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शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

पहला अध्यापक - सतीश छिम्पा

पापा युद्ध की बातें बताओ, एक मण क्या होता है….

          उम्र छोटी ही थी। शायद दस या ग्यारह वर्ष। घर में शाम का खाना खाते समय सभी परिजन एकसाथ होते थे। हथाई हुआ करती थी। यह 1999 था, और हम सब बच्चे उन दिनों शाखाओं में जाया करते थे, समझ नहीं थी, बस खेलने के ही चाव में ही उड्या.फिरता था। जय राणा प्रताप और भारत माता के नारों के ध्वन्यार्थ नहीं पता थे,  कारगिल की लड़ाई चल रही थी।  मैं दस ग्यारह बरस का रहा होऊंगा,  मगर भारतीय सेना के वीरतापूर्ण कार्यों युद्धों के बारे में जानने, सुनने और पढ़ने की मुझमे जैसे प्यास थी।  

      पिताजी और दादा जी 1962, 1965 और 1971 के युद्धों की बातें बताया करते थे। मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। लगता जैसे मैं भी फौजी ही बनूँगा। पाकिस्तान के साथ युद्ध में लड़ना ही मेरी देशभक्ति थी।  पिताजी बताते कि गंगानगर में अक्सर ब्लैक आउट किया जाता था। उस समय हमारा परिवार गंगानगर में ही रहता था। पूरा शहर अँधेरे में डूबा होता तब ऊपर कोई जहाज चलता हुआ सुनाई देता था। पलायन होते, गरीब गुरबे अपना रोज़मर्रा का सामान उठाकर अपने रिश्तेदारों के यहां या अन्य गांवों में चले जाते थे। 

           मुझे पापा से युद्ध की कहानियां सुनना अच्छा लगता था। बाल मन था तो आरएसएस की शाखा में भी जाने लगा था- वहां भारतीय सेना के साथ साथ हिन्दू सांप्रदायिकों के बारे में भी सुनता रहा। यही वो समय था जब मेरे किशोर हो रहे मन में इस्लाम और मुसलमानों के लिए तात्कालिक हलका अविश्वास घर कर गया।  मेरा परिवार बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय कारसेवक भी बना था। लेकिन जब हम लोग बड़े हुए। साहित्य की राह से दर्शन और राजनीतिक चेतना के विकास की किरण भीतर आयी  तो सब कुछ बदल गया। बेचैनी प्रचंड होकर उठी और किताबें ही किताबें उतरने लगीं भीतर।

       संघ की शाखा के इतिहास बयानी को तब मैं सच समझता था जो अध्ययन और परिपक्वता के बाद दिमाग से निकल ही गया। गुरु गोविंद सिंह के इतिहास को संघी तरीके में बयान किया जाता। वे हर बार पाकिस्तान ये मुसलमान वो, हिन्दू घटा देश बटा आदी फिजूल बातें किशोरों के अपरिपक्व मन में भर देते थे।

   युद्ध कभी किसी का भला नहीं कर सकता। जब तक बहुत जरुरी ना हो, इसका नाम भी अभिशाप है। दोनों तरफ की मेहनतकश आबादी का इससे कोई लेना देना नहीं है, जिन्हें हमारा दुश्मन बनाकर खड़ा किया जा रहा है वे भी मासूम हैं। वे भी शोषित हैं, अपने पेट के दरड़े को भरने के लिए जूण हंडा रहे हैं। वे भी पीड़ित, दुखी वंचित हैं।

         फिर साहित्यिक किताबों से जो राजनीतिक राह और जीवन दर्शन मिला था वो मेरी चेतना पर जमे जाले साफ करने लग गया था और वो ही मुझे मार्क्सवाद तक लेकर गया। और फिर सब कुछ बदल गया।

        पिता जी से अब उनके जीवन संघर्षो की कहानियां सुनने लगा। वे बताया करते, कैसे पुश्तैनी गांव गुसाईंंसर, तहसील डूंगरगढ़ (बीकानेर) से अकाल की मार से बचने के लिए बुजुर्ग सपरिवार गंगानगर में आ गए और कुछ साल संघर्ष और फिर सूरतगढ़ में बसेरा स्थाई हुआ। पापा बताते कि मालू की लकड़ी की टाल पर वे एक आना मण लकड़ी तोड़ा करते थे। कैसे ट्रक पर खल्लासी बने। कैसे रिक्शा और कैसे चौकीदारी और  दिहाड़ी की, पाकिस्तान में भी कोई आना मण लकड़ी तोड़ता होगा, कोई खल्लासी या मज़दूर होगा....कोई बेरोज़गार जीवन से हारा युवक खुद को खत्म करने के असफल प्रयास में टूट चुका होगा.... कोई परिवार अकाल की मार से बचता हुआ कर रहा हॉग कभी पलायन..... वो मेरा दुश्मन तो नहीं ही है। वो तो हमदर्द है।

    .... और एक दिन जब पापा बाजार से घर लौटे तो उनके हाथ में फ़टी पुरानी एक किताब थी, "पंचतंत्र की कहानियां'........

दर्जी का बेटा .1
 
(पापा के लिए.....)

आपने पेट के गाँठ लगाकर रोटी दी जो मानव अस्तित्व का जीवन द्रव्य था।
अमृत थी आपके पसीने के बट बनी दीवार, आंगन और छत
सूरज जब आकाश में पूरे योवन पर होता है
आप  पसीने से लथपथ लगाते हो टाँके
सीलते हो वक़्त की बिवाइयों को
ये तुम्हारी की तुरपाई का ही असर है 
कि अभावों की चादर से मेरी मजबूरीयों का नंगा जिस्म पूरा ढका रहता है
ये किताबें जो तुमने थमाई थीं पापा
मुझे इस लायक ना बना सकीं कि तुम्हारे पेट मे पड़ी गाँठ खोल सकूँ, 
माँ का राजा बेटा भी कहाँ बन पाया मैं
भाई का सुख कहाँ देख पाई बड़ी बहन
कब, बन कर उम्मीद छोटे भाई का 'भाई जी', कहाँ दे पाया मैं अपने होने का हौसला
मेरी हर कोशिश
उस वक़्त दम तोड़ती है जब मैं देखता हूँ तुम्हे भरी दोपहर धूप में
सेठ के थड़े पर अपने ही जिस्म से जूझते
और लोग मुझे कहते हैं कि मैं अभद्र, असभ्य, गलीज़, लड़ाकू, बुरा और बदतमीज और लंपट हूँ
क्या जानें वे कि ज़िन्दगी के अस्तित्व पर अपमान का वार होता है तब जहरीले हो जाते हैं शब्द

तुम पूरी उम्र घर की दरारों को सीलने की कोशिश करते रहे
मेरी हर कोशिश पर हँसता रहा घर
शब्द जब हार जाते हैं तो श्रम की छाँव में बैठ
अपमान का ज़हर पीकर आत्महत्या करते हैं
पापलू, मेरी कोशिशें आपकी तरह बेथकी न रह सकीं आज चूल्हे की बेमणी के पास जो पसरी थी
उन शब्दों की लाश ही थी वो

पर कभी बताना कैसे सह गये आप बिना थके
अभावों के वारों को
सूई कतरनी के ताण कैसे खड़े रहे आप चालीस साल तक
इस टूटते बिखरते घर में---

दर्ज़ी का बेटा . 2

वक़्त की मार से
बेरंग हुए मौसम
और कीकर पर लटके चिड़िया के पंखों
को सहलाने का अब मन नहीं रहा
आते जेठ की इस सुबाह को कह दो
कि मुझे 
सूरज से डर नहीं लगता
भरी दोपहर
सेठ के थड़े पर बैठ
कपड़ों के कारी लगाता
मैं दर्ज़ी का बेटा
अलनीनो के गणित में उलझ
राजभवन का हिसाब नहीं भूलूंगा
कि पिछले हाढ़ में
मैने सिंहासन का खोळ बनाया था

सारी-सारी रात
पुराने ली'ड़ों से माथा मारता मैं
बीस रुपये पीछे
तुम्हारी शतरंज का प्यादा नहीं बनूंगा

....चलो छोड़ो ये हिसाब की बातें
....मै हिसाब मे कच्चा हूँ
जिस पर मायकोवस्की ने लिखी थी कविता

....कविता जो
 अब नाजिम की कब्र पर बैठ
अलापती है मुझ दर्ज़ी का नाम

सुनो...
मैं अब भी फोड़ता हूँ थड़े पर आँखें
क्या कोई लिखेगा
कविता।


​​परिचय
नाम - सतीश छिम्पा
जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरयाणा)
रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, लोकमत , लोक सम्मत, मरुगुलशन, जागतीजोत, कथेसर, ओळख, युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित
संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन   के मुक्ति संघर्ष के हक में], आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता) , वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास)
संपादन- 
किरसा (अनियतकालीन)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
भूमि (संपादक, अनियतकालीन)
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