बुधवार, 12 दिसंबर 2018

अपने दुख से सौंदर्य की रचना करो : वॉन गॉग - कुमार मुकुल

चित्रकार बनने की आकांक्षा वॉन गॉग में शुरू से थी। गरीबी और अपमान में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले महान चित्राकार रैम्ब्रां बहुत पसंद थे विन्सेन्ट को और उसका अंत भी रैम्ब्रां की तरह हुआ और दुनिया के कुछ महान लोगों की तरह उसकी पहचान भी मृत्यु के बाद हुई। जीते जी तो कला के प्रति उसकी दीवानगी अभाव और उपेक्षा की आंच में झुलसती रही पर मरने के बाद प्रसिद्धि ने कभी उसका दामन नहीं छोड़ा। उसके चित्रा दुनिया के सबसे महंगे चित्राों की सूची में हमेशा जगह बनाये रहे। आज वॉन गॉग के सेल्फ पोर्टे्रट की कीमत तीन अरब है। और दुनिया के सबसे महंगे दस चित्राों में उसके चार चित्रा शामिल हैं। उनके शिक्षक मेन्डेस ने उससे कहा था-÷...तुम्हें कई बार लगेगा कि तुम हार रहे हो लेकिन आखिरकार तुम खुद को अभिव्यक्त करोगे और वह अभिव्यक्ति तुम्हारे जीवन को मायने देगी।'
और विन्सेन्ट की रचनाओं ने, चित्राें ने उसके जीवन को जो मायने दिये उनके अर्थ उसकी मौत के बाद खुले तो खुलते चले गए और आज उसके रंग दशों दिशाओं में फैलते चले जा रहे हैं।इक्कीस साल की उम्र में विन्सेन्ट को उन्नीस साल की एक गरीब, पतली-दुबली लड़की उर्सुला से प्यार हो गया था। त्राासदी यह कि उर्सुला की मंगनी हो चुकी थी और जब विन्सेन्ट ने प्यार का वास्ता दे उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो रोते हुए उर्सुला ने कहा-÷क्या मुझे हर उस आदमी से शादी करनी होगी जिसे मुझसे प्यार हो जाए?' आखिर वह नहीं मिली उसे और इस विडंबना ने अंत तक उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसके जीवने में जो भी स्त्राी उसके निकट आई और जिसे भी उसने अपने अंतर्तम से प्यार किया उसे खो दिया विन्सेन्ट ने। इस दौरान राग-विराग के दौर में कभी तो उसने पादरी बनने की कोशिश की, कभी शिक्षक और कभी खदान मजदूर का जीवन जीते उसने खुद को भूखा रखकर मौत की कगार तक पहुंचा दिया। पादरी बनने की कोशिश के दौरान वे उपदेश देते-÷...कोई भी दुख बिना उम्मीद के नहीं आता...'। वह प्रार्थना करता-÷...कि हमें न निर्धनता दे न धन, हमें उतनी रोटी दे जितना हमारा अधिकार बनता है।' अंत तक यह उपदेश जैसे उसके साथ खुद को प्रमाणित करता रहा।बोरीनाज के खदान मजदूरों को उपदेश के दौरान जब उसे लगा कि उसके गोरे चिट्ठे रंग के चलते मजदूर दूरी महसूस करते हैं तो उसने अपने चेहरे पर कोयले की धूल मलनी आरंभ कर दी ताकि उन जैसा दिख सके। अंत में यह नाटक भी खत्म किया उसने और मजदूरों सा जीवन जीना आरंभ किया और भूखे रहने की आदत डाल ली और खुद को बीमार करता मौत की कगार पर पहुंचा दिया। मार्क्स ने जिस डिक्लास थ्योरी की बात की है उसे उसने आजीवन खुद पर लागू किया। इसी जिद में उसने खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर लिया।पहले प्रेम में असफलता से पैदा विराग ने उसे कैथोलिक पादरी या धर्मोपदेशक बनने की राह पर डाल दिया था। पर मजदूरों को उपदेश देते और उनके जैसी जिन्दगी जीते उसे भान हुआ कि उनका कष्ट अपार है। उसने खान के मैनेजर से प्रार्थना की कि आप कम से कम कुछ ऐसा तो कर ही सकते हैं जिससे खान में दुर्घटनाएं कम हों और मजदूरों की मौतों में कमी आए। पर मैनेजर के जवाब, कि हमारे पास निवेश के लिए एकदम पूंजी नहीं है, ने विन्सेन्ट को भीतर से निराश कर दिया और उसने सोचा कि एक दृढ़निश्चयी कैथोलिक से वह नास्तिक बनता जा रहा है। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ÷इतनी दयनीय निर्धनता में शताब्दी दर शताब्दी रह रहे लोगों के लिए ईश्वर ऐसी दुनिया की रचना कैसे कर सकता है, जिसमें जरा भी दया न हो।'
आखिर जब चर्च के लोग उस प्रदेश में धर्म की प्रगति जानने पहुंचे तो पाया कि वॉन गॉग उनके पवित्रा, उज्ज्वल धर्म को गरीबी और निर्धनता में लथेड़ चुका है। दो सौ मजदूरों के बीच बैठा वह खान में दबकर मर गए सत्तावन मजदूरों के लिए प्रार्थना करने को था कि जांच के लिए पहुंचे चर्च के लोगों के लिए वहां की गंदगी को बर्दाश्त करना कठिन हो गया। वॉन गॉग को झिड़कते हुए उन्होंने कहा-लगता है हम अफ्रीका के जंगल में हैं...किसने सोचा था कि यह आदमी इतना पागल निकलेगा...मैं तो इसे शुरू से ही पागल समझता था...।' अंत में उन्होंने उसे कहा कि तुम हमारे चर्च का अपमान करना चाहते हो, कि अब तुम अपनी नियुक्ति निरस्त समझ सकते हो।दब कर मर गए मजदूरों के लिए हड़ताल करते मजदूरों को आखिर समझाकर काम पर भेजने के बाद वॉन गॉग ने पाया कि बाइबिल अब उनके किसी काम की नहीं थी, कि ईश्वर ने उनकी तरफ पत्थर के कान कर रखे हैं।
इन सब चीजों ने उसे फिर एक बार गहरी हताशा की ओर ढकेल दिया। उसने पाया कि ईश्वर कहीं नहीं था...एक हताश, क्रूर, अंधी अस्त-व्यस्तता थी...इस पागलपन से निकलने के लिए वह फिर अपने पुराने पागलपन की ओर मुड़ा और चित्राकारी शुरू कर दी और बोरीनाज के खदान मजदूरों के चित्रा बनाने लगा। कुछ चित्रा बना लेने के बाद विन्सेन्ट को लगा कि उसे अपने चित्राों के बारे में किसी की राय लेनी चाहिए, और उसे वहां से अस्सी किलोमीटर दूर ब्रुसेल्स में रह रहे चित्राकार रैवरैण्ड पीटरसन की याद आई और उसने उनसे मिलने का इरादा किया। उसके पास टिकट के पैसे नहीं थे और वह पैदल ही निकल पड़ा। उसके पास मात्रा तीन फ्रैंक थे। करीब छत्तीस घंटे की यात्राा के बाद उसके जूते के तल्लों ने जवाब दे दिया और उसके जूते को फाड़ अंगूठे बाहर झांकने लगे। पांवों में छाले पड़ चुके थे। इस हालत में एक रात का विश्राम लेकर भूखा-प्यासा वह फिर निकल पड़ा और बु्रसेल्स पहुंचा। मानव इतिहास में किसी रचनाकार की जिजीविषा का ऐसा उदाहरण और कहां मिलेगा? खाक और धूल में लिथड़ी विन्सेन्ट की सूरत देख रैवरैण्ड की बेटी चीखती भाग खड़ी हुई। आखिर जब रैवरैण्ड ने उसे पहचाना तो बोले-तुम्हें देखना कितना सुखद है, सीधे भीतर चले आओ। विन्सेन्ट कितना खुश हुआ होगा, यह हम सोच सकते हैं। आखिर ईसा के उस कथन के, जो विन्सेन्ट को प्रिय था, कि कोई भी दुख बिना उम्मीद के नहीं आता, निहितार्थों को यहां समझा जा सकता है।
रैवरैण्ड के साथ कुछ दिन बिताने के बाद जब विन्सेन्ट वास्मेस गांव लौटने लगा तो रैवरैण्ड ने उसे अपना पुराना जूता और लौटने के टिकट के पैसे दिये।रैवरैण्ड से मिली सलाह और उत्साहवर्धन के बाद उसने कुछ और चित्रा बनाये। फिर सोचा कि इसे उस समय के चर्चित चित्राकार जूल्स ब्रेतों को दिखाए। पर ब्रेतों वहां से एक सौ सत्तर किलोमीटर दूर रहता था और हमेशा की तरह उसके पास पैसे नहीं थे। थोड़ी दूर वह ट्रेन से गया और फिर पांच दिन-रात पैदल चलकर जब कूरियेरेस में ब्रेतों के स्टूडियो तक पहुंचा तो उसकी भव्यता देख उसकी हिम्मत नहीं पड़ी भीतर जाने की और वह वापिस चल पड़ा-भूखा, प्यासा, पैदल। भूख लगने पर वह अपने चित्राों को देकर बदले में पावरोटी मांग कर खाता, सप्ताहों की पैदल दिन-रात की यात्राा के बाद घर पहुंचा। इस यात्राा में वह अपना कई पौंड वजन कम कर चुका था और बुखार की चपेट में आ चुका था। इसी अर्धमृतावस्था में उसका भाई थियो वहां आ पहुंचा और उसने अपने प्यारे भाई को संभाला। थियो ने हमेशा विन्सेन्ट को उसके पागलपन के साथ प्यार किया और न्यूनतम जीवनयापन की उसकी व्यवस्था में उसका अहम योगदान रहा। पहले प्यार की त्राासदी, बाईबिल के अध्ययन और कठोर जीवन शैली के चुनाव ने हमेशा विन्सेन्ट के भीतर एक चिंतक को जाग्रत और विकसित किया। पर भाई की संगत और प्यार में वह भावुक हो जाता था। एक जगह वह थियो से कहता है-÷क्या हमारे अंदर के ख्याल बाहर से दिखाई पड़ सकते हैं? हमारी आत्मा में एक आग जल रही हो सकती है जिसे बगल में बैठकर तापने कोई नहीं आता। आने-जानेवालों को सिर्फ चिमनी से निकलता धुंआ दिखाई पड़ता है...।'विन्सेन्ट को ÷लैंडस्केप से प्रेम था पर उससे भी ज्यादा उसे जीवन से भरपूर उन चीजों से प्रेम था, जिनमें उत्कट यथार्थवाद होता था...।' वह जानता था कि अभ्यास को किताबों के साथ नहीं खरीदा जा सकता और उसका कोई विकल्प नहीं होता इसलिए जीवन भर वह श्रम करता अपनी कला को लगातार धार देता रहा।
उसके चचेरे भाई मॉव का कथन था कि आदमी चित्राों पर या तो बातें कर सकता है या चित्रा ही बना सकता है। ...कि ÷कलाकार को स्वार्थी होना चाहिए। उसे काम करने के हर क्षण की रक्षा करनी चाहिए।' विन्सेन्ट श्रम तो करता रहा पर स्वार्थी नहीं हो सका। उसकी माली हालत को देखकर मां सलाह देतीं कि वह धनी महिलाओं के चित्र क्यों नहीं बनाता तो उसका जवाब होता-÷प्यारी मां, उन सबका जीवन इतना सुविधापूर्ण होता है कि उनके चेहरों पर समय ने कोई भी रोचक चीज नहीं बनाई होती।' मां पूछती कि गरीबों के चित्रा बनाकर क्या फायदा, वे तो उसे खरीदेंगे नहीं। मां की नीली, गहरी साफ आंखों में शांतिपूर्वक देखता विन्सेन्ट बोलता-÷अंततः मैं अपने चित्रा बेच सकूंगा...'। एक पुरानी कहावत हमेशा विन्सेन्ट को याद रही-÷अपने दुख से सौंदर्य की रचना करो।' और दुख से रचे उसके चित्राों की कीमत अंततः मरने के बाद ही जानी जा सकी।अठ्ठाइस साल की उम्र में विन्सेन्ट को फिर प्रेम हुआ के से जो जॉन की मां थी। पर उसके मृत पति वॉस से उसे नफरत थी जिसे के भुला नहीं पा रही थी। उस दौरान मिशेले को पढ़ते हुए एक पंक्ति उसे जंच गई-÷यह जरूरी है कि एक स्त्राी आप के ऊपर बयार की तरह बह सके ताकि आप पुरुष बन सकें।' उसे लगा कि उर्सुला से मिली यातना को के ही दूर कर सकेगी पर के वॉस को भुला न सकी और दूसरा प्रेम भी विन्सेन्ट के लिए एक त्राासदी ही साबित हुआ। इससे पार पाने के लिए वह फिर द हेग में अपने कजिन मॉव के पास चला गया। फिर वही भूख और चित्राकारी की दीवानगी का दौर। ऐसे में उसे मिली क्रिस्टीन जो लॉन्ड्री में कपडे+ धोती थी और उससे पेट नहीं भरता तो पेशा करती थी। विन्सेन्ट को उसका साथ भा गया और उसके साथ वह रहने लगा। क्रिस्टीन ने विन्सेन्ट के जीवन में प्रेम की कमी को अंशतः पूरा किया। वह उससे मॉडल के रूप में भी काम लेता था। इसके अलावा मजदूरों और बूढ़ी स्त्रिायों को वह थोड़े पैसे के लिए मॉडल बनने का आग्रह कर अपने झोपड़ीनुमा स्टूडियो में ले आता था।वह सोचता, काश, वह अपने काम से अपनी रोटी भर कमा सके। उसे और कुछ नहीं चाहिए था। और वह कभी ठीक से अपनी रोटी भी नहीं कमा सका और आज उसकी कृतियां अरबों-खरबों कीमत की हैं-क्या यह उसी भूख की कीमत है ! भूख से कीमती कुछ भी नहीं शायद। विन्सेन्ट जानता था भूख अर्जित करने की कला। और, आज पूरी दुनिया का पेट भर दिया उसने। और यह दुनिया कभी उसका पेट नहीं भर पाएगी। उसका कर्जदार रहेगी यह दुनिया, जब तक रहेगी।ऐसा नहीं था कि विन्सेन्ट यूं ही ऐसा था। उसके आस-पास की दुनिया और उसके सलाहकार भी ऐसे ही थे। उस समय के राष्ट्रीय ख्याति के चित्राकार वाइसेंनब्रूख विन्सेन्ट को समझाते हुए कहते-÷...साठ साल के हर कलाकार को भूख से मरना चाहिए। तब शायद वह कैनवस पर कुछ अच्छे चित्रा बना सकेगा।...हुंह! तुम चालीस से ऊपर नहीं हो और बढ़िया काम कर रहे हो।' ॥अगर भूख और दर्द किसी आदमी को मार सकते हैं तो वह जीने के काबिल नहीं। इस धरती के कलाकार वही लोग होते हैं, जिन्हें ईश्वर या शैतान तब तक नहीं मार सकता जब तक वे उन सारी बातों को नहीं कह देते, जिन्हें वे कहना चाहते हैं।'
पर अभाव ने घर में कलह को जन्म देना शुरू कर दिया था। क्रिस्टीन और विन्सेन्ट झगड़ने लगे थे। एक दूसरे को समझते हुए वे एक साथ नहीं बारी-बारी गुस्सा होते। और अपनी भड़ास निकालते।कभी-कभी विन्सेन्ट को निराशा होती कि उसके समकालीन डी बॉक के चित्राों पर लोग पैसा लुटाते हैं और उसे काली डबलरोटी और कॉफी तक नसीब नहीं होती पर फिर वह अपने को संतोष देता-मैें सच्चाई और मेहनत की जिंदगी जीता हूं और यह ऐसी सड़क नहीं जहां किसी की मौत हो जाए। साफ है कि वह भविष्य की बाबत कह रहा था और वह सच्चाई थी, और विन्सेन्ट के बाद विन्सेन्ट की तरह भला कौन जिन्दा रहेगा ! उसके बनाये सूर्यमुखी सूर्य की तरह आज पूरी दुनिया में खिल रहे हैं उद्भासित होते अपने अनंत रंगदृश्यों के साथ।क्रिस्टीन के साथ रहने के चलते विन्सेन्ट को द हेग के सारे कलाकारों ने नीचा दिखाना शुरू किया। उसके चित्राकार भाई मॉव ने एक दिन कहा कि तुम दुष्ट चरित्रा के आदमी हो, तो विन्सेन्ट ने खुद को कलाकार बताया। मॉव ने मजाक उड़ाते हुए कहा-आज तक तुम्हारा एक चित्रा नहीं बिका और तुम कलाकार हो। विन्सेन्ट ने भोलेपन से पूछा-क्या कलाकार का मतलब बेचना होता है? मैं समझता था कि बिना कुछ पाए खोज में लगे रहना कलाकार का काम है। इसी तरह एक दिन डी वॉक ने कहा-हर कोई जान गया है कि तुमने एक रखैल रख छोड़ी है। क्या तुम्हें कोई और मॉडल नहीं मिली। विन्सेन्ट ने आपत्ति की कि यह मेरी पत्नी है। यह विवाद बढ़ता गया और उसकी रोटी पर भी आफत आने लगी। जिस माहौल से वह आई थी उसमें शराब और सिगरेट की आदतें बुरी तरह उसे जकड़े थीं। वह बीमार रहने लगी थी। उसके इलाज की व्यवस्था करता विन्सेन्ट सोचता-÷बेचारी ने अच्छाई कभी देखी ही नहीं...वह खुद अच्छी कैसे हो सकती है?' आखिर इस हद तक मानवीय होने पर दुनियावी समाज किसी को पागल ही तो समझता है, और एक दिन थक-हारकर व्यक्ति समाज के पागलपन को स्वीकृति देता हुआ अपने तथाकथित पागलपन को बचाए रखता है। आखिर वही तो उसकी पूंजी होती है। भविष्य में उसे पागल कहता समाज ही तो उसकी अरबों कीमत लगाता है, इस बात को विन्सेन्ट जैसा हर कलाकार जानता होता है।
क्रिस्टीन से शादी को लेकर एक दिन तेरेस्टीग ने भी उसकी फजीहत करते हुए कहा-÷दिमागी तौर पर बीमार आदमी ही ऐसी बातें कर सकता है।' पर विन्सेन्ट सोचता है-÷आदमी का व्यवहार, मौश्ये, काफी कुछ ड्राइंग की तरह होता है। आंख का कोण बदलते ही सारा दृश्य बदल जाता है...यह बदलाव विषय पर नहीं बल्कि देखनेवाले पर निर्भर करता है।' त्रासदी यह थी कि ये सारी बातें क्रिस्टीन के सामने संभ्रांत भाषा में होती थीं, थोड़ा बहुत क्रिस्टीन इसे समझती भी थी और दर्द से भर उठती थी। उसके मित्रा वाइसेनव्रूख ने एक दिन मजाक में कहा-÷...मैं चाहूंगा तुम्हारा चित्रा बनाना। मैं उसे ÷होली-फैमिली' कहूंगा!' इतना सुनकर विन्सेन्ट गाली बकता उसे मारने दौड़ा...।महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसका भाई थियो, जो चित्राों का व्यापार करता था और हमेशा विन्सेन्ट की चिन्ता करता था, भी कम पागल नहीं था। उस दौर में विन्सेन्ट को उसके मित्रा चित्राकार यह कहकर डराते थे कि उसके भाई से शिकायत करेंगे वे उसके आचरण की और उसे थियो पैसे भेजना बंद कर देगा। उधर थियो था कि उसे भी भाई का दर्शन भाने लगा था। एक दिन उसने विन्सेन्ट को पत्रा लिखा कि उसने एक बीमार और आत्महत्या पर उतारू स्त्राी को अपने साथ जगह दी है और उससे शादी करना चाहता है। अभाव में क्रिस्टीन के साथ कठिन होते जीवन को देखते हुए उसने सलाह दी कि-वह इंतजार करे...उसके लिए जो संभव हो करे और प्रेम को पनपने दे, हड़बड़ी में शादी ना करे। उसकी आर्थिक स्थिति को देखते क्रिस्टीन ही शादी पर आपत्ति करने लगी थी। आखिर वह अपने गांव अपनी मां के पास लौट गया, शांति की खोज में। उसे स्टेशन छोड़ने क्रिस्टीन भी आई थी।गांव में वह पीठ पर ईजल टांगे खेतों में चित्रा बनाता घूमता रहता। इसी बीच उसके पड़ोस की एक स्त्राी मारगॉट उसके निकट आई। वह हिस्टीरिया की मरीज थी और बचपन से ही मन ही मन विन्सेन्ट को चाहती थी। एक दिन उसने मारगॉट को बताया कि प्यार करना तो आसान होता है मारगॉट ने कहा-हां, मुश्किल होता है बदले में प्यार पाना। मारगॉट ने उसे बताया कि वह सोचती थी कि बिना प्यार किए वह चालीस की नहीं होगी और उनचालीसवें साल में आखिर उसे विन्सेन्ट मिल गया। इस प्रेम ने उसके जीवन में सूखते सोते को जीवित कर दिया। मारगॉट की निगाहों में डूबा वह खेतों में घूमता चित्रा बनाता और समझाता-÷जिंदगी भी मारगॉट, एक अनंत खाली और हतोत्साहित कर देनेवाली निगाह से हमें घूरती है, जैसे यह कैनवस करता है।...लेकिन ऊर्जा और विश्वास से भरा आदमी उस खालीपन से भयभीत नहीं होता, बल्कि वह...रचना करता है और अंत में कैनवस खाली नहीं रहता बल्कि जीवन के पैटर्न से भरपूर हो जाता है।'क्रिस्टीन को बचा ना पाने के दर्द को समझते हुए मारगॉट उसे समझाती कि इसमें उसका क्या कसूर, क्या वह बोरीनाज के खदान मजदूरों को बचा पाया था। पूरी सभ्यता के खिलाफ एक आदमी क्या कर सकता है। मारगॉट की बात सही थी पर विन्सेन्ट तो वही आदमी था, पूरी सभ्यता के खिलाफ संघर्षरत, उसका रुख मोड़ देने को आतुर, वह भी प्रेम से, विश्वास की ताकत से। आखिर यह पागलपन ही तो था।
मारगॉट से प्यार के वक्त वह इकतीस का था। फिर उसकी पांच बहनें अविवाहित थीं। दोनों के घरवाले विवाह को तैयार नहीं थे। सबसे ज्यादा आपत्ति मारगॉट की बहनें कर रही थीं। विन्सेन्ट के इस तीसरे प्यार की त्राासदी ने उसके कैनवस के रंगों को और प्रभावी बनाया। उसे वाइसेनब्रूख का जीवन-दर्शन सही लगता-÷मैं कभी भी यातना को छिपाने का प्रयास नहीं करता, क्योंकि अक्सर यातना ही कलाकार की रचना को सबसे मुखर बनाती है।' इस यातना से कब पीछा छूटना था विन्सेन्ट का और अब वह नये रूप में आनेवाली थी। मारगॉट प्रसंग के चलते विन्सेन्ट ने अपना गांव ब्रेबेन्ट छोड़ा और नुएनेन में एक किसान परिवार के साथ मित्राता की। वहां उसे एक किसान की लड़की सत्रह साल की स्टीन मिली, जिसमें ÷हंसने की नैसर्गिक प्रतिभा थी।' वह उसके पास मॉडल के रूप में काम करने आती थी। गुस्साने पर वह विन्सेन्ट के चित्राों पर काफी फेंक देती या आग में झोंक देती। इसी किसान परिवार का आलू खाते चित्रा बनाया था विन्सेन्ट ने जो ÷द पोटैटो इटर्स' नाम से ख्यात हुआ। फिर स्टीन को लेकर भी स्थानीय पादरी ने आपत्तियां शुरू कीं। आजिज आकर वह अपने चित्राों के साथ पेरिस आ गया। अपने प्यारे भाई थियो के निकट।विन्सेन्ट को वही चित्रा पसंद थे जो कि वैसे बनाई गए हों जैसे कि वो नजर आ रहे थे। चाहे वो बदसूरत ही हों। वैसे चित्रा उसे जीवन पर धारदार वक्तव्य जैसे नजर आते रहे। उसकी नजर में वही सौेंदर्य था। विन्सेन्ट सोचता-चित्राों में नैतिकता थोपना या कोरी भावुकता में उन्हें चित्रिात करना उन्हे बदसूरत बना देना है।पेरिस में चित्राकार लात्रोक को यही समझा रहा था विन्सेन्ट। चित्राों के व्यापारी उसके भाई को पेरिस के सभी चित्राकार जानते थे और विन्सेन्ट को वहां अच्छी मंडली मिल गई। पाल गोगां, जॉर्जेस, स्योरो, लॉत्रोक आदि। प्रेम में लगातार मिली विफलता, भूख और अथक श्रम ने विन्सेन्ट को त्रास्त कर दिया था। अब एक उन्माद में वह खुद को झोंकता रहता था काम में। जीवन में मिली यातनाओं को रूपाकार देता वह पागल की तरह भिड़ा रहता था। अतीत से जूझता वह हिस्टीरिया के मरीज सा हो गया था। उसे दौरे भी पड़ने लगे थे। एक बार उसके चित्राों को देखते हुए पाल गोगां ने कहा-÷क्या तुम्हें दौरे पड़ते हैं, विन्सेन्ट।...तुम्हारे चित्राों को देखकर लगता है कि जैसे... वे कैनवस से फटकर बाहर आ जाएंगे...ऐसी उत्तेजना छा जाती है कि मैं उस पर काबू नहीं कर पाता।...वे हफ्‌ते भर में मुझे पागल कर देंगे।' गोगां ने कितना सच कहा था, विन्सेन्ट के बाद पूरी दुनिया उसके चित्राों के पीछे पागल है।
हड्डियों में घुसती पेरिस की ठंड से आजिज वहां के चित्राकार अक्सर सूरज की चर्चा करते। विन्सेन्ट ने भी एक दिन अपने भाई थियो से सूरज की रोशनी में दिन बिताने के लिए अफ्रीका जाने की जिद की। थियो ने कहा कि वह तो दूर है। अंततः उसने एक पुरानी रोमन बस्ती आर्लेस जाना तय किया। आर्लेस की धूप कुछ ज्यादा ही तेज थी। तिस पर विन्सेन्ट बिना हैट के सारा दिन पीठ पर ईजल टांगे यहां-वहां चित्रा बनाता दिन बिताता। वहां के लोग उसे सनकी पागल कहते।
विन्सेन्ट सोचता-शायद मैं पागल हूं, पर मैं क्या कर सकता हूं। घर, पत्नी, बच्चों और परिवार के बिना यातना से भरा जो उसका जीवन था उसका हल उसे इस पागलपन में सूझता था। एक रचनात्मक ऊर्जा में बदल रहा था वह इस यातना को। यह सूरज की रोशनी और उसकी आग में खुद को डुबो देने का पागलपन था। भूखों मरने का पागलपन था। वह सोचता-बना हुआ कैनवस खाली कैनवस से अच्छा होता है और वह लगातार कैनवसों पर काम करता रहता। गरीब कामगार लोगों के बीच काम करते उसे लगता कि ये कितने पवित्रा लोग हैं, अनंत काल तक ÷निर्धन बने रहने की प्रतिभा' से पूर्ण। अर्लेस में ही एक पेशेवर लड़की रैचेल से विन्सेन्ट की भेंट होने लगी थी। पांच फ्रैंक में वह विन्सेन्ट का साथ देने को तैयार हो जाती थी। पर विन्सेन्ट के पास जब पांच फ्रैंक भी नहीं रहते तो वह मजाक में कहती तब तुम बदले में अपने कान दे देना। और एक दिन जब विन्सेन्ट के पास पांच फ्रैंक भी नहीं थे तो यातना से भन्नाया विन्सेन्ट शीशे के सामने गया और चाकू से अपना दायां कान काट उसे रूमाल में लपेट रैचेल को देने चल दिया। रूमाल में कटे कान देख वह बेहोश हो गिर पड़ी। उधर घर पहुंच कर वह खुद बेहोश हो गया। सुबह उसे अस्पताल में भर्ती किया गया और किसी तरह बचाया गया। डॉक्टर ने बताया कि ऐसा सनस्ट्रोक के कारण हुआ।सामान्य होते ही वह फिर वैसे ही बिना हैट लगाये तेज धूप में पागलों सा ईजल लिए मारा-मारा फिरने लगा। डाक्टर रे ने एक दिन उसे समझने और समझाने की कोशिश करते हुए कहा-÷...कोई भी कलाकार सामान्य नहीं होता। सामान्य लोग कला की रचना नहीं कर सकते। वे सोते हैं, खाते हैं, सामान्य धंधे करते हैं और मर जाते हैं। तुम जीवन और प्रकृति को लेकर ज्यादा संवेदनशील हो ...पर यदि तुमने ख्याल नहीं किया तो तुम्हारी यह अतिसंवेदनशीलता तुम्हें तबाह कर देगी...।' अब उस इलाके के बच्चे उसके पीछे सारा दिन पड़े रहते, उसे पागल कह चिढ़ाते, उससे उसका दूसरा कान मांगते हुए। एक दिन तंग आकर उसने खिड़की से सारा सामान बच्चों पर फेंक मारा और खुद बेहोश हो गिर पड़ा। फिर तो उसे खतरनाक पागल घोषित कर गिरफ्‌तार कर लिया गया। अब डाक्टर की सलाह से उसे विस्तृत मैदानोंवाले एक पागलखाने में भर्ती किया गया। वहां डाक्टर पेरॉन उसकी देख-रेख के लिए थे। डाक्टर ने उसे धार्मिक गतिविधियों में भाग न लेने की छूट दिला दी और उसे कई बार नहाने की सलाह दी।आस-पास के पागलों को देख विन्सेन्ट परेशान हो जाता तो डाक्टर उसे समझाते-÷...इन्हें अपने बंद संसारों में जीने दो...तुम्हें याद नहीं ड्राइडन ने क्या कहा था? अवश्य ही पागल होने में भी आनंद है, जिसे केवल पागल ही जान सकता है...'। मजदूर और किसान हमेशा से विन्सेन्ट को पसंद थे। वह खुद को किसानों से नीचा समझता था। वह उनसे बोला करता-आप खेतों में हल चलाते हैं, मैं कैनवस पर। दुनिया कभी उसे ठीक से समझ नहीं पाई। जब वह पागलखाने में था तब फ्रांस की एक पत्रिका में जी अल्बर्ट ऑरेयर ने उसके चित्राों के बारे में लिखा-÷विन्सेन्ट वॉन गॉग हॉल्स की परंपरा का कलाकार है, उसका यथार्थवाद अपने स्वस्थ डच पूर्वजों के कार्य से कहीं आगे के सत्य को उद्घाटित करता है। उसके चित्राों की विशेषता है आकृति का सचेत अध्ययन, प्रत्येक वस्तु के मूल तत्त्व की खोज और प्रकृति और सत्य के प्रति उसका बाल सुलभ प्रेम। क्या यह सच्चा कलाकार और महान आत्मा दोबारा से जनता द्वारा स्वीकार किए जाने के अनुभव को पा सकेगा? मैं नहीं समझता। वह काफी साधारण है और साथ ही हमारे समकालीन बुर्जुआ समाज के समझने के लिए काफी जटिल भी, उसे उसके साथी कलाकारों के अलावा कभी भी कोई नहीं समझ पाएगा।
अंत में विन्सेन्ट को एक होमियोपैथिक डाक्टर गैशे मिले जो दिमागी बीमारियों के ही नहीं, चित्राकारों के भी विशेषज्ञ थे। विन्सेन्ट ने उनके अनगिनत चित्रा बनाये जो दुनिया की सबसे महंगी तस्वीरों में शुमार हुए।विन्सेन्ट के अंतिम दिनों के हालात देख मुक्तिबोध, निराला के अंतिम दिन याद आते हैं। दरअसल ये वो कलाकार हैं जो गालिब की तरह दुनिया की हकीकत समझते हैं पर उससे दिल बहलाने की जगह उस हकीकत का पर्दाफाश करना चाहते हैं। और पागल घोषित कर दिये जाते हैं क्यों कि दुनिया के बाकी तमाशाईयों की तरह ये अपने पीछे कोई कुनबा, गिरोह या अनुयायियों की फौज खड़ी कर अपने इलहाम को निर्वाण घोषित करने की बेहयाई नहीं कर पाते। उससे बेहतर वे अपने दर्द और अकेलेपन में डूब मरना मानते हैं। आखिर उनके मत को भी दुनिया समझती है और किसी भी मत के माननेवालों से ज्यादा बड़ी तादात होती है उनकी, पर वह एक घेरा नहीं बनाती, उसका लाभ उठाने को, क्योंकि स्वतंत्राता के विचार का सम्मान करना वे उससे सीख चुके होते हैं।
दोनों भाईयों को लेने डाक्टर गैशे खुद स्टेशन पहुंचे थे। भाई थियो ने अकेले में जब आशंका जाहिर की। विन्सेन्ट की दिमागी हालत की बाबत तो गैशे ने समझाया-÷हां, वो सनकी है...सारे कलाकार सनकी होते हैं...किसने कहा था, ÷कि हर आत्मा के भीतर थोड़ा-बहुत पागलपन मिला होता है। शायद एरिस्टोटल ने।' एक दिन गैशे उसके बनाए सूरजमुखी को देखते हुए बोला-÷अगर मैं ऐसा एक भी चित्रा बना पाता तो मैं समझता कि मैंने अपने जीवन के साथ न्याय किया है, विन्सेन्ट! मैंने पूरी जिन्दगी लोगों के दर्द का इलाज करने में काटी...वे सब अंत में मर गए...क्या फर्क पड़ा इस सबसे? ये सूरजमुखी तुम्हारे, ये लोगों के दिलों का इलाज करेंगे...ये लोगों के पास खुशियां लाएंगे...सदियों तक...।' एक दिन विन्सेन्ट ने डाक्टर गैशे से बातचीत के दौरान पूछा कि आखिर मिर्गी के उन मरीजों का क्या होता है डाक्टर, जिनका दौरा आना नहीं रुकता। गैशे ने कहा कि वे पूरी तरह पागल हो जाते हैं। यह बात विन्सेन्ट के दिमाग में घर कर गई और उसने सोचा कि वह एक पागल की मौत नहीं मरेगा।एक दिन उसने मकई के खेत में काम करते हुए कौओं का चित्रा बनाया और शीर्षक दिया ÷क्रोज अबव ए कार्नफिल्ड'। फिर इसी तरह एक दिन खेतों में खडे+ सूर्य को निहारते हुए उसने अपनी कनपटी पर गोली मार ली। घायल अवस्था में वह एक दिन जिन्दा रहा। गोली उसके मस्तिष्क में फंसी रही। उस दौरान थियो उसे बता रहा था कि वह अपनी पहली प्रर्दशनी विन्सेन्ट के चित्राों की लगाएगा। पर उसे देखने के लिए विन्सेन्ट जिन्दा नहीं रहा। उसकी मृत्यु के छह माह बाद थियो भी मर गया। गालिब की तरह ख्यालों से मन बहलाने का शौक नहीं था विन्सेन्ट को, उसके पास मन बहलाने का एक ही तरीका था काम करना और करते जाना। श्रम की इस निरंतरता ने उसकी कला को अनंत बना दिया, उसकी मृत्यु अनंत हो गई।(इरविंग स्टोन लिखित उपन्यास लस्ट फॉर लाइफ महान चित्राकार विन्सेन्ट वॉन गॉग के जीवन पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण कृति है जिसका अनुवाद अशोक पांडे ने किया है। संवाद प्रकाशन, मेरठ से आई इस किताब को पढ़ना वॉन गॉग के जीवन से गुजरने के समान है।)

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आलोचना के संदिग्ध संसार में एक वैकल्पिक स्वर : प्रकाश

इधर के वर्षों में हिंदी आलोचना का वरिष्ठ संसार बड़ी तेजी से संदिग्ध और गैरजिम्मेदारन होता गया है। आलोचना की पहली, दूसरी...परंपरा के तमाम उत्तराधिकारी, जिनकी अपनी-अपनी विरासतों पर निर्लज्ज दावेदारी है, आलोचना के मान- मूल्यों और उसकी मर्यादा से क्रमश: स्खलित होते चले गए हैं। खासकर काव्य-आलोचना पर यह नैतिक संकट ज्यादा गहराया है। हमारी वरिष्ठ आलोचना बगैर किसी अन्वेषण-विश्लेषण के ऐसे किसी भी नए कवि को कबीर, प्रसाद, पंत की छवि में नि:संकोच फिट कर देती है, जिनकी न तो भाषा को बरतने का बुनियादी सलीका आता है और न ही वे काव्य-कर्म के मर्म से समग्रत: परिचित होते हैं। हमारी युवा कविता के अधिकांश कवि ‘रेडिमेड’ हैं और दुर्भाग्य से हमारी वरिष्ठ आलोचना भी ‘रेडिमेड’ तरीके से उनका मूल्यांकन करती है।
    ऐसे परिदृश्य में कुमार मुकुल के पहले ही आलोचना-कृति को पढ़कर प्रीतिकर आश्चर्य हुआ। मुकुल मूलत: कवि हैं। एक कवि के रूप में अपने वरिष्ठ और समकालीन कवियों को पढ़ते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जो टिप्पणियां, आलेख और काव्य-कृतियों की समीक्षाएं लिखीं, उनको संकलित कर एक स्वतंत्र आलोचना-कृति के रूप में प्रकाशित किया गया हैं अंधेरे में कविता के ‘रंग’ नाम से।
    पुस्तक चार खंडों में विभाजित हैं- ‘कविता का नीलम आकाश’, ‘जख्मों के कई नाम’, ‘उजाड़ का वैभव’ और ‘जहां मिल सके आत्मसंभवा’। पुस्तक की शुरुआत में एक भूमिका है, जो लेखक की सृजनात्मक भाव-भूमि को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। आखिरकार पूरी पुस्तक में काव्य-आलोचना ही क्यों? ‘भूमिका’ में वर्णित लेखक का बचपन से कविता, और वह भी संघर्षशील, प्रतिवादी स्वर की कविताओं की ओर झुकाव यह स्वष्ट कर देता है कि लेखक मूलत: असहमति का कवि है और जब यह कवि आलोचना के क्षेत्र में उतरता है तो कविता को ही अपना क्षेत्र बनाता है, और उसमें भी असहमति की कविताएं उसको प्रिय है।
इस पुस्तक में भी लेखक ने सविता सिंह, अनामिका, विजय कुमार, आलोक धन्वा, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु खरे, अरुण कमल, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेन डंगवाल, विजेंद्र, रघुवीर सहाय और राजकमल चौधरी की कविताओं का मूल्यांकन किया गया है। सविता सिंह की कविताओं की मूल भावभूमि की खोज करते हुए आलोचक उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध मातृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था का सशक्त प्रवक्ता सिद्ध करता है। वहीं अनामिका कविताएं उसे ‘औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्ति’ मालूम पड़ती है। विजय कुमार के कविता-संग्रह ‘रात-पाली’ की विवेचना करते हुए उन कविताओं में आलोचक को जीवन के वे तमाम छोटे-छोटे ब्यौरे मिलते हैं, जो एक भयंकर नाउम्मीदी, भय और आशंका में कांप रहे हैं।
आलोक धन्वा के संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ की सुप्रसिद्ध कविताओं ‘सफेद रात’, ‘ब्रूनों की बेटियां’, ‘जनता का आदमी’, ‘भीगी हुई लड़कियां’ आदि की बड़ी मार्मिक पड़ताल पुस्तक में है। वीरेन डंगवाल की कविता पर टिप्पणी के बहाने आलोचक जारी समय की कविता पर भी सार्थक बात कहता है- ‘‘ विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे हैं और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदंह पच्चीसियां जारी हैं, वीरेन की संक्षिप्त कलेवर की कविताएं ‘कटु विरक्त’ बीज की तरह हैं।’’ फिर अरुण कमल की ‘नए इलाके’ की खोज है, जो आलोचक ‘असल पुराने इलाके की ही खोज’ लगती है। इसी तरह आलोचक विजेंद्र की ‘लोकजन की ओर उन्मुख’ कविताओं, ‘रघुवीर सहाय की स्त्री की अवधारणा’, ‘केदारनाथ अग्रवाल की श्रम-संस्कृति की प्रतिपादक कविताओं’ और केदारनाथ सिंह और राजकमल की कविता के विविध आयामों की सूक्ष्म पड़ताल करता है।
    पुस्तक का दूसरा खंड अलग से रखने का विशेष औचित्य नहीं था। इस खंड में भी नए-पुराने अनेक कवियों के काव्य-संकलनों की अलग-अलग आलोचना है। यह आलोचना ‘पुस्तक समीक्षा’ की शैली में है। जैसे मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले काव्य-संग्रह ‘किसी उम्मीद की तरह’, के संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, विष्णु नागर के संग्रह ‘हंसने की तरह रोना, राजेश जोशी के संग्रह ‘चांद की वर्तनी’ और ज्ञानेन्द्रपति के संग्रह ‘गंगातट’ की समीक्षाएं इस खंड में शामिल हैं। इनके अलावा सुदीप बनर्जी, लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप की कविताओं पर स्वतंत्र-सी मालूम होती विवेचना है।
    पुस्तक के तीसरे खंड ‘उजाड़ का वैभव’ में कुछेक वरिष्ठ कवियों जैसे विष्णु खरे, कुमार अंबुज के अलावा अपेक्षाकृत नए कवियों निलय उपाध्याय, प्रेम रंजन अनिमेष, पंकज चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, वर्तिका नंदा, पंकज कुमार चौधरी, आर-चेतन क्रांति, रुंजय कुंदन और तजेंदर सिंह लूथरा की कविताओं का सह्दयता से किया गया आब्जर्वेशन है।
    आखिरी खंड में सिर्फ दो आलेख हैं। इसमें पहले आलेख में है हमारे अस्थिर समय में भटकाव की शिकार हिंदी कविता की वस्तुस्थिति का आकलन और उसके कारणों की शिनाख्त की गई है। आखिरी आलेख कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की एक महत्वपूर्ण कविता ‘सूर्यग्रहण’ पर केंद्रित है। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की पृष्ठभूमि में कुमारेंद्र की कविता ‘अंधेरे में’ के वर्षों बाद रची गई और मुकुल जी इस कविता को अंधेरे में की पुनर्रचना मानते हैं। यह सिद्ध करने   की उन्होंने पर्याप्त कोशिश की है।
    कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता को समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है।

बुधवार, 14 नवंबर 2018

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है - कुमार मुकुल

समय का संक्षिप्‍त इतिहास  कुछ नोटस

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है : स्‍टीफेन हाकिंग

 

'पूरा सच कभी किसी एक के हिस्‍से नहीं पड़ता' -

स्‍टीफेन हाकिंग को पढते हुए लगता है कि पूरा सच कभी किसी एक के हिस्‍से नहीं पड़ता। अरस्‍तू से हाकिंग तक सब थोड़ा-थोड़ा बता पाते हैं। हां हाकिंग के पास पिछले अनुभवों को जोड़ने की सुविधा थी जो अरस्‍तू के पास सबसे कम थी। पर किसी आधुनिक वैज्ञानिक ने नहीं दार्शनिक अरस्‍तू ने पहली बार बतलाया था कि धरती चपटी नहीं गोल है पर उन्‍होंने यह गलत अनुमान भी लगाया था कि पृथ्‍वी स्थिर है और सूरज-चांद-तारे उसका चक्‍कर लगाते हैं।
धर्मसत्‍ता के विरूद्ध सबसे बड़ी और समझदारी भरी क्रांतिकारी स्‍थापनाएं वैज्ञानिकों ने की। धर्म हमेशा विज्ञान को ब्रह्मांड संबंधी उतनी ही जानकारी देने की छूट देता था जिससे उसके आकाशी स्‍वर्ग-नरक की परिभाषा अक्षुण्‍ण रहे। चर्च की कड़ी निगाह हमेशा विज्ञान को अनुशासित रखने की फिराक मे रहती थी।
सूर्य के चारों ओर बाकी ग्रहों के घूमने की बात भी किसी वैज्ञानिक ने नहीं पहली बार एक पुरोहित निकोलस कॉपरनिकस ने 1514 में की थी। पर अपने ही चर्च के भय से उसने यह बात गुमनाम प्रसारित की और इस सच्‍चाई तक पहुंचने में दुनिया को और सौ साल लग गए। 1609 में गैलीलियो ने कॉपरनिकस की बातों पर सहमति जाहिर की। गैलीलियो की बातों को योरप में समर्थन भी मिला पर पर चर्च के भय से आस्‍थावान गैलीलियों ने कॉपरनिकस के विचारों से खुद को दूर कर लिया। हाकिंग की यह पुस्‍तक समय का संक्षिप्‍त इतिहास इन संघर्षों का इतिहास सा है। और करीब-करीब गैलीलियों की तरह वे ईश्‍वर की अवधारणा को नकारते हुए हुए भी कहीं-कहीं उसे गोल-मोल ढंग से स्‍वीकारते भी दिखते हैं। अब यह समय पर है कि वह उनके छुपाने को किस तरह दिखाता है।
न्‍यूटन और सेव की कहानी पर संदेह करते हुए हाकिंग लिखते हैं कि जब न्‍यूटन चिंतनशील थे तो सेव के गिरने ने उनकी समस्‍या का हल निकाला। हाकिंग ने उनके गुरूत्‍वबल सिद्धांत के अंतरविरोधों पर भी उंगली रखी है कि यह विचार न्‍यूटन के भीतर भी उठा था कि अगर ब्रह्मांड में गुरूत्‍वबल समान है तो तारों को भी एक दूसरे को आकर्षित करना चाहिए था पर ऐसे में तारे स्थिर क्‍योंकर हैं।

'कोई भी भौतिक सिद्धांत एक अस्‍थायी परिकल्‍पना होता है' - - -

स्‍टीफेन हाकिंग का कहना है कि हमने कभी इस बाबत नहीं सोचा कि ब्रह्मांड फैल रहा है या सिकुड़ रहा है...। ऐसा ब्रह्मांड के बारे में शाश्‍वत आध्‍यात्मिक धारणा के कारण हुआ। हाकिंग ब्रह्मांड के फैलने संबंधी बीसवीं सदी की धारणा को एक क्रांतिकारी स्‍थापना मानते हैं और उस पर एक अध्‍याय ही लिख डालते हैं।
हाकिंग को पढ़ते हुए एक मजेदार बात पहली बार सामने आती है कि विज्ञान के विकास में अगर धर्म हमेशा अवरोध की तरह आया तो दैवीर हस्‍तक्षेप की गंध को पसंद नहीं करने जैसे कारकों ने भी विवेचकों केा गलत निष्‍कर्ष पर पहुंचाया।
जैसे अरस्‍तू ने दैवी हस्‍तक्षेप को पसंद ना करने के कारण बह्मांड की उत्‍पत्ति के विचार को ही खारिज कर दिया। उन्‍होंने माना कि संसार सदा से है और सदा रहेगा। यह प्रलय की दैवी अवधारणा के विरूद्ध था और अवैज्ञानिक भी। जबकि प्रलय-पुनर्जन्‍म की अवधारणा खुद काल्‍पनिक और अवैज्ञानिक है।
1929 की एडविन हब्‍बल की इस खोज ने कि आकाशगंगा हमेशा हमसे दूर जा रही है ने साबित किया कि ब्रह्मांड का विस्‍तार हो रहा है। मतलब कभी यह ब्रह्मांड केंद्रित और सिमटा था। यह शुरूआत लगभग दस या बीस हजार साल पहले हुई थी। इससे यह बात सामने आई कि जब ब्रह्मांड केंद्रित था उसी समय महाविस्‍फोट नाम से एक समय था। वहीं से समय का आरंभ माना जा सकता है क्‍योंकि वहीं से ब्रह्मांड का विस्‍तार आरंभ होता है।
ब्रह्मांड के विस्‍तार पर ही हाकिंग स्रष्‍टा या ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर सवाल उठाते हैं कि माना कि ब्रह्मांड का कोई स्रष्‍टा हो पर चूंकि ब्रह्मांड लगातार फैल रहाहै तो कहां किस बिंदू पर उसके काम को पूरा हुआ माना जाए...। स्रष्‍टा के साथ विज्ञान की भी सीमा बताते हाकिंग कहते हैं कि - इसका अस्तित्‍व केवल हमारे मस्तिष्‍क में होता है। उनके अनुसार कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत श्रेणियों के प्रेक्षणों के सही आकलन पर निर्भर करता है और उसमें स्‍वेच्‍छाचारिता जितनी ही कम होगी वह उतना ही वैज्ञानिक होगा। दूसरे कि वह सिद्धांत भविष्‍य की कहां तक निश्चित भविष्‍यवाणी करता है इस पर उसकी आयु निर्भर करती है। वे बतलाते हैं कि कोई भी भौतिक सिद्धांत एक अस्‍थायी परिकल्‍पना होता है जिसे कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। किसी भी मान्‍य सिद्धांत के आधार पर की गई भविष्‍यवाणियां जब-तक सही साबित होती हैं उसकी वैज्ञानिकता बरकरार रहती है पर अगर कभी एक भी नया प्रेक्षण उसके प्रतिकूल पड़ता है तो हमें वह सिद्धांत त्‍यागना पड़ता है। हां प्रेक्षक की क्षमता पर भी हम सदा सवाल उठा सकते हैं।

ब्रह्मांड के बारे में कोई एक तय सिद्धांत नहीं - - -

हाकिंग स्‍वीकारते हैं कि ब्रह्मांड के बारे में कोई एक तय सिद्धांत बनाना कठिन है। इसलिए हम उसका खंड-खंड ही अध्‍ययन कर पाते हैं। हालांकि विज्ञान का यह तरीका एकदम गलत है पर अब-तक की सारी वैज्ञानिक प्रगति इसी तरीके से संभव हुई है। वे कहते हैं कि व्‍यवहार में अधिकांश नया अभिकल्पित सिद्धांत किसी पूर्व सिद्धांत का विस्‍तार होता है। दरअसल समय का संक्षिप्‍त‍ि इतिहास लिखते समय उन्‍होंने विज्ञान का इतिहास भी लिख डाला है और इस रूढि को तोड़ा है कि वैज्ञानिक खोज व्‍यक्ति के निजी प्रयासों और सनकभरी खोजों का परिणाम मात्र होते हैं। वे स्‍थापित करते हैं कि विज्ञान निजी प्रयासों और सनकभरी खोजों का नहीं , खंड-खंड में ही पर एक दूसरे से जुड़े और पूरक प्रयासों का नतीजा होता है।
इतिहास और दर्शन की तरह विज्ञान की भी रूढियां होती हैं। जो नयी खोजों से टूटती रहती हैं। हाकिंग ने पहली बार विज्ञान को मनुष्‍य की जिज्ञासा और उसके दर्शन , इतिहास संबंधी अभिरूचियों से जोड़ा है। इससे पहले आइंस्‍टाइन ने भी ऐसा किया था। आइंस्‍टाइन ने समाजवाद और गांधीवाद पर भी अपना दृष्टिकोण जाहिर किया था। इस तरह हाकिंग विज्ञान के इतिहास में आइंस्‍टीन की अगली कड़ी हैं। इस तरह हाकिंग विज्ञान की उस धारा को आगे बढाते हैं जो विज्ञान को सनक से जोड़कर धर्म को उसकी राह में अवरोध खड़ा करने की छूट नहीं देता है। आइंस्‍टीन के विरूद्ध उनके समय में सौ लेखकों ने मिलकर एक किताब लिखी थी , जिसके बारे में आइंस्‍टीन का जवाब था कि - यदि मैं गलत होता तो मेरे लिए एक ही काफी होता।
हाकिंग ने अपनी पुस्‍तक में उपसंहार के बाद आइंस्‍टाइन, गैलीलियों, न्‍यूटन आदि की अति संक्षिप्‍त और रोचक चर्चा भी की है। ये तीनों अलग-अलग विज्ञान की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्‍व करते हैं। तीनों में गैलीलियो जहां धर्मभीरू हैं न्‍यूटन तानाशाह हैं तो वहीं आइंस्‍टाइन खरी बोलने वाले हैं। हाकिंग न्‍यूटन के प्रति एक हद तक अपनी नापसंदगी भी दिखलाते हैं। न्‍यूटन की तानाशाही को बाद में एक सनक के रूप में प्रचारित किया गया।
मीडिया में हाकिंग की चर्चा उनकी विकलांगता और कंम्‍पयूटर के चमत्‍कारों को लेकर है जो उनसे चिपका है। उनकी चेतना की चर्चा कम हाती है जो हाकिंग को हाकिंग बनाती है। यह हमारी मानसिक विकलांगता भी है कि हम कोई भी चर्चा चमत्‍कारों और उनकी दयनीयता से अलग हटकर नहीं कर पाते। क्‍येांकि चमत्‍कारेां को कभी भी दैवीय एंगल दिया जा सकता है और चूं-चूं करती दया भी इसमें सहायक होती है। जबकि हाकिंग पहली बार विज्ञान को ऐतिहासिक और सुसंब्‍द्धता प्रदान कर धर्म के विरूद्ध विज्ञान की पिछली चुनौतियों को तीखा करते हुए उसे एक सुचिंतित आधार प्रदान करते हैं।

योग्‍यता वस्‍तुत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना है - - -

जीवन जगत के सवालों को हम कहां तक हल कर सकते हैं का जवाब देते हुए हाकिंग अपना जवाब डार्विन के प्राकृतिक चयन पर आधारित करते हुए उस आगे बढाते हैं। डार्विन का कहना है कि - जीवन की विभिन्‍नताएं जाहिर करती हैं कि कुछ लोग:प्रजाति अन्‍य से ज्‍यादा योग्‍य है। इस योग्‍यता को पहले ताकत के रूप में देखा जाता था इसलिए इसे - वीर भोग्‍या वसुंधरा - कहा जाता था और इसे आलोचित भी किया जाता था। पर हाकिंग ने यह कहकर इसे आगे बढाया कि - योग्‍यता वस्‍तुत: वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना है। इस तरह जो मानव समूह वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता गया वह उत्‍तरजीवितता के इस संघर्ष में आगे बढा। यहां पर वे विज्ञान की ध्‍वंसात्‍मक शक्ति की ओर भी ईशारा करते हैं। और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को गलत तरीके से लागू करने से ब्रह्मांड के मनुष्‍यों-जीवों सहित विनाश की संभावना से भी इनकार नहीं करते। दरअसल ऐसा कहते हुए वे विज्ञान के रूढि बनने की ईशारा करते हुए उससे बचने की बात करते हैं।
डार्विन को खारिज करते हुए हिन्‍दी के कवि निराला लिखते हैं- योग्‍य जन जीता है , पश्चिम की उक्ति नहीं गीता है गीता है। हाकिंग के हिसाब से ऐसी रूढियां खतरनाक हो सकती हैं। गीता में विज्ञान रहा होगा पर आज अगर विज्ञान विकास के नये सोपान पर जा चुका है तो चाहे वह पश्चिम में हो या पूरब में हमें गीता काल के विज्ञान पर नहीं अटके रहना चाहिए। वर्ना हम नष्‍ट हो जाएंगे।
हाकिंग की किताब अंतरद्वंद्वों को जबरदस्‍त ढंग से उभारती है पर पाठक पर अपना कोई मत थोपने से भी बचती है। उसे वह अपना पक्ष चुनने की स्‍वतंत्रता देती है। वह पक्षों के खतरे से भी उन्‍हें अवगत कराती चलती है। वे इस जिज्ञासा को बल प्रदान करती चलती हैं कि हम कभी ना कभी जीवन-जगत के प्रश्‍नों का हल तलाश कर लेंगे। पर वह काल कल आएगा या कई प्रकाश वर्ष दूर होगा इसकी घोषणा से भी बचते हैं। जैसे जीनोम की खोज पर कुछ लोग बवेला मचा रहे हैं कि अब दुनिया से जैसे गैरबराबरी मिट जाएगी। चूंकि सबकी जैविक बनावट निकट की है , पर हमें गैरबराबरी जमीन पर मिटानी होगी , खोजों से बराबरी साबित कर देने से बराबरी नहीं आने वाली।

संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है - - -

हाकिंग संयोगों की सत्‍ता पर विशेष जोर देते हैं। इस सत्‍ता को पुष्‍ट करने वाले‍ विज्ञान के क्‍वांटम सिद्धांत और अनिश्चितता के सिद्धांत को वह विश्‍व की आधारभूत संपत्ति मानते हैं। अनिश्चितता का सिद्धांत बीसवीं सदी के जर्मन वैज्ञानिक वर्नर हाइजेनवर्ग की खोजों पर टिका है। उनकी खोजों का आधार यह है कि - किसी भी कण के वेग और उसकी स्थिति को आप एक साथ शुद्ध-शुद्ध नहीं नाप सकते। और अगर एक कण की स्थिति को आप नहीं नाप सकते तो ब्रह्मांड का आकलन ठीक-ठीक कैसे किया जा सकता है। आइंस्‍टाइन ने भी क्‍वांटम के सिद्धांत में सापेक्षता का सिद्धांत जोड़ और इसके लिए ही उन्‍हें नोबेल से नवाजा गया था। यूं आइंस्‍टाइन नहीं स्‍वीकार सके कि ब्रह्मांड संयोगों से नियंत्रित होता है,इसीलिए आइंस्‍टाइन का सिद्धंत परंपरिक कहलाया।
दरअसल संयोगों की सत्‍ता ईश्‍वरीय सत्‍ता का निषेध करती है। जहां सब-कुछ ईश्‍वर की मर्जी से पहले से तय होता है। आइंस्‍टाइन का प्रसिद्ध कथन है- ईश्‍वर पासा नहीं फेंकता।
ज‍बकि हाइजेनवर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत इस पर निर्भर है कि कण कुछ हद तक तरंगों की तरह व्‍यवहार करते हैं,उनकी कोई निश्चित स्थिति नहीं होती।
अधिकांश वैज्ञानिक अक्‍सर अपने पिछले आकलनों को ही आगे नकारने लगते हैं। हाकिंग से आइंस्‍टाइन तक सबका यही हाल है और यह भैतिक विज्ञान की प्रामाणिकता पर एक प्रश्‍न चिन्‍ह है। एक तरफ न्‍यूटन जैसे वैज्ञानिक हैं जो अपने विपरीत पड़ने वाले किसी भी शोध और शोधक को आगे आने से रोकने में सारी ताकत लगा देते हैं। उनके लिए अपना सच अंतिम होता है दूसरी ओर हाकिंग और आइंस्‍टाइन जैसे ढुल-मुल लोग हैं।
कृष्‍णविवर काले नहीं श्‍वेत तप्‍त होते हैं। जो कृष्‍णविवर जितना छोटा होता है वह उतना ही ज्‍यादा चमकता है और उनका पता लगाना आसान होता है। हाकिंग का कहना है कि एक छोटा कृष्‍णविवर पृथ्‍वी के पास होतो उसके सामने एक विशाल द्रव्‍यराशि को रखकर कृष्‍णविवर को धरती पर उसी तरह खींचा जा सकता है जैसे एक गदहे को गाजर दिखाकर। और उसे पृथ्‍वी के चारेां ओर की कक्षा में स्‍थापित किया जा सकता है। पर आगे हाकिंग अपनी इस कल्‍पना या परिकल्‍पना को खुद अव्‍यावहारिक बताते हैं और कहते हैं कि अपनी आयु पूरी करने पर कृष्‍ण विवरों का विस्‍फोट होता है।

टिप्‍पणियां-


दिनेशराय द्विवेदी ने कहा… तारे क्या चीज हैं। कुछ भी स्थिर नहीं है। स्थिर हो तो काल जई नहीं हो जाएगा। जो आज तक कोई नहीं हुआ।June 23, 2008 2:41 AM

Pallavi Trivedi ने कहा… ham to aaj tak kauparnikas ko scientist hi samajhte aaye the..pahli baar pata chala ki wah ek purohit tha!June 23, 2008 5:09 AM

Udan Tashtari ने कहा… पूरा सच समझने के लिए अगले भाग का इन्तजार कर रहे हैं.दिनेशराय द्विवेदी ने कहा… बहुत दिलचस्प पुस्तक है। कोई दस वर्ष पहले पढ़ी। फिर मेरी प्रति कोई पढ़ने को ले गया लौट कर आज तक नहीं आई। विश्वोत्पत्ति के सिद्धान्त ही हो सकते हैं। नियम नहीं, और सिद्धान्त होंगे तो अनेक होंगे। हॉकिन्स ने यह भी कहा है कि पहले वैज्ञानिकों को आगे बढ़ने के लिए दार्शनिक रास्ता सुझाते थे। वैज्ञानिक उन की अवधारणाओं को पुष्ट या खारिज करते थे। लेकिन अब लगता है दार्शनिक चुक गए हैं और विज्ञान को आगे का मार्ग स्वयं तलाशना पड़ रहा है। आप लिखिए। इस पुस्तक के बारे में लिखा जाना और पढ़ा जाना जरूरी है। वैसे अंग्रेजी में यह ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। मेरे पास उस की एक प्रति सुरक्षित है।August 9, 2008 10:10 PM
उन्मुक्त ने कहा… मैंने यह पुस्तक अंग्रेजी में पढ़ी है। हिन्दी में भी प्रकाशित हो गयी जानकर अच्छा लगा।पर यह उतनी पसन्द नहीं आयी जितना इसका नाम है।August 10, 2008 1:17 AM

संगीता पुरी ने कहा… जब से पंडितों, पुरोहितों ने परंपरागत व्यवसाय के रूप में धर्म और ज्ञान को स्थान दे दिया ,स्थिति विकट होती चली गयी। वैज्ञानिकों का काम बढ़ता चला गया।August 10, 2008 1:33 AM

Umesh ने कहा… जितना हम जानते है, उससे अनंत गुणा ऐसा है जो हम नही जानते । स्टीफन हाकिंगस की पुस्तक मे बहुत सी बातें दिमाग के उपर से निकल जाती है । हम खुद को बुद्धीजीवी दिखाने के लिए भी ईस प्रकार की पुस्तकों की प्रशंसा करते है । नेपाली मे एक पुस्तक पढी थी, " माया तथा लिला ", यह पुस्तक बेजोड है । वेदांत तथा क्वांटम थ्योरी के साम्य तथा ब्रहमाण्ड उत्पती के सिद्ध्न्तो पर से बखुबी से पर्दा उठाने का प्रयास करती है यह पुस्तक । लेखक का नाम शायद अरुण कु सुबेदी है ।August 10, 2008 6:49 AM

हकीम जी ने कहा… हॉकिन्स के विचारों की मैं बहुत कद्र करता हूँ ..पुस्तक में लेखक भी अपनी ही बात पर अडा होना चाह रहा है ..ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती कैसे हुई .. इस विषय पर दुनीया में कई सिद्धांत विभिन्न कालो में प्रतिपादित होते रहे . कई प्राचीन सिद्धांतो कों नवीन रूप दिया गया तो कई प्राचीन सिन्द्धान्तो का निरूपण किया गया ..बफ़्फन कांट , चैम्बरलैंड, मोलटन, जींस ,जेफ्रीज, नॉर्मन, हेनरी,रोजगन, शिमन्ड,वेज्सेकर और भी ना जाने कीतने ही विद्वानों ने समय समय पर ब्रामांड के बारे में जानने की कोशीश की ,, .. मुआफ करना दोस्त अब जो मैं बात कहने जा रहा हूँ शायद वो आपके दील के संवेदनशील भाग से गुजरे...हिन्दुस्तान में कभी भी हमने धर्म से अलग होकर नहीं सोचा तर्क की कसौटी भारत में बेअसर है ..और ना ही हम लोगो ने दर्शन और इतिहास से बहार नीकल कर सोचा ..एक इतिहास कार या दार्शनिक ब्रामांड के बारे में क्या बता सकता है सिवाय दार्शनिकता के..जरुरत है उन नई तकनीको और ज्ञान की जो इस बारे में हमें सच्चाई कों बताये अपने सिद्धांतो से तर्क का निरूपण करे...मुर्ख व्यक्ती तो हमेशा येही कहता रहेगा की तो फिर तारे कहा से बने , इस संसार कों कौन चला रहा है ,सूरज किसने बनाया , वे कारण नहीं खोजते ..खासतौर से हिन्दुस्तान में अगर आप इन चीजो के सही कारण खोजोगे तो वे आपको धर्म का विरोधी करार कर देंगे...

शनिवार, 3 नवंबर 2018

अभी तूने वह कविता कहां लिखी है जानेमन - अरूणा राय


अभी तूने वह कविता कहां लिखी है जानेमन
मैंने कहां पढी है वह कविता
अभी तो तूने मेरी आंखें लिखीं हैं, होंठ लिखे हैं
कंधे लिखे हैं उठान लिए
और मेरी सुरीली आवाज लिखी है

पर मेरी रूह फना करते
उस अश्‍लील शोर की बाबत कहां लिखा कुछ तूने
जो मेरे सरकारी जिरह-बख्‍तर के बावजूद
मुझे अंधेरे बंद कमरे में
एक झूठी तस्‍सलीबख्‍श नींद में गर्क रखती है

अभी तो बस सुरमयी आंखें लिखीं हैं तूने
उनमें थक्‍कों में जमते दिन ब दिन
जिबह किए जाते मेरे खाबों का रक्‍त
कहां लिखा है तूने

अभी तो बस तारीफ की है
मेरे तुकों की लय पर प्रकट किया है विस्‍मय
पर वह क्षय कहां लिखा है
जो मेरी निगाहों से उठती स्‍वर लहरियों को
बारहा जज्‍ब किए जा रहा है

अभी तो बस कमनीयता लिखी है तूने मेरी
नाजुकी लिखी है लबों की
वह बांकपन कहां लिखा है तूने
जिसने हजारों को पीछे छोड़ा है
और फिर भी जिसके नाखून और सींग
नहीं उगे हैं

अभी तो बस
रंगीन परदों, तकिए के गिलाफ और क्रोसिए की
कढाई का जिक्र किया है तूने
मेरे जीवन की लड़ाई और चढाई का जिक्र
तो बाकी है अभी...

अभी तूने वह कविता लिखनी है जानेमन ...

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

कयामत का इंतिजार

चैट पर एक दिन उसने लिखा कि मुझसे मिलने के लिए आपको करना पड़ेगा - कयामत का इंतिजार।
फिर तो अगली सुबह मैं निकल पड़ा कयामत की खोज में। और राह में जो भी गिरजा, महजिद और शिवाला पड़ा सब में झुक-झुक के अरदास कर डाला कि जल्‍दी कहीं से बुलवा दे कयामत को और करने लगा उसका इंतिजार कि तभी मन की बेचैनी ने जगूड़ी की कुछ कविता पंक्तियां याद दिला दीं, जिसका निहितार्थ था कि इंतजार का एक तरीका यह भी है कि जिसका इंतजार हो उसके आने की दिशा में चलते हुए इंतिजार किया जाए।
सो चल पड़ा बस अड्डे की ओर। वहां पूछ-ताछ काउंटर पर जब पूछा कि कब तक आएगी कयामत की बस। तो पास खड़े एक डिरायवर ने मुझे निहारते हुए कहा-यूपी-बिहार में बस को कोई टेम नहीं होता। जा उधर लोहे की बेंच पर बैठ मूंगफली फोड़। आ ही जाएगी कयामत यूं ज्‍यादा हलतलबी हो तो सामने पुलिस थाने में जाकर पता कर आ-बड़े काम होते हैं कयामत को,तेरी तरा निठल्‍ली तो है नहीं वो, सारे रास्‍ते उसे किधर-किधर किया किया ढाना होता है कुछ पता भी है।
तब सड़क फलांगता मैं बढ चला सामने और सहमता हुआ थाने में घुसा और सामने पड़ने वाले पहले सिपाहीनुमा जीव को संबोधित करते हुए पूछा-कहां हैं दारोगा साहिब। इतना सुनकर सिपाहीजीवा ने मुझे उपर से नीचे तक खंगाला और फिर किसी काम का ना पाकर मूंछ तवाता बोला-अरे मझउंआ के चोन्‍हर हवे का। भेख-भूषा से त पत्‍तरकार बुझाते हो। पर बाणी से त बुझाता है कि सीधे गंगा किनारे से कहीं से चले आ रहे हो। हिन्‍दी त बुझाते होगा उपर पढी लियो का लीखल है। मैंने देखा तो वहां पुलिस चौकी लिखा था। तब उसने हंसते हुए कहा चल जा अगवा दस बांस वोहीं थाना दिख जाएगा और पढ लेना नहीं त सामनवा इस्‍कूल में जाके ना ढूढने लगना दारोगा जी को। फिर बुदबुदाया-कि सब बकलोल इयूपिए में आ गया बुझाता है लगता है बिहार का पत्‍ता साफे कर देगा सभ।
तो बताई दिशा में दुलकता मैं पहुंचा थाने। तो देखा कि पेड़ के नीचे चौपड़ जमी है। और समाजवाद जारी है जोर-शोर से। सिपाही,हवालदार और मुंशी सब एक ही घाट पर बैठे दिखे। झिझकता हुआ मैं आगे बढ़ा और पूछा-दारोगा जी हथिन। तो मंशी नुमा जीव ने चश्‍मा सरियाते हुए कहा- कुछ कामो बताओगे कि बस दारोगा जी ए से ...। दारोगा जी अभी देहाथ गए हैं वसूली में। तब मैंने धीरे से कहा दरअसल मुझे पता करना है कयामत का। अभी तक आयी नहीं। सुबह से दोपहर होने को आई।
एतना सुनना था कि पूरे चौपड़ ने दांत चियार दिया। ल एगो आउर भकलोल के देख, ससुर कयामत ढूंढ रहे हैं। अरे ससुर के नाती हमलोग का तुमको कयामत से कम बुझा रहे हैं। चल फूट इहां से। जेकरा देख ससुरा कयामते के इंतिजार में है। हमारा त सारा बिजनेसे चौपट कर देगा इ बनभाकुर सभ। तभी थाने की खोली से निसपेटर साहब ने गड़बड़ी के अंदेशे से आवाज दी-का है रे चंदनवा। इतना सुनते ही झोलानुमा एक सिपाही ने अटेंशन बजाते हुए कहा- जी हजूर,कोई पतरकार-जासूस बुझाता है,कयामत जी का पता करने आया है। यह सुनकर निसपेटर बोला-भेजो उन्‍हें।
अब मेरी हिम्‍मत बढ़ी तो थोड़ा तनता हुआ भीतर गया। कुर्सी पर बिठाते हुए निसपेटर ने पूछा-किस अखबार से हो आप। आप तो जानते ही हैं - कयामत का क्‍या कहना, कहीं मर-मार रही होगी ससुरी। आप भले आदमी लगते हो घर लौट जा...। अब कयामत कब संझा-पराती गाएगी इसका कोई अंदेशा नहीं हमें। देर किया तो रात हो जाएगी और बस अड्डे पर रात बितानी पड़ेगी तो हमारा भी सिरदर्द ।सुबह तक पता चला कि आपका ही संझा-पराती गवा गया। अब आप ठहरे पतरकार तो आप तो कष्‍ट से मुक्ति पा जाएंगे सदा के लिए पर आपको फूंकने में हमारा थाने का डिह बिक जाएगा। सात सौ रूपइवे मिलता है लाश जलाने का अब आप पत्रकार ठहरे तो आपको तो यमुना या हिंडन में दहाने में भी खतरे हैा कल को कोनो चील कौआ कुत्‍ता खींच लाया लाश को तो फिर हमारी मुसीबते है।
वइसे हमारा कंसेप्‍ट इ है सांपो मर जाए आउर लठियो नहीं टूटे। त जाइए घर। हां अपना मोबाइल नंबरवा छोड़े जाइए। कयामत के आने पर बात करा देंगे।
मन मसोस कर मैं बस अड्डे लौटा तो लगा कि यहां तो कयामत आकर जा चुकी है।हर तरफ मलबा बिखरा पड़ा था।जिसमें भिड़े कुत्ते-कौए संध्‍या-सूर्य नमस्‍कार में लगे थे। तभी मेरी निगाह बस स्‍टैंड के सामने खड़ी बहुमंजिली विशाल इमारत पर गई जिसके पीछे से निस्‍तेज चांद उभर रहा था अपनी मुर्दनी पसारता। मैंने सोचा क्‍या उस बिल्डिंग के लिए कयामत नहीं है।वह इस झोपड़पट्टी नुमा बसस्‍टैंड पर ही क्‍यों आती जाती है। तभी रात का अंदेशा हुआ तो घबरा कर मैंने सामने खुलती बस पकड़ ली।
अभी कुछ दूर निकला ही था थाने से कि फोन बजा- मैं कयामत बोल रही हूं। मैं हकलाया - कि इस तरह फोन पर आने की क्‍या हलतलबी थी। आप मेरे घर भी आ सकती थीं। देखिए निसपेटर साहब ने बताया कि आप भले इंसान लग रहे थे-तेा सोचा कि आपके घर जाकर आपको क्‍येां बेघर करूं- आप सजे रहिए
आप घजे रहिए।
मैं रूंआसा होता बोला - पर कयामत जी , मुझे तेा आपसे इश्‍क हो गया है। इतना सुनना था कि कयामत जी बिगड़ कर फराठी हो गईं। हेा गया है इश्‍क न तो जब मेरा हुश्‍न देखोगे तो फिर चचा मीर की तरह गाते फिरोगो- गोर किस दिलजले की है ये फलक...।

2008 में लिखित

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...कुमार मुकुल और अच्‍युतानंद मिश्र की बातचीत

कविता में आपका आना किस तरह हुआ ?

अध्ययन की जड. स्थितियों से उबिया कर मैं कविता में आ गया। पिता चाहते थे कि डाॅक्टर बनूं, राममोहन राय सेमिनरी में तीन महीने के कोचिंग के लिए मुझे भेजा गया था। वहां रोज ढड्डर का ढड्डर नोट्स लिखवाया जाता था कि आप उसका रट्टा मारें,तो तीन महीना पूरा होते ना होते मैं इस तरह की पढाई से उब गया। पिता ने समझाया कि कोचिंग पूरा कर लो, भले मेडिकल में ना बैठना। पर मन उचट गया सो मैं बोरिया-बिस्तर ले वापस आ गया। उस दौरान मेरे मिजाज में विचित्र बदलाव आ रहे थे। कोचिंग के दौरान मेरे मन में विचित्र कल्पनाएं जगने लगीं कि इस पढाई से अच्छा हो कि पटना में जाकर गुलाबों की खेती करूं। शाम गांधी मैदान में जा बैठता और चांद-तारों को निहारता रहता, दरअसल पिछले दो सालों की पढाई के दौरान मैं ज्यादातर गांव में रहा सो नदी,पेड,चांद,तारों के अलावे मुझे कुछ सूझता नहीं था। सो सहरसा जाकर वाकई सालों मैंने गुलाब के ढेरों पौधे उगाए। इस बीच जो मेरे साथी बने वे तीनों कविताएं करते थे। देखा-देखी मैं भी तुकें जोडने लगा, हालांकि आगे उनमें से कोई कविता के क्षेत्र में टिका ना रहा।

अप्रत्यक्ष रूप से पिता की भी भूमिका मेरे कवि बनने में है और मां की भी। मेरे पिता ने असहमति के बावजूद मेरे दो आरंभिक कविता संकलन छपवाए एक पर उन्होंने टिप्पणी भी लिखी। उनकी मेज पर 'मुक्तिबोध','नामवर सिंह','रामविलास शर्मा' आदि की किताबें पडी रहती थीं,अंग्रेजी के अध्यापक होने के नाते 'शेक्सपीयर' आदि को तो वे रटवाते ही रहते थे। सहरसा कोशी प्रोजेक्ट के सचिव जो पिता के मित्र थे घर के सामने रहते थे। उन्हें हम लोग सेक्रेटरी सहब कहते थे। वे अपने टेप पर 'बच्चन' की मधुशाला सुनाते थे तो आंरभिक कविताएं मैं उन्हें ही लिखकर पढाता था और वे सराहते थकते ना थे। उनमें से कोई कविता कहीं छपी नहीं या उस लायक नहीं थी पर उनकी हौसला अफजाई ने भी बढावा दिया। और मां की लाजवाब करने वाली मुहावरेबाजी के बारे में क्या कहना।

फिर मेरे पहले कविता संकलन पर 1987 में जिस तरह उस समय के दिग्गजों ''प्रभाकर माचवे'',''विष्णु प्रभाकर'',कवि ''रामविलास शर्मा'' आदि ने पत्र लिखकर उत्साहित किया उसने भी मेरा मिजाज बना दिया। माचवे जी ने तो प्रूफ की गलतियां ,पुस्तक पर अपनी राय और प्रकाशनार्थ सम्मति आदि अलग अलग लिखे थे। पर उस समय समीक्षा आदि का महात्तम मुझे पता नहीं था सो माचवे की वह सम्मति कहीं छपी नहीं। हां, ''मुकेश प्रत्यूष'' ने उस समय हिन्दुस्तान में एक समीक्षा लिख दी थी। मैं उसी से गदगद था।

बतौर कवि कविता के वर्तमान परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?

एक तरह की धुंध है,हालांकि बडे पैमाने पर नये कवि लिख रहे हैं पर उस परिवर्तनकामी चेतना का अभाव दिखता है जो कविता के मानी होते हैं। पर हमारे मुल्क में और इस महाद्वीप में अभी भी जिस तरह अशिक्षा और जहालत का बोलबाला है, जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे कविता का घेरा बढेगा। बाकी जमात को छोड कर खुद कवि हो जाने,होते चले जाने के कोई मानी नहीं हैं।

हिन्दी कविता में दिल्ली के कवियों की केंद्रियता के क्या खतरे हैं ?

वही जो दिल्ली केन्द्रित सत्ता के हैं , पर कोई कवि दिल्ली का नहीं होता जैसे राजनीतिज्ञ दिल्ली के नहीं होते। एक केन्द्रियता तो रहेगी ही उसे बार बार विकेन्द्रित करने की जरूरत होगी।

आठवें दशक के बाद जो पीढी आयी उसने कविता के कथ्य और शिल्प को किन अर्थों में बदला ?

मैं इस तरह दशकों में कविता को बांट कर नहीं देखता। यह बंटवारा इसलिए होता है कि उस छोटे से घेरे में आप महारथी दिखें। काहे का महारथी जब आपकी आधी से ज्यादा आबादी जहालत के घेरे में है, पहले उन्हें शिक्षित कर लें फिर उनके कवि होने का दावा और बंटवारा करें।

नहीं, मैं जानना चाहता था कि नवें दशक के कवि 'कुमार अंबुज','एकांत श्रीवास्तव','मदन कश्यप','विमल कुमार' आदि ने आठवें दशक के बरक्स कविता में कौन से नये बदलाव लाए ? ये आपसे ठीक पहले के कवि हैं।

इनमें मदन कश्यप के अलावे बाकी ने खुद को अपने समय की राजनीति से बचाव की मुद्रा में रखा। प्रकृति का वर्णन या अंतरमन के प्रसंगों को कविता में लाना जरूरी है पर यह हमें अपने समय की उठापटक से दूर करने का वायस बने यह जरूरी नहीं। विमल कुमार ने अपने पहले संग्रह के बाद राजनीति से अपना जुडाव दिखाने की कोशिश की पर वह जमीनी नहीं बन पाया।(अब 2018 में विमल जी अपने समय के मुकाबिल तनकर खडे दिखते हैं)

आज कुछ बडे प्रकाशक थोक भाव से कवियों को छाप रहे हैं कथाकारों और उपन्यासकारों को छाप रहे हैं, जैसे वे उनके दिशा-निर्देशक हों। इस तरह पीढियां बनाने के प्रकाशन की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?

देखिए , खुशफहमियां पालने का हक सबको है, जब नये रचनाकार ही खुशफहमियों से बाहर आने को तैयार ना हों तो प्रकाशक को क्या पडी है , वह उन्हें निर्देशित करेगा ही। वह उसके व्यापर का हिस्सा है। बाकी पीढी-पीढा प्रकाशक क्या उभारेंगे, वे अपनी गांठ सीधी करें इससे ज्यादा की उन्हें फुरसत कहां है...

''उर्वर प्रदेश'' पर जिस तरह से विवाद उठा है,उससे वर्तमान कविता और कवियों के बीच के अंतरविरोधों पर किस तरह रोशनी पडती है ?

यह एक राजनीतिक विवाद है। इसका रचनात्मकता से कोई लेना देना नहीं। पुरस्कार कोई भविष्य की गांरटी कैसे दे सकते हैं। हर राजनीतिक तमाशा एक सीमा के बाद चूकता है। उर्वर प्रदेश भी चूका अब जाकर। इस प्रदेश से बाहर हमेशा ज्यादा उर्वर कवि रहे।

आपने कविता के अतिरिक्त गद्य भी लिखा है...एक कवि के लिए गद्य लेखन को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

गद्य कविता में फार्मेट का अंतर है , बातें तो वही होती हैं। शमशेर ने कहा है ना कि 'बात बोलेगी' , तो कविता हो या गद्य ,बातों को बोलना चाहिए, ऐसा ना हो कि उनकी वकालत की जरूरत पडे। हां,गद्य लिखने से कवि अपनी सत्ता को जान पाता है कि वह कितनी ठोस है।

फिलहाल आप किसे बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं,कविता या आलोचना को ?

संभावना या बात जहां होगी वह बडी हो जाएगी। अपने आप में कविता या आलोचना से क्या संभावना ...!

पहले के किन कवियों ने आपके काव्य व्यक्तित्व और लेखन पर प्रभाव डाला है ?

अलग-अलग समय में अलग लोगों ने प्रभावित किया। जैसे 1987 में जब मेरा पहला कविता संकलन पिता ने छपवाया था तब मैं ''केदारनाथ सिंह'' के प्रभाव में था। उनके असर में उस संकलन में एक कविता भी लिखी थी मैंने जो संकलन का शीर्षक भी था,''समुद्र के आंसू''। आरंभ में 'तुलसी' और 'दिनकर','बच्चन' का प्रभाव था। विकास के साथ प्रभावित करने वाले कवि बदलते गये। केदारजी की कविता आज वह प्रभाव नहीं छोडती। ना दिनकर,बच्चन ही। लंबे समय से मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन का प्रभाव है। मुक्तिबोध,शमशेर का गद्य और कविता एक ही तरह से प्रभावित करते हैं और एक हद तक रघुवीर सहाय भी। टैगोर की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं वैसे रिल्के के पत्रों का सर्वाधिक प्रभाव खुद पर अनुभव किया।

प्रभाव से परे मेरे ''प्रिय कवि'' अलग हैं, आलोक धन्वा,विष्णु नागर,विष्णु खरे,ऋतुराज,लीलाधर मंडलोई,मंगलेश डबराल,विजय कुमार,असद जैदी,मदन कश्यप,अनामिका,सविता सिंह,निर्मला पुतुल,वंदना देवेंद्र। बांग्ला कवि नवारूण भटटाचार्य बहुत प्रिय हैं मुझे। अपने प्रिय कवियों की कविताएं मैं लोगों केा बारहा सुनाता हूं।

लंबी कविताओं के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ?

कविताओं को छोटी और लंबी में बांटना नहीं चाहता मैं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं। बस संगठन का फर्क है। वरना लंबी कविता भी आप एक सांस में पढ जाएं और छोटी भी आपको उबा दे। कुछ लंबी कविताओं ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोडा, जैसे आलोक धन्‍वा की ब्रूनो की बेटियां,सफेद रात,लीलाधर जगूडी की मंदिर लेन,लीलाधर मंडलोई की अमर कोली और कुमारेन्‍द्र पारसनाथ सिंह की लंबी कविताएं।

नयों में किनसे उम्मीद बंधती है ?

बहुत लोग बहुत तरह से लिख रहे हैं,उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...

 Thursday, July 8, 2010, को एक ब्‍लॉग पर पोस्‍टेड


बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

'समुद्र के आंसू' व 'सभ्‍यता और जीवन'

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - रामविलास शर्मा {कवि}

मध्‍यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ,इन्‍दौर
रामविलास शर्मा
अध्‍यक्ष
27-4-88

प्रिय भाई मुकुल
आपका पत्र मिला। समुद्र के आंसू की प्रति भी। आद्यांत पढ़ गया हूं। आपके मन में भावनाओं का ज्‍वार है और परिवेश के प्रति सतर्क दृष्ठि भी। सामाजिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की एक लहर भी इन कविताओं में यत्र-तत्र विद्यमान है।
प्रकृति ने आपके मन को छुआ है और उसकी सहज अभिव्‍यक्ति भी यहां मौजूद है।
आप एक संभावनाशील कवि हैं। मेरी बधाई स्‍वीकारें।
शेष शुभ।
सस्‍नेह
रामविलास शर्मा

गीतांजलि
396,तिलक नगर,इन्‍दौर-452001/म.प्र.

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - विष्‍णु प्रभाकर

प्रिय बन्‍धु,
आशा करता हूं आप स्‍वस्‍थ और प्रसन्‍न हैं। आपका पत्र मिला और पुस्‍तक भी। इधर मेरा स्‍वास्‍थ्‍य बहुत खराब चल रहा है आंखों में मोतिया बिन्‍द उतर रहा है इसलिए पढ़ना बहुत कष्‍टदायी हो गया है फिर भी आपकी कविताएं इधर उधर से पढ़ गया हूं। आपने आज के यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है। आपका उद्देश्‍य बहुत शुभ है और आपकी भाषा में भावों को अभिव्‍य‍िक्ति देने की शक्ति भी है। मुझे विश्‍वास है कि आपका भविष्‍य उज्‍जवल है।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्‍वीकार करें।
शेष शुभ
स्‍नेही
विष्‍णु प्रभाकर
28/4/88
818,कुण्‍डेवालान,अजमेरी गेट, दिल्‍ली-110006,फोन-733506

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - राजेन्‍द्र यादव
12/12/87
प्रिय अमरेन्‍द्र जी
आपका कविता संग्रह मिला। धन्‍यवाद। कविताओं में मेरी बहुत गति नहीं है,इसलिए अपनी राय को महत्‍वपर्ण नहीं मानता। अपने कुछ कवि मित्रों को दिखाकर उनकी प्रतिक्रिया जानने की प्रयास करूंगा।
आशा है , स्‍वस्‍थ सानंद हैं।
आपका
राजेन्‍द्र यादव

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - अरूण कमल

8/1/88
प्रिय मुकुल जी,
नमस्‍कार।
नये वर्ष की मंगलकामनाएं स्‍वीकार करें।
समुद्र के आंसू पुस्तिका मिली। आपके इस अनुग्रह के लिए हृदय से आभारी हूं। कविताएं मैंने पढ़ी हैं और कुछ पढ़ रहा हूं। खुशी की बात है कि आपने कविता से लौ लगायी है। इसे निरन्‍तर विकासमान रखें। कविता का क्षेत्र गहन कंटिल जटिल है-निरन्‍तर साधना से ही - होगी जय,होगी जय ।
नागार्जुन,शमशेर,त्रिलोचन,केदार,मुक्तिबोध के साथ पूर्वर्त्‍ती तथा बाद के कवियों की कविताएं पढ़ें तथा मनन करें। कविता जहां पहुंच चुकी है,हमें उसके आगे जाना है। अभी आपकी उम्र कम है, इसलिए सिर्फ सीखना ही सीखना है। वैसे, हर कवि को अंतिम क्षण तक सीखना ही है।
साथ साथ पढ़ाई पर भी ध्‍यान रखें। कवि को अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान भी होना चाहिए।
घर में सबको यथोचित।
शुभकामनाओं और प्‍यार सहित
आपका
अरूण कमल
मखनियां कुआं रोड,पटना-80004

समुद्र के आंसू - संकलन पर सम्‍मति - डॉ.प्रभाकर माचवे

एक दिन मैंने
पूछा समुद्र से
देखा होगा तूने, बहुत कुछ
आर्य, अरब, अंग्रेजों का
उत्‍थान-पतन
सिकन्‍दर की महानता
मौर्यों का शौर्य,रोम का गौरव
गए सब मिट, तू रहा शांत
अब,इस तरह क्‍यों घबड़ाने लगा है
अमेरिका , रूस के नाम से पसीना
क्‍यों बार-बार आने लगा है
मुक्ति सुनी होगी तूने, व्‍यक्ति की
बुद्ध,ईसा,रामकृष्‍ण
सब हुए मुक्‍त
देखो तो आदमी पहुंचा कहां
वो ढूंढ चुका है, युक्ति
मानवता की मुक्ति का
अरे, रे तुम तो घबड़ा गए
एक बार, इस धराधाम की भी
मुक्ति देख लो
अच्‍छा तुम भी मुक्‍त हो जाओगे
विराट शून्‍य की सत्‍ता से
एकाकार हो जाओगे
लो,तुम भी बच्‍चों सा रोने लगे
मैंने समझा था,केवल आदमी रोता है
तुम भी, अपना आपा इस तरह खोने !(समुद्र के आंसू - कवि‍ता)

1987 में जब यह कविता लिखी थी और मेरे पहले संकलन समुद्र के आंसू में छपी तब वरिष्‍ठ कवि केदारनाथ सिंह का काफी प्रभाव था मुझ पर, इस कविता पर भी उसे देखा जा सकता है। उस समय इस पुस्‍तक को पढकर कवि आलोचक प्रभाकर माचवे ने एक पत्र लिखा था जिसमें एक जगह जहां उन्‍होंने प्रूफ की भूलें लिखीं वहीं अन्‍य कविताओं पर आलोचनात्‍मक राय भी दी। एक प्रकाशनार्थ सम्‍मति भी अलग से लिख दी थी जो उस समय छपने-छपाने की बहुत जानकारी और रूचि के अभाव के चलते कहीं छपी नहीं थी जब कि संग्रह की एक समीक्षा तब पटना से निकलने वाले दैनिक हिंदुस्‍तान में कवि मुकेश प्रत्‍यूष ने लिखी थी।
प्रकाशनार्थ सम्‍मति
श्री अमरेन्‍द्र कुमार मुकुल का प्रथम कविता संग्रह समुद्र के आंसू श्री रंजन सूरिदेव तथा डॉ कुमार विमल की अनुशंसासहित प्रकाशित हुआ है। इसमें कवि के इक्‍यावन भावोद्गार हैं। इस संग्रह के अंतिम कवर पर छपी पंक्तियां सर्वोत्‍तम हैं - 
तुझे लगे
दुनिया में सत्‍य
सर्वत्र
हार रहा है
समझो
तेरे अंदर का
झूठ
तुझको ही
कहीं मार रहा है। (सच-झूठ)
युवा बेरोजगार,खबर,चुनाव,मेरा शहर,रोल,बेचारा ग्रेजुएट,अपना गांव,सवालात में यथार्थ और व्‍यंग का अच्‍छा सम्मिश्रण है।ये रचनाएं चुभती हैं।
कवि के अगले संग्रहों में और अच्‍छी कविताओं की आशा रहेगी।
कविता न केवल वक्‍तव्‍य हेाती है,न राजनैतिक टिप्‍पणी।
तत् त्‍वम् असि जैसी रचना से आशा बंधती है - प्रभाकर माचवे / नई दिल्‍ली / 3-1-88
मां सरस्‍‍वती

मां सरस्‍वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें
अज्ञान सारा दूर हो
और हम आगे बढ़ें
अंधकार के आकाश को
हम पारकर उपर उठें
अहंकार के इस पाश को
हम काट कर के मुक्‍त हों
क्रोध की अग्नि हमारी
शेष होकर राख हो
प्रेम की धारा मधुर
फिर से हृदय में बह चले
मां सरस्‍वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें!

मां सरस्‍वती - शुद्ध गद्य है - यह कविता कैसे हुई। एक प्रार्थना मात्र है। इसे गद्य की तरह पढ़ें। क्‍या गद्य को तोड़-तोड़कर मुद्रित कर देने से ही कविता हो जाती है मात्राएं भी सब पंक्तियों की एकसी नहीं हैं:15,13,14,12 - यह पहली चार पंक्तियों की मात्राएं हैं - छन्‍द भी ठीक नहीं - डॉ.प्रभाकर माचवे/3-1-88

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

लोहिया का जीवन एक मिसाल है

कुमार मुकुल से सुधीर सुमन की बातचीत

डाॅ. लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' नामक यह पुस्‍तक, सत्ता में मौजूद लोहियावादियों के सैद्धांतिक पतन और चरम अवसरवाद के विपरीत लोहिया को अपने देश की समाज, राजनीति और अर्थनीति में परिवर्तन चाहने वाले बुद्धिजीवी और नेता के रूप में हमारे सामने लाती है। आपने अपनी भूमिका में लिखा है कि आप राजनीति विज्ञान के छात्र रहे हैं और छात्र-जीवन में लोहिया की दो जीवनियां आपने पढ़ रखी थीं पर उनका दिमाग पर ऐसा असर नहीं हुआ था जो पुस्तक लिखने को प्रेरित करे। ऐसे में आपको लोहिया पर किताब लिखने का मौका मिला तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या हुई, कौन सी वे बातें थीं लोहिया की जिसने इस किताब को लिखने के दौरान आपके लेखक को प्रभावित किया ?
पहले जो कुछ पढा था वह सरसरी निगाह से पढा था फिर जिस तरह लोहिया के हिटलर की सभाओं में जाने को लेकर चीजें, बातें प्रचारित थीं उससे लोहिया से एक दूरी-सी लगती थी पर पुस्‍तक लिखने के दौरान जब उनके तमाम लेखन से साबका पडा तो जाना कि सच के कई दूसरे आयाम हैं... लोहिया जर्मनी पढाई के लिए गये थे और वहां होने वाली गतिविधियों में सक्रियता से हिस्‍सा लेते थे, वहां नाजी और कम्‍यूनिस्‍ट दोनों उनके मित्र थे, उनके नाजी मित्र ने जब उनहें भारत में जाकर नाजी दर्शन का प्रचार करने की सलाह दी तब उनका जवाब था – 'जर्मनी के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी देश में वंश और जाति की श्रेष्‍ठता को माननेवाला दर्शन शायद ही स्‍वीकृत होगा।' आगे हिटलर के प्रभाव के बढते जाने के कारण उन्‍हें समय से पहले भारत लौटना पडा था। मद्रास पहुंचने पर आर्थिक संकट को ध्‍यान में रख उन्‍होंने 'फ्यूचर ऑफ हिटलरिज्‍म' शीर्षक लेख लिखकर पारिश्रमिक के तौर पर 25 रुपये  प्राप्‍त किए थे। 
इसी तरह भारत लौटने के पहले जब जेनेवा की 'लीग आफ नेशंस' की बैठक में भारत की प्रतिनिधि बीकानेर के महाराज गंगा सिंह ने भारत में अमन चैन की बात की तो वहां उपस्थित लोहिया ने इसका विरोध किया और अगले दिन उन्‍होंने वहां के एक अखबार में लेख लिखकर भारत में चल रहे पुलिसिया अत्‍याचारों और भगतसिंह को दी गयी फांसी का मुददा उठाया था। इसके अलावे लोहिया का पूरा जीवन मुझे एक मिसाल की तरह लगा। वे सादा जीवन जीते थे और खुद पर न्‍यूनतम खर्च करते थे। कार्यकर्ताओं का ख्‍याल कर उन्‍होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया था।  उनके एक साथी जब बैंक से पैसे निकालने गये तो उन्‍होंने कहा कि कैसे समाजवादी हो, बैंक में खाता रखते हो, यहां तक कि उनकी जान चली गयी, क्‍योंकि सहज ढंग से वे विदेश जाकर अपना इलाज कराने को तैयार नहीं थे। वे अपने लिए उतनी ही सुविधा चाहते थे जितनी भारत की गरीब जनता अपने लिए जुटा पाती थी, सांसद बनने पर गाडी और यहां तक कि कमरे में कूलर तक लगवाने से इनकार कर दिया था, इस सबके अलावे वैचारिक पहलू पर भी वे खुद को बराबर दुरूस्‍त करते रहते थे। 'मैनकाइंड' में एक पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका ने भी मुझमें उनके प्रति सकारात्‍मकता पैदा की।

आपने गांधी और मार्क्‍स के साथ लोहिया के समान लगाव की बात की है। आपने लिखा है कि वे मार्क्‍स की ‘डिक्लास थ्योरी' और गांधी के ‘अंतिम आदमी' को हमेशा ध्यान में रखते थे। जबकि लोहिया अपने आप को कुजात गांधीवादी कहते हैं और वामपंथ की तीखी आलोचना करते हैं। एक जगह वे यह भी कहते हैं कि ‘न मैं मार्क्‍सवादी हूं और न मार्क्‍सवाद विरोधी'। इसी तरह न मैं गांधीवादी हूं न गांधीवाद-विरोधी... तो आखिर आपकी निगाह में वे क्या हैं... इस किताब में वामपंथ के प्रति उनके पूर्वाग्रह को रेखांकित करने और अमेरिका व पूंजीवाद के प्रति उनकी उम्मीद के धूल-धूसरित होने का भी जिक्र किया गया है। आखिर लोहिया के इस नजरिए के तत्कालीन वैचारिक स्रोत क्या हैं, आज जबकि सोवियत संघ बिखर चुका है और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मनमानी पूरी दुनिया में जारी है तब जनता और राष्ट्रों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के संघर्ष के लिहाज से क्या लोहिया के विचार आपको उपयोगी लगते हैं?

गांधीवादी या मार्क्‍सवादी होने या दोनों का विरोधी होने को लोहिया समान मूर्खता मानते हैं, उनका कहना है कि गांधी और मार्क्‍स दोनों के ही पास अमूल्‍य ज्ञान-भंडार है। खुद मार्क्‍स मार्क्‍सवादी नहीं थे, इसी अर्थ में वे खुद को कुजात गांधीवादी कहते हैं वे इन दोनों के विचारों के सकारात्‍मक, वैज्ञानिक तथ्‍यों को लेकर आगे बढना चाहते थे। जरूरत पडने पर वे दोनों की सकारात्‍मक आलोचना करते थे। गांधी की बहुत सी बातों को वे आगे बढाना चाहते थे, पर उपवास आदि के पक्षधर नहीं थे। इसी तरह वे मार्क्‍स के दर्शन में जहां जड ढंग से बांधने की कोशिश दिखती थी, वहां उसका विरोध करते थे। वे किसी विचारधारा को व्‍यक्त्‍िा का पर्याय बनाने के खिलाफ थे। एक जगह गांधी और मार्क्‍स पर विचार करते वे लिखते हैं- 'मार्क्‍सवाद अपनी सीमाओं के अंदर विपक्ष और सरकार दोनों ही रूपों में ज्‍यादा क्रांतिकारी होता है। उसके क्रांतिकारी चरित्र में सरकारी होने या न होने से कोई बाधा या फर्क नहीं पडता।' 
वे पाते थे कि उनके समय में जो कुछ चल रहा है वह गांधीवाद न होकर गांधीवाद और मार्क्‍सवाद का घटिया सम्मिश्रण है। वे इसे गांधीवाद की कमजोरी मानते थे कि मार्क्‍सवाद उन्‍हें सम्मिश्रण के लिए मजबूर कर देता है। वे देखते हैं कि गांधीवाद जब त‍क सत्‍ता से दूर रहता है तब तक ही क्रांतिकारी रह पाता है, इसीलिए वे खुद को गांधीवाद से अलगाते हुए कुजात गांधीवादी कहते हैं। उनके लेखन के बडे हिस्‍से से गुजरने के बाद पता चलता है कि उनके वैचारिक आधार की नींव में मार्क्‍सवाद है और गांधी के साथ काम करने के कारण उनका भावात्‍मक प्रभाव ज्‍यादा है। वे भारतीय वामपंथ से टकाराते थे और कहते थे कि– मार्क्‍स के सिद्धांतों में ज्‍योतिषियों जैसी बहानेबाजी नहीं थी, जैसी कि वे वामपंथियों में पाते थे। वे अमेरिका से उस समय कुछ ज्‍यादा आशा कर रहे थे पर रूस और चीन की बदलावकारी भूमिका को हमेशा स्‍वीकारते थे, उनकी आलोचना उनसे और बेहतर की मांग थी।

आपकी इस पुस्तक में तिब्बत का मसला नहीं आया है, क्या इसे जान-बूझकर आपने छोड़ दिया है, तिब्बती जनता की स्वायत्ता और स्वतंत्रता की मांग के समर्थन के बावजूद क्या यह सच नहीं है कि तिब्बत मसले को हवा देने में अमेरिका का भी बड़ा हाथ था और लोहिया ने भी इस मसले को उठाया था?


हां तिब्‍बत और कई मसले इस पुस्‍तक में नहीं हैं, आगे संसद में उनके भाषणों पर भी काम करना बाकी है, संभवत: अगली पुस्‍तक में इन मुददों पर विचार कर पाऊंगा।
कहते हैं कि आजादी के पहले से ही नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का गहरा असर रहा है। खुद भी लोहिया नेहरू से प्रभावित थे। वही लोहिया जो कांग्रेस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के विकल्प की बात सोचने वालों को नेहरू की तरह ही गलत मानते हैं और 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के वक्त उसे टूट के खतरे से बचाने के लिए कई लेख लिखते हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति को हवा दी। आजादी से मोहभंग जिन वजहों से था उनके निदान में लोहिया के गैरकांग्रेसवाद ने क्या भूमिका अदा की?
हां, आजादी के पहले और बाद लोहिया ही नहीं नेहरू आदि सब बदले। व्‍यवहार में सत्‍ता संभालने के बाद के संघर्ष ने दोनेां को अलग किया। नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का प्रभाव था पर आजादी के बाद नेहरू अपने ढंग से खुद को अलग करते गये। और लोहिया की आपत्तियां बढती गयीं। भारत के विभाजन के समय ही नेहरू और लोहिया के मतभेद गहराने लगे थे, आगे इसने दोनों को अलगाया। नेहरू की आंख मूंद कर... जैसे लोग पूजा करने लगे थे, लोहिया को यह सख्‍त नापसंद था। संसद में पहले ही दिन लोहिया ने कहा कि– 'प्रधानमंत्री नौकर है और सदन उसका मालिक ...।'

आज तो 'आम आदमी' एक ऐसा जुमला है कि जिसका वे सब धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति को अकूत धन बटोरने का पेशा बना डाला है। लेकिन जब लोहिया आम आदमी की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या होता है, 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' नारे ने क्या गरीबों के हाथ में सत्ता देने में कोई भूमिका निभाई?

संसद में आम आदमी के लिए ढंग से पहली बहस लोहिया ने ही शुरू की थी। रिक्शाचालकों की स्थिति पर जब संबंधित मंत्री ने कहा कि रिक्‍शा चलाने से उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर अवांछित प्रभाव नहीं पडता, तो लोहिया ने जवाब दिया – 'क्‍या आप एक महीना रिक्‍शा चलाकर फिर से इसे कहेंगे?' मंत्रियों को दी जाने वाली सलामियां उन्‍हें सख्‍त नापसंद थीं। वे शासकों के व्‍यक्तिगत खर्चे की सीमा 1500 रुपये रखना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि जनप्रतिनिधि जनता से अलग उन्‍नत जीवन जीएं। पिछड़ा पावे सौ में साठ ने राजनीति का चेहरा बदलकर रख दिया । 

जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग और भाषा के विमर्श आज की राजनीति और समाज में जैसी भूमिका निभा रहे हैं उसे देखते हुए आपको लोहिया के चिंतन की क्या प्रासंगिकता लगती है? आपने इस किताब में कई जगह ऐसे संदर्भ दिए हैं


जाति को लोहिया समूल नष्‍ट करना चाहते थे, पर उनका नजरिया जड नहीं था, वे उन सबको ऊंची जाति में रखना चाहते थे जिनके पूर्वज उस क्षेत्र में राजा रहे हों। वे कहते हैं कि एक ब्राहमण जो राज चलाता है नौकरी करता है वह उंची जाति का हो गया और दूसरा जो शिवजी पर बेलपत्र चढाता है वह नीची जाति का हो गया। हालांकि इन दोनों कथनों में अंतरविरोध है पर यह समय संदर्भ में अलग ढंग से सोचने के कारण है... मूलत: वे किसी भी तरह इस कुप्रथा को नष्‍ट करना चाहते थे। जाति की तरह वे योनि के कटघरों को भी खत्‍म करना चाहते थे। एक जगह वे लिखते हैं – कि 'एक अवैध बच्‍चा होना आधे दर्जन वैध बच्‍चे होने से कई गुणा अच्‍छा है।' कई जगह लोहिया की भाषा कवित्‍वपूर्ण हो जाती थी– यह लोहिया ही थे कि लाहौर जेल में भी ज्‍योत्‍सना यानि चांदनी का वैभव देख पाते थे। 

आपने एक जगह लिखा है कि लोहिया का कोई बैंक एकाउंट नहीं था। सवाल यह है कि क्या लोहिया के विचार और उनकी राजनीति निजी संपत्ति के खात्मे के लिहाज से उपयोगी हैं?

हां, वे निजी संपत्ति के खात्‍मे के पक्षधर थे। गांधी और मार्क्‍स के इससे संबंधित विचारों को लेकर वे लिखते हैं – 'कि संपत्ति संबंधी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्‍पष्‍टता से निकल रहे थे तभी उनकी मृत्‍यु हो गयी।' जबकि मार्क्‍स इस मामले में पक्के थे और उन्‍होंने परिवर्तन का समर्थन किया।
आज जनता का अपने जीवन के मूलभूत अधिकारों के लिए जो संघर्ष है उसके लिए डाॅ. लोहिया के विचार आपको किस हद तक उपयोगी लगते हैं?
जनता के मूलभूत अधिकरों के लिए जो संघर्ष है उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रसंगिक हैं अपने छोटे से संसदीय कार्यकाल में लोहिया ने आमजन के अधिकारों के लिए जैसा प्रतिरोधी संघर्ष चलाया वह अविस्‍मरणीय है।
(‘लोहिया और उनका जीवन दर्शन’ पुस्‍तक पर कुमार मुकुल से सुधीर सुमन की यह बातचीत आकाशवाणीके इंद्रप्रस्थ चैनल से 9 अक्टूबर 2012 को प्रसारित हुई थी।