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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

आम भारतीय स्‍त्री की पीड़ा व त्रास की अकुंठ अभिव्‍यक्ति

हाँ सुनो तुम भी एक योनिजा हो

रुधिर और श्‍वेत स्राव में लिपटे

क्षत-विक्षत करते हुए उसके कोमलांग

भूमि पर आये थे


आरती तिवारी की कविताएं आम भारतीय स्‍त्री की पीड़ा व त्रास की अकुंठ अभिव्‍यक्ति हैं। जब तक पुरूष सत्‍ता है स्‍त्री विमर्श भी रहेगा, अपनी वाजिब जगह के लिए जूझता हुआ। आरती की कविताओं में इस विमर्श की लक्ष्‍मण रेखा के बाहर पड़ रही तमाम स्त्रियों की स्थिति को भी रेखांकित करने की कोशिश दिखती है। ये कविताएं विमर्श का घेरा बड़ा करने की मांग करती हैं – 


हमारे आपके स्त्री विमर्श

इनके जीवन में नहीं रखते कोई दख़ल

इनकी बॉन्डिंग बड़ी स्‍ट्रांग होती है

कर आती हैं मेले ठेले, टोलियों में  

मज़ाल है जो हड़काए धमकाए

कोई मनचला 


दरअसल जैसे जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे विमर्श का स्‍वरूप बदलता जाएगा और नयी नयी जमातें चले आ रहे विमर्श को अपने अपने ढंग से पुनरपरिभाषित करेंगी। आरती की कविताएं उन्‍हीं नयी जमातों की आवाजों का प्रतिनिधित्‍व करती हैं। इन नयी आवाजों से बचकर कोई विमर्श आगे ना तो विकसित होगा ना अपनी पहचान बरकरार रख सकेगा। बुद्धिजीवि जमातों को एक दिन नयी नयी आ रही इन श्रमजीवि जमातों के साथ अपना विमर्श साझा करना होगा और उसमें उन्‍हें शामिल करते हुए आगामी परिवर्तनों के लिए तैयार रहना होगा –


इन्हे पता भी नहीं होता कि बचा रखी हैं इन्‍हीं निगोडि़यों ने

सोहर, गाली, बंन्ने बन्नी, भियाने

इनके कण्ठों से निकल

सदियों से तृप्त कर रहे हैं, आँगन गली मोहल्लों की प्‍यास

पनघट, चौबारे, हंसुली, गुरिया

शब्‍दकोष में हरियाते हैं इन्हीं की बदौलत


आरती को अपने समय के मसीहाओं की महामुद्रओं पे एतराज है। वो जानती हैं कि आज के मसीहा के पीछे जमा भीड़ बावली हो बस बवाल काट सकती है। इस भीड की हिंसा से वह अपने कल व आज को बचाना चाहती हैं । भीड़ की विस्‍फोटक, दाहक ज्‍वाला के मुकाबले वो अपने भीतर जलती, बचती चिनगारी को तरजीह देती हैं –


मैं एक अलाव की चिनगारी हूं

हवा के इंतजार में धुंआती छिपकलियों से बतियाती ...।


सोशल मीडिया पर एक ओर जहां रचनात्‍मकता के नये उफान को जगह मिली है वहीं एक गैरजिम्‍मेवार अवसरवाद भी फला फूला है। आरती की निगाह इस पर है, वे इस तात्‍कालिकता से भरी अफरातफरी से इत्‍तेफाक नहीं रखतीं बल्कि उसके छुपे चेहरे को पहचान उसे उजागर करती हैं - 


बलात्‍कार क‍ी खबर पर

गुस्‍से का स्‍माइली पोस्‍ट कर

अगली पोस्‍ट पर वे हा हा करके हंसते
बड़े सहज दिखते थे। 

आरती तिवारी की कविताएं


(1)
गर्भगृह के बाहर खड़ी स्त्री

ऋतु-स्नान के पश्चात्
लहरा रहे थे उसके चमकीले रेशमी केश
उसका सद्य स्नात सौंदर्य
भोर की प्रथम रश्मि सा
फूट कर प्रविष्ट हो रहा था
सृष्टि के सूक्ष्म कण में
तुम बढ़े आगे
तुम मुग्ध हुए
वो भी खिंची
तुम्हारी मर्दानी गन्ध के भरोसे में
एकाकार हुए दो स्वप्न
तुम रिक्त हुए
भर भर गई वो
तुम्हारा बीज धारण कर
धरती हो गई वो
उसके रज से
देह में पनपा एक और जीवन
उसके गर्भाशय का कोटर
तुम्हारे बीज का अभेद कवच था
नौ महीने अंकुरण से भ्रूण् यात्रा में
उसके रक्त से पोषित
एक और पुरुष
बढ़ते और बनते रहे तुम
खिलते रहे शुक्लपक्ष की चंद्रकलाओं से
वाद्य-यंत्र सी
बजती रही उसकी कोंख
गर्भनाल से तुम्हे चुगाती रही चुग्गा
तुम्हे पोषने तुम्हारे लिए ही
खाती रही पौष्टिक आहार
चाहे मन कभी कुछ खाना चाहे तो भी
तुम भी जन्मे थे
जैसे सहस्त्राब्दियों से जन्मता रहा था तुम्हारा पितृ-पुरुष
हाँ सुनो तुम भी एक योनिजा हो
रुधिर और श्वेत स्राव में लिपटे
क्षत-विक्षत करते हुए उसके कोमलांग
भूमि पर आये थे
वात्सल्य के झरने में नहला
ममत्व की चिकनाई से
मलकर पुष्ट करती वो
तुम्हारा शैशव
अपने स्तनों से उड़ेलती अमृत धार
तुम्हारे छोटे से मुँह में
और झाँकती तुम्हारी झपझप करती आँखों में
पढ़ लेती तुम्हारी तुष्टि
तुम्हारी किश्तों में पूरी होती नींद
घटा देती उसकी नींद
घण्टों से मिन्टो में
और आज तुम एक पूर्ण पुरुष हो
अपने पिता की तरह
तुमने निषिद्ध कर दिए है
उसके प्रवेश किन्ही विशिष्ट मन्दिरों में
गर्भगृहों में
उसकी देह एक मन्दिर है
जिसकी अंतर्यात्रा तय करके
बाह्य-जगत में आये हो तुम
जिसके लिए अस्पृश्य घोषित किया उसे
उसी संसर्ग उसी रज उसी रक्त से निर्मित तुम
उसी गर्भगृह में रहे नौ माह
स्त्री शुचिता की परिभाषा तय करने वाले
जिस मार्ग से आये बाहर
वो अपवित्र ?
उस मन्दिर में जिस दिन हो जायेगा
तुम्हारा प्रवेश वर्जित
रह पायेगी क्या दुनिया
और तुम्हारे बनाये नियम भी?


(2)
एक दिन

एक दिन जब लड़की के प्रेम में पागल बना लड़का
बिजूका बनके टँगना बन्द हो जायेगा
लड़की नहीं भागेगी घर से
सोलह कीउम्र गुलाबी लिफाफे में मुस्कुराती सुबह नहीं रह जायेगी आर्चीज़ के कार्ड्स डिजिटल भी नहीं रह जायेंगे
अनावृत स्त्री देह से ऊबने लगेगा पौरुष
लड़कों में नहीं बचा रहेगा कोई आकर्षण
जीवन के पानी से गायब नमक समुद्रों से भी किनारा कर लेगा
एक नई सभ्यता जो अब स्त्री पुरुष भी नहीं रह जायेगी
व्याभिचार यौनाचार जैसे शब्द
कूड़े के ढेर में पड़े आपस की रगड़ से
पैदा करेंगे विकृत ध्वनियाँ
आठ रसों को रसातल में खदेड़
वीभत्स रस के सिर पर
तांडव करेगा एक नया रस
जिसका स्थायी भाव होगा विकृति
रूखे पेड़ों की रूह कांप उठेगी
नदियाँ अपना मैला पानी समेट
समा जाएँगी नालों में
मिट्टी अपने बंजर होने का विलाप करेगी
हवाएं जिनमें पैदा हो चुकी होगी बदबू अब तक
बहने की ताकत खो वाष्पीकृत हो बनाने लगेंगी विषैले बादल
बस सूर्य ही होगा जो अपने इर्द गिर्द चक्कर लगाते ग्रहों को चमकाता रहेगा
अपने प्रकाश से
इसकी ऊष्मा और ऊर्जा में बची रहेगी
सच्चाई,पर अन्य तत्त्वों के
सामंजस्य के अभाव में, सांवला सूर्य ओढ़ लेगा उदासी का धूसर मूड
ठोस द्रव और गैस की परिभाषाएं
तय करेगा ये नौवा रस
जिसका नामकरण स्त्री के स्त्रीत्व और पुरुष के पौरुष से क्षरित हुए मूल्य
विनाश रखेंगे
इसके सपनों में आएंगे वो मनोरम दृश्य
जिसमें चिड़िया हिरण घोड़े हाथी जंगल जंगल खेल रहे होंगे
नदी नाव रेल जहाज बांध म्यूज़ियम सब इसके स्वप्न को पुरानी सभ्यता की झलक दिखा भाग जायेंगे
इसको डरावने सपने भी आएंगे
लँगड़ी चिड़िया गूंगे बंदर अंधे शेर इन्हें परेशान करते बूढ़े लड़ैये
सुबह उठकर इन स्वप्नों की परिणति में
खून मवाद का मिश्रण देख
ये करेगा भयानक अट्टहास
स्त्री पुरुषों का हुजूम इसे देख सकपकायेगा और प्रलय की कामना कर बिता देगा एक और पल
और इसे रद्द करने की प्रार्थना करेगा
समय से पूर्व जन्मा एक लावारिस बच्चा
जिसका अभिभावकत्व स्वीकारने से
मुकर चुका होगा स्त्री पुरुष का एक बेमेल जोड़ा


(3)
खेड़ों में बसी औरतें

एक मकान की नींव की तरह होती है
इनकी बसाहट बड़ी सघन
पुख़्ता और लाज़वाब होती है
बचपन से गुइंयों के बीच
खेलती हैं संझा और भुजरिया के खेल
सीख लेती हैं हुनर सासरे पीहर में
निभने निभाने का
तीज त्यौहारों में संजोये रहती हैं
अखण्ड भारत की झाँकी
इनकी हर अदा है बाँकी
ननद बन जताती हैं हक़ अपना
तो भावज बन भर देती हैं झोलियाँ

हमारे आपके स्त्री विमर्श
इनके जीवन में नहीं रखते कोई दख़ल
इनकी बॉन्डिंग बड़ी स्ट्रॉन्ग होती है
कर आती हैं मेले ठेले टोलियों में
मज़ाल है जो हड़काये धमकाये
कोई मनचला
ऐसी ऐसी गालियों से नवाजती हैं
हो जाता है रफूचक्कर
अखिल ब्रम्हाण्ड का भरोसा
काजल सा आंज आँखों में
जिन्नगी भर की पूँजी
किये रहती हैं एक दूसरे के हवाले
बखत ज़रूरत रात बिरात
छाती ताने खड़ी हो जाती हैं
गुइंए गुइंयों के लिए
नहीं लातीं बीच में तेरा आदमी मेरा आदमी
कुम्भ में नहा लेती हैं उघाड़ी पीठ किये
बदल लेती हैं धोतियाँ एक दूसरे की ओट में
होते हैं मनमुटाव भी पीठ पीछे चुगलियाँ और बुराइयाँ
पर नहीं बंधती गांठे
जी भर खर्चती हैं जमा किये रोकड़े
एक दूजी के बेटा बेटी के ब्याह में
और भरे रहते हैं इनके भण्डार
संतोष के धन से
तेरी साड़ी मेरी साड़ी से उजली कैसे
इस कुंठा और भ्रम से निकल
जीती हैं जी भर के शादी ब्याह की रंगीनियाँ
बनती हैं गोरनी मांडती हैं मांडणे
पूरती हैं चौक
इन्हें पता भी नहीं होता कि बचा रखी हैं इन्ही निगोड़ियों ने
संस्कृतियों की विरासतें
सोहर,गाली,बंन्ने बन्नी,भियाने
इनके कण्ठों से निकल
सदियों से तृप्त कर रहे हैं,आँगन गली मोहल्लों की प्यास
पनघट,चौबारे,हंसुली,गुरिया
शब्दकोष में हरियाते हैं इन्हीं की बदौलत
ये आदिवासी हैं दलित और ही पीड़ित स्त्री जात में शामिल
मारपीट,खेत खलिहान बासी कूसी
अधपेट रोटी ये सब
दिनचर्या है इनके लिए
इससे ऊबी अघाई तो निकल लेती हैं झुंडों में तीरथ  तपस्या के बहाने
मरदों को ऐसे छकाना इन्हें ख़ूब आता है
इनकी कवितायेँ शामिल नहीं किसी कविताकोश में
पर ये हर रोज़ लिख रहीं अपनी जी हुई कविता
सदियों की डायरी में
इतिहास में दफ़्न होने को


(4)
 कपूर की टिकिया

चलायमान था सुख

दुःख स्थिर था
बिना बताये,बिना जताए
जमा रहता सदियों तक

सुख था जैसे
कपूर की टिकिया
हवा लगते ही
काफ़ूर हो जाता
नज़र नही आता फिर
बरसों तलक


(5)
अलाव

मैं एक अलाव की चिंगारी हूँ
हवा के इंतज़ार में धुआँती छिपलियो से बतियाती
छाती में जलती आग को
चूमकर लाल हो जाने का माद्दा रखती


किसी मसीहा के इंतज़ार में बावले लोग
बस एक भीड़ है और उन्मादी हो जाने की हद तक बैचेन
मुझे डर लगता है,भीड़ के हिंसक पशु में बदलने से

और मैं अपनी तरफ़ आती हवा को
लौटा देती हूँ,थोड़ी सी देर तक ही सही
बचा लेती हूँ मेरे आसपास उकड़ू बैठे
कल का आज


(6)
वक्र रेखा/तिर्यक रेखा

समानान्तर रेखाओं के एक छोर से
दूसरे छोर की दूरी तय करते वक़्त
बिलकुल सही लग रही थी
हाँ उन्हें मिलाने वाली सी ही
एक सेतु की तरह

सरल रेखाओं ने नहीं जताई कोई प्रतिस्पर्धी इच्छा
कि तिरछी अटपटी चाल से भी
कभी चलकर दिखाएँ
मनवायें लोहा वक्रता का

ज़रूरत ही नहीं थी
वक्र होने अथवा दिखने की भी
समनान्तर चलते भी
जुड़ा ही हुआ था बहुत कुछ
अनबन और विचारधारा के टकराव के बावज़ूद

हवा पानी मिट्टी और आकाश सी सहज रही आईं
पारदर्शी तरल सरल रेखाएँ
मुग्ध करती रहीं अन्तस को

बिना शर्मसार किये तिर्यक रेखा को


(7)
पगडंडियाँ

पाई जाती हैं
गाँवों कस्बों में ही
ढूंढे से भी नहीं मिलतीं
महानगरों के जाल में

मोहती आई हैं
अपने गंवई सौंधेपन से
कितने ही किस्से किंवदंतियाँ
सुनाते हैं इनके यात्रा-वृतान्त

किसके खेत से
किस बावड़ी तक
रेंगी,चली,उछली कूदी
और जवान हो गईं

इनके ग़म और ख़ुशी के तराने
गूंजते रहे चौपालों पर
ज़रूरत के हिसाब से
ज़रूरत के लिए बनती चली गईं
इनके सीने में दफ़्न हैं आज भी
पूर्वजों के पदचिन्ह

जो इन्हें चलना सिखाते थे कभी
और खुद इनके कन्धों पर चढ़कर
विलीन होते रहे
क्षितिज की लालिमा में

ये आज भी जीवन्त हैं
और गाहे बगाहे हंस देती हैं
महानगरों के ट्रेफिक जाम पर

ये बैलों की गलों में बंधी
घंटियों के संगीत सुन
गौधूली की बेला में
आज भी घर पहुँचा देती हैं
नवागन्तुक को
जबकि महानगर नज़रें फेर लेता है

और तोड़ देता है दम
कोई सपना हौसला खोकर

पगडंडियाँ डटी रहती है
हटती नहीं अहद से


(8)
 चुनी हुई चुप्पियाँ

बहुत ख़तरनाक होती हैं
बाज़ वक़्त,इनसे शैह ले लेते हैं
अमन के लुटेरे,कफ़न के सौदागर
हुक्काम और रंजिशें पाले हुए लोग

दिखती ये सन्नाटे सी हैं
पर साज़िशों के पंखो पर सवार
इनकी रफ़्तार प्रकाश वर्षों से
कम नहीं होती

कई बार तो ये तख़्तापलट की
बायस बन दबाये रहती हैं कुटिल हंसी
हताशा की रस्सी पर टाँग
सलाहियत को दे देती हैं फाँसी
मगरमच्छ भी बगलें झाँकते हैं
इनके नकली आँसुओं की पनाहों में

इनका इतिहास बहुत पुराना है
और वर्तमान इन्हीं के कन्धों पर चढ़ा
भविष्य को धकिया देता है

इनका काटा पानी नहीं माँगता
हाज़िर कर देता है जान


(9)
दंगा कर्फ्यू और भूख 

यह एक गुमसुम उदास शाम थी
छुई मिट्टी से लिपे चूल्हे में,
सूखी लकड़ियाँ सुलग रही थीं
काँसे की एकमात्र थाली में
ताज़े सने आटे के साथ
सने थे दो चार तितर-बितर सपने
और पतीली में दाल के साथ
उबल रहा था एक सैलाब

शहर में भड़के दंगे के बाद
झुलस गया चूल्हा भी नही जला दो दिन तक
जैस दंगा भूख को खा चुका था
सूरज चाँद तारे सब लापता हो गए थे
दिन रात जैसे एक दूसरे में गड्डम गड्ड

आज तीसरे दिन शहर नेआँखें खोली
एक सहमी सी सुबह ठिठकती हुई
दोपहर में प्रवेश करती
खींच लाई लोगों को
नून तेल लकड़ी लेने बाज़ार में
और वे  बचे खुचे पैसे
नुचे पिटे चेहरे लिए
भिड़ा रहे थे दो जून रोटी की जुगत

भूख नही जानती दंगा
ईमान राष्ट्र और व्यवस्था
भूख सिर्फ भूख होती है
अंतड़ियों की ऐंठन
किसी गलत का विरोध करने की कुव्वत रखती है
किसी सच की पक्षधरता
वह बस भूख होती है

प्यास की नदी की बाढ़
बहा ले जाती है सोने से सपने
भूख का दावानल राख कर देता है
सिद्धांतों के दस्तावेज़

भूख की जीत अन्त में तय है
किसी भी परिस्थिति से परे
भूख के यज्ञ में
निवालों की पूर्णाहुति से
पूरा होता है जीवन

दो जोड़ी आँखें भविष्य की 
माँ के आँचल में दुबकी
चूल्हे पे चढ़ी दाल के सीज़ने के इंतज़ार में
बावली सी हुए जा रही हैं

सृष्टि की सबसे सौंधी गन्ध
फ़ैल गई थी
पतीली से निकल कर शहर के अंतिम छोर तक
फिर से बच जाने और जीने की ओर एक कदम बढ़ाती
एक सुनहरी भोर की ओर

भूख की सत्ता क़ायम थी


(10)
कंजक

वे जो पेट में मसले जाने से
चकमा देकर बच गईं
गर्भ में डटी रहीं
पूरी पक जाने तक

किलकारियाँ जो
की गईं नज़रअंदाज
बढ़ गईं बेहया के पौधे सी
 दुर्दुराई जाकर भी

,हट,चल,भग,निकल कहकर
धकियाई गईं और
लौटीं बार बार चुनौती सी

गए हैं फिर से
उनके मौसम
पूजी जायेंगी आलता कुमकुम
रोली अक्षत से
लगाएंगी भोग खीर पूरी के फिर से


(11)
विचार

विचार बीज थे
वे उन्हें नहीं नष्ट कर पाये
मिट्टी में दबाकर
 पानी में बहाकर
हवा में उड़ाकर
वे सूखकर भी पनपे
टूटकर बिखरे तो फ़ैल गये खुश्बू से
वे विध्वंस की गोद में पनाह पाये
अमरत्व की निशानी थे


(12)
हमारी प्रार्थनाएँ

हमने दुःख के दिनों में की प्रार्थनाएँ सुखों के निमित्त

आंधी तूफ़ान,लू के थपेड़े ठिठुराती सर्दी
इनसे बचाओ प्रभु
हे अदृश्य सर्वशक्तिमान
मेरी बच्ची को टोह में बैठे बलात्कारियों से
बच्चे को गुंडे बदमाशों से
दुर्घटनाओं और बीमारियों से मेरे परिवार को बचाओ
हम सदा सुरक्षित रहें
भरे रहें भंडार हमारे
और भला क्या चाहिए?

हमारी सबकी एक जैसी
इकट्ठी प्रार्थनाएँ किसी डरावनी भीड़ सी आगे निकलने को आतुर
 जब आपस में टकराईं
मच गई भयंकर भगदड़,चीख पुकार
नोचा खसौटी छीन झपट में हुई लहूलुहान प्रार्थनाएं
जिनके भाव और अर्थ खो चुके थे आब
लौटीं अपने अपने उच्चारे शब्दों में
उनके साथ चली आई आपदाएँ बीमारियाँ बुरे समय की दस्तक
बुरे लोग
हमारी प्रार्थनाएँ कृपण ही नहीं कुटिल भी थीं


(13)
शातिर समय में कविता

वे लगातार लिख रहे थे
रोज़ाना के रूटीन कामों की तरह
अपने सुख के दिनों में दूसरों के दुःख की कविता
अन्यों के दुःखों की ये भूमि
बड़ी ही उपजाऊ थी
वे ले रहे थे हर मौसम की फसल
जैसे असामी बड़ा किसान
भूमिहीन खेतिहरों की मेहनत
खरीद लेता है कौड़ियों में


उनके पास हुनर था
बीमारी और मृत्यु के बिम्बों से
वे चमकाते थे जीवन की कविता
वे सूखे आँसुओं और उदास मासूम चेहरों को
बदल देते थे ताज़ी कविता में
ज़ुल्म भी ऐसा कि करुणा से भरा पात्र छलका पड़े सा लगे

उन्हें आता था संवेदना जताना
उनकी वाष्पीकृत संवेदनाएँ
स्कंदन का जादू भी जानती थीं

दुःख नहीं जानता था
सुख के इस क़रतब को
करिश्माई छड़ी के छूते ही
कैमरे में क़ैद हो जाता था
समाने को उनके चितेरे बिम्बों में

दुःख कब हिचकियाँ ले ले रोया
इसे दिखाने के चक्कर में
कभी बदमज़ा नहीं की उन्होंने अपनी कविताई
वे दुःख की कविता परोस कर
तुरन्त लगा देते थे तड़का
जन्मदिन के केक और गुलदस्ते का
बलात्कार की खबर पर
गुस्से का स्माइली पोस्ट कर
अगली पोस्ट पर वे हा हा करके हंसते
बड़े सहज दिखते थे

बीमारी जानलेवा थी
इंतेज़ार करते लोग खाली लौटे
उम्र भर का एक अकेलापन लिए
उनके इंतेज़ार से सूने हो जाने पर
इधर और चमका शिल्प
कुछ दिनों तक मची रही हलचल जताई गईं फ़र्ज़ी चिंताएं

कविता की आत्मा हुई छलनी
कविता ने की मुक्त होने की कामना


(14)
रोटी की कविता

हर रोटी में बेलती है
एक कविता
तवे पर सेंकती है,एक आह
गैस के बर्नर पर
आह गिरते ही
फूल जाता है दर्द
उसे घी की नरमाई से
छुपाने का जतन कर
परोस देती है,
सुख की थाली में
इतनी रोटियाँ खाते-खाते
पढ़ लीं तुमने कितनी ही कवितायें

परिचय

आरती तिवारी
जन्म-08 जनवरी
शिक्षा- बीएससी. एम (इकोनॉमिक्स) बीएड


प्रकाशन-  जनसत्ता, दैनिक भास्कर ,राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, कथादेश ,कादम्बिनी, बया, इंद्रप्रस्थ भारती, अक्षरपर्व , आजकल, जनपथ , अक्सर, निकट, यथावत,  कृतिओर, दुनिया इन दिनों, कविता विहान ,आकंठ,,गंभीर समाचार, साक्षात्कार ,साहित्य सरस्वती  ,विश्वगाथा ,पंजाब टुडे ,समकालीन कविता खण्ड प्रथम ,विभोम स्वर, पुरवाई, शब्द संयोजन ,रविवार ,सबलोग, किस्सा कोताह, विपाशा ,बाखली ,माटी,दो आबा, कथाक्रम, नवयुग, नई दुनिया,  जनसंदेश ,सुबह सवेरे आदि महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ कहानी आलेख संस्मरण यात्रा वृत्तान्त एवं अनुदित कविताएँ निरन्तर प्रकाशित


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सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन