रविवार, 27 अगस्त 2023

अरुण कमल की कविता - उधार की धार भी भय ने भोथरी कर दी


अरुण कमल
की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है
, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
 
'खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और खाली जमीन का टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
...यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं '
 
कवि का महानगर के जिस सघन हिस्से में रहना होता है, वहाँ विकास उर्ध्‍व दिशा में एक सीमा तक होकर अवरुद्ध हो गया है। इस जड़ता ने कवि स्वभाव को भी जड़ बना दिया है। अपनी ही उस जड़ता से ऊबा कवि नए इलाकों में जाता है तो एक-दूसरे किस्म की जड़ता (जिसे वह स्मृति के नाम से पुकार कर एक भ्रम पैदा करना चाहता है) को ढूंढ़ता है। रोज कुछ बनना उसे पसंद नहीं। उसे ढहा हुआ घर चाहिए। खाली भूखंड चाहिए।
 
'अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो,
क्या यही है वो घर?'
 
कवि कोई खास घर खोज रहा है। जो खाली भूखंडों और ढहे घरों के बीच ही पहचान में आता था। दरअसल नए मकानों के होते कब्जे को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। जबकि रघुवीर सहाय इस भेड़-धसान संस्कृति को खूब पहचानते थे। वे लिखते हैं - ‘यह संस्कृति ऐसे ही बूटे-ऊँचंगे मकानों को गढ़ेगी।’ अरुण कमल इन मकानों के अजनबीपन को न पहचान पा रहे हैं न भेद पा रहे हैं। बस बिसूर कर रह जाते हैं वे-
 
'समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास '
 
स्पष्ट है कि महानगरीय जीवन के आदी कवि को देर तक खोजना भारी पड़ रहा है। और पानी चला आ रहा है। हालाँकि घर बेशुमार हैं, पर उनसे उसका कोई संबंध नहीं है। नए विकास को वह स्मृत्ति के नाम पर खारिज कर देना चाहता है। नए विकास की अपनी नयी स्मृत्तियाँ होंगी ही, जिन्हें वह जानना भी नहीं चाहता।
‘शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।’ अब ऊपर वाले पर ही भरोसा है। वही रास्ता निकाले शायद। कुल मिलाकर यही अरुण कमल की कविताओं की पृष्ठभूमि है। एक फिजूल के भय की कृत्रिमता से पैदा हैं अधिकांश कविताएँ उनकी। जिनमें ‘बादल के घिरने का आतंक अकास के ढहने जैसा है।’ जहाँ स्मृत्ति का मानी जड़ अविवेकपूर्ण स्थितियों से है। ए.एल. बाशम ‘अद्भुत भारत’ में लिखते हैं कि यूरोप में साधारणतः मेघों की गरजन...अशुभ मानी जाती है। परंतु भारत के लिए वे...सौभाग्य सूचक समझे जाते हैं। अरुण कमल अंग्रेजी शिक्षक हैं, उन पर यूरोपीय कविता के प्रभाव के रूप में भी इस भय को हम देख सकते हैं। क्या कवि ने खुद भी कोई पीपल रोपा है कभी, आखिर विरासत के भरोसे स्मृतियाँ कब तक साथ देंगी।
 
'न पाप कमाया न पुण्य ही रहा अक्षत'। 
 
यही कवि की पीड़ा है। न पीपल रोपा, न उसे कटने-बिकने से बचा सका। और मुक्ति भी नहीं मिली। शायद यह दुख कवि को बार-बार सालता है।
मुख्य बात यह है कि 'न खुदा ही मिला' वाले दुख को कबि इतनी बार इतनी तरह से लिखता है कि पूरा संग्रह रूदन का कोष बनकर रह जाता है। अच्छी कविता की बाबत कहा जाता है कि उसे दुबारा पढ़ने की इच्छा होती है। पर एक रोआंहटी कवि को आप फिर से रोने के लिए कह सकतें हैं क्या? इस तरह रुदन व जीवन की निस्सारता का पारंपरिक राग संग्रह में भरा पड़ा है।
 
मेरा पूरा रक्त भी मरते पक्षी को नहीं दे पाएगा जीवन
कोई छुपा होगा दरवाजे के पीछे
मैं लौहूँगा और वह घूमेगा
कौन सुनेगा मेरी पुकार इतनी दूर
 
अब पाठक क्या करें- मनोविकार से ग्रस्त इस भय के ग्राह से ग्रसित गज की मुक्ति के लिए नारायण से प्रार्थना करें। खुद को स्थावर (जड़) बनाते इस भय को कवि अच्छी तरह पहचानता भी है 'स्थावर' कविता की पंक्तियाँ देखें-
 
बहुत दिन से एक जगह पड़ी हुई ईंट हूँ मैं
जिसे उठाओ तो निकलेंगी बिलखती चीटियाँ
और कुछ दूब चारों ओर
हरी पीली।
 
आखिर जीवन तो है। भय से जड़ हुए कवि की पीठ को कुरेदती दूब तो है। पर वह नहीं चाहता कि कोई उसकी जड़ता तोड़े। बहाना बिलखती चींटियों का है। आंतक रघुवीर सहाय के यहाँ भी काफी है पर यह थोथा भय नहीं है-
 
क्या मैं भी पूरा का पूरा
बेकाम हो जाऊँगा बीच राह
गिरा जूते का तल्ला
 
'भय' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
 
बंद रहा पिंजड़े में इतने दिन
कि उठूं भी अगर तो भय है
फड़के एक पंख दूसरा हिले भी नहीं
 
कवि के निवास पर हमेशा बित्ते-भर के पिंजड़े में लटकता तोता नज़र आता था पहले। कवि ने अच्छा पहचाना है। इस महानगरीय सुभीते की एक कृत्रिम सुख के नाम पर तैयार किए गए घेरे वाली जिंदगी में शरीर की हालत ठीक ही बेजान हो जाती है। रूसी प्राणीविद फेन्तेयेव ने एक प्रयोग के बारे में लिखा था कि एक बार यह देखने की कोशिश की गई कि लगातार वर्षों तक एक घेरे में बंद जीवों को अचानक खुले में छोड़ देने पर उन्हें कैसा अनुभव होगा? एक खरगोश को, जो बरसों से एक कटघरे में बंद था एक खुले मैदान में ला छोड़ा गया। पहले उसकी आँखें चमकीं। उसने एक उछाल भरी और जमीन पर पसर गया। जाँचा गया, तो वह मर चुका था। एक उल्लू और भेड़िए के साथ भी ऐसा ही हुआ। अच्छा है कि कवि ने इसे पहचान लिया। अगर अब भी वह इस पिंजड़े को तोड़ सका तो बच सकेगा।
 
भय के साथ अपनी असफलताओं से भी डरा हुआ है कवि। इस बुरी तरह कि वह उसे अपनी नियति मान लेता है-
 
छीलता गया पेंसिल
कि अंत में हासिल रहा ठूंठ
 
ये स्थितियाँ इस तरह काबिज हैं कवि पर कि हर घटना में वह भय को ही देखता है। और जहाँ वह नहीं होता, वहाँ वह उसका इंतजार करता है।
 
सामने बैठे यात्री ने लौंग बढ़ाई
तो हाथ मेरा एक बार हिचका
ऐसे ही तो खिला-पिला लूट लेते हैं
...
एक बार उसे गौर से देखा
उसका चश्मा घड़ी और चप्पल जिसका
नथुना टूटा था
और शुक्रिया कह कर ले ली लौंग
पर इतना पूछ लिया- कहाँ जाएँगे? किस मोहल्ले?
उसके बाद भी देर तक करता रहा इंतज़ार बेहोशी का
 
इन पंक्तियों को पढ़ते एक कथा याद आती है। इस रूदनाचर्चा में उससे कुछ रंग आ जाए शायद, हँसी का एक जंगल से गुजरते एक यात्री को अपने बाएँ-दाएँ बाघ और अजगर से भेंट हो गई। दोनों उसी की ओर मुँह फाड़े बढ़े आ रहे थे। वे जब निकट आ गए, तो यात्री ने डरकर आँखें बंद कर लीं और हमले का इंतजार करता रहा। पर कुछ हुआ नहीं, तो उसने आँखें खोलीं। सामने अजगर और बाघ एक-दूसरे से जूझ रहे थे। कवि का भय का इंतजार भी कुछ ऐसा ही है। कवि मानता है कि वह खुद एक अच्छा अदमी है, फिर उसे डर है कि वह मारा जाएगा।
 
मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया
न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा
और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा
 
यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि अच्छे आदमी की और भी परिभाषाएँ हैं। उनमें एक शायद ब्रेख्त की है कि- 'अच्छा आदमी वह है जिसे देख दुष्ट कॉप और भले आदमी खुश हों।' पर इस तरह का आदमी बनने लिए थोड़ी हिम्मत की जरूरत होती है। केदारनाथ सिंह ने लिखा भी है कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द। अरुणजी का भय ऐसा ही है, जो उन्हें मार रहा है बार-बार उन्हें अपने पड़ोसी कवि आलोक धन्वा की कविता 'पतंग' फिर से पढ़नी चाहिए, जिसमें वे बच्चों के बारे में कहते हैं कि- 'अगर वे छतों के खतरनाक किनारों से गिर जाते हैं और बच जाते हैं, तो और भी मजबूत होकर सामने आते हैं।' कहाँ आलोक का गालिबाना अंदाज़ेबयाँ और कहाँ अरुणजी का बिसूरना-
 
टिकट पर जीभ फिराते डर लगा
क्या पता गोंद में जहर हो
 
सोवियत संघ के पतन के बाद जो विचारहीनता का दौर चला है लगता है कवि भी इसका शिकार है। तभी वह लगातार अनिर्णयों के अरण्य में फँसता जा रहा है। कभी राजकमल चौधरी ने लिखा था- 'पूरा का पूरा जीवन युद्ध मैंने गलत जिया'। आज अरुण कमल उससे आगे बढ़कर लिख रहे हैं कि पूरा जीवन युद्ध मैं गलत मरा। वे लिखते हैं-
 
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिए
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया-
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा ?
 
संग्रह की आधी से अधिक कविताएँ भय की ऐसी ही भीतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। बाकी कुछ अन्य कविताएँ भी हैं। उनके बारे में 'अपनी केवल धार' से 'सबूत' तक काफी लोगों ने लिखा है। उसकी कुछ कड़ियाँ यहाँ भी मौजूद हैं। पर जो नया विकास है कवि का, यह भय ही है। जिस पर यह आलेख केंद्रित रहा। यूँ तो पहले ही अरुण जी ने मान लिया था कि सारा लोहा उन लोगों का है- पर तब धार अपनी थी। भय की मार ने यह धार भी भोंथड़ा दी है। सवाल है कि उस भोथड़े लोहे का होगा क्या? जवाब कवि के शब्दों में ही-
 
अन्न उगा न सकूँ तो क्या
सूखते धान के पास बैठ कौआ तो हाँकूँगा
 
यहाँ अनायास वीरेन डंगवाल याद आते हैं-
 
इतने भोले भी न बन जाना साथी
कि जैसे सर्कस का हाथी ।
 
आलेख का एक हिस्‍सा ‘पाखी’ में प्रकाशित

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

अरूण कमल का भोगवादी गद्य

“कविता और समय´´ पुस्तक में संकलित `कविता का आत्म संघर्ष´ शीर्षक टिप्पणी में मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को याद करते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “कौन-सा शब्द हम चुनें और कौन-सा छोड़ दें। यह बहुत महत्‍वपूर्ण होता है।…बहुत बार तो हम सिर्फ शब्दों के प्रचलन को जांच करके पता लगा सकते हैं कि कवि का समाज से संपर्क कैसा है, कौन से विषयों को वह चुनता है और फिर उसकी पूरी दृष्टि कैसी है। यानी विषय से शुरू करके एक शब्द का, बल्कि हम तो कहेंगे एक मात्राा तक का जो चुनाव होता है वहां तक यह बहुत ही महत्‍वपूर्ण प्रक्रिया चलती रहती है।´´

उपरोक्त गंभीर वक्तव्य पुस्तक की `टिप्पणियां´ के अंतर्गत संकलित अपेक्षाकृत हल्के माने गए निबंधों में से एक से है। पुस्तक के आरंभिक `आलोचना´ खंड का अंतिम आलेख `हिंदी के हित का अभिमान वह´ नामवर सिंह पर है। आलोचना खंड में ही रघुवीर सहाय पर `न्याय की लड़ाई के पक्ष में´ शीर्षक से लिखते हुए अरुण कमल कहते हैं- “किसी भी कवि की निपुणता और उसके संपूर्ण काव्य-आचार तथा जीवन-दृष्टि की जांच एक उपयुक्त कविता के जरिए हो सकती है।´´ इसी को ध्‍यान में रख मैंने अरुण कमल के गद्य विवेक को समझने के लिए नामवर सिंह पर लिखा उनका यह आलेख चुना है। ध्‍यान से पढ़ने पर यह आलेख व्यंग्याभिनंदन लगता है। यानी व्यंग्य और अभिनंदन का मिश्रण। नामवर सिंह पर लिखित यह आलेख ग्यारह पृष्ठों में है जिसमें तीन पृष्ठ सीधे उनकी पुस्तक `कहना न होगा´ से उद्धृत हैं।

अपने अभिनंदनालेख के अंतिम पैरों में गंभीर होते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “आलोचक पर लिखा जाए और कुछ भी आलोचना न की जाए तो शोभा नहीं देता। आलोचना तो पवित्री (बोल्ड लेटर में) है जिसके बिना कोई भी साहित्य-भोज न तो आरंभ हो सकता है, न पूर्ण, न पवित्र।´´
लेखन में मात्रा और ध्‍यान की महत्ता बताने वाले अरुण कमल की ध्‍वनियों का संसार बाजारपरक और खाऊ किस्म का लगता है। वे आलोचना शोभा बढ़ाने (अभिनंदन) के लिए लिखते हैं। फिर आलोचना उनके लिए पवित्री (चरणामृत-परसादी) भी है और साहित्य भोज। अगर अरुण कमल मलयज से उनके समय के विवेक की सफाई मांग सकते हैं तो क्या हमें भी यह अधिकार मिलता है कि हम उनसे इन महाप्राण ध्‍वनियों का निहितार्थ पूछें? इसी पुस्तक में अरुण कमल रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति पर आपत्ति करते लिखते हैं कि “यह कहने का भद्दा ढंग है´´ आलोचना पर बात करने का अरुण कमल का उपरोक्त ढंग कैसा है? क्या वह भोगवादी है? और पूंजीवादी भी, जिसका अच्छा खाका मुक्तिबोध अपनी `पूंजीवादी समाज के प्रति´ कविता में खींचते हैं।
“इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छन्द-जितना ढोंग, जितना भोग है निबंध।´´
आगे अरुण कमल नामवर सिंह द्वारा अपने प्रिय आलोचक एफआर लिविस पर की गई टिप्पणी को ही नामवर जी के लिए उद्धृत कर देते हैं। इस तरह घर से एक पाई (शब्द) लगाए बिना ही रंग चोखा कर लेते हैं। फिर वे लिखते हैं, “हो सकता है डॉ नामवर सिंह में कई भटकाव हों…भटकना पसंद करूंगा। नामवर सिंह के साथ…।´´ `हो सकता है´, `शायद´, `संभावित´, `लेकिन´ के बहुप्रयोग वाली अरुण कमल की यह भाषा ही भटकाने वाली है। भटकना अरुण कमल को पसंद भी है! पर क्या यह अभिनंदन नामवर सिंह को भटका सकेगा! या वह पहले ही भटक चुके हैं? कहीं पर एक बार नामवर सिंह ने अपनी खूबी बताते हुए लिखा था- “मेरी हिम्मत देखिए मेरी तबीयत देखिए, सुलझे हुए मसले को फिर से उलझाता हूं मैं।´´

काव्य भाषा की समझ अरुण कमल को चाहे जितनी हो पर अपने समय की समझ खूब है। तभी तो बाजार की भाषा पर हमले की तेजी को देखते उन्हें प्रतिकार में कविता पर `अंधाधुंध टिप्पणी करने की जरूरत पड़ती है। इस टिप्पणी का शीर्षक `पारचून´ देते हैं वे। `पारचून´ में वे लिखते हैं “यदि ईश्वर है तो यह पूरी पृथ्वी उसके लिए पारचून की एक दुकान ही तो है, कविता भी ऐसी ही अच्छी लगती है, ढेर-ढेर चीज़ें, बेइंतहा, सृष्टि की एक अद्भुत नुमाइश-पारचून की दुकान।´´
कुल लब्बो-लुआब यह कि आलोचना अगर पवित्री (परसादी) है तो कविता पारचून की दुकान। चलिए कविता की कुछ तो इज्जत रखी। परसादी की तरह `मोफत´ की तो नहीं कहा। यूं आज मोफतखोरों का ही बोल-बाला है।
अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में अरुण कमल खुद को माक्र्सवादी बताते हैं। चलिए माक्र्सवाद का नया अर्थशास्त्र `पारचून´ में दृष्टिगोचर हुआ। पर सवाल उठता है कि फिर वे कवि श्रीकांत वर्मा को बाजार और उदारीकरण की पक्षधर कांग्रेस के प्रवक्ता होने के चलते क्यों कोसते हैं!

`मगध´ पर लिखते अरुण कमल लिखते हैं“मैं लगातार किंचित विस्मय के साथ सोचता रहा कि एक समर्थ कवि जो शासक दल का उच्चािधकारी और प्रवक्ता है, वह आज कैसी कविताएं लिख सकता है…एक कवि जो तत्कालीन जीवन के कष्टों और विडंबनाओं का साक्षी नहीं हो सकता, अन्याय और संहार का प्रतिवाद नहीं कर सकता। वह काल और शाश्वत जीवन के बारे में लिखने का अधिकारी है? पता नहीं ये विचार कवि द्वारा श्रीकांत वर्मा पुरस्कार लेने के पहले के हैं या बाद के। पुरस्कार के निर्णय में क्या आज भी श्रीकांत वर्मा की कांग्रेेसी सांसद पत्नी की भागीदारी नहीं है! क्या श्रीकांत वर्मा के बेटे की जालसाजी उजागर होने के बाद कवि के विचार उस पुरस्कार के प्रति बदले हैं? नहीं, तो श्रीकांत वर्मा से ऐसे सवालों के मानी क्या हैं? श्रीकांत वर्मा की पुस्तक `मगध´ उनके विवादास्पद व्यक्तित्व के बाद भी जिस निर्विवादिता को प्राप्त कर चुकी है, क्या उससे अरुण कमल को जलन होती है?
फिर अकादमी पुरस्कार भी क्या उसी कांग्रेसी या भाजपाई संस्कृति का एक हिस्सा नहीं है जिसके लिए अरुण कमल श्रीकांत वर्मा के कविता के अिèाकार को ही सवालों के घेरे में ला देते हैं। अकादमियों के स्वरूप पर प्रकाश डालते नामवर सिंह लिख चुके हैं- “नेहरू की दृष्टि में संस्कृति एक `एलीटिस्ट´ अवधारणा थी और उन्होंने रवींद्रनाथ की परंपरा में ही भद्रवर्गोचित अकादमियों की स्थापना की।´´

अरुण कमल की भाषा में `भोग´ और `चारण´ वृत्ति को बढ़ावा देने वाली ध्‍वनियां सर्वाधिक हैं। उनके लेखन का अधिकांश आपको एक किंकर्तव्यविमूढ़ता में ला खड़ा करता है। वे नामवर सिंह पर लिखते हैं कि `आलोचक का सबसे पहला काम शायद यही रहा है और है भी- लोगों को जगाए रखाना, जब सब सो रहे हों तब जाकर कुंडी पीटना।´ क्या साहित्य में जगाने से मतलब नींद खराब करना होता है! फिर `पहला´ के पूर्व `सबसे´ का अनोखा प्रयोग! दरअसल कहने को बातों का टोटा होने पर ही ऐसी जड़ाऊ भाषा गढ़नी पड़ती है।
अरुण कमल के अनुसार नामवर सिंह हिंदी के हित का अभिमान हैंµ“पूंजीभूत मेधा, नाभि, बंजारा, अकेले ही संपूर्ण प्रतिपक्ष हैं।´´ “और अविस्मरणीय अनुभव है उन्हें सुनना-निष्कम्प स्वर और `सस्वर गद्य´। `विचार दुर्भ्रिक्ष´ में विचारों का छप्पन भोग। इस छप्पन भोग के बिना शोभा ही नहीं बनती अरुण कमल के पैरे की। आखिर दुर्भिक्ष में भी `छप्पन भोग´ की पुरोहित कामना किस मानस को दर्शाती है?
मतलब साफ है कि कहीं आलोचना पवित्राी है, कहीं छप्पन भोग, कहीं दुधारू। या यूं कहें कि जो दुधारू है, वही आलोचना है। कहावत भी है कि दुधारू गाय की दो लात सही। सो अरुण कमल की नजर गाय के दूध पर रहती है। जब तक प्रशस्ति है तब-तक दुधारू है। फिर उन्होंने कविता को खूंटा बना डाला है। भला खूंटे से बंधे बिना, दुधारू हुए बिना आलोचना कैसे हो सकती है! जाने खुद पर ऐसी दुधारू शैली में आलेख देख नामवर सिंह क्या सोचते होंगे? क्योंकि “वागाडंबर भाषा का सबसे बड़ा दोष है´´ यह नामवर सिंह का ही कथन है।
कभी आलोचना को वे सिल (सिलबट्टा) बताते हैं जिस पर विवेक की छूरी सान चढ़ती है, कभी उसे ऐसा शिकारी कुत्ता बताते हैं जो सूंघ नहीं सकता। कुल मिला कर अरुण कमल के नामवर सिंह पर लिखे इस लेख के आधार पर आलोचना पर एक पॉप गीत तैयार किया जा सकता। वो जो गाना है ना गोविंदा वाला, “…मेरी मरजी। आलोचना तेरा ये करूं वो करूं मेरी मरजी।´´
फिर वे लिखते हैं कि नामवर सिंह के निष्कर्ष रचना के निष्कर्ष हैं। पर वे कौन से निष्कर्ष हैं, इस पर वे एक पंक्ति नहीं लिखते। भई जैसे `कहना न होगा´ से लेकर तीन पृष्ठ भरे वैसे ही नामवर सिंह पर `पहल´ के अंक से कुछ पृष्ठ निष्कर्ष पाठकों को उपलब्ध करा देते उद्धरण के रूप में। जैसे- एफआर लिविस पर टिप्पणी उपलब्ध कराई है।
आगे वे आलोचक के कर्तव्य की गंभीरता बतलाते हुए लिखते हैं“ढेर सारी कविताओं के, बीच ऐसी कविताओं को पहचानना भी दुष्कर है, जो कि एक श्रेष्ठ आलोचक को करना होता है- गाड़ी दौड़ में सबसे तेज दौड़ने वाली गाड़ी के साथ-साथ नजर टिकाए हुए – दौड़ना।´´ यहां कविता लेखन को घुड़दौड़ बना दिया गया। और आलोचक सट्टेबाज। नामवर सिंह का जो वक्तव्य अरुण कमल को मार्मिक लगा वह यह है कि “मैं तो चारण हूं, प्रत्येक राज-कवि का गुण गाने को तत्पर।´´ अकादमी पुरस्कार के बाद राज-कवि होने में काहे का संदेह।
आगे अरुण कमल लिखते हैं, “सृजन का अर्थ है शिष्ठ-भाषा को लोकभाषा के पास गर्भाधान हेतु ले जाना।´´ मतलब एक सांड भाषा दूसरी गाय भाषा। आगे वे दो तरह की आलोचना भी बताते हैं। एक पत्रकारी आलोचना जो दाएं-बाएं मुंह मारती चलती है, दूसरी अफसरी आलोचना जो गठिया पीिड़त बिना देह हुक्म चलाती है। क्या उनका आशय अज्ञेय, रघुवीर सहाय और अशोक वाजपेयी से है! और नामवर सिंह को वे दोनों के विरुद्ध पाते हैं। `कहना न होगा´ पर वे लिखते हैं, इसमें है, “विचार की एक मुख्यधारा और फिर सहायक नदियां। एक मुख्य घर और दालान बैठका।´´ गतिशील नदी और घर-बैठका का तुलनात्मक भानुमतीय विवेचन अरुण कमल के वश की ही बात है। वे कहते हैं कि नामवर सिंह की इस किताब के आधार पर `गाइड´ या `मैनुअल´ तैयार किया जा सकता है। कुल मिलाकर अरुण कमल कविता की अकादमिक पढ़ाई से बाहर आलोचना का काम समझ ही नहीं पाते। अंत में वे नामवर सिंह को तालस्तोय बताते हुए उनमें `लोमड़ी´ और `साही´ की क्षमताएं एक साथ देख पाते हैं। अच्छा है `साही´ पर एक केले का थंब गिरा देने की जरूरत है और लोमड़ी की बाजारू मुफ्तखोरी से तो लड़ने की जरूरत पड़ेगी ही।
 
///
'कविता और समय' पुस्तक प्रिय कहानीकार प्रेमकुमार मणि जी ने तब यह कहकर उपलब्ध कराई थी कि किताब स्तरीय नहीं लग रही इसलिए इसे लौटा दूंगा सो ध्यान रखें कि यह साफ-सुथरी लौटे, संभव हो तो जिल्द लगा लें।
///
सन् 2000 के पहले पटना से प्रकाशित पाक्षिक 'न्‍यूज ब्रेक' में प्रकाशित होने पर मैंने पत्रिका की प्रति अरुण जी को घर जाकर दी थी और तब हमेशा की तरह उन्होंने कुछ मीठा खिलाकर स्वागत किया था।
 

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

‘स्‍त्री श्रम के बिना धरती अनुर्वर हो जाएगी’ - आलोक धन्वा

वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से युवा कवि कुमार मुकुल की बातचीत '


बहुमत में प्रकाशित

बातचीत – 4

जैसी कि आप चर्चा करते हैं कि ब्रूनो की बेटियां कविता लिखने में आपको बहुत समय लगा। तो बताएं कि उसे लिखने में कितना समय लगा और उस कविता की रचना प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालें।

दुनिया के और हिंदी के जितने भी श्रेष्ठ कवि हैं उन्होंने स्त्रियों के बारे में लिखा है। पर यह जो विभाजन किया जाता है कि स्त्रियां ही स्त्रियों को अधिक जानती हैं मैं इसे नहीं मानता, इसीलिए हमने इस बहस में कभी हिस्सा नहीं लिया। ब्रूनो की बेटियां लिखते समय यह सब बातें मेरे जेहन में रहीं।  

ब्रूनो की बेटियां कविता के बारे में अगर एक पंक्ति में कहना हो तो यह कहा जा सकता है कि काम करने वाली स्त्रियों का विशाल फलक है और उनके श्रम के बिना धरती अनुर्वर हो जाएगी। उसी श्रम के सौंदर्य के बारे में ब्रूनो की बेटियां कविता है।

इसके अलावा श्रमिक स्त्रियों पर जो सामंती अत्याचार हुआ है, उनके घर जला दिए जाते हैं जब-तब उन्हें बेदखल कर दिया जाता है उनकी जमीन से, उसके खिलाफ भी हमने इस कविता में लिखा है, उससे जुड़े सवालों को सामने रखा है।

किसी की भी जो अपराजेयता है और अमरता है वह उसके काम से ही तय होती है इसीलिए मैंने लिखा कि

रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की

रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं।

मैं ब्रूनो से प्रभावित हुआ जि‍सने कहा कि पृथ्वी सूरज के चारों ओर घूमती है तो वह क्यों उससे पीछे हटता, इसी के लिए उसे जला दिया गया।

हिंदी के लोगों को और हिंदी के फेमिनिस्टों को यह समझना चाहिए कि हमेशा ही यह जेंडर की लड़ाई नहीं है, वास्तव में जो सच के साथ खड़े होते हैं उनका रास्ता हमेशा ही बहुत कठिन होता है, आसान नहीं होता है उनका जीवन। 

मैंने लिखा है कि

गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !

तो यह एक ऑब्जेक्टिविटी है। 

जस्टिस जो है, न्याय जो है, वह काम से ही आता है, उसे बहुत दूर तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। उसे दबाने वाले आखिर मिट जाते हैं लेकिन श्रमिकों का काम हमेशा बचा रहता है और वही उन्हें अमर करता है। चाहे वह ब्रूनो हों या श्रमिक स्त्रियां हों या चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह हों, उन्हें उनका काम जिंदा रखता है।

शमशेर जी की कविता अमन का राग में की पंक्तियां हैं -

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट
बन उठी है

उसी बात को हमने ब्रूनो की बेटियां में रखने की कोशिश की है। यह कविता मैंने 7 सालों में लिखी।

फणीश्‍वर नाथ रेणु के जन्‍मशती समारोह के दौरान इस साल दसियों पत्रिकाओं ने उन पर केंद्रित अंक निकाले हैं। इससे पहले प्रेमचंद के अलावे अन्‍य किसी कथाकार को लेकर इस तरह का लेखकीय उल्‍लास प्रकट हुआ हो यह याद नहीं आता। इसे आप किस तरह देखते हैं ?

फणीश्‍वरनाथ रेणु के जन्‍म शताब्‍दी समारोह को हिंदी के जागरूक पाठकों ने जिस बौद्ध‍िक और आत्‍मीय संजीदगी से मनाया है, वह हमारे भारत गणराज्‍य के मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्‍यों के प्रति हमारे लगाव और आत्‍मविश्‍वास को दर्शाता है।

प्रेमचंद और रेणु को सामान्‍यतया साहित्‍य के दो छोर की तरह देखा जाता है जबकि दोनों की रचना के केंद्र में ग्रामीण जीवन है। ऐसा क्‍यों है ?

प्रेमचंद और रेणु को साहित्‍य के दो छोर की तरह नहीं देखता मैं। प्रेमचंद की जो विकासमान धारा आधुनिक हिंदी में पराधीन भारत में ही शुरू हो चुकी थी और आज तक जारी है,  वह हमें प्ररित करती रहती है, रेणु भी इसी धारा के एक समर्थ लेखक रहे। 

जैनेंन्द्र, अज्ञेय और रेणु की अगर तुलना करनी हो तो आप उसे किस तरह सामने रखेंगे ?

जैनेन्‍द्र, अज्ञेय और रेणु की तुलना का सवाल कभी भी मेरे सामने नहीं रहा। ये तीनों आधुनिक हिंदी के बड़े रचनाकार हैं और इन्‍होंने आलोचनात्‍मक यथार्थ को अपने लेखन से सशक्‍त बनाया है। ये हमारे आधुनिक भारतीय साहित्‍य के गौरव हैं।

अज्ञेय की एक किताब जो हमें अच्‍छी लगी, वह है शेखर एक जीवनी। उनसे हमारी कुछ मुलाकातें हैं। चौथा सप्‍तक में वे मुझे भी शामिल करना चाहते थे, पर उस समय मैं इसके लिए तैयार नहीं था।

अग्रज कवि पंकज सिंह से आपका आरंभ के दिनों से दोस्‍ताना रहा, उनके जीवन और लेखन को आप किस तरह देखते हैं ?

पंकज सिंह एक मजबूत व्‍यक्त‍ि माने जाते रहे। एक समय ऐसा भी था पंकज के जीवन में जब वे मेरे कंधे पर सिर रखकर रोए। मेरी तरह वे भी एक समय प्रताडि़त हुए थे। वे किसी को एक जमाने में बहुत प्‍यार करते थे पर उन्‍हें उससे वैसा प्‍यार नहीं मिला। पर चूंकि वे शरीर से बहुत मजबूत थे और उनकी ईच्‍छाशक्ति भी मजबूत थी तो वे एक नयी शुरूआत कर सके। यह अच्‍छी बात है, जो कि मैं नहीं कर सका। जब कि बीस साल मिले मुझको। पर उसे जितना समय मिला उसमें उसने कई काम किये, एक तो बीबीसी चला गया

जेएनयू के गेस्‍ट हाउस गोमती में पंकज जब तब ठहरते थे, मेरे भी वहां ठहरने की व्‍यवस्‍था वे कर दिया करते थे। वहां पंकज से मिलने कई अग्रज लेखक आते थे - जिनमें निर्मल वर्मा, निर्मला गर्ग आदि थीं। पंकज सिंह का मूल स्‍वभाव गीतात्‍मक था, संगीत में उनकी काफी रूचि थी। जब वे अच्‍छे मूड में रहते तो बहुत सुंदर गाते थे। मंगलेश डबराल, आनंद स्‍वरूप वर्मा आदि इसके गवाह हैं। पंकज के भीतर एक मौज उठती थी, मौज, यानि लहर उठती थी, जिसकी उपज उनकी कविताएं हैं और उसी मौज में वे गाने भी गाते थे। यही वजह रही कि वे मंगलेश के गहरे मित्र थे। वे मुझसे ज्‍यादा मंगलेश को पसंद करते थे। वो जो एक सिक माइंड होता है, एक सनक होती है कई कवियों में, वह पंकज में नहीं था, यह अलग बात है कि जब वे गरजते थे तो मंडी हाउस का शटर गिर जाता था। यह एक सच्‍चाई थी।

पर वह चाहता नहीं था कि क्रोध करें। जब उसे लगता था कि उसका मुद्दा सही है तो उस पर लड़ता था वह। वो और अनिल चौधरी जब चिल्‍लाते थे तो शटर खुद बंद हो जाते थे। पर वह किसी को शटर गिराने को कहता या बाध्‍य नहीं करता था। फिर यही दोनों जाते थे और कहते थे कि आपलोग दुकान क्‍यों बंद कर देते हैं यह तो हमलोगों की अपनी लड़ाई है कि हमलोग आपलोगों से कभी लड़े, कभी किसी दुकानदार को तंग किया।

उसे सभी जानते थे - क्‍या पान वाला, क्‍या बंगाली स्‍वीट्स सभी। ऐज ए पोएट पंकज सिंह की कविता एक खास समझ को लेकर चलती थी। कविता से उन्‍हें लगाव था पर कविता को वे हमलोगों की तरह बहुत समय नहीं देते थे। हमलोगों का जो काव्‍यानुशासन था या मंजिल थी, तो मंजिल के बारे में वे कहते थे कि उनकी भी मंजिल यही है। पर हमलोगों की फुटपाथी जिंदगी में उन्‍हें उतना रस नहीं मिलता था।

एक बार आनंद स्‍वरूप वर्मा ने बतलाया कि वह एक लड़की के साथ फ्रांस जाना चाह रहा है। तो मैंने कहा कि - जाना चाहता है तो जाने दो। तो वर्मा जी ने कहा कि फिर किराया हमसे क्‍यों मांगता है।

मैंने कहा - कि उसके पास पैसा नहीं है तो किससे मांगेगा। आप सीनियर हैं हमलोगों से। फिर पैसा वैसा जुटा कर दिया लोगों ने। फिर वह गया फ्रांस उसके साथ, रहा कुछ दिन। फिर पांच-छह महीने बाद मन नहीं लगा तो चला आया वापस।

तो इस तरह की बहुत सी बातें थीं। नीलाभ भी बीबीसी में थे और कभी कभी हमारे बीच इलाहाबाद से आते थे। नीलाभ ने आलोचना और अनुवाद में अच्‍छा काम किया है। धीरे धीरे नीलाभ से पंकज की दोस्‍ती गहराती गई। जब वे दिल्‍ली आते तो हमलोगों के साथ ही गोमती में रूकते थे। वहां हमलोग हरी मिर्च, नमक के साथ भूजा खाते और साथ ही शराब का दौर चलता, हालांकि मैं उसमें शामिल नहीं हो पाता था।

पंकज सिंह से आपका परिचय पटना के आरंभिक‍ दिनों से रहा, उस समय की कुछ यादें आप पाठकों से शेयर करना चाहेंगे ?

कवि मित्र पंकज सिंह से मेरी पहली मुलाकात पटना विश्‍वविद्यालय परिसर में हुई थी। मुझे जहां तक याद है 1970 के आस पास मैं वि.वि. की सड़क से जा रहा था, त‍ब पंकज विनय कंठ के साथ जा रहे थे, जो मेरे भी मित्र थे, उन्‍होंने ही मेरा पंकज से परिचय कराया। उसके बाद तो फिर मुलाकातें होने लगीं। त‍ब तक उन्‍होंने मुजप्‍फरपुर छोड़ दिया था। तब वे दिल्‍ली जाने लगे थे, मैं भी जब जाता तो वहां उनसे भेंट होती थी।

पटना का दशहरा बहुत मशहूर था उन दिनों। देश भर के बड़े कलाकार आते थे और तीन-तीन दिनों तक मेला लगता था। बड़ी भीड़ जुटती थी। उन कलाकारों में प्रख्‍यात नृत्‍यांगना सितारा देवी जी भी आती थीं। कभी-कभी पंडित रविशंकर और अल्‍लारखां भी आते थे। शरद के आरंभ की रातों की उन महफिलों में पंकज और मैं व पटना के कई गैरसाहित्यिक साथी भी हमारे साथ होते थे। उस्‍ताद बिस्मिल्‍ला खां साहब लगभग हर साल आते थे। उनकी शहनाई भोर में बजती थी जिसके इंतजार में बहुत सारे लोगों के साथ हमलोग भी जमे रहते थे। इस दौरान हमारी बकबक थमी रहती और अगर कोई बीच में बोलता तो हम उसे चुप कराते कहते – चुप रह भाई।

एक बार गर्दनीबाग के दशहरे में अदभुत संयोग हुआ और हिंदी फिल्‍मों के सर्वाधिक मशहूर गजल गायक तलत महमूद आए। उनके साथ प्रसिद्ध तबलावादक किशन महाराज भी थे। उन्‍हें सुनने के लिए हमलोग चार-पांच किलोमीटर पैदल चलकर पहुंचे। वहां भारी भीड़ इकट्ठा थी। जितने लोग अंदर थे उससे दस गुना ज्‍यादा लोग बाहर थे। पंकज ने कहा कि जा पाओगे मंच तक। तब पंकज की मदद से मैं मंच तक पहुंचा। वहां मैंने बहुत हिम्‍मत कर एक पर्ची लिख कर तलत साहब को बढ़ायी कि आप – नीला अंबर झूमे ... गीत जरूर गाएं।

तब कुछ देर बाद माइक से तलत साहब ने कहा कि – यह गीत मुझे भी बहुत प्रिय है। तलत साहब ने पहला गीत सुजाता फिल्‍म का गाया – जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दिये। कार्यक्रम के अंत में तलत साहब ने कहा कि एक नौजवान की फरमाईश पर मैं – नीला अंबर झूमे ... गीत गाने जा रहा। जिसपर खूब ताली बजी। जिससे पता चला कि यह गीत कितना लोकप्रिय था। पंकज ने कहा कि तुमने बहुत अच्‍छी फरमाईश की।

उस दौरान पूरी रात हम लोग जहां-जहां कार्यक्रम होते वहां भटकते रहते। वे रातें अब ज्‍यादा याद आती हैं – जब पंकज सिंह नहीं हैं, दुनिया बकबक करती रहे ...पर हमलोग बहुत फ्री थे आपस में।

आपकी कविताओं को लेकर उनका रवैया कैसा था ?

कविता पर बातचीत में जब कभी किसी प्रसंग में मैं परेशान होता तो पंकज कहते – इन चीजों से बाहर निकल तुम लिखने पर केंद्रित करो, तुम नहीं जानते कि तुम कैसे कवि हो। जब वे लंदन से लौटे तो एक दिन मंगलेश डबराल के दफ्तर आये, वहां मैं भी बैठा था। उन्‍होंने बताया कि सविता सिंह मेरी दोस्‍त हैं, उनसे मैं शादी करने जा रहा। मंगलेश तो आएंगे ही इसमें, आपको भी मैं निमंत्रित कर रहा, नहीं तो ये दिल्‍ली में मेरा रहना मुश्किल कर देंगे। जेएनयू के छात्रनेता और विद्वान साथी देवी प्रसाद त्रिपाठी जो बाद में सांसद भी हुए, ने उस शादी में पुरोहिती की। उस शादी में दिल्‍ली के लगभग सारे मशहूर साहित्‍यकार, पत्रकार व कुछ चित्रकार शामिल हुए थे।

एकबार आकाशवाणी पटना के एक कार्यक्रम में पंकज और मुझे कविता पढनी थी। पंकज ने पूछा – पहले कौन पढेगा। मैंने कहा – पहले तुम पढ लो। उसने कहा कि तुम कपड़े के जूते का पाठ करोगे। मैंने कहा – वह लंबी कविता है। उसने कहा – कुछ अंश सुनाओ। मैंने उसकी बात मान ली। दिल्‍ली में मेडिटैरिनियन होटल में साल में एक पत्रकार संगठन वार्षिक आयोजन करता तो उसमें कविता पाठ भी आयोजित करता। उसमें तमाम लोग जुटते। विष्‍णु खरे जी, मंगलेश, मैं, पंकज और अनामिका जी, गगन गिल सब। श्रोताओं में निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, मृणाल पांडे, पद्मा सचदेव आदि होतीं। महिला पत्रकारों में क्षमा शर्मा, उषा पाहवा, पारूल आदि।

यह हम सब के लिए दुखद है कि पंकज अचानक हमलोगों से बिछड़ गये। जहां तक याद है उनसे मेरी आखिरी मुलाकात दिल्‍ली की एक बस में हुई थी। मैं मंडी हाउस से मदर डेयरी को जा रहा था। बस में मैं पहले से मौजूद था। बाहर जोरों की बारिश हो रही थी तभी एक स्‍टाप पर पूरी तरह भीगे हुए पंकज बस में दाखिल हुए। उनके बालों से पानी टपक रहा था।

मुझ पर नजर पड़ते ही पंकज ने कहा – अरे, रे ...तुम भी चलते हो बस में। मैंने कहा – बिल्‍कुल।

तुम तो अगले स्‍टाप पर उतरोगे।

हां...।

बातें करते कुछ देर में स्‍टाप आ गया और मैं नीचे उतर गया। पंकज आगे चले गये।

पंकज को लेकर मेरी यादें आरंभिक दिनों की ही हैं। उसमें बहुत सी बातें थीं पर उन्‍हें मैं रिकाल नहीं कर पा रहा। आगे हमारी मुलाकातें कम होती गयीं। हां बाद में भी जब वे पटना आते तो मुझसे मिलते। इन दिनों मैं कई तरह की परेशानियों से गुजर रहा। और मेरी समझ से दुख सबसे ज्‍यादा हमारी स्‍मृतियों का हनन करता है।

शमशेर लिखते हैं एक कविता में ... बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही ...। कविता में कला या कौशल को कितना महत्‍व देते हैं आप ?

हम जो कुछ पढ़ते हैं वह धीरे-धीरे हमारा हमारा अनुभव बन जाता है उस पर बहुत बहस नहीं की जा सकती।

कविता कला भी है, कला के बिना तो कविता बेकार है। नहीं तो निबंध लिखिए आप। बहुत लोग कविता में निबंध लिखते भी हैं, हमारे अच्‍छे कवियों में अरूण कमल कई बार कविता में निबंध ही लिखते हैं और बागवानी भी करते हैं। बागवानी तो हर जगह मिल जाएगी आपको।

हां, कुछ कवि एक डिसीप्‍लीन में जीते हैं जो कविता के बहुत अनुकूल नहीं होता। देखिए आप जो कुछ भी करेंगे एज ए पोएट या एज ए इनविडुअल उसका अच्‍छा या बुरा असर कविता पर पड़ेगा। क्‍यों कि भाषा लिपी नहीं है वह आपके अस्त्त्वि को रिप्रजेन्‍ट करती है। कितना भी कौशल हो आप खुद को छुपा नहीं सकते।

कुछ लोग बड़े शिल्‍पी होते हैं कौशल वाले पर इन बड़े लेखकों में भी बड़े अंतरविरोध होते हैं।

बहुत से लोग लिखेंगे पर तनाव नहीं लेना चाहेंगे। तो छोड़ दीजिए, रघुवीर सहाय की कविता है –

सुकवि की मुश्किल सुकवि की मुश्किल,

किसने कहा आपसे कि आइए और कविता लिखिए।

सोशल मीडिया पर आप भी सक्रिय दिखते हैं, इस मीडिया को आप कहां तक सकारात्‍मक मानते हैं ?

सोशल मीडिया भी खूब तमाशा है। वहां तो बस जन्‍मदिन मनाते हैं लोग आजकल। (अजी, हमार त अंगुली दुखा गइल लाइक करिते करिते।)

पटना के कवियों में किन्‍हीं कव‍ि को हाल के किसी संदर्भ में आप याद करना चाहेंगे ?

मुकेश प्रत्‍यूष हैं एक कवि मित्र, उनकी आंख की रोशनी प्रभावित हो गयी है। फिर भी वे गाड़ी चलाते हैं।

एक बार वे बोले- चलिए आज आपको छोड़ते चलते हैं, मैं हिचका तो वे बोले – आप नहीं चलेंगे तो दोस्‍ती में दरार आ जाएगी।

तो मैं साथ चला गया – अब दोस्‍ती में दरार आ जाए उससे अच्‍छा है कि देह में दरार आ जाए... हंसते हुए।

बहुमत में प्रकाशित