिए कि लानत-मलामत के साथ जवान हुई। कॉलेज में जब नेहरू के बारे में पढ़ा तो सही जानकारी मिली। नेहरू को स्वयं इस अफवाह की जड़ काटनी पड़ी। वे लिखते हैं, 'मुझे पता लगा कि मेरे पिताजी और मेरे बारे में एक बहुत प्रचलित दंतकथा यह है कि हम हर हफ्ते अपने कपड़े पैरिस की किसी लॉन्ड्री में धुलने को भेजते थे। हमने कई बार इसका खण्डन किया है, फिर भी यह बात प्रचलित है ही। इससे ज्यादा अजीब बाहियात बात की कल्पना भी मैं नहीं कर सकता।' (जवाहरलाल नेहरू, 'मेरी कहानी', सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295) इसी तरह की एक दूसरी प्रचलित दंतकथा है कि 'मैं प्रिंस ऑफ वेल्स के साथ स्कूल में पढ़ता था। सच बात तो यह है कि न तो स्कूल में ही उनके साथ पढ़ा हूँ और न मुझे उनसे मिलने या बात करने का ही मौका हुआ है।' (जवाहरलाल नेहरू, 'मेरी कहानी', सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 295-96) 'नौजवान स्त्री-पुरुषों का तो, एक प्रकार से, मैं नायक बन गया था। और उनकी निगाह में मेरे आसपास कुछ वीरता की आभा दिखाई पड़ती थी, मेरे बारे में गाने तैयार हो गये थे और ऐसी-ऐसी अनहोनी कहानियाँ गढ़ ली गई थीं, जिन्हें सुनकर हंसी आती थी।' (जवाहरलाल नेहरू, 'मेरी कहानी', सस्ता साहित्य मंडल, 1988, पृष्ठ 294) इन बातों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अफवाह की जड़ कितनी गहरी पैस चुकी थी। हालांकि आज भी इसकी हरियाली कुछ कम नहीं हुई है।

इतिहास और तात्कालिकता 


जवाहरलाल नेहरू ने 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' लिखे एक पत्र में अपनी दसवर्षीया पुत्री को जॉन ऑफ आर्क के हवाले से बताया है कि असामान्य परिस्थिति में अत्यंत सामान्य बात भी असाधारण महत्त्व की हो जाती है। इसे हम अपने गांवों में प्रचलित एक छोटी बात से समझ सकते हैं। बिहार के गांवों में कार्तिक मास में भूरा (उजला गोल कद्दू) दान करने तथा उसकी बलि देने की धार्मिक प्रथा रही है। '1910 के आसपास उत्तर प्रदेश में वार्षिक काली पूजा के अवसर पर सफेद कुम्हड़ा या पेठा की बलि दी जाती थी। यों तो इसका कोई खास अर्थ नहीं था, किंतु लोगों ने इसका अर्थ यह लगाया कि सफेद कुम्हड़ा माने सफेद चमड़ी वाला अंग्रेज।' (मन्मथनाथ गुप्त, 'भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास', आत्माराम एंड संस, 2009, पृष्ठ 374)
 
कुछ दिनों पहले तक राजधानी की सड़कों के किनारे खुले में यत्र-तत्र मूत्रत्याग कर लेने को लोग महज अशिष्टता मान संतोष कर लेते थे। एस पी, डी एम की कोठी के सामने भी ऐसा करने में शायद ही कोई खतरा मानते थे। आज 'स्वच्छता अभियान' के जमाने में ऐसा कहना-करना जोखिम भरा हो सकता है। किंतु आधुनिक भारत के हमारे किसी इतिहासकार मित्र को स्वतंत्रता संग्राम के जमाने की फाइल में कोई भारतीय एस पी, डी एम की कोठी के आगे मूत्रत्याग करता मिल जाए तो उसे स्वतंत्रता सेनानी से कम मानने के लिए शायद ही तैयार होंगे! 1942 की क्रांति के समय आरा के पास जमीरा में पाखाना फिर रहे कुछ लोगों को गोली मार दी गई थी। (मन्मथनाथ गुप्त, पूर्वोद्धृत, पृष्ठ 374)। कहने की जरूरत नहीं कि आधुनिक भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में वे 'शहीद' हैं।

दरभंगा में 1940 में एक तांगेवाला गिरफ्तार हो गया था। उसने घोड़े को चाबुक मारते हुए केवल इतना कहा था, 'चल रे बेटा हिटलर जैसा'। बस, वह इसी बात पर गिरफ्तार हो गया। (भोगेन्द्र झा, क्रांतियोग, मातृभाषा प्रकाशन, 2002, पृष्ठ 29) सवतंत्र बिहार के कर्पूरी ठाकुर ने लोक सभा को बताया था कि इमरजेंसी के दौरान एक साधु को 'जय नारायण' 'जय नारायण' के जाप के लिए पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। समझा गया कि वह लोकनायक का कोई अनुयायी है। (द इंडियन एक्सप्रेस, 1 अप्रैल 1977)

अंग्रेजी राज में हमें जो बहुत सारी राजनीतिक डकैतियों के उदाहरण प्राप्त होते हैं उनमें से अधिकतर तो डकैती थी ही नहीं। बंगाल के प्रसिद्ध शिवपुर डकैती के आरोपी अमर बाबू (अमरेंद्रनाथ चटर्जी) ने जैसाकि सीताराम सेक्सरिया को बताया था, 'क्रांतिकारी ने जमींदार से सहायता मांगी तो उस ने कहा, सहायता देना तो दिक्कत की बात है मैं तुम्हें अपना खजाना बता देता हूँ तुम लोग डाका डालकर उसे ले जाओ इस से अच्छी सहायता मिल जायेगी।' (सीताराम सेक्सरिया, एक कार्यकर्ता की डायरी, भाग 1, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण : 1972, पृष्ठ 83) इस प्रकार, 'राजभक्त' दिखने वाले लोगों में से कई गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की सहायता करते थे।

इतिहास के तथ्य और इतिहास बोध


हम इतिहास को महज इतिहास के तथ्य से जोड़कर देखते हैं, इतिहास बोध से नहीं। मेरे इस कथन से किसी को यह अर्थ नहीं निकाल लेना चाहिए कि मैं इतिहास के तथ्य की उपेक्षा कर रहा हूँ और महज इतिहास बोध के आधार पर इतिहास लेखन की वकालत कर रहा हूँ। बल्कि मेरा कथन तो उनलोगों के खिलाफ महज प्रतिकार है जो घोषणा करते हैं कि 'मैं तथ्य से बाहर जाने का साहस नहीं कर सकता हूँ क्योंकि इतिहास बोध मिथकों का भी हो सकता है।' इस तरह की घोषणा करनेवाले इतिहासकार जाने-अनजाने तथ्य को 'पवित्र' और 'अंतिम' मान लेने की भूल करते हैं। वे कहेंगे, 'तथ्य पवित्र हैं और मन्तव्यों पर कोई बंधन नहीं है।' किंतु नहीं, इतिहास हमें बताता है कि तथ्य न तो पवित्र होते हैं और न अंतिम। ई. एच. कार ने इस संदर्भ में एक बड़ी रोचक बात कही थी जिसकी तरफ हमारे इतिहासकार बहुत कम ध्यान देते आये हैं। कार ने 'तथ्य निर्माण की प्रक्रिया' की बात कही थी। ठीक जैसे हिंदी कविता के क्षेत्र में मुक्तिबोध ने कविता की रचना प्रक्रिया का सवाल उठाया था। जिस तरह कविता की रचना प्रक्रिया को समझे बगैर कविता का मर्म नहीं समझा जा सकता है उसी तरह इतिहास में तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को समझे बगैर इतिहास के तथ्य की 'प्रामाणिकता' सिद्ध नहीं हो सकती। कविता को समझने में कवि को भी समझना होता है। उसका परिवेश, उसकी शब्दावली एवं अन्य कवियों का प्रभाव तक देखना होता है। अब तो लिंग, जाति, धर्म आदि तमाम बातें देखी जाती हैं। इसी के आधार पर हम तय कर पाते हैं कि 'सहानुभूति' का साहित्य है अथवा 'स्वानुभूति' का। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बगैर हम अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं। ठीक इसी तरह एक विवेकवान इतिहासकार के लिये तथ्य संदेह से परे न हो सकते हैं न होने चाहिए। एक इतिहासकार का दायित्व न केवल तथ्य के आलोक में वैज्ञानिक और प्रामाणिक इतिहास लिखना है बल्कि स्वयं तथ्य की वैज्ञानिकता एवं प्रामाणिकता की जाँच करना भी है।
 
इतिहास के तथ्य महज तथ्य नहीं होते, कई दफा वे अपने आप में मुकम्मल इतिहास होते हैं। इंदिरा जब 9-10 साल की बच्ची थी तभी जवाहर लाल नेहरु ने पत्रों के माध्यम से उसे समझाया था, बताया था कि कैसे नदी किनारे बिखरे गोल लाल-काले पत्थर पहाड़ का अभिन्न हिस्सा हैं अथवा स्वयं पहाड़ हैं। पहाड़ के टूटने, नदी  के जल प्रवाह तथा अपरदन के अन्य अनेक कारणों को जाने समझे बगैर नदी किनारे मिले गोल पत्थर को पूरी तरह से समझने का दावा नहीं किया जा सकता। वैसे ये पत्थर अपनी विकास यात्रा की पूरी कहानी अपने साथ लिए चलते हैं, लेकिन जिसे इस कहानी में रुचि नहीं है या जिसमें 'अदृश्य', 'अव्यक्त' को पकड़ने की क्षमता नहीं है, नदी किनारे पड़े उस निठल्ले और बेजान पत्थर को उसके समूचे इतिहास से काटकर देखेगा। ठीक उसी तरह इतिहास दृष्टि से हीन व्यक्ति इतिहास के तथ्य को समग्रता में समझने का दावा नहीं कर सकता। ये तथ्य कई बार सूत्र रूप में होते हैं। उसकी व्याख्या उसके अतीत में होती है। उस व्याख्या को समझना ही दरअसल तथ्य को सही सन्दर्भ में समझने की शर्त है। साल दो साल से अधिक समय नहीं गुजरा है जब एक अखबार में चौंकानेवाला तथ्य देखने को मिला था। खबर थी कि अधिकतर भारतीय पत्नियां पति द्वारा की गई पिटाई को बुरा नहीं मानतीं। यह एक तथ्य है, ग्रामीण भारतीय समाज का सच है। भारतीय पत्नियों की कंडीशनिंग और पितृसत्ता के मकड़जाल को समझे बगैर इस तथ्य की शल्यचिकित्सा नहीं हो सकती। एक दृष्टिसम्पन्न इतिहासकार ऐसे तथ्यों का न सिर्फ वैज्ञानिक विश्लेषण करेगा बल्कि तथ्य के इर्द-गिर्द फैली व्याख्या को भी ध्यान में रखेगा।

 इतिहास बोध और इतिहास के तथ्य के संदर्भ में मदन कश्यप की कविता की याद आ रही है जिसमें वे कहते हैं कि स्त्रियों ने चूल्हे की आग को राख की परतों में जिन्दा रखा है। चूल्हे में आग अथवा राख का होना अगर इतिहास का तथ्य है तो आग को बचाए रखने की जद्दोजहद सम्पूर्ण स्त्री जाति का इतिहास है, साथ ही आग और राख का इतिहास भी। इसलिए एक जेनुइन इतिहासकार निश्चय ही इतिहास के तथ्य को महज एक तथ्य मानने की भूल कदापि न करेगा। जो इतिहासकार ज्ञात तथ्यों को एकत्र कर 'अंतिम विश्लेषण' में जुट जाते हैं वे दरअसल एक ऐतिहासिक भूल करते हैं। कई दफा हम जिसे तथ्य समझ रहे होते हैं दरअसल वह तथ्य होता ही नहीं  है, तथ्य उससे परे होता है। जिसे हम वास्तविक तथ्य समझते हैं वह तो तथ्य का आभास भर होता है। 

वैज्ञानिक तथ्य है कि सूर्य की किरणों को पृथ्वी तक आने में आठ मिनट का समय लगता है अर्थात सूर्य को हम आठ मिनट विलम्ब से देखते हैं। सूर्यास्त के साथ भी यही सच्चाई है। सूर्य से चली अंतिम किरणों को हम आठ मिनट बाद ही देख पाते हैं जबकि हम पृथ्वीवासियों के लिए आठ मिनट पहले ही सूर्य 'विदा' बोल चुका होता है। ठीक उसी तरह काल गणना में या तो भूत हो सकता है अथवा भविष्य, वर्तमान महज एक क्षीण विभाजक रेखा है। या तो आप भूतकाल में होते हैं या तो भविष्यत काल में। वर्तमान में होना दरअसल नहीं होना है, लेकिन हम हैं कि वर्तमान को मुट्ठी में कस लेना चाहते हैं। इसकी जड़ में हमारी यह भ्रांत धारणा होती है कि भविष्य वर्तमान का नतीजा है। हकीकत में दरअसल भूत/अतीत है जो हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों का नियंता है। वर्तमान इतना क्षणिक है कि लगभग अस्तित्वहीन है।

इतिहासकारों द्वारा हमें बार-बार लगभग चेतावनी की भाषा में बताया जाता रहा है कि इतिहास में अगर-मगर अथवा संयोग की कोई भूमिका नहीं होती है। मसलन, इतिहास में ऐसे प्रश्नों के लिए कि 'अमुक घटना नहीं होती तो इतिहास का स्वरूप क्या होता' अथवा 'गाँधी नहीं होते तो देश आजाद होता अथवा देश विभाजन होता या नहीं', जैसे प्रश्न इतिहास के विद्यार्थी के लिये बेमानी हैं। आप कह ले सकते हैं कि इस तरह इतिहास खुद 'ऐतिहासिक नियतिवाद' का शिकार है। किंतु तथ्य निर्माण की प्रक्रिया के अनुभव इतिहास में संयोग की भूमिका से इनकार नहीं करते। इस भूमिका को नकारने की भूल वे अवश्य करेंगे जो संयोग को भाग्य सुन-समझ बैठते हैं। ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है कि संयोग की दुहाई कर्महीन नर देते हैं। 

तथ्य का बनना न बनना महज संयोग भी हो सकता है। इस संदर्भ में बचपन में पढ़ी झाँसी की रानी कविता, जिसका संबंध रानी लक्ष्मीबाई की जीवन घटनाओं से है, अत्यंत मूल्यवान अर्थ दे सकती है। कविता की पंक्ति है, 'घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार'। इसके बाद जो हुआ वह हमारे आपके लिए इतिहास का तथ्य है। घोड़ा नया न होता तो सम्भवतः इतिहास के दूसरे ही तथ्य होते। इस प्रसंग में आलोकधन्वा की कविता 'भागी हुई लड़कियां' भी कुछ बात जोड़ती है। कवि हमें सावधान करता है कि सिर्फ एक लड़की के भागने की बात स्वीकार मत कर लेना क्योंकि और भी लड़कियां हैं जो अपनी डायरी, अपने रतजगे और अपने सपने में भागी हैं। उनकी आबादी कई गुना ज्यादा है लेकिन जो अख़बार के किसी कोने में दर्ज नहीं है। ये लड़कियां भी इतिहास के समय को उतना ही ज्यादा प्रभावित करती हैं जितना एक 'सचमुच की भागी हुई लड़की', लेकिन एक इतिहासकार तो वही पढ़ेगा जो दीमक लगे दस्तावेज में दर्ज है ।

तथ्य निर्माण की प्रक्रिया सरल, सहज व एकरेखीय नहीं होती। परंपरा, लोक रीति, आचार-विचार व नैतिक मूल्य- ये सभी तथ्य निर्माण की प्रक्रिया को गहरे प्रभावित करते हैं। अक्सर अख़बारों में खबर छपा करती है कि आज दो सौ यात्री बिना टिकट यात्रा करते पकड़े गए। निस्संदेह इसमें कुछ वैसे यात्री भी होते हैं जो टिकट जाँचकर्ता को पैसे दे दिलाकर 'खबर का हिस्सा' बनने से बच जाते हैं। क्या कभी अख़बार में यह खबर छपी कि कुछ बिना टिकट यात्रा करते यात्री महज इसलिए बच गये कि जांचकर्ता ने उससे घूस की रकम खायी थी। ऐसी घटनाएं रोज ही घटती हैं पर दर्ज होने से हमेशा रह जाती हैं। कुछ साल हुए जब मुझे एक अप्रिय खबर हाथ लगी थी। घटना थी कि मेरा कभी का छात्र रह चुका बच्चा किसी की बाइक लेकर गायब हो गया। यह खबर पहले पुलिस तक गई और फिर इंजीनियर दादाजी के पास। दादाजी अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित नागरिक थे। अपनी 'प्रतिष्ठा की रक्षा' में वे थाने पहुंचे और थानेदार देवता की पूजा कर मामले को रफा दफा किया-  कराया। लोगबाग चर्चा कर रहे थे कि 'देखिए एक  प्रतिष्ठित दादाजी का पोता कैसा भारी चोर निकल गया!' दूसरी ओर, वे इस बात पर राहत व्यक्त कर रहे थे कि ये तो थानेदार 'बेचारा भला आदमी'  निकला जिसने ले-लिवाकर दादाजी के चेहरे पर 'कालिख पुतने' से बचाया। यह कैसा सामाजिक मूल्य है कि लड़कपन में जिसने गाड़ी उठा ली वह भारी चोर हो गया और जिसने घूसखोरी जैसा घोषित अपराध किया वह 'बेचारा भला आदमी' बना। क्या आप अब भी इस बात से सहमत नहीं होंगे कि इतिहास के तथ्य न तो 'पवित्र' होते हैं और न तो हो सकते हैं। कभी कभी तो दूरदर्शन के चैनलों पर घटना की लाइव प्रस्तुति दिखाई जाती है। कई बार प्रस्तुति के क्रम में दुर्घटना तक घट जाती है। दूसरे दिन अख़बार में निकलता है कि गहरे तालाब में डूबकर बच्चे की मौत हो गयी। सवाल है कि बच्चा डूबा या कि डूबने दिया गया या कहें कि डूबा दिया गया। खबर तो यह होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसी खबर आपने देखी-पढ़ी है क्या?

नहीं, इतिहास के तथ्य उतने भी पवित्र और निर्दोष नहीं होते जितना कि 'तथ्य सम्प्रदाय' के लोग मानते हैं। लेकिन वे तो यह भी कहेंगे कि इतिहास में तथ्य ही 'असली' और 'प्रामाणिक' हैं, व्याख्या तो 'कहानी' है। वस्तुतः जिस 'गुण' के कारण इतिहास कहानी है वही उसकी ताकत है। अगर ऐसा नहीं होता तो बहुत पहले 'अंतिम इतिहास' लिख दिया गया होता और हम 'इतिहास के अंत' की घोषणा पर छाती नहीं कूट रहे होते!
 
परिचय
पच्चीस जनवरी उन्नीस सौ अड़सठ को पटना जिले के तिनेरी गांव में जन्म। उन्नीस सौ चौरासी में गांव ही के ‘श्री जगमोहन उच्च विद्यालय, तिनेरी’ से मैट्रिक की परीक्षा (बिहार विद्यालय परीक्षा समिति, पटना) उत्तीर्ण। बी. ए. (इतिहास ऑनर्स) तक की शिक्षा बी. एन. कॉलेज, पटना (पटना विश्वविद्यालय, पटना) से। एम. ए. इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय, पटना से (सत्र 89-91) उन्नीस सौ तिरानबे में। ‘प्राचीन भारत में प्रभुत्त्व की खोज : ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष के विशेष संदर्भ में’ (1000 ई. पू. से 200 ई. तक) विषय पर शोधकार्य हेतु सन् 2002-04 के लिए आइ. सी. एच. आर का जूनियर रिसर्च फेलोशिप। मई, 2006 में शोधोपाधि। छह अंकों तक ‘प्रति औपनिवेशिक लेखन’ की अनियतकालीन पत्रिका ‘लोक दायरा’ का संपादन। 'सोसायटी फॉर पीजेण्ट स्टडीज', पटना एवं 'सोसायटी फॉर रीजनल स्टडीज', पटना का कार्यकारिणी सदस्य। शोध पत्रिका 'सत्राची' के सलाहकार मंडल में। मत-मतांतर, यादें, पुनर्पाठ, दस्तावेज आदि ब्लौगों का संचालन एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। सम्प्रति बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में इतिहास अध्यापन।

 
 

वे कहां के नागरिक हैं - आरचेतन क्रांति

इस देश की जमीन पर पैदा हुए  बच्‍चे


इस देश के कॉलेजों में पढ़ रहे  बच्‍चे
जिसे अपने बच्‍चे नहीं लगते
वह कहां का नागरिक है ?

वह कहां का नागरिक है
जिसे इस देश की जनता के
औरतों के, मर्दों के
दुख दर्द दिखाई नहीं देते ?

कहां का नागरिक है वो
जिसे रोज हैवानों के हत्‍थे चढ रही औरतों की
चीत्‍कार नहीं सुनाई देती ?


कहां से आए हैं वे लोग
जो उसी जनता से नागरिकता पूछ रहे हैं
जिस जनता ने उन्‍हें अपना राजा चुनाअगुआ चुना !

वे बताएं  कि  वे कहां के नागरिक हैं
जिन्‍हें इस देश की हजारों साल पुरानी बनावट की

समझ नहीं,
वे बताएं

कि वे कहां से आए हैं
जो इस धरती पर सदियों से रहने वाले लोगों से
पूछ रहे हैं
कि तुम कहां से आए हो ?

इस देश से इतने अनजान
वे लोग
कहां के नागरिक हैं, पूछिए उनसे।



रविवार, 6 सितंबर 2020

मनुष्यता के बचे रहने की आड़ी- तिरछी इबारतें - रघुवीर सहाय की कविताएं - अच्युतानंद मिश्र

 यह कटी पिटी पंक्तियों भरी कॉपी...

हर कवि अपने समय और समाज, भाषा और लोग, ज्ञान और चेतना, बुद्धि और संवेदना, दुःख और करुणा, प्रेम और सामाजिकता, घृणा और भय, संकोच और संशय, संज्ञा और क्रिया आदि की पुनर्रचना करता है. इस अर्थ में वह भाषा के नये महत्व को उजागर करता है. छापामार योद्धा की तरह नये ठिकानों की तलाश करता है. वह इन संदर्भों को बार-बार अपने समय के मनुष्य के बोध से जोड़ता है. कोई कवि इस तलाश में कितनी दूर निकल आया- यह महत्वपूर्ण है.
‘कितनी जमीन’ के उस लालची किसान की तरह मृत्यु से पूर्व वह भाषा के रास्ते, जिन्दगी की शाम ढलने से पहले समय और समाज के बड़े दायरे को व्यक्त कर देना चाहता है.
कविता का जीवन, कवि की मृत्यु के बाद आरम्भ होता है. अपनी हड्डियों में कवि जितना फॉस्फोरस बचा पाता है, उतनी ही कविता की जमीन वह उर्वर कर पाता है. परन्तु  हड्डियों में फॉस्फोरस इक्कठा कर सकना कोई आसान काम नही. जॉन औलिया के शब्दों में कहें तो उसके लिए लहू थूकना होता है.
आधुनिक हिंदी कविता का एक रास्ता निराला की विराटता से निकलता है. निराला की कविता हर तरह की भाषा और परिभाषा का अतिक्रमण कर देती है. दूसरा रास्ता मुक्तिबोध की बीहड़ता से निकलता है. रघुवीर सहाय की कविता का रास्ता मुक्तिबोध और निराला की समकालीनता से निर्मित होता है. वहां निराला की प्रयोगशीलता और करुणा भी है और मुक्तिबोध की आत्मालोचना और सभ्यता समीक्षा की कोशिश भी.
परम्परा से हर कवि अविभाज्य होता है परन्तु उसे अपने समय का रसायन स्वयं तैयार करना होता है. हर कवि के लहू में परम्परा, लौह अयस्क की तरह मौजूद रहता है, लेकिन उसकी समकालीनता उसका रक्तचाप है. इसके बगैर कोई कविता मृत हो जायेगी. कहना न होगा कि रघुवीर सहाय की कविता के लहू में लौह अयस्क भी है और रक्तचाप का उचित आवेग भी.
1967 में रघुवीर सहाय का संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ का प्रकाशन हुआ. आज जिसे हम समकालीन कविता कहते हैं, उसका आरम्भ इस संग्रह से माना जा सकता है. इस संग्रह का महत्व यह था कि इसने बगैर काव्यात्मक यथार्थ को विकृत किये, कविता की भाषा को बोलचाल के बेहद करीब ला दिया. इस संग्रह के प्रकाशन के साथ हिंदी कविता एक नये युग में प्रवेश कर गयी. अकविता के कवि कविता की भाषिक कुलीनता और आत्मगतता से लड़ रहे थे. वे भाषा के पुराने नियमों को बदल रहे थे लेकिन ऐसा करते हुए वे भाषा के एक दूसरे छोर पर जा रहे थे. वे किसी भी अर्थ में भाषा के जटिल समाजशास्त्र को समझने की कोशिश नहीं कर रहे थे.
रघुवीर सहाय की कविता एक नई उदार और खुली कविता की प्रस्तावना रखती है. यह कविता भाषा की पुरानी रवायतों को तोडती है. कई बार इसे पढ़ते हुए हम पाते हैं- अरे यह तो कविता की भाषा न हुयी -परन्तु रघुवीर सहाय ऐसा इसलिए करते हैं ताकि हमारे पारम्परिक काव्यबोध में एक तरह का व्यवधान आये. यह कविता जहाँ कविता की बची खुची संगीतात्मकता पर चोट करती हैं, वहीं कविता की विषय केन्द्रीयता को भी भंग करती है. यह कविता किसी एक व्यक्ति या घटना को न लेकर बहुत सी भिन्न घटनाओं को सामने लाती है -कोलाज़ शैली में. हम यहाँ देख सकते हैं कि अपनी संरचना और विषयवस्तु में ये दृश्य अलग-अलग लगते हैं, लेकिन इन सबमें समय का बोध ही वह बिंदु है जो इनको जोड़ता है. इस तरह दृश्यावलियों के माध्यम से यह कविता एक नये समय-बोध को रखती है. उदाहरण के तौर पर दो दृश्यों को देखा जा सकता है-
छुओ
मेरे बच्चे का मुंह
गाल नहीं जैसा विज्ञापन में छपा
ओंठ नहीं
मुंह
कुछ पता चला जान का शोर डर कोई लगा
नहीं -बोला मेरा भाई, मुझे पांव तले
रौंदकर, अंग्रेजी.


X X X
कितना आसान है नाम लिख लेना
मरते मनुष्य के बारे में क्या करूँ क्या करूँ मरते मनुष्य का
अन्तरंग परिषद् से पूछकर तय करना कितना
आसान है कितनी दिलचस्प है नेहरु की
आशंसा पाटिल की भर्त्सना की कथा
कितनी घुटन के अन्दर घुटन के
अन्दर घुटन से कितनी सहज मुक्ति

इन दो दृश्यों में प्रकट रूप से कोई संगति नहीं ढूंढी जा सकती. लेकिन क्या इनमें अपने समय की क्रूरता और समाज के बदलते दायरों को चिन्हित नहीं किया जा सकता. पहले अंश में आता है, ‘बोला मेरा भाई, मुझे पांव तले /रौंदकर, अंग्रेजी’, अब यहाँ अंग्रेजी से क्या तात्पर्य है. दो भाइयों के बीच के सम्वाद में एक बहुत सहज और निकट की भाषा होती है- मातृभाषा. लेकिन जब दोनों के बीच दुराव आता है, तो उन्हें जोड़ने वाली भाषा की यह कड़ी भी टूट जाती है. एक तरह की संवादहीनता घेरने लगती है. भाषा की इस कड़ी का टूटना दरअसल सम्बन्धों के व्यापक दायरे का टूटना है. टूटने के बाद भाषा की अंतिम दीवार भी नहीं रह जाती. क्रूरता की एक नई शैली इजाद की जाती है. यहाँ इस शैली की भाषा है अंग्रेजी.
सामाजिक नैतिकता के विघटन की एक नई भाषा- इस संग्रह में रघुवीर सहाय इजाद करते हैं. सांस्कृतिक विघटन ने समाज और राजनीति के मूल्यों को बदल दिया है. हम कह सकते हैं कि रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीति की संस्कृति और उस संस्कृति से निर्मित सामाजिकता को पहचानने की कोशिश नज़र आती है. आत्महत्या के विरुद्ध संग्रह से हम समकालीन कविता की शुरुवात मान सकते हैं. यह इसलिए भी कि इस संग्रह की तमाम कविताओं में भाषा और विषय वस्तु, दोनों ही स्तरों पर समयबोध या समय की चिंताएं गहरी हैं.
आत्महत्या के विरुद्ध की कवितायेँ और उसके उपरांत रघुवीर सहाय की तमाम कविताएँ तर्क के वर्चस्व और वर्चस्व बोध से निर्मित तार्किकता की आलोचना करती हैं. ऐसा नहीं है कि आलोचना करते हुए ये कविताएँ अतार्किक हो जाती हैं या तर्क से परे. लेकिन ये कवितायेँ यह कहती हैं कि तर्क की दुनिया का अंतिम उद्देश्य ताकत का सृजन ही रह गया है.
ताकत के भीतर से संवेदना के ऊपर काबिज होने की चेतना उत्तरोत्तर प्रबल होती जाती है. तर्क धीरे-धीरे हमारे भीतर के वस्तुजगत को बदल देता है. एडोर्नों ने इसे आधुनिकता के रूप में व्याख्यायित किया था. वे इस बात पर बल दे रहे थें कि मनुष्य और प्रकृति के बीच सहज सम्बन्ध का विनष्ट होना और मनुष्य का धीरे-धीरे तर्क के अधीन होना आधुनिकता की सबसे बड़ी त्रासदी है.
क्या रघुवीर सहाय की कविताओं में हम इस त्रासदी को बार बार नहीं पढ़ते? जब वे कहते हैं –‘टेलीविज़न ने खबर सुनाई पैंतिस घायल एक मरा/ खाली बस दिखला दी खाली दिखा नहीं कोई चेहरा’ तो वे मनुष्य के संख्या में बदलने की बड़ी परिघटना और उसके परिणामस्वरूप अंतर्जगत में हो रहे परिवर्तन की ओर इंगित करते हैं. क्या ‘35’ की संख्या वास्तव में मनुष्य का विकल्प हो सकती है? क्या उस संख्या में उसका चेहरा, उसकी करुणा, उसकी छटपटाहट को भी शामिल माना जा सकता है? अगर ऐसा नहीं तो इस सूचना से, इस तरह के निर्मित ज्ञान से या ऐसी तार्किकता से हम- मनुष्य से, मनुष्य के भावजगत से, उसकी सामाजिकता से, उसकी स्मृति और उसकी भाषा से कितनी दूर आ जाते हैं- यह प्रश्न रघुवीर सहाय की कविताओं में बार-बार आता हैं.
वे बार-बार एक ऐसी भाषा, एक ऐसी कला, एक ऐसी संस्कृति की तरफ अपनी कविताओं को ले जाते हैं, जहाँ मनुष्य के बाहर की दुनिया में मौजूद किलेबंदी को भेदकर ,उसके अंतर्जगत में, उसकी बेचैनी ,उसके उथल-पुथल में, उसके स्वप्न में उसकी आकांक्षाओं और पश्चातापों में कविता प्रवेश कर सके.
जब उसको गोली मारी गयी
फोटो से जाना क्या पकता था चूल्हे पर
बेटे ने बैठ कर अपना मुंह दिखलाया
लाश का ढंका था मुंह
यह कविता किसी एक
घटना या दृश्य पर टिकी हुयी नहीं है. यह मनुष्य के हजारो वर्षों के इतिहास, उसकी भावकता, उसकी संवेदना, उसकी करुणा आदि के जल से सिंचित है. बेटे के खुले मुंह और लाश के ढंके मुंह के बीच जो बिडम्बना है, जो भाषिक अन्तराल है, उसे हम सामान्य भाषा में कह नहीं सकते. फोटो में एक तरफ एक लाश है, सामान्य तौर पर यह एक बड़ी परिघटना है. फोटोग्राफर अपने कैमरे को लाश पर केन्द्रित करता है. पास में ही उसका बेटा है, जिसका मुंह खुला है वह दृश्य में अनायास ही आ गया है. फोटोग्राफर के लिए उसकी उपस्थिति गौण है. लेकिन कवि के लिए वह गौण नहीं है .वह केंद्र से पृष्ठभूमि की ओर चला जाता है. ऐसा कैसे संभव होता है? ऐसा इसलिए क्योंकि रघुवीर सहाय तर्क के रास्ते कविता की जमीन पर नहीं उतरते, वे दृश्यों के भावजगत में प्रवेश करते हैं. ऐसे में दृश्य में मौजूद बच्चे की उपस्थिति केन्द्रीय हो जाती है. एक तरह से फोटोग्राफर की तकनीक और कैमरे की दुनिया से बाहर निकलकर. तकनीकी तार्किकता के मोहजाल से बचते हुए, वे संवेदना के धरातल पर उतरते हैं और यहाँ से वे संवेदनात्मक तार्किकता निर्मित करते हैं. वे कहते हैं उसके खुले मुंह से हमने ‘जाना क्या पकता था चूल्हे पर’. इस पंक्ति के बाद लाश और फोटो दोनों का यथार्थ, एक बड़े यथार्थ में बदल जाता है. एक दृश्य- एक युग, एक समय के बोध में बदल जाता है.  
रघुवीर सहाय की कविताओं में विशेषकर ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ के बाद की कविताओं में देखें तो उनका वाक्य विन्यास हमें जटिल लग सकता है. ऐसा क्यों है? कविता की सार्थकता इस अर्थ में भी होती है कि वह भाषा और समाज के मध्य एक गतिशील भूमिका का निर्वाह करें. कविता में अर्थ की स्थिरता, उसकी शक्ति नहीं कमजोरी ही होगी. रघुवीर सहाय एक ही वाक्य में कई अर्थ भरते हैं. कई बार एक ही वाक्य कई वाक्यों का समुच्चय भी नज़र आता है. उदाहरण के तौर पर इन दो काव्यांशों को देखा जा सकता है.
मेरी कविता में उषा के
भीतर मेरी मृत्यु लिखी
चिड़िया के भीतर है मेरी
राष्ट्रभावना, बच्चों में दुःख .
मानो सबकुछ गबड़सबड़ है,
पर मैंने यों ही देखा था

xx
जितना बड़ा जीवन कवि जी चुका होता है ,
उतना ही बड़ा सत्य उसके वह कहने पर
लोगों को मिलता है, हम जैसे छुटभइये
जो सच सच एक बार कह चुके होते हैं.

रघुवीर सहाय की कविताओं में वाक्य संरचना के वैशिष्ट्य के ऐसे अनेक उदहारण दिए जा सकते हैं. इसे एक कवि की भाषिक कुशलता भी माना जा सकता है. लेकिन रघुवीर सहाय के लिए यह मात्र भाषिक चातुर्य नहीं है. हर कवि के सामने समय और समाज होता है. उसे देखने दिखाने के लिए भाषा होती है. वह भाषा, समय और समाज के नये सम्बन्धों की तलाश करता है. अगर किसी भाषिक संरचना से समाज की अवधारणा बाहर आ जाये तो वह कविता महत्वपूर्ण न हो सकेगी. महत्वपूर्ण हुयी भी तो वह दीर्घजीवी नहीं होगी. रघुवीर सहाय एक ऐसी काव्य भाषा की तलाश करते हैं, जिसमें बदलते हुए समाज का चेहरा शामिल हो. एक तयशुदा संरचना से निर्मित भाषिक बोध किसी जीवित या गतिशील समाज को व्यक्त नहीं कर सकता. समाज की अस्थिरता को कविता के प्रकट रूप से स्थिर शब्दों में दर्ज़ करना बड़ी चुनौती है. एक जटिल और गतिशील समाज की कविता भाषा की रचनाशीलता के रास्ते ही आगे बढती है. कवि शब्दों में नये अर्थ भरता है.
क्योंकि मैं ताकत से नहीं बोला
उम्मीद से बोला कि शायद मैं सही हूँ.

अगर इन पंक्तियों को देखे तो बहुत सहजता से यह समझा जा सकता है कि कवि ताकत की जगह उम्मीद को रख रहा है. लेकिन अगर बात बस इतनी ही है तो ये पंक्ति हमारे मस्तिष्क में गड़ क्यों जाती है? ताकत उम्मीद का विलोम तो नहीं है. फिर ताकत के विरुद्ध उम्मीद क्या करती है? यह तो स्पष्ट है कि ताकत के रास्ते कोई उम्मीद नहीं जगती.
अंग्रेज़ अपने साथ ताकत लेकर आये. उन्होंनें बुद्धि और विवेक को ताकत में बदल दिया. इस ताकत की दुनिया को कोई कवि किस तरह देखे? इस प्रश्न को हम ग़ालिब के रास्ते भी समझ सकते हैं. ग़ालिब के सामने तो सत्ताएं थी. ताकत की दो दुनियायें. मुग़ल दरबार में भी ग़ालिब का अपमान ही होता था. उनकी शायरी को दरबार के लोग नहीं समझते थे ? क्यों ?क्योंकि वे ताकत के साथ खड़े थे. ग़ालिब ताकत के विरुद्ध अपनी भाषा को अपनी संवेदना को जीवित रखने की कोशिश कर रहे थें. अंग्रेजी सत्ता से भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी. उम्मीद बस उनके भीतर थी और जब वे उसे बुझा हुआ पा रहे थे तो उन्हें लगता था   
“कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”

लेकिन क्या यह नाउम्मीदी यह नहीं बताती कि ताकत के विरुद्ध अंततः उम्मीद ही खड़ी होगी. एक कवि अपने भीतर ताकत के बदले उम्मीद जगाता है. कवि की उदासी उसकी नाउम्मीदी उम्मीद की एक किरण अपने भीतर लिए होती है. क्या यह बात हम ग़ालिब को पढ़ते हुए नहीं पाते? क्या यह नाउम्मीदी एक समाज, समुदाय, राष्ट्र और समय के रास्ते उम्मीद और प्रतिरोध में नहीं बदलती? एक कालजयी कविता यही करती है.
यहाँ उम्मीद की भूमिका उस ताकत के विकल्प की तरह है जिसमें उसके प्रतिकार का बोध अंतर्निहित है. इस बोध को सिर्फ और सिर्फ कला ही कह सकती है. यानी ताकत के विरुद्ध खड़े होने का विवेक तब विकसित होता है जब हम उम्मीद पैदा करते हैं. इसलिए ग़ालिब की इस निराशा में भी भविष्य में उस ताकत के प्रतिकार का बोध अंतर्निहित है. यह बोध सिर्फ और सिर्फ कविता ही जगाती है. रघुवीर सहाय की कविता ताकत के प्रतिरोध में उम्मीद की कविता है.  .
ताकत का एक अर्थ यहाँ हम विचारधारा भी समझ सकते है. बीसवीं सदी ने विचार को विचारधारा में बदला विचारधारा के रास्ते ताकत इजाद की गयी. क्या इस अर्थ में उम्मीद, विचार का पर्याय नहीं ठहरता? उम्मीद ने ही सबसे पहले विचारों को जन्म दिया होगा. रघुवीर सहाय उसी आदिम उम्मीद के रास्ते पर चलकर ताकत को नकारते हैं. यह उम्मीद कि एक दिन मनुष्य ताकत, वर्चस्व और क्रूरता की इस दुनिया को नकार देगा. 

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रघुवीर सहाय ने दूसरा सप्तक के वक्तव्य में शमशेर बहादुर सिंह के हवाले से लिखा “कि जिंदगी में तीन चीज़ों की बड़ी जरुरत है: ऑक्सीजन, मार्क्सवाद और अपनी वह शक्ल जो हम जनता में देखते हैं” . रघुवीर सहाय की कविता में जनता की शक्ल कभी धूमिल नहीं होती. किसी कवि के लिए यह सबसे कठिन होता है. आरम्भ में यह संभव है कि वह अपने अतीत और अनुभव के सहारे उस छवि को अपनी कविता में सहजता से उभार ले, लेकिन ज्यों-ज्यों वह जीवन और बोध की व्यापकताओं में उलझता जाता है- उसके लिए यह कठिन होने लगता है. वह अपनी ही सांस्कृतिक बोध की सीमाओं में उलझ जाता है. आरम्भ में जो उसकी शक्ति थी अब उसके लिए उससे मुक्त होना ही कठिन होने लगता है. ऐसे में वह एक यांत्रिक सृजन की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है. उसका आत्मानुभव ही उसके रास्ते में बाधा उत्पन्न करने लगता है. वह सरलीकरण और राजनैतिक मतवाद को कविता समझ बैठता है. इसके परिणामस्वरूप उसकी रचनाशीलता में अधिकांश तत्व पूर्वानुमान पर आधारित होने लगते हैं. ऐसे में पाठक रचनात्मक बोध की सहृदयता को प्राप्त नहीं कर पाता. किसी कवि के आत्मसंघर्ष का एक आयाम यह है कि वह अपने भीतर सांस्कृतिक बोध द्वारा निर्मित सीमाओं का अतिक्रमण कर सके. वह अपने चेहरे से भिन्न चेहरा अपने बोध रूपी आईने में देख सके. यह मात्र बाह्य ज्ञान को समृद्ध करने की प्रक्रिया से संभव नहीं. इसके लिए अन्तःकरण के आयतन को भी विस्तृत करना जरुरी है.
कविता के लिए बाह्य विचारों से ज्यादा जरुरी किसी कवि का आत्मविस्तार है. रघुवीर सहाय के यहाँ इस आत्मविस्तार को देखा जा सकता है .जो लोग कविता में यथार्थ को मात्र प्रकट रूप में चीन्हने की कोशिश करते हैं उन्हें रघुवीर सहाय की कवितायेँ मध्यवर्ग को इंगित करती हुयी लग सकती हैं. परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं. उदाहरण के तौर पर हम उनकी प्रसिद्द कविता रामदास को देखें. यह कविता किसे इंगित करती है? यह रामदास कौन है? वह क्या करता है? इन प्रश्नों पर कम ही विचार किया गया है.उसका शहरी होने मात्र से उसे मध्यवर्ग से जोड़ दिया गया है. यह कविता कई स्तरों पर एक जटिल सामाजिक यथार्थ को रखती है.
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी.

अगर हम थोड़ी बारीकी से इस कविता को पढ़ें तो हम यह जान सकते हैं कि यह रामदास कौन है? शहर की मुख्य सड़क से फूटती नीम अँधेरी गलियों में कोइ मध्य वर्ग का व्यक्ति नहीं रहेगा. दिन का वक्त घनी बदली को इस अर्थ में पढ़ा जा सकता है कि गलियाँ इस कदर तंग और संकरी हैं कि दिन के वक्त भी वहां घना अधेरा है. रामदास इसी तंग गली में रहता है. इसी गली से उसका सम्बन्ध है. लेकिन उसकी हत्या क्यों हो रही है? अब यहाँ हत्या को भी कई तरह से समझा जा सकता है, हत्या के मूल में उसकी उपस्थिति है. रघुवीर सहाय की कविताओं में सामाजिक मनोविज्ञान का पक्ष केन्द्रीय है. प्रगतिशील कविता में भी कवि अपनी वर्गीय चेतना का अतिक्रमण करता था, लेकिन वहां अतिक्रमण मूलतः वैचारिक ही होता था. वह संवेदनात्मक भावभूमि के स्तर पर उससे जुड़ा नहीं होता था. ऐसे में पाठक कविता और कवि के बीच की फांक को महसूस करता था. विचार और संवेदना के इस फांक को पार करने का एक रास्ता मुक्तिबोध के यहाँ दिखता है. मुक्तिबोध जिसे आत्मसंघर्ष कहते हैं, वह दरअसल अपनी सांस्कृतिक चेतना का अतिक्रमण ही है. मुक्तिबोध की कविताएँ वस्तुतः इसी अंतःसंघर्ष की जमीन पर खड़ी नज़र आती हैं. रघुवीर सहाय जब यह कहते हैं कि ‘अपनी वह शक्ल जिसे हम जनता में देखते हैं’ तो वह मुक्तिबोध के अंतःसंघर्ष की अगली कड़ी को सामने लाते हैं. रघुवीर सहाय के यहाँ कवि और कविता के बीच की फांक अगर पाठक को नहीं दिखती तो उसका बड़ा कारण यही है कि वे अपनी सांसकृतिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और अपनी चेतना को जनता की चेतना में घुला देते हैं. यह बात उनकी काव्य भाषा के रास्ते भी देखी जा सकती है. उनकी काव्यभाषा वहां नहीं है, जहाँ उनका अस्तित्व विराजमान है बल्कि वहां है जहाँ वे अपनी काव्यभाषा को अपनी चेतना की गतिशीलता से जोड़ते हैं. वे जिस समय और समाज की कविता लिख रहे होते हैं काव्यभाषा उसमे रुकावट नहीं बनती. वे उस दृश्य की संवेदना को भाषा में बदलते हैं.
रघुवीर सहाय ने पीड़ा, दुःख और करुणा को लेकर जैसी पंक्तियाँ लिखी हैं वे भाषा में अपनी मार्मिकता का अन्यतम रूप नज़र आती हैं तो इसका बड़ा कारण यही है कि वे अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को छोड़कर विषयवस्तु की पृष्ठभूमि से एक सहज संवेदनात्मक एवं अविभाज्य सम्बन्ध बना लेती हैं. कहना न होगा कि यह सहजता भाषा में जब ढलती है तो वह करुणा को करुणा और मार्मिकता को मार्मिक ही रहने देती है. देखे गये दृश्य की पीड़ा और शब्दों में अभिव्यक्त पीड़ा में भाषा और दृश्य माध्यम की भिन्नता भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती.
कितना कठिन है उसी दिन
बड़े होते जाना
ऐसे ही कई कई साल यह जानते रहना कि
मैं क्या हो गया क्या हो गया है समाज
उफ़ क्या बहुत पीछे जाना पड़ेगा यह जान लेने को
अब मेरे मन में दुःख हैं बहुत
पर मैं किसी को रुला नहीं सकता हूँ  


रघुवीर सहाय के यहाँ जो घुमड़ती हुयी पीड़ा है, जो ऐंठता हुआ दर्द है- वह दरअसल इसलिए है क्योंकि कवि जहाँ है और जहाँ वह जाना चाहता है, जहाँ तक पहुंचे उसके विचार है और वह जिस संवेदना और हाहाकार को देखता है, उसे लिखते हुए भोगता है और भोगते हुए लिखता है. ये कवितायेँ देखने की संवेदना और लिखने की भाषा को दो स्तरों पर नहीं, एक ही स्तर पर वहन करती हैं.
वहां स्वरलिपि और दृश्य संवेदना के मध्य- सतत पीड़ा के बीच के अंतरालों जितना ही फासला है. दर्द और कराह के बीच जितनी दूरी है उतनी ही दूरी शब्द और पीड़ा के बीच है. रघुवीर सहाय को पढ़ना एक राष्ट्रीय पीड़ा को अपने भीतर जाग्रत करना है.


3.
आधुनिक हिंदी कविता में अक्सर यह प्रश्न उठता है कि कविता के मूल्याङ्कन में कवि व्यक्तित्व की भूमिका को किस हद तक निर्णायक माना जाना चाहिए? क्या कविता कवि व्यक्तित्व से विच्छिन्न हो, यह संभव है? आधुनिक कविता के इस प्रश्न को हम इतिहास में ले जाकर हल करने की कोशिश करते हैं. ऐसा करते हुए हम भक्तिकाल तक चले जाते हैं. वहां के कवियों के व्यक्तित्व को, उनके काव्य विवेक को कविता के सर्वकालिक मूल्यों की तरह रखते हैं. परन्तु क्या इस तरह के मूल्याङ्कन के द्वारा हम इतिहास की सरलीकृत और एकरैखिकीय व्याख्या के शिकार नहीं हो जाते? आधुनिक कविता की बहसों को उस युग की जटिलता में ही हल किया जा सकता है. रघुवीर सहाय के संदर्भ में जब हम इस प्रश्न को देखते हैं तो पाते हैं कि उनकी कविता और उनके व्यक्तित्व के संदर्भ में परस्पर विरोधी बातें कहीं जाती हैं. ऐसा करते हुए हम व्यक्तित्व और कविता के संबंधो को हम युग सापेक्ष नहीं देखते. हम यह मान बैठते है कि साहित्य और संस्कृति के सम्बन्ध में जिन नैतिक सामाजिक मूल्यों को हमने स्वीकार कर लिया वे सर्व-कालिक हैं. उनमें किसी तरह के परिवर्तन का कोई विशेष अर्थ नहीं. पर क्या यह किसी कवि को पढने का सही रास्ता है? क्या कवि के वैयक्तित्व निर्माण में उसके युग की भूमिका नहीं. अगर ऐसा न होता तो यह कैसे संभव है कि एक ही युग तुर्गनेव, दस्तोवोस्की और तोल्स्तोय निर्मित करता है और दूसरा युग एक विराट शून्य.
अगर हम आधुनिक कविता के तीन बड़े कवियों निराला मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय को देखें तो तीनों के वैयक्तित्व और उनकी के कविता के अंतर्संबंध अपनी युग की गतिशीलता से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं.
निराला की कविता उनके वैयक्तित्व से अविभाज्य सम्बन्ध बनाती है. निराला हर क्षण कवि हैं. निराला के जीवन में कुछ भी कविता से बाहर नहीं है. यही वजह है कि वे सरोज स्मृति जैसी कविता लिखते हैं तो वहां उनका निजी दुःख एक युग एक, एक परिदृश्य का दुःख बन जाता है. जब वे कहते हैं ‘धन्ये मैं पिता निरर्थक कुछ भी तेरे हित कर न सका’ तो यह आत्म-धिक्कार किसी व्यक्ति या सम्बन्ध को नहीं पूरी सामाजिक संरचना और युग को इंगित करती है. उनके यहाँ जिस तरह की एकात्मकता है, वह आधुनिक कविता में एक दुर्लभ सी चीज़ है. यहाँ तक कि  उनके लिखे पत्रों की संवेदना और कविता की संवेदना के बीच भी कोई फांक नज़र नहीं आती. ऐसा क्यों? निराला जिस समाज से आते हैं वह कृषि समाज है. वहां व्यक्ति की सत्ता प्रमुख नही है. जीवन में कुछ भी अकेले संभव नहीं. खेती से लेकर तीज त्यौहार तक. कृषि सभ्यता मनुष्य के अकेलेपन को खत्म करती है. हम कामायनी को याद करें. मनु का अकेलापन सामूहिक जीवन में उसकी उपस्थिति से पूर्व का है, लेकिन जैसे ही वह सार्वजानिक जीवन में  प्रवेश करता है उसका निजी वैशिष्ट्य घुलने लगता है. कृषि कर्म की सामूहिकता मनुष्य के समूचे विवेक से उसकी निजता को निकाल देती है. ‘मैं’ की अवधारणा व्यक्ति को इंगित नहीं करती. वहां वह एक सामूहिक ‘मैं’ की ही प्रतिध्वनी लिए हुए है. निराला की कविताओं में जो ‘मैं’ है, उसके भी केंद्र में व्यक्ति नहीं है. व्यक्ति निराला और कवि निराला में लगभग कोई भेद नहीं. यही वजह है कि निराला को पढ़ते हुए हम प्रतिनिधि चरित्रों की दुनिया में चले जाते हैं. नायकत्व का बोध वैयक्तिक श्रेष्ठता का नहीं, बल्कि सामूहिक प्रतिनिधित्व का बोध है. क्या ‘राम की शक्तिपूजा’ के राम और ‘कामायनी’ के मनु की परिकल्पना व्यक्ति के भीतर मौजूद सामूहिकता को इंगित नहीं करती ?
कृषि सभ्यता के विघटन के साथ यह सामूहिकता नष्ट होने लगती है. कवि और व्यक्ति के बीच एक फांक एक दरार दिखने लगती है. मुक्तिबोध का समस्त लेखन इसी फांक, इसी दरार को दर्ज़ करता है. मुक्तिबोध इस बात को महसूस करते हैं कि कवि होने की सामूहिकता और व्यक्ति के रूप में बचे रहने की दुविधा दोनों से मुक्त होना कठिन है. वे इस संघर्ष को, इस कश्मकश को अन्तःसंघर्ष में बदलते हैं. सवाल यह है कि यह कश्मकश क्यों? क्योंकि औद्योगीकरण ने जीवन को निजता के बोध में बदल लिया है. हर व्यक्ति एक विशिष्ट श्रम इकाई है. उत्पादन की व्यवस्था के अंतर्गत उसके श्रम का निर्धारित मूल्य है. यह मूल्य उसे एक व्यक्ति, एक इकाई, एक दिहाड़ी में बदल देता है. यही से उसके भीतर एक विलगाव की प्रक्रिया का आरम्भ होता है. मुक्तिबोध की कवितायेँ वैयक्तिकता के बीच आदमी के सामूहिक रहने की जद्दोजेहद की कविता है. यह औद्योगिकीकरण के बाद की कविता है. यहाँ मनुष्य का मूल्य उसके श्रम से निर्धारित है.
रघुवीर सहाय हिंदी कविता में शहरी जीवन बोध के पहले कवि हैं. उनकी कविताओं में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया के बाद के समाज की दशा और दिशा है. यह विलगाव की प्रक्रिया के बाद के मनुष्य की कविता है. अगर उनकी कविता में समाज हिंसक, क्रूर और आततायी नज़र आता है तो इस संदर्भ के साथ उसे समझा जा सकता है. वहां निराला की तरह व्यक्तित्व और कवि के मध्य मौजूद अखंडता नहीं बची हुयी है. न ही वहां मुक्तिबोध की तरह व्यक्ति और समाज के द्वंद्व में मौजूद रचनाशीलता.
यह कविता समाज की इकाई के रूप में मनुष्य के बचे रहने की कविता है. विलगाव के पश्चात् मनुष्य के आत्म छिछलन से उबर सकने के संघर्ष और भविष्य के बचे रहने की उम्मीद की कविता है. यही वजह है कि अगर हम रघुवीर सहाय के यहाँ व्यक्तित्व और कवि के बीच अखंडता की तलाश करेंगे तो हम गलत निष्कर्षों तक पहुंचेंगे. रघुवीर सहाय तक आते-आते यह प्रश्न ही अर्थ-हीन होने लगता है.
एडोर्नो जब यह कह रहे थे कि औश्वित्स (Aushwitz) के बाद अब कविता संभव नहीं रही, तो वे दरअसल कविता के समाप्त होने की बात नहीं कह रहे थे, बल्कि वे यह कह रहे थे कि कविता का पुराना क्रम अब चल नहीं सकता. हजारों वर्षों से चली आ रही क्रमिकता के अंत की बात वे कहते हैं . एक नई कविता का आरम्भ इसी अंत में मौजूद था. कहना न होगा कि रघुवीर सहाय की कविता भी इस क्रमभंग के बाद की कविता है.
इस दृष्टि से अगर हम उनकी कविताओं को पढ़ें तो पायेंगे कि उन्होंने विलगाव और चरम क्रूरता के दौर में असीम करुणा और मानवीय गरिमा को कविता का विषय बनाया.  
“मैंने कहा डपट कर
ये सेब दागी हैं
नहीं नहीं साहब जी
उसने कहा होता
आप निश्चिंत रहें
तभी उसे खांसी का दौरा पड़ गया
उसका सीना थामे खांसी यही कहने लगी”

प्रतिरोध की यह अन्तःस्फूर्त आवाज़ क्या एक नये तरह के काव्यबोध और करुणा से हमें नहीं भर देती? क्या “नहीं नहीं”, नहीं कह पाने की दुविधा उस डपटने को अधिक क्रूर नहीं बना देती? नकार के बोध को अपने अंतस में घोंट लेने की लाचारी, हमारे भीतर करुणा के निर्झर के सूख जाने की चेतावनी नहीं है? यहाँ एक बहुत महीन भाषा है. इसमें सीना थामे खांसी का शोर भी भयानक अर्थ पैदा करता है. भाषा के भीतर एक क्रमभंग अर्थ की सत्ता को उलट पुलट देती है. शब्द अपनी सत्ता खो रहें हैं. दो अर्थों के भय ने उन्हें धीरे-धीरे अर्थ-हीन बना डाला है.
मेरा सब क्रोध सब कारुण्य सब क्रंदन
भाषा में शब्द नहीं दे सकता
क्योंकि जो सचमुच मनुष्य मरा
उसके भाषा न थी

रघुवीर सहाय एक ऐसी भाषा की तलाश करते हैं जहाँ अर्थ-हीन हो रही मनुष्यता के लिए मानवीय ऊष्मा को बचाया जा सके. इस दृष्टि से उनकी कविता दयाशंकर मनुष्य समाज और आधुनिकता के नये आयाम को समझने की नई रौशनी देती है. लोककथा पर आधारित यह कविता, कविता की नई संभावनाओं की तरफ हमारा ध्यान खींचती है. विखंडित होते समय में समेटने की नई कोशिश इस कविता में देखी जा सकती है.
दयाशंकर एक दफ्तर में क्लर्क है. बीवी और चार बच्चे हैं. बीवी कहती है कि उसका मन पूआ खाने को करता है, लेकिन उसे यह संभव नहीं दिखता क्योंकि छः लोगों के लिए यह आयोजन  मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में जुटे एक परिवार के लिए असंभव है. यह एक ऐसी स्थिति जहाँ मनुष्य बने रहने का संघर्ष है. आप आप्टन सिंक्लेअर का उपन्यास जंगल पढ़िए और फिर यह कविता, आप पाएंगे कि सात दशकों में विलगाव ने मनुष्य पूरी तरह से घेर लिया है .पूआ न खा सकना अपने भीतर उस बहुत थोड़ी सी बची हुयी नमी को भी नष्ट करना हुआ. पूरा परिवार अमानुष होने के आखिरी पायदान पर खड़ा है.
“तब जरा देर कर इंतज़ार बीवी बोली
उठ पड़ो अभी हम लोग पका खाएं पूआ”

यह जो उठना है यह अपने भीतर बची बहुत थोड़ी मनुष्यता की खदबदाहट की आहट पाकर उठना है. मनुष्य जब भी उठता है, उसके भीतर का सौन्दर्यबोध दिपदिपाने लगता है “ वह उठी अरे वह कितनी सुंदर लगती थी”. यह सौन्दर्यबोध न हो तो फिर किस तरह कुछ बचेगा? मनुष्य की हर तरह की क्रियाशीलता में यह सौन्दर्यबोध बचा रहता है. यही सौन्दर्बोध उसमें जीवन के प्रति कल्पनाशीलता और प्रतिरोध भरता है.
ऐसे चुप चाप पकाए उसने चार पूए
जैसे पूआ ही मधुर मिलन कहलाता है  

एक पूए की अदद इच्छा जीवन दृष्टि को कितना मार्मिक बना देती है. यह जो उद्दात रघुवीर सहाय लाते हैं, उसी में मनुष्यता के भविष्य के बचे रहने के संकेत हैं. रघुवीर सहाय के यहाँ कविता का भाष्य और मनुष्यता का भविष्य एक ही है. इस कविता के अंत को हम मनुष्यता के नये आरम्भ की तरह पढ़ सकते हैं.
इतने में सब बच्चे एकदम से जगते हैं
उठ पड़ते हैं मुस्काते हैं सो जाते हैं.

यह मुस्कराहट ही वह आखिरी जमीन है जहाँ अब भी कविता के बीज बोये जा सकते हैं.
सूचना क्रांति ने मनुष्य के संवाद को सीमित कर दिया. मनुष्य का आत्मजगत उसके सामाजिक सह-अस्तित्व और संघर्ष की सामूहिकता पर टिका है. सूचना क्रांति उसे बदल देती है. यहाँ मनुष्य और मनुष्य के बीच एक यंत्र है, जो इस संवाद को हर तरह से नियंत्रित करता है. उन्नीसवीं सदी में राष्ट्रों को अधीन किया गया. इक्कीसवीं सदी तक आते-आते हमारा आत्मजगत भी अधीन होने लगा. हमारे होने की बुनियाद हमसे छीनी जा रही है. एक कवि इस स्थिति को महसूस करता है. वह स्वाभाविकता की बहुत बड़ी साजिश को देखता है. हत्या इतनी स्वाभाविक कि वह प्राकृतिक मृत्यु हो जाए -हमारे समय की यह सबसे बड़ी चेतावनी है.
कैसा इतिहास कि ठीक जिस समय एक आदमी
अन्याय के तन्त्र को चुनौती देता हुआ
उलझे हुए लोगों की भीड़ के सामने आता है
गोली चलती नहीं
प्राकृतिक मौत से वह मारा जाता है.

कवि की कल्पना इसी तरह यथार्थ बनती है. अस्सी के दशक के अंतिम दौर में लिखी इस कविता को इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में एक न्यायधीश की “प्राकृतिक” मृत्यु की तरह भी पढ़ा जा सकता है. क्या यह अतियथार्थ अब हमारी नियति है? कवि के कल्पना लोक में जो चीज़ें घटती है, जिन्हें वह शब्द देता है, उन्हें भविष्य में यथार्थ का रूप लेना है? कविता, कल्पना यथार्थ और वास्तविकता को एक कवि कैसे घंघोल देता है?
इस दुनिया में जब जीवित लोगों के लिए जगह लगातार कम होती जा रही हो. भय को मनुष्य की मुख्य संवेदना में बदला जा रहा हो. सही बात कहने वाले पागल साबित किये जा रहें हो. पैदल चल रहे शख्स का कुचला जाना स्वाभाविक बताया जा रहा हो. बच्चों के भीतर हिंसा और क्रूरता के बीज बोये जा रहे हों, झूठ बोलना राष्ट्र की सबसे बड़ी सेवा हो जाए. ऐसे में रघुवीर सहाय को पढ़ना इन तथाकथित स्वाभाविकताओं के विरुद्ध अपने भीतर विवेक का ऑक्सीजन भरने जैसा है. कविता के इस नये मुकाम पर मनुष्य के रूप में बचे रहना ही एक तरह का प्रतिरोध है. रघुवीर सहाय की कवितायेँ इस नये दौर में मनुष्यता के बचे रहने की आड़ी- तिरछी इबारतें हैं. इन्हीं इबारतों में हमारा वर्तमान हमारा भविष्य छिपा हुआ है.
ठहरिये ! एक बेहद महीन आवाज़ से आपका सामना हो रहा है, आपको अपनी खांसी पर काबू पाना होगा.

 

 

 

अच्युतानंद मिश्र - कवि, आलोचक

काव्‍ययोग - विनय कुमार

परकाया प्रवेश को लेखकों की क्षमता माना जाता है पर इससे आगे विनय कुमार माया प्रवेश करते हैं। उनकी निगाह जब माया के सात पर्दों के पार जाकर उसे रोशन करती उसके रहस्‍यों को उद्घाटित करती है तो हम विस्मित से उसे देखते रह जाते हैं, कि अच्‍छा, यह बात है ...

 

1. पादवृत्तासन


बड़ा शून्य बनाता हूँ
एक- नहीं, बहु-आयामी
पैरों की गति से नहीं, उनकी निश्चेष्टता से
शब्दों से नहीं, भाव से
कि पैरों और शब्दों से बने शून्य में
तो केवल कुछ वस्तुओं भर ही जगह
वहाँ कहाँ समाएँगे धूप और चाँदनी के समुद्र
आकाशगंगाओं के अन्तर्जाल

इसलिए बड़ा शून्य बनाता हूँ
और पुकारता हूँ तुझे कि आओ

एक नश्वर की रची सृष्टि में
और गाओ वह गीत जिसमें शब्द और स्वर को
प्रेम और मौन विस्थापित कर दे
कि पैरों से बने शून्य भर जीवन में
ब्रह्मांड-भर प्रेम यूँ ही पाया जा सकता है !


2. अनुलोम-विलोम 

 
तुम्हें खींचता हूँ अपने भीतर
जैसे श्वास
मगर कोई कितनी देर रह सकता है खींचे
सो छोड़ देता हूँ
और तब पता चलता है
कि मेरे लिए क्या हो तुम
और उसी पल उसी नासिका से खींचता हूँ पुन:
मगर फिर वही सीमा
और इस बार दूसरी नासिका से छोड़ता हूँ
और फिर वही विकलता वही मृत्यु-भय
और उसी पल उसी नासिका से
खींचता हूँ तुझे पुन: और पुन: और पुन: अमृते!

3. कपाल भाति

हौले-हौले बहुत हौले इतने हौले कि जूठी साँस
नाक से तीन इंच नीचे तनी ऊँगली को छुए भर
करते रहो यही पूरे धैर्य के साथ
बिना यह सोचे
कि आती हुई साँस के बग़ैर जिऊँगा कैसे

पहले उस घृणा को निकालना सीखो
जो तुम्हारे कपाल में कालिख सी जमी है
प्रेम तो प्राणवायु है बंधु
वह सबके हृदय की धमनियों तक
अहेतुक और अनायास पहुँचता है

4. अग्निसार

लम्बी साँस खींचो और छोड़ दो
रिक्त कर दो फेफड़ों के कोषांग
अब पेट की मांसपेशियों को हिलाओ
इस क्रिया को बारहा दुहराओ
इतने दिनों तक कि सारी वसा पिघल जाए
और पेट अनुशासन में रहना सीख ले

कि अनिवार्य अम्ल का यही कुंड
प्रेम के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध है

5. बाह्य प्राणायाम 

 
हवा में तुम्हारी कई छवियाँ थीं
कई भंगिमाएँ
तुम्हारे कई सालों के पन्नों पर साक्षात्
मैंने लम्बी साँस खींची
और सब के सब आत्मसात्
और फिर अगले ही पल फेफड़ों की सारी हवा बाहर
और तुम्हारी सारी छवियाँ हृदयस्थ
गर्दन झुकाकर देखता हूँ
और इन्हें रक्त मंजूषा में समेट एक सूक्ष्म ताला लगाता हूँ
उफ़ हवा कम हो रही अंदर
और पुन: एक गहरी साँस
ख़ूब गहरी कि हवा तो तुम्हें भी चाहिए नऽ हृदयस्थे!

6. भ्रामरी

 
अंगूठों से कानों को बंद कर लो
तर्जनी और मध्यमा से आँखें
दोनों नासाछिद्रों पर अनामिकाओं का हल्का दबाव
अब एक लम्बी साँस
जो वियोग की आहों के बीच ली जाती है
और पुकारो
पुकारो अपने प्रिय को रोने और गाने के बीच के सुर में तुम्हारे होने के अनंत में
अनहद बनकर गूँज उठेगा वह! 

 

परिचय

विनय कुमार - कवि, मनोचिकित्सक
काव्य पुस्तकें :
क़र्ज़ ए तहज़ीब एक दुनिया है, आम्रपाली और अन्य कविताएँ, , मॉल में कबूतर  और यक्षिणी।
मनोचिकित्सा से सम्बंधित दो गद्य पुस्तकें मनोचिकित्सक के नोट्स  तथा मनोचिकित्सा संवाद  प्रकाशित।
इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ी में मनोचिकित्सा की पाँच किताबों का सम्पादन।
*वर्ष २०१५ में " एक मनोचिकित्सक के नोट्स' के लिए अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान
*वर्ष 2007 में मनोचिकित्सा सेवा के लिए में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का ‘‘डाॅ. रामचन्द्र एन. मूर्ति सम्मान’’
मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में नेतृत्व।  पूर्व महासचिव इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के राष्ट्रीय नेतृत्व समिति में विभिन्न पद सम्भालने का अनुभव!


शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

पहला अध्यापक - सतीश छिम्पा

पापा युद्ध की बातें बताओ, एक मण क्या होता है….

          उम्र छोटी ही थी। शायद दस या ग्यारह वर्ष। घर में शाम का खाना खाते समय सभी परिजन एकसाथ होते थे। हथाई हुआ करती थी। यह 1999 था, और हम सब बच्चे उन दिनों शाखाओं में जाया करते थे, समझ नहीं थी, बस खेलने के ही चाव में ही उड्या.फिरता था। जय राणा प्रताप और भारत माता के नारों के ध्वन्यार्थ नहीं पता थे,  कारगिल की लड़ाई चल रही थी।  मैं दस ग्यारह बरस का रहा होऊंगा,  मगर भारतीय सेना के वीरतापूर्ण कार्यों युद्धों के बारे में जानने, सुनने और पढ़ने की मुझमे जैसे प्यास थी।  

      पिताजी और दादा जी 1962, 1965 और 1971 के युद्धों की बातें बताया करते थे। मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। लगता जैसे मैं भी फौजी ही बनूँगा। पाकिस्तान के साथ युद्ध में लड़ना ही मेरी देशभक्ति थी।  पिताजी बताते कि गंगानगर में अक्सर ब्लैक आउट किया जाता था। उस समय हमारा परिवार गंगानगर में ही रहता था। पूरा शहर अँधेरे में डूबा होता तब ऊपर कोई जहाज चलता हुआ सुनाई देता था। पलायन होते, गरीब गुरबे अपना रोज़मर्रा का सामान उठाकर अपने रिश्तेदारों के यहां या अन्य गांवों में चले जाते थे। 

           मुझे पापा से युद्ध की कहानियां सुनना अच्छा लगता था। बाल मन था तो आरएसएस की शाखा में भी जाने लगा था- वहां भारतीय सेना के साथ साथ हिन्दू सांप्रदायिकों के बारे में भी सुनता रहा। यही वो समय था जब मेरे किशोर हो रहे मन में इस्लाम और मुसलमानों के लिए तात्कालिक हलका अविश्वास घर कर गया।  मेरा परिवार बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय कारसेवक भी बना था। लेकिन जब हम लोग बड़े हुए। साहित्य की राह से दर्शन और राजनीतिक चेतना के विकास की किरण भीतर आयी  तो सब कुछ बदल गया। बेचैनी प्रचंड होकर उठी और किताबें ही किताबें उतरने लगीं भीतर।

       संघ की शाखा के इतिहास बयानी को तब मैं सच समझता था जो अध्ययन और परिपक्वता के बाद दिमाग से निकल ही गया। गुरु गोविंद सिंह के इतिहास को संघी तरीके में बयान किया जाता। वे हर बार पाकिस्तान ये मुसलमान वो, हिन्दू घटा देश बटा आदी फिजूल बातें किशोरों के अपरिपक्व मन में भर देते थे।

   युद्ध कभी किसी का भला नहीं कर सकता। जब तक बहुत जरुरी ना हो, इसका नाम भी अभिशाप है। दोनों तरफ की मेहनतकश आबादी का इससे कोई लेना देना नहीं है, जिन्हें हमारा दुश्मन बनाकर खड़ा किया जा रहा है वे भी मासूम हैं। वे भी शोषित हैं, अपने पेट के दरड़े को भरने के लिए जूण हंडा रहे हैं। वे भी पीड़ित, दुखी वंचित हैं।

         फिर साहित्यिक किताबों से जो राजनीतिक राह और जीवन दर्शन मिला था वो मेरी चेतना पर जमे जाले साफ करने लग गया था और वो ही मुझे मार्क्सवाद तक लेकर गया। और फिर सब कुछ बदल गया।

        पिता जी से अब उनके जीवन संघर्षो की कहानियां सुनने लगा। वे बताया करते, कैसे पुश्तैनी गांव गुसाईंंसर, तहसील डूंगरगढ़ (बीकानेर) से अकाल की मार से बचने के लिए बुजुर्ग सपरिवार गंगानगर में आ गए और कुछ साल संघर्ष और फिर सूरतगढ़ में बसेरा स्थाई हुआ। पापा बताते कि मालू की लकड़ी की टाल पर वे एक आना मण लकड़ी तोड़ा करते थे। कैसे ट्रक पर खल्लासी बने। कैसे रिक्शा और कैसे चौकीदारी और  दिहाड़ी की, पाकिस्तान में भी कोई आना मण लकड़ी तोड़ता होगा, कोई खल्लासी या मज़दूर होगा....कोई बेरोज़गार जीवन से हारा युवक खुद को खत्म करने के असफल प्रयास में टूट चुका होगा.... कोई परिवार अकाल की मार से बचता हुआ कर रहा हॉग कभी पलायन..... वो मेरा दुश्मन तो नहीं ही है। वो तो हमदर्द है।

    .... और एक दिन जब पापा बाजार से घर लौटे तो उनके हाथ में फ़टी पुरानी एक किताब थी, "पंचतंत्र की कहानियां'........

दर्जी का बेटा .1
 
(पापा के लिए.....)

आपने पेट के गाँठ लगाकर रोटी दी जो मानव अस्तित्व का जीवन द्रव्य था।
अमृत थी आपके पसीने के बट बनी दीवार, आंगन और छत
सूरज जब आकाश में पूरे योवन पर होता है
आप  पसीने से लथपथ लगाते हो टाँके
सीलते हो वक़्त की बिवाइयों को
ये तुम्हारी की तुरपाई का ही असर है 
कि अभावों की चादर से मेरी मजबूरीयों का नंगा जिस्म पूरा ढका रहता है
ये किताबें जो तुमने थमाई थीं पापा
मुझे इस लायक ना बना सकीं कि तुम्हारे पेट मे पड़ी गाँठ खोल सकूँ, 
माँ का राजा बेटा भी कहाँ बन पाया मैं
भाई का सुख कहाँ देख पाई बड़ी बहन
कब, बन कर उम्मीद छोटे भाई का 'भाई जी', कहाँ दे पाया मैं अपने होने का हौसला
मेरी हर कोशिश
उस वक़्त दम तोड़ती है जब मैं देखता हूँ तुम्हे भरी दोपहर धूप में
सेठ के थड़े पर अपने ही जिस्म से जूझते
और लोग मुझे कहते हैं कि मैं अभद्र, असभ्य, गलीज़, लड़ाकू, बुरा और बदतमीज और लंपट हूँ
क्या जानें वे कि ज़िन्दगी के अस्तित्व पर अपमान का वार होता है तब जहरीले हो जाते हैं शब्द

तुम पूरी उम्र घर की दरारों को सीलने की कोशिश करते रहे
मेरी हर कोशिश पर हँसता रहा घर
शब्द जब हार जाते हैं तो श्रम की छाँव में बैठ
अपमान का ज़हर पीकर आत्महत्या करते हैं
पापलू, मेरी कोशिशें आपकी तरह बेथकी न रह सकीं आज चूल्हे की बेमणी के पास जो पसरी थी
उन शब्दों की लाश ही थी वो

पर कभी बताना कैसे सह गये आप बिना थके
अभावों के वारों को
सूई कतरनी के ताण कैसे खड़े रहे आप चालीस साल तक
इस टूटते बिखरते घर में---

दर्ज़ी का बेटा . 2

वक़्त की मार से
बेरंग हुए मौसम
और कीकर पर लटके चिड़िया के पंखों
को सहलाने का अब मन नहीं रहा
आते जेठ की इस सुबाह को कह दो
कि मुझे 
सूरज से डर नहीं लगता
भरी दोपहर
सेठ के थड़े पर बैठ
कपड़ों के कारी लगाता
मैं दर्ज़ी का बेटा
अलनीनो के गणित में उलझ
राजभवन का हिसाब नहीं भूलूंगा
कि पिछले हाढ़ में
मैने सिंहासन का खोळ बनाया था

सारी-सारी रात
पुराने ली'ड़ों से माथा मारता मैं
बीस रुपये पीछे
तुम्हारी शतरंज का प्यादा नहीं बनूंगा

....चलो छोड़ो ये हिसाब की बातें
....मै हिसाब मे कच्चा हूँ
जिस पर मायकोवस्की ने लिखी थी कविता

....कविता जो
 अब नाजिम की कब्र पर बैठ
अलापती है मुझ दर्ज़ी का नाम

सुनो...
मैं अब भी फोड़ता हूँ थड़े पर आँखें
क्या कोई लिखेगा
कविता।


​​परिचय
नाम - सतीश छिम्पा
जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरयाणा)
रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, लोकमत , लोक सम्मत, मरुगुलशन, जागतीजोत, कथेसर, ओळख, युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित
संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन   के मुक्ति संघर्ष के हक में], आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता) , वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास)
संपादन- 
किरसा (अनियतकालीन)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
भूमि (संपादक, अनियतकालीन)
मोबाइल 7378338065

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

उतरते अगस्त के उदासी भरे दिन - माधव राठौड़

डायरी अंश


17 अगस्त

एक लंबे अरसे बाद गाँव में। गाँव मन से खिसक गया। सब सिकुड़ गये। एक भाई ने मरती हुए माँ के अंगूठे करवा कर जमीन अपने हिस्से दान लिखवा दी। पंच आये हुए हैं। मैं देर तक पश्चिम के धोरे पर उतरी  सांझ  की तरफ देख रहा हूँ। उतनी ही उदास जितनी भाई की विधवा।ये दुख के दिन हैं। जवान पति की मौत को छह -आठ माह हुए है इधर देवर ने जमीन दबा दी। सुबह कोई कह रहा था गाँव में भाईचारा है। मैं दिनभर से उस बे-चारे भाई को ढूंढ रहा हूँ।
मनुष्य की कुटिलताएँ हर जगह हैं बस रुप अलग है। प्रेम मिथ है या कल्पना भर... चाँद पर चरखा कातती डोकरी की तरह । उस कल्पना की चाह में सब भटक रहे हैं। माँ कह रही है कि एक बकरी आज लौटी नहीं। मुझे देर तक समझ नहीं आता। मैं सोचता हूँ क्यों लौटा जाये।जब लौटने की वज़ह नहीं बचती तो एक समय बाद इंसान को खो जाना चाहिए। कहीं बीहड़ में या भीड़ में। छोटी जगहों में छोटी-छोटी ईर्ष्या होती है। बड़ी जगहों में शायद नहीं या फिर वहाँ आपके होन से दूसरे को मतलब नहीं। गाँव में भाईचारे के नाम पर नकारात्मक हस्तक्षेप ज्यादा है। अजीब सी उम्मीदें,फिर उलाहने और उससे उपजी कुंठाएँ भी...।

18 अगस्त
 
 जोगमाया के धोरे पर बनी काछुराम की ढाणी से गाँव के खेतों को देखता हूँ। धोरे अभी तक सूखे हैं। सावन चला गया।इस बार तो काळ पड़ेगा । नहीं अभी भादवे से उम्मीद है। हम वैसे भी भादवे के हाळी हैं। उनके पास अनुभव है। टांकों में इस बार दो हाथ ही पानी आया है। पर वे जानते हैं कि भादवे में एक दो बरसात हो गई तो टाँके भर जायेंगे। पाछत ग्वार और बाजरी बारहमास खाने लायक हो जाएंगे। मनुष्य ने प्रकृति को अपनी स्मृति व अनुभवों से ही समझा । उनके पास आज भी 200 बकरियाँ हैं ।साल भर यही काम। जब भी मिलते हैं तो कहते ढाणी आना। हमारे बीच जरूरी संवादों के अतिरिक्त कुछ नहीं। अबोला पसरा रहा।
 उठा तो बोले- "रोटी खा कर जाते"। 
'और कभी" कहता हुआ धोरे से उतरने लगा। 
पाँव रेत में धसक रहे थे,साथ ही  दरक रहा था भीतर। एक गहरा अन्तराल। एक गैप । मैं समझ पा रहा हूँ, गाँव हाथ से छूट रहा है। यह अंतिम लोग हैं। फिर गांव में शहर घुस जायेगा। दस साल बाद हम शहर से फिर गाँव में क्यों आयेंगे? धोरे से उतर तळे की तरफ जाता हूँ। आसपास के चार गाँवों की प्यास बुझाने वाला सार्वजनिक कुआं। कभी पूरे गाँव ने चन्दा करके दो बड़े हौद बनाये थे। दोनों टूट गये। अब सीधे ही ट्रैक्टर भरते हैं। ऊँट और गधों की पखाल गायब हो चुकी है। पणिहारियों वाली हौदी भी सूखी पड़ी है। शायद ही कोई आता होगा। कुएं के टूटे पाळ गांव के टूटे दिल के भग्नावशेष है।

21 अगस्त

दोपहर की नींद से जागता हूँ पर आंख खोले बिना सोचता हूँ कि आज मेरे पास खुश होने की एक वज़ह भी है और दुःखी होने की भी। देर तक यूँ ही आँख बंद किये उन वजहों को तौलता रहता हूँ। मुझे आँख तो खोलनी पड़ेगी । कोई वजह तो चुननी होगी आज के दिन के लिए - जिसे एक नाम दिया जा सके।
सोचने के बाद कोई वजह नहीं चुनता। आँख खोल दीवार को देखने लग जाता हूँ । दीवारों को एकटक देखना मेरी प्रक्रिया का हिस्सा रहा। दीवार के भीतर मेरा संसार है। पसन्द की वज़ह पहन बाहर निकल पड़ता हूँ, बाकी इन दीवारों पर  टाँग देता हूँ। हालाँकि इसके बाहर की दुनिया की अपनी दीवारें हैं जहाँ मैं खुद को उलटा लटका पाता हूँ।
कुछ देर बाद एक छिपकली ट्यूबलाइट के नीचे से खिसक कर दीवार पर आती है। कमरे में किसी के होने का अहसास भर जाता है। मैं अपनी वजहों की प्रक्रिया को समेटते हुए सोचता हूँ - आज इसके  पास क्या वज़ह होगी?
मुझे चाय की तलब होती है। उदास दिनों में एक वजह मिलती है । उठने से पहले मैं मोबाईल चेक करता हूँ - उस तरफ से न कॉल , न मैसेज।
चाय पत्ती और अदरक को यूं ही उबलने देता हूँ  दूध नहीं डालता। दूध डालने से  पत्तियों के रंग बदलने की  प्रक्रिया और  अदरक की गंध मैं देख नहीं पाता हूँ। खिड़की के बाहर तेज छींटों के गिरने की आवाज आती है। आज फिर कपड़े नहीं सूखेंगे। कपड़ों में बारिश की मसली गन्ध से उबकाई आती है। पर आज मुझे  कोई खुश और दुखी होने की वजह नहीं चाहिए । मैं दौड़ कर कपड़े लाना स्थगित कर देता हूँ। इधर चाय के बर्तन से सारा पानी उड़ गया। मैं मुस्कुरा देता हूँ - कभी तो बेवज़ह भी कुछ हो।

25 अगस्त
 
जीवन रहस्यमय है। वे आरोप लगाते हैं कि मैं सवालों के जवाब नहीं देता । मैं सवाल टरका देता  हूँ। जीवन को लेकर मैं अभी तक के जीये अनुभव से निश्चित नहीं हूँ। मेरे पास कोई  ईमानदार जवाब नहीं है। सवाल तो हमेशा खड़े मिलते हैं। मैं आयें-बायें करके निकल जाता हूँ। पीछे से आवाज आती है - तुम मेरे सवालों को टरका देते हो। 
वो आवाज इतनी तेज चोट करती है कि दिनभर सूँस होकर घूमता रहता हूँ। मेरे पास जब जवाब नहीं तो क्या दूँ। उधर कुछ न कुछ दिनों बाद सवाल अपने मुँह खड़े कर देते हैं। अगर इनके जवाब ढूँढने लग जाऊं तो ताउम्र मर खप  भी जाऊं तो भी उनके चाहे जवाब नहीं दे पाऊँगा। मैं समझ चुका हूँ कुछ सवालों के जवाब ढूँढे बिना ही जीना होगा। अगर रुक गया तो मसला हो जायेगा इसलिए जवाब ढूँढने को स्थगित कर जिंदगी की क्लच दबा देता हूँ। मैं जानता हूँ पेट्रोल की बजाय गैस में गाड़ी दबती है, फ़रफ़राहट भी करती है। पर क्या कर सकते हैं। मैं साइड मिरर में देखता हूँ एक अंकल  जिंदगी के पुल की चढ़ाई पर साईकिल को धकिया रहे हैं। मेरा मन होता है कि पूछ लूँ - आपने भी स्थगित कर दिये थे या...? मैं चढ़ते हुए पुल पर गाड़ी रोक नहीं सकता ।
ऑफिस में आकर चुप सा बैठा रहता हूँ।
सहकर्मी पूछते हैं - आज चुप क्यों हो, क्या हुआ?
चुप होने के लिए कुछ होना जरुरी है क्या...इस सवाल को भी टरका कर फ़ाइल खोल देता हूँ। 

27 अगस्त
 
मोबाइल स्क्रोल करते करते आँखें दर्द  करने लग गईं। मैं थक कर बाहर बैठ जाता हूँ। बाहर सावन-भादो का हरापन है। आँखों को सुकून मिलता है। मुझे बाहर बैठा देख बिल्ली पास आ जाती है। मैं उसे गोदी नहीं लेना चाहता। चारों तरफ घूमती रहती है। फिर ख़ुद ही छलांग मार कर गोद में बैठ जाती है। फिर भी मैं उसे सहलाता नहीं। वह एक दो मिनट इतंजार करती है। उतर कर दूर बैठ जाती है। चम्पा से सटे गुड़हल का फूल चम्पा में उग आया है। मैं देर तक भरम में रहता हूँ।
थोड़ी देर पहले कमलेश्वर का उपन्यास -"एक सड़क सत्तावन गलियाँ" शुरू किया था। भूमिका में कमलेश्वर को इसके बेचने का गिल्ट रहता है ।
ऐसे अपराधबोध हर आदमी के भीतर है। कुछ खोने का,कुछ नहीं पाने का, नहीं समझ पाने का या गलत समझे जाने का। ऐसे अपराधबोध को कोई नहीं समझ सकता । यह नितांत निजी त्रासदियाँ है। क्वाटर के बाहर अगस्त का अँधेरा भर जाता है और मेरे भीतर गहरी उदासी, एक अपराध बोध। उठकर बिल्ली को गोद में लेता हूँ हल्के से सहलाता हूँ ,घड़ी भर बाद वह सो जाती है।
मुझे बेटी की याद आती है। एक पाँव पर बरसाती मच्छर काट रहा है। पाँव हिलाऊँ या जेब से मोबाइल निकालूं तो बिल्ली जाग जायेगी। कई दफ़ा आदमी के पास कोई ऑप्शन नहीं होता। उसे दिए गए अनचाहे रोल को जीना पड़ता है। यही उसका अपराधबोध होता है जो उसे भीतर से दीमक की तरह चाट जाता है। यह दीगर बात है कि इस भीतरी खोखलेपन से बाहरी दुनिया को कोई नुकसान नहीं होता,इसलिए वे कभी समझ नहीं पायेंगे कि एक किताब के राइट्स प्रकाशक को बेचने से  ऐसा कैसा अपराध बोध कि कमलेश्वर सालों तक मैनपुरी जाकर अपनी माँ और बचपन के दोस्त बिब्बन को मिल नहीं सकें।

31 अगस्त 
 
रात से पानी पड़ रहा। तड़-पड़ तड़-पड़। दो दिन से सूरज को गायब कर रखा है। सावन की झड़ भादवे में लगी  है। प्रकृति का कलेंडर भी इस बार गड़बड़ा गया। घर में बारिश की नमी। एक गन्ध। एक सीलन।
विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब "कुछ कहानियाँ कुछ विचार"  को पढ़ना रोक कर बाहर निकल देखता हूँ, चाँदनी तेरस की रात है पर चौतरफ बारिश का अंधेरा। पेड़ों के झुरमुट से गिरता पानी गाड़ी पर अजीब सी आवाज पैदा कर रहा है। सड़क किनारे लैम्पपोस्ट की रोशनी धुँधला गई। सड़क भी पानी से तर है । मैं धीरे से चलता हूँ। बागीचे में गिरे  चम्पा के पत्तों पर पाँव पड़ता है । भरे हुए पानी के मेंढक जाग जाते हैं।
मुझे निर्मल की कहानियों की डरावनी बारिश की पहाड़ी रातें याद  आती हैं। वो पानी के चहबच्चे। उसका नीरव सन्नाटा मेरे भीतर उतरता है। लौटकर दरवाजा बंद करता हूँ। फिर किताब पढ़ने बैठता हूँ। 
त्रिपाठी जी लिखते हैं  - " आलोचना या समीक्षा की विरली ही कोशिशें ऐसी होती हैं जो पाठक को रचना के और-और करीब ले जाती हैं, और-और उसे उसके रस में पगाती हैं। ये कोशिशें रचना के समानांतर खुद में एक रचना होती है । मूल के साथ ऐसा रचनात्मक युग्म उनका बनता है कि जब भी याद आती हैं ,दोनों साथ ही याद आती है।"
 
परिचय

माधव राठौड़  
C- 73, हाई कोर्ट कॉलोनी,
दुर्गा माता मंदिर रोड़ सेनापति भवन,
रातानाडा जोधपुर (342011)
मोबाईल नं. - 9602222444

बुधवार, 2 सितंबर 2020

खुद को समझने की कोशिश - दिव्या श्री की कविताएं


अपनी कविताओं में दिव्‍या श्री खुद को समझने की कोशिश करती दिखती हैं। इस समझने की प्रक्रिया में वे अपने आस-पास व परिवेश को परिभाषित-पुनरपरिभाषित करती हैं। सामान्‍यतया यहीं से कविता की शुरूआत होती है। जब इस समझ पर हमारा विश्‍वास बढता है तो वह समझाने में बदलता है, खुद को समझाने से बढकर यह देश दुनिया को समझने-समझाने तक जाता है।

दिव्या श्री की कविताएं 


हवा और पानी

जब-जब दुख लिखा है
हृदय में प्राथना के स्वर गूँजे हैं

दुख मेरे गले किसी ताबीज़-सा बंधा है
मैं दुख के निकट अपवाद बची मछली-सी
सुख मेरे सिरहाने रखी किताब की तरह है

वर्षों आवाहन करने पर भी
शब्द- शब्द मेरी दृष्टि में न समा सका
मुझे दृष्टिहीनता का परिचय दे गया

दुख चुभे हुए काँटों की तरह है
निकालने पर और तेज रिसता है लहू
सुख किताब में रखे मयूर पंख की तरह है
जिंदगी की भागमभाग में न जाने कब खो गया

दुख ने आँखों का दर्द बढाया
सुख ने आँखों की चमक

सुख और दुख उगते सूरज जैसे हैं
नित्य प्रति उगता है, डूब जाने के लिए

इस क्षणिक जीवन में
दुख उतना ही जरूरी है जितना सुख
जैसे हवा और पानी।


सुख की तलाश में

हमने सुख की तलाश में
शहर की ओर रूख किया

महानगरों में भी बसे
दस मंजिला इमारत के आखरी माले पर
रहने को आतुरता दिखे

बिल्डिंग-दर-बिल्डिंग सटे होने के बावजूद
हम स्वच्छ हवा की खातिर
खिड़कियाँ खोले परदे सरकाये
और जहरीली हवा लेते हुए  
कुछ दिनों तक खुश रहे

जबकि वो प्रदूषित हवा
हमें हर पल नुकसान पहुँचा रही थी

पर विडंबना यह है कि
हमने उस शहर को पहचान लिया
पर शहर मुझे अब तक नहीं पहचानता

अपने गाँव को छोड़कर जाने वाले
तुम्हें इसकी पगडंडी अब भी बुलाती है

वर्षों तुमने बहुत धन अर्जित किया
लेकिन तमाम शहरों में रहकर
किसी एक के नहीं हो सके।

यह शिकायत
तुम्हें खुद से
और अपने शहर से हमेशा रहेगी।

शब्दों के भीतर

मैं शब्दों के भीतर अर्थ ढूँढती हूँ
भाषा घर की खिड़कियों की तरह लटक रही है

मैं मौन के भीतर उदासी ढूढ़ती हूँ
खुशी ज्वाला-सी धधक रही है

संवेदनाएँ मृत पड़ गई हैं आजकल
सहनशीलता ताना दे रही है

मैं संशय में फंसी भाग रही हूँ
खामोशी धीरे-से जख्मों पर वार करती है

वर्ण उतावला हो रहा है शब्द बनकर
भाषा अपनी गरिमा बचाने की कोशिश में नाकामयाब हो रही।

आदमी

हवा और पत्थर के दो छोरों के बीच
आदमी झटके खाता है
और झटका खाकर
कभी हवा की तरफ झुकता है
कभी पत्थर से टकराता है
कभी प्रेम में पड़ता है, कभी संन्यास
जैसे हवा प्रेम हो, पत्थर संन्यासी
प्रेम, संन्यास से मुँह चिढ़ाता है
संन्यासी, प्रेम को बर्दाश्त नहीं करता
क्योंकि प्रेम से प्रकृति
और प्रकृति से प्रेम है
संन्यास ईश्वर है
परमेश्वर संन्यासी है
मनुष्य जानता है
प्रेम और संन्यास दोनों नहीं पा सकता
क्या प्रकृति और ईश्वर का कोई संबंध नहीं?
संन्यास में मग्न रहकर प्रेम
प्रेम में समा कर संन्यास
कितना कठिन है मनुष्यों के लिए
ईश्वर वह नहीं, जो मुँह चिढ़ा कर भाग रहा है
ईश्वर वह है, जो कण- कण में समाहित है
प्रकृति ही प्रेम है
प्रेम ही संन्यास है
संन्यास ही परमेश्वर है।

आँखों में मानचित्र

मैंने एक साथ कई चीजें देखी हैं
हँसते- गाते लोग, मायूसी में डूबी हुई स्त्री
कंधों पर भारी बोझ लादे मजदूर
बकरियों के झुंड में एक अकेली लड़की
पहाड़ के पीछे डूबता सूरज
जंगल में पशुओं के भय से भागते- गिरते लोग
एक लड़की की विदाई
माँ का चीखना, पिता का गमछा के पीछे मुँह छुपाना
ससुराल में बात- बात पर ताने सुनना
पल-पल उसका फफकना
भात के अदहन में नमकीन आंसुओं का स्वाद
यह सब धीरे धीरे मेरी आंखों में
मानचित्र सा बसता जाता है।

मैं अकेले जीने में सक्षम हूँ

मैं अकेले जीने में सक्षम हूँ
मुझे नहीं चाहिये पुरुष रूप में कोई पहिया
जिस पर मैं स्थायी रूप से निर्भर रहूँ
और उसके चलने का इंतज़ार करूं
मैं विरोध नहीं करना चाहती समाज के किसी भी प्राणी का
लेकिन मैं प्रेम करती हूँ अपने आत्मसम्मान से
और जो इसे ठेस पहुँचाये
मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे
तुम्हें तकलीफ़ होती है हमारी एकल जिंदगी से
या फिर तुम्हें भी मेरी तरह आजादी चाहिए ?
पति की कमाई पर स्त्रियाँ इतराती हैं 
पर खुद की कमाई पर जीना शायद नहीं जानतीं वे 
पितृसत्ता की गुलामी से बेहतर है
कि हम पिता और पति को बताएं कि
अपने बनाये घेरे में वो स्वयं रहें 
हम अहिल्या बनकर
वहाँ जड़ होना नहीं चाहतीं।

आँखों का नमक

तुम उस लड़की को जानते हो
जिसके पिता ने छीन ली हैं उसकी किताबें
और छोटी उम्र में ही थमा दी गई हैं
घर की सारी जिम्मेदारियाँ

उसके सब्जी में नमक नहीं
उसके नेत्रजल की मिलावट है
वह घर तो रोज साफ करती है
लेकिन उसका चेहरा मलिन रहता है

कभी देखना गौर से
उसके माथे की सलवटें
कुछ न कहते हुए भी
बहुत कुछ बतायेंगी तुम्हें

वह खुश तो बहुत रहती है
लेकिन उसकी खुशी का कभी राज मत पूछना
नहीं तो एक दिन वो रो बैठेगी
और उसकी आँखों का नमक हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा

तुमने उस लड़की का मन कभी पढा है
जिसके पति ने नहीं  दी उसे आगे पढ़ने की इजाज़त
एक दिन उसकी आँखों से निकलेगा
नफरत का धुआँ
होठों से शब्दों की चिंगारियाँ
और मिटा डालेंगी राह के कांटों को

वह लड़ेगी अपने लिए
तुम्हारे बनाये पितृसत्ता समाज से
वह डटी रहेगी इस लड़ाई में अंत तक
अपनी बेटियों के भविष्य के लिए।

सैनिक पिता

मेरा जन्म जब हुआ था
मेरे पिता तैनात थे बॉर्डर पर सब की सुरक्षा में
लेकिन मेरी माँ असुरक्षित महसूस कर रही थीं
एक मेरे पिता के पास न होने से

मेरे तीसरे जन्मदिन पर जब पिता घर आये थे
माँ कहती थी वह बहुत खुश थे
लेकिन सारी खुशियों पर पानी फिर गया
एक उनकी माँ के न होने से

जब वह वापस जाते थे
मेरी माँ खत का महीनों इंतज़ार करती थी
लेकिन उन्हें फुर्सत नहीं थी खत लिखने की
माँ घंटों रोया करती थी, खत के न मिलने से

उस दिन होली के उत्सव पर जब मैं रंगों में पुता था
मेरे पिता खून से लथपथ
तिरंगें में लिपटे एक ताबूत में आये थे
मेरी माँ उन्हें रंगीन तिरंगें में देखकर सफेद हो गई थीं।

क्षणिका

बारिश प्रेम की परिभाषा है
और पानी उसका अर्थ।


 
परिचय

नाम - दिव्या श्री
जन्मस्थान - बेगुसराय, बिहार
संप्रति - शिक्षा, कविता लेखन में विशेष रुची
प्रकाशन - वागर्थ
वेब प्रकाशन - हिन्दीनामा, तीखर, युवा प्रवर्तक

 divyasri.sri12@gmail.com

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

प्रेम की चिर-कालीन संवेदना

अनु चक्रवर्ती की कविता उतनी ही बहिर्मुखी है, जितनी मन के कोनों को  खंगालने वाली । उनकी कविताओं में मॉडर्न फेमिनिज्म भी दिखता है, जहाँ वो देह की अकुलाहट को बयां करती हैं, और प्रेम की चिर-कालीन संवेदना भी । प्रेम से ले कर युद्ध तक की सीमाओं को छूती हैं उनकी कविताएं । प्रेम, प्रकृति, पुरुष का मन, और जीवन की विडम्बना भरी चुनौतियाँ, इन सब को अनु बहुत अच्छे से संजोती हैं अपनी रचनाओं में । उन्हें समझना उतना ही आसान है, जितना खिले हुए पुष्पों को, और उतना ही दुरूह जितना प्रेम में पड़ी जोगन को - अनुपमा गर्ग


अनु चक्रवर्ती की कविताएं


दो लोगों के बीच का सच !

दो लोगों के बीच का सच
हमेशा ही बना रहता है एक रहस्य ..
बन्द कमरे के अंदर का सन्नाटा 
लील जाता है पूरी तरह से 
जीवन के उल्लास को  ...
अकुलाते देह के भीतर 
जब कसमसाती हैं भावनाएं
तब मन की
 पीड़ा का बोझ 
बढ़ जाता है 
थोड़ा और ...
स्त्री जब प्रेम में होती है 
तब तन , मन ,
 और धन से 
करना चाहती है 
समर्पण !
खो देना चाहती है
 अपना सम्पूर्ण वजूद ....
एक ओंकार की तर्ज़ पर ,
बह जाना चाहती है ..
सम्वेदनाओं की सरिता में ।
किंतु सुपात्र ! 
की तलाश में 
 उन्मत्त  भी रहती है -  
उम्र भर ....
फ़र्ज कीजिये -
किसी जोगन को अगर लग  जाए 
प्रेमरोग !
 तो विडम्बना की पराकाष्ठा 
भला इससे बड़ी और क्या होगी....
वास्तव में ,
प्रेम में निर्वासित स्त्री ही 
वहन कर सकती है
सम्पूर्ण मनोभाव से योग......
अपनी भूख , प्यास ,
और नींदें गंवाती है....
मात्र प्रीत के ,
स्नेहिल स्पंदन की तलाश में ..
और
उसकी ये तलाश 
शायद !
अधूरी ही रह जाती है 
जन्मों तक ...
क्योंकि 
कहीं न कहीं 
प्रेम !
संकुचन का अभिलाषी होता है
जबकि श्रद्धा !
चाहती है विस्तार .....


हे अर्जुन !!


हे अर्जुन !
आज मै भी समझ सकती हूँ ..
तुम्हारे दर्द को पूर्णतः  ....
निश्चित,
कितनी असीम पीड़ा को तुमने सहा होगा...
अपनों को अपने ही, ह्रदय से दूर कर देने का दंश 
सिर्फ,  
तुम्हारी ही छाती वहन  कर सकती है  प्रिये ! 
किन्तु,  
तुम सदा से ही थे भाग्यवान !!
क्यूंकि
कृष्ण !!
जैसा मित्र और सारथी 
भला  किसे मिला है इस जहान में...?
जो विश्व कल्याण के  लिए ,
प्रशस्त कर सके विहंगम मार्ग भी ....
भर सके चुनौती प्रेम से आसक्त उर में....
समझा सके , 
सत्य और असत्य का भेद...
और तैयार कर सके भुजाओं को ...
ताकि गांडीव में 
दुगुनी ऊर्जा का हो सके संचार....
और लोक हित में ,
बनी रहे मर्यादा कर्तव्यनिष्ठा की...
हे पार्थ..!
सच, ह्रदय पर तुमने लिया होगा 
ना जाने कितना घाव...
जब प्रत्यंचा चढाई होगी 
तुमने पहली बार
अपने ही परिजनों के विरुद्ध ....
बाल्यकाल... राजमहल ...और गुरुजनों 
के स्नेह को करके परे....
तुमने भर ली होगी  अग्नि 
अपने दोनों अश्रुपूरित  नयनों में...
हे द्रोण प्रिय !!
काश ! 
हम भी ले सकते सही निर्णय 
समय निर्वहन के साथ- ही- -साथ...
और उजास से भर सकते
वर्तमान को ..
त्याग आत्मिक संबंधों काे ,
उज्जवल भविष्य की परिपाटी  के लिए ...
केवल युग-पुरुष ही कर सकते हैं,  शायद...!!


नींद


तुम्हारे साथ उम्र की 
सबसे सहज नींद का उपभोग किया है मैंने !
तुम्हारा हाथ थामे - थामे 
बादलों के देश भी घूम आई हूँ
कई बार ....
तुम्हारे पास होने पर 
सपनों जैसा कुछ नहीं होता ...
बल्कि
दर हकीक़त !
सिलसिलेवार मन के  सारे ख़्याल
भी पूरे होने लगते हैं ....
मुझे   ऐसी बेख़ौफ नींद से जागना 
कतई मंजूर नहीं होगा ...
तुमने कहा था - कि 
तुम मुझे सुलाने के लिए 
नींद की गोलियां कभी नहीं दोगे ....



शिरीष के पुष्प

जब  उमस से भरी यह धरती 
लू के थपेड़ों को सहती है 
 काल बैशाखी की विकल घटाएं 
शाखों की उंगलियां मरोड़ती हैं .....

जब संसार  की सारी मनमर्ज़ियाँ
 उदासी  का पैरहन ओढ़ लेतीं हैं
जब  इंसान के मन की बेचैनियां
शुष्क गलियों से गुज़रतीं हैं ...

जब पानी की एक - एक बूंद को 
सारी  प्रकृति तरसती है 
जब सूरज की  तेज़ किरणों से 
वनस्पतियां भी झुलसती हैं ...

जब हरित धरा धूसर हो जाती है
और राग - रागिनी कहीं खो जाती है 
 तब सर  पर कांटो का ताज लिए
 यह  रक्तिम आभा बिखेरते  हैं  .....

यूँ छुईमुई -सी  लजाती शिरीष !
विषमता में अपना शौर्य दिखलाती है 
वसंत से लेकर आषाढ़ तक केवल
यह अजेयता का मंत्र दोहराती हैं  ...


 जो - जिसने


जो छोड़कर गया है, वो एक दिन लौटेगा 
अवश्य ....

जिसके लिए नीर बहाया है तुमने 
उसे लगेगा अश्रुदोष ....

जिसने अनुराग को समझा मनोविनोद 
उसे स्वस्ति नहीं मिलेगी कभी....

जिसने पूर्ण समर्पण को किया अनदेखा
वो भोगेगा संताप भी ...

जिसने प्रेमत्व के बदले देना चाहा किंचित सुख
वह उपालंभ के अधिकार से भी होगा वंचित ....


अपनाना इस  बार !

मैं बाहर से जितनी आसान हूँ !
अंदर से उतनी ही मुश्क़िल भी ....
 भीतर से जितनी सरल हूँ !
ऊपर से उतनी ही कठिन भी ...

आज ससम्मान सौंपना  चाहती हूं 
तुम्हारा हाथ उसे ,
जिससे तुम करते आये हो निरंतर प्रीत !
और जिसकी भीति से तुमने 
उत्सर्ग किया है मेरे अनुरागी मन का ...

 जो कभी मुझे सचमुच में अपनाना चाहो
 तो  ऐ साथी ,
अपनाना अपने व्यस्ततम एवं दुसाध्य  क्षणों में ...
जो मेरे पास आये  तुम केवल  फ़ुर्सत के पलों में....
तो ये तय है -
क़े  फ़िर कभी पा न सकोगे मुझे !

क्योंकि मैं  सामने से जितनी मुलायम हूँ 
पर्दे के ठीक पीछे ,उतनी ही सख़्त भी ......

परिचय 

श्रीमति अनु चक्रवर्ती 
C/O श्री एम . के . चक्रवर्ती
C - 39 , इंदिरा विहार 
बिलासपुर ,छत्तीसगढ़ 
Pin - 495006 
Ph- 7898765826

: वॉयस आर्टिस्ट  , रंगकर्मी , मंच संचालन में सिद्धहस्त , विभिन्न पत्र पत्रिकाओं , बेव पोर्टल्स ,और सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित , तीन फ़ीचर फ़िल्म में अभिनय करने का अनुभव , स्क्रिप्ट राइटर ।