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बुधवार, 14 नवंबर 2018

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है - कुमार मुकुल

समय का संक्षिप्‍त इतिहास  कुछ नोटस

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है : स्‍टीफेन हाकिंग

 

'पूरा सच कभी किसी एक के हिस्‍से नहीं पड़ता' -

स्‍टीफेन हाकिंग को पढते हुए लगता है कि पूरा सच कभी किसी एक के हिस्‍से नहीं पड़ता। अरस्‍तू से हाकिंग तक सब थोड़ा-थोड़ा बता पाते हैं। हां हाकिंग के पास पिछले अनुभवों को जोड़ने की सुविधा थी जो अरस्‍तू के पास सबसे कम थी। पर किसी आधुनिक वैज्ञानिक ने नहीं दार्शनिक अरस्‍तू ने पहली बार बतलाया था कि धरती चपटी नहीं गोल है पर उन्‍होंने यह गलत अनुमान भी लगाया था कि पृथ्‍वी स्थिर है और सूरज-चांद-तारे उसका चक्‍कर लगाते हैं।
धर्मसत्‍ता के विरूद्ध सबसे बड़ी और समझदारी भरी क्रांतिकारी स्‍थापनाएं वैज्ञानिकों ने की। धर्म हमेशा विज्ञान को ब्रह्मांड संबंधी उतनी ही जानकारी देने की छूट देता था जिससे उसके आकाशी स्‍वर्ग-नरक की परिभाषा अक्षुण्‍ण रहे। चर्च की कड़ी निगाह हमेशा विज्ञान को अनुशासित रखने की फिराक मे रहती थी।
सूर्य के चारों ओर बाकी ग्रहों के घूमने की बात भी किसी वैज्ञानिक ने नहीं पहली बार एक पुरोहित निकोलस कॉपरनिकस ने 1514 में की थी। पर अपने ही चर्च के भय से उसने यह बात गुमनाम प्रसारित की और इस सच्‍चाई तक पहुंचने में दुनिया को और सौ साल लग गए। 1609 में गैलीलियो ने कॉपरनिकस की बातों पर सहमति जाहिर की। गैलीलियो की बातों को योरप में समर्थन भी मिला पर पर चर्च के भय से आस्‍थावान गैलीलियों ने कॉपरनिकस के विचारों से खुद को दूर कर लिया। हाकिंग की यह पुस्‍तक समय का संक्षिप्‍त इतिहास इन संघर्षों का इतिहास सा है। और करीब-करीब गैलीलियों की तरह वे ईश्‍वर की अवधारणा को नकारते हुए हुए भी कहीं-कहीं उसे गोल-मोल ढंग से स्‍वीकारते भी दिखते हैं। अब यह समय पर है कि वह उनके छुपाने को किस तरह दिखाता है।
न्‍यूटन और सेव की कहानी पर संदेह करते हुए हाकिंग लिखते हैं कि जब न्‍यूटन चिंतनशील थे तो सेव के गिरने ने उनकी समस्‍या का हल निकाला। हाकिंग ने उनके गुरूत्‍वबल सिद्धांत के अंतरविरोधों पर भी उंगली रखी है कि यह विचार न्‍यूटन के भीतर भी उठा था कि अगर ब्रह्मांड में गुरूत्‍वबल समान है तो तारों को भी एक दूसरे को आकर्षित करना चाहिए था पर ऐसे में तारे स्थिर क्‍योंकर हैं।

'कोई भी भौतिक सिद्धांत एक अस्‍थायी परिकल्‍पना होता है' - - -

स्‍टीफेन हाकिंग का कहना है कि हमने कभी इस बाबत नहीं सोचा कि ब्रह्मांड फैल रहा है या सिकुड़ रहा है...। ऐसा ब्रह्मांड के बारे में शाश्‍वत आध्‍यात्मिक धारणा के कारण हुआ। हाकिंग ब्रह्मांड के फैलने संबंधी बीसवीं सदी की धारणा को एक क्रांतिकारी स्‍थापना मानते हैं और उस पर एक अध्‍याय ही लिख डालते हैं।
हाकिंग को पढ़ते हुए एक मजेदार बात पहली बार सामने आती है कि विज्ञान के विकास में अगर धर्म हमेशा अवरोध की तरह आया तो दैवीर हस्‍तक्षेप की गंध को पसंद नहीं करने जैसे कारकों ने भी विवेचकों केा गलत निष्‍कर्ष पर पहुंचाया।
जैसे अरस्‍तू ने दैवी हस्‍तक्षेप को पसंद ना करने के कारण बह्मांड की उत्‍पत्ति के विचार को ही खारिज कर दिया। उन्‍होंने माना कि संसार सदा से है और सदा रहेगा। यह प्रलय की दैवी अवधारणा के विरूद्ध था और अवैज्ञानिक भी। जबकि प्रलय-पुनर्जन्‍म की अवधारणा खुद काल्‍पनिक और अवैज्ञानिक है।
1929 की एडविन हब्‍बल की इस खोज ने कि आकाशगंगा हमेशा हमसे दूर जा रही है ने साबित किया कि ब्रह्मांड का विस्‍तार हो रहा है। मतलब कभी यह ब्रह्मांड केंद्रित और सिमटा था। यह शुरूआत लगभग दस या बीस हजार साल पहले हुई थी। इससे यह बात सामने आई कि जब ब्रह्मांड केंद्रित था उसी समय महाविस्‍फोट नाम से एक समय था। वहीं से समय का आरंभ माना जा सकता है क्‍योंकि वहीं से ब्रह्मांड का विस्‍तार आरंभ होता है।
ब्रह्मांड के विस्‍तार पर ही हाकिंग स्रष्‍टा या ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर सवाल उठाते हैं कि माना कि ब्रह्मांड का कोई स्रष्‍टा हो पर चूंकि ब्रह्मांड लगातार फैल रहाहै तो कहां किस बिंदू पर उसके काम को पूरा हुआ माना जाए...। स्रष्‍टा के साथ विज्ञान की भी सीमा बताते हाकिंग कहते हैं कि - इसका अस्तित्‍व केवल हमारे मस्तिष्‍क में होता है। उनके अनुसार कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत श्रेणियों के प्रेक्षणों के सही आकलन पर निर्भर करता है और उसमें स्‍वेच्‍छाचारिता जितनी ही कम होगी वह उतना ही वैज्ञानिक होगा। दूसरे कि वह सिद्धांत भविष्‍य की कहां तक निश्चित भविष्‍यवाणी करता है इस पर उसकी आयु निर्भर करती है। वे बतलाते हैं कि कोई भी भौतिक सिद्धांत एक अस्‍थायी परिकल्‍पना होता है जिसे कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। किसी भी मान्‍य सिद्धांत के आधार पर की गई भविष्‍यवाणियां जब-तक सही साबित होती हैं उसकी वैज्ञानिकता बरकरार रहती है पर अगर कभी एक भी नया प्रेक्षण उसके प्रतिकूल पड़ता है तो हमें वह सिद्धांत त्‍यागना पड़ता है। हां प्रेक्षक की क्षमता पर भी हम सदा सवाल उठा सकते हैं।

ब्रह्मांड के बारे में कोई एक तय सिद्धांत नहीं - - -

हाकिंग स्‍वीकारते हैं कि ब्रह्मांड के बारे में कोई एक तय सिद्धांत बनाना कठिन है। इसलिए हम उसका खंड-खंड ही अध्‍ययन कर पाते हैं। हालांकि विज्ञान का यह तरीका एकदम गलत है पर अब-तक की सारी वैज्ञानिक प्रगति इसी तरीके से संभव हुई है। वे कहते हैं कि व्‍यवहार में अधिकांश नया अभिकल्पित सिद्धांत किसी पूर्व सिद्धांत का विस्‍तार होता है। दरअसल समय का संक्षिप्‍त‍ि इतिहास लिखते समय उन्‍होंने विज्ञान का इतिहास भी लिख डाला है और इस रूढि को तोड़ा है कि वैज्ञानिक खोज व्‍यक्ति के निजी प्रयासों और सनकभरी खोजों का परिणाम मात्र होते हैं। वे स्‍थापित करते हैं कि विज्ञान निजी प्रयासों और सनकभरी खोजों का नहीं , खंड-खंड में ही पर एक दूसरे से जुड़े और पूरक प्रयासों का नतीजा होता है।
इतिहास और दर्शन की तरह विज्ञान की भी रूढियां होती हैं। जो नयी खोजों से टूटती रहती हैं। हाकिंग ने पहली बार विज्ञान को मनुष्‍य की जिज्ञासा और उसके दर्शन , इतिहास संबंधी अभिरूचियों से जोड़ा है। इससे पहले आइंस्‍टाइन ने भी ऐसा किया था। आइंस्‍टाइन ने समाजवाद और गांधीवाद पर भी अपना दृष्टिकोण जाहिर किया था। इस तरह हाकिंग विज्ञान के इतिहास में आइंस्‍टीन की अगली कड़ी हैं। इस तरह हाकिंग विज्ञान की उस धारा को आगे बढाते हैं जो विज्ञान को सनक से जोड़कर धर्म को उसकी राह में अवरोध खड़ा करने की छूट नहीं देता है। आइंस्‍टीन के विरूद्ध उनके समय में सौ लेखकों ने मिलकर एक किताब लिखी थी , जिसके बारे में आइंस्‍टीन का जवाब था कि - यदि मैं गलत होता तो मेरे लिए एक ही काफी होता।
हाकिंग ने अपनी पुस्‍तक में उपसंहार के बाद आइंस्‍टाइन, गैलीलियों, न्‍यूटन आदि की अति संक्षिप्‍त और रोचक चर्चा भी की है। ये तीनों अलग-अलग विज्ञान की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। तीनों में गैलीलियो जहां धर्मभीरू हैं न्‍यूटन तानाशाह हैं तो वहीं आइंस्‍टाइन खरी बोलने वाले हैं। हाकिंग न्‍यूटन के प्रति एक हद तक अपनी नापसंदगी भी दिखलाते हैं। न्‍यूटन की तानाशाही को बाद में एक सनक के रूप में प्रचारित किया गया।
मीडिया में हाकिंग की चर्चा उनकी विकलांगता और कंम्‍पयूटर के चमत्‍कारों को लेकर है जो उनसे चिपका है। उनकी चेतना की चर्चा कम हाती है जो हाकिंग को हाकिंग बनाती है। यह हमारी मानसिक विकलांगता भी है कि हम कोई भी चर्चा चमत्‍कारों और उनकी दयनीयता से अलग हटकर नहीं कर पाते। क्‍येांकि चमत्‍कारेां को कभी भी दैवीय एंगल दिया जा सकता है और चूं-चूं करती दया भी इसमें सहायक होती है। जबकि हाकिंग पहली बार विज्ञान को ऐतिहासिक और सुसंब्‍द्धता प्रदान कर धर्म के विरूद्ध विज्ञान की पिछली चुनौतियों को तीखा करते हुए उसे एक सुचिंतित आधार प्रदान करते हैं।

योग्‍यता वस्‍तुत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना है - - -

जीवन जगत के सवालों को हम कहां तक हल कर सकते हैं का जवाब देते हुए हाकिंग अपना जवाब डार्विन के प्राकृतिक चयन पर आधारित करते हुए उस आगे बढाते हैं। डार्विन का कहना है कि - जीवन की विभिन्‍नताएं जाहिर करती हैं कि कुछ लोग:प्रजाति अन्‍य से ज्‍यादा योग्‍य है। इस योग्‍यता को पहले ताकत के रूप में देखा जाता था इसलिए इसे - वीर भोग्‍या वसुंधरा - कहा जाता था और इसे आलोचित भी किया जाता था। पर हाकिंग ने यह कहकर इसे आगे बढाया कि - योग्‍यता वस्‍तुत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना है। इस तरह जो मानव समूह वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया वह उत्‍तरजीवितता के इस संघर्ष में आगे बढा। यहां पर वे विज्ञान की ध्‍वंसात्‍मक शक्ति की ओर भी ईशारा करते हैं। और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को गलत तरीके से लागू करने से ब्रह्मांड के मनुष्‍यों-जीवों सहित विनाश की संभावना से भी इनकार नहीं करते। दरअसल ऐसा कहते हुए वे विज्ञान के रूढि बनने की ईशारा करते हुए उससे बचने की बात करते हैं।
डार्विन को खारिज करते हुए हिन्‍दी के कवि निराला लिखते हैं- योग्‍य जन जीता है , पश्चिम की उक्ति नहीं गीता है गीता है। हाकिंग के हिसाब से ऐसी रूढियां खतरनाक हो सकती हैं। गीता में विज्ञान रहा होगा पर आज अगर विज्ञान विकास के नये सोपान पर जा चुका है तो चाहे वह पश्चिम में हो या पूरब में हमें गीता काल के विज्ञान पर नहीं अटके रहना चाहिए। वर्ना हम नष्‍ट हो जाएंगे।
हाकिंग की किताब अंतरद्वंद्वों को जबरदस्‍त ढंग से उभारती है पर पाठक पर अपना कोई मत थोपने से भी बचती है। उसे वह अपना पक्ष चुनने की स्‍वतंत्रता देती है। वह पक्षों के खतरे से भी उन्‍हें अवगत कराती चलती है। वे इस जिज्ञासा को बल प्रदान करती चलती हैं कि हम कभी ना कभी जीवन-जगत के प्रश्‍नों का हल तलाश कर लेंगे। पर वह काल कल आएगा या कई प्रकाश वर्ष दूर होगा इसकी घोषणा से भी बचते हैं। जैसे जीनोम की खोज पर कुछ लोग बवेला मचा रहे हैं कि अब दुनिया से जैसे गैरबराबरी मिट जाएगी। चूंकि सबकी जैविक बनावट निकट की है , पर हमें गैरबराबरी जमीन पर मिटानी होगी , खोजों से बराबरी साबित कर देने से बराबरी नहीं आने वाली।

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है - - -

हाकिंग संयोगों की सत्‍ता पर विशेष जोर देते हैं। इस सत्‍ता को पुष्‍ट करने वाले‍ विज्ञान के क्‍वांटम सिद्धांत और अनिश्चितता के सिद्धांत को वह विश्‍व की आधारभूत संपत्ति मानते हैं। अनिश्चितता का सिद्धांत बीसवीं सदी के जर्मन वैज्ञानिक वर्नर हाइजेनवर्ग की खोजों पर टिका है। उनकी खोजों का आधार यह है कि - किसी भी कण के वेग और उसकी स्थिति को आप एक साथ शुद्ध-शुद्ध नहीं नाप सकते। और अगर एक कण की स्थिति को आप नहीं नाप सकते तो ब्रह्मांड का आकलन ठीक-ठीक कैसे किया जा सकता है। आइंस्‍टाइन ने भी क्‍वांटम के सिद्धांत में सापेक्षता का सिद्धांत जोड़ और इसके लिए ही उन्‍हें नोबेल से नवाजा गया था। यूं आइंस्‍टाइन नहीं स्‍वीकार सके कि ब्रह्मांड संयोगों से नियंत्रित होता है,इसीलिए आइंस्‍टाइन का सिद्धंत परंपरिक कहलाया।
दरअसल संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है। जहां सब-कुछ ईश्‍वर की मर्जी से पहले से तय होता है। आइंस्‍टाइन का प्रसिद्ध कथन है- ईश्‍वर पासा नहीं फेंकता।
ज‍बकि हाइजेनवर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत इस पर निर्भर है कि कण कुछ हद तक तरंगों की तरह व्‍यवहार करते हैं,उनकी कोई निश्चित स्थिति नहीं होती।
अधिकांश वैज्ञानिक अक्‍सर अपने पिछले आकलनों को ही आगे नकारने लगते हैं। हाकिंग से आइंस्‍टाइन तक सबका यही हाल है और यह भैतिक विज्ञान की प्रामाणिकता पर एक प्रश्‍न चिन्‍ह है। एक तरफ न्‍यूटन जैसे वैज्ञानिक हैं जो अपने विपरीत पड़ने वाले किसी भी शोध और शोधक को आगे आने से रोकने में सारी ताकत लगा देते हैं। उनके लिए अपना सच अंतिम होता है दूसरी ओर हाकिंग और आइंस्‍टाइन जैसे ढुल-मुल लोग हैं।
कृष्‍णविवर काले नहीं श्‍वेत तप्‍त होते हैं। जो कृष्‍णविवर जितना छोटा होता है वह उतना ही ज्‍यादा चमकता है और उनका पता लगाना आसान होता है। हाकिंग का कहना है कि एक छोटा कृष्‍णविवर पृथ्‍वी के पास होतो उसके सामने एक विशाल द्रव्‍यराशि को रखकर कृष्‍णविवर को धरती पर उसी तरह खींचा जा सकता है जैसे एक गदहे को गाजर दिखाकर। और उसे पृथ्‍वी के चारेां ओर की कक्षा में स्‍थापित किया जा सकता है। पर आगे हाकिंग अपनी इस कल्‍पना या परिकल्‍पना को खुद अव्‍यावहारिक बताते हैं और कहते हैं कि अपनी आयु पूरी करने पर कृष्‍ण विवरों का विस्‍फोट होता है।

टिप्‍पणियां-


दिनेशराय द्विवेदी ने कहा… तारे क्या चीज हैं। कुछ भी स्थिर नहीं है। स्थिर हो तो काल जई नहीं हो जाएगा। जो आज तक कोई नहीं हुआ।June 23, 2008 2:41 AM

Pallavi Trivedi ने कहा… ham to aaj tak kauparnikas ko scientist hi samajhte aaye the..pahli baar pata chala ki wah ek purohit tha!June 23, 2008 5:09 AM

Udan Tashtari ने कहा… पूरा सच समझने के लिए अगले भाग का इन्तजार कर रहे हैं.दिनेशराय द्विवेदी ने कहा… बहुत दिलचस्प पुस्तक है। कोई दस वर्ष पहले पढ़ी। फिर मेरी प्रति कोई पढ़ने को ले गया लौट कर आज तक नहीं आई। विश्वोत्पत्ति के सिद्धान्त ही हो सकते हैं। नियम नहीं, और सिद्धान्त होंगे तो अनेक होंगे। हॉकिन्स ने यह भी कहा है कि पहले वैज्ञानिकों को आगे बढ़ने के लिए दार्शनिक रास्ता सुझाते थे। वैज्ञानिक उन की अवधारणाओं को पुष्ट या खारिज करते थे। लेकिन अब लगता है दार्शनिक चुक गए हैं और विज्ञान को आगे का मार्ग स्वयं तलाशना पड़ रहा है। आप लिखिए। इस पुस्तक के बारे में लिखा जाना और पढ़ा जाना जरूरी है। वैसे अंग्रेजी में यह ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। मेरे पास उस की एक प्रति सुरक्षित है।August 9, 2008 10:10 PM
उन्मुक्त ने कहा… मैंने यह पुस्तक अंग्रेजी में पढ़ी है। हिन्दी में भी प्रकाशित हो गयी जानकर अच्छा लगा।पर यह उतनी पसन्द नहीं आयी जितना इसका नाम है।August 10, 2008 1:17 AM

संगीता पुरी ने कहा… जब से पंडितों, पुरोहितों ने परंपरागत व्यवसाय के रूप में धर्म और ज्ञान को स्थान दे दिया ,स्थिति विकट होती चली गयी। वैज्ञानिकों का काम बढ़ता चला गया।August 10, 2008 1:33 AM

Umesh ने कहा… जितना हम जानते है, उससे अनंत गुणा ऐसा है जो हम नही जानते । स्टीफन हाकिंगस की पुस्तक मे बहुत सी बातें दिमाग के उपर से निकल जाती है । हम खुद को बुद्धीजीवी दिखाने के लिए भी ईस प्रकार की पुस्तकों की प्रशंसा करते है । नेपाली मे एक पुस्तक पढी थी, " माया तथा लिला ", यह पुस्तक बेजोड है । वेदांत तथा क्वांटम थ्योरी के साम्य तथा ब्रहमाण्ड उत्पती के सिद्ध्न्तो पर से बखुबी से पर्दा उठाने का प्रयास करती है यह पुस्तक । लेखक का नाम शायद अरुण कु सुबेदी है ।August 10, 2008 6:49 AM

हकीम जी ने कहा… हॉकिन्स के विचारों की मैं बहुत कद्र करता हूँ ..पुस्तक में लेखक भी अपनी ही बात पर अडा होना चाह रहा है ..ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती कैसे हुई .. इस विषय पर दुनीया में कई सिद्धांत विभिन्न कालो में प्रतिपादित होते रहे . कई प्राचीन सिद्धांतो कों नवीन रूप दिया गया तो कई प्राचीन सिन्द्धान्तो का निरूपण किया गया ..बफ़्फन कांट , चैम्बरलैंड, मोलटन, जींस ,जेफ्रीज, नॉर्मन, हेनरी,रोजगन, शिमन्ड,वेज्सेकर और भी ना जाने कीतने ही विद्वानों ने समय समय पर ब्रामांड के बारे में जानने की कोशीश की ,, .. मुआफ करना दोस्त अब जो मैं बात कहने जा रहा हूँ शायद वो आपके दील के संवेदनशील भाग से गुजरे...हिन्दुस्तान में कभी भी हमने धर्म से अलग होकर नहीं सोचा तर्क की कसौटी भारत में बेअसर है ..और ना ही हम लोगो ने दर्शन और इतिहास से बहार नीकल कर सोचा ..एक इतिहास कार या दार्शनिक ब्रामांड के बारे में क्या बता सकता है सिवाय दार्शनिकता के..जरुरत है उन नई तकनीको और ज्ञान की जो इस बारे में हमें सच्चाई कों बताये अपने सिद्धांतो से तर्क का निरूपण करे...मुर्ख व्यक्ती तो हमेशा येही कहता रहेगा की तो फिर तारे कहा से बने , इस संसार कों कौन चला रहा है ,सूरज किसने बनाया , वे कारण नहीं खोजते ..खासतौर से हिन्दुस्तान में अगर आप इन चीजो के सही कारण खोजोगे तो वे आपको धर्म का विरोधी करार कर देंगे...