शनिवार, 11 नवंबर 2017

फ़टपाथ पर पीपल के नीचे बिकती पूडि़यों का स्‍वाद - कुमार मुकुल - कुछ डायरीनुमा

ना दोस्‍त है ना रकीब है,तेरा शहर कितना अजीब है...

सुबह जगा तो धुंधलका छंटने लगा था और पड़ोसी के लौपडॉग को प्रशिक्षण देने को उसका ट्रेनर उसे पार्क ले जाने की तैयारी में था। रविवार को मेरी फुर्ती भी कुछ बढ जाती है सो दिशा-फरागत हो मैंने वह टेपडांस बजाया जो ऑरकुट मित्र और कथाकार उदय प्रकाश के जर्मन साथी के प्रोफाइल से अपने यहां जोड़ रखा है,और उस पर उतनी देर लगातार कसरतनुमा डांस किया सेहत के लिहाज से। फिर सोचा कि आज पार्क चला जाए और अपने अग्रज कविमित्र लीलाधर मंडलोई के साथा टहला जाए और गुमटी की चाय पीते दुनिया जहान की लानत-मलामत और व्‍याख्‍या की जाए।
तभी याद आया कि आज अपनी नेट की इकलौती नियमित पर अदेखी चैट साथी अरूणा राय भी तो इंतजार करेंगी। ओह यह लड़की भी न लड़की कहो तो नाराज, तू तड़ाक मत कीजिए,पच्‍चीस की हूं पर पचास सी सोचती हूं,ओह बाबा तो चलिए आप मेरी बच्‍ची हुईं अपनी प्‍यारी अरूणा जी। दारोगा की नौकरी और उस पर ईमानदारी का तमगा और आजादी की असीम उड़ानें भरने की तैयारी तो उसे मैं मिल गया एक कविकाठी उसके शब्‍दों में नेट पर सकून का साथी।
ऑरकुट पर उसने ही खोज की थी मेरी और लिख मारा - ना दोस्‍त है ना रकीब है
तेरा शहर कितना अजीब है...

मैंने भी लिखा - ऐसी दुनिया में जुनूं, ऐसे जमाने में वफा
इस तरह खुद को तमाशा न बना मान भी जा...

फिर तो जो रोज की शाब्दिक जद्दोजहद शुरू हुई तो जबरदस्‍त तकरारों के बीच जारी है। अब स्थिति यह है कि घर में झगडूं तो अपनी आभा मैडम कहती हैं कि अभी करती हूं अरूणा से शिकायत।
तो उसे मैसेज किया कि आज तो मंडलोई जी के साथ गुजरेगी सुबह, आने पर ही चैट होगी। तो पार्क पहुंचकर पास से जनसत्‍ता लिया और उनका इंतजार करते पढने लगा। उसमें अपने जवारी भाई कुमार वीरेंद्र की कविता थी , पढकर एक अलग ही दुनिया में चला गया, गांव-देहात की। कुमार ने अपनी अलग ही सहज गंवई भाषा अर्जित की है उसकी छटा इस कविता में दिख रही थी- छत पे घरनी ने
पसार दिया है धान
धूप में भूख के,सुख रहे धान...

कुमार पिछले साल मुबई में थे पर वहां से भी वे गंवई कविता को ही स्‍वर दे रहे थे और आखिर उस स्‍वर ने उनका रूख गांव की ओर कर दिया। पिछले माह उनका फोन आया था, कि अभी तो वे यहीं रहकर खेती-बधारी कराएंगे। उनसे बात कर मेरा मन केदारनाथ सिंह की कविता के धान के बच्‍चों की तरह उन्‍मन हो गया। कि मैं यहां क्‍या कर रहा हूं इस रौशन वीराने में।
अब मंडलोई जी आ गए हैं और मैं उनके साथ पार्क के चक्‍कर लगाते बाते करने लगा हूं दुनिया जहान की। वे पूछते हैं ये क्‍या है यार दिल्‍ली के इन कवियेां में , कि वे इस पर कविता का मूल्‍यांकन करते हैं कि कौन किसके साथ धूम रहा है। मैंने कहा हा यह तो दिल्‍ली की फितरत है,मुझे विनय कुमार की पंक्तियां याद आईं-
हर मंजहब तंदूर छाप , हर नीयत खुद में खोयी सी
खंजर जिसके हाथ लगा वह शख्‍स शिकारी दिल्‍ली में।

फिर मंडलोई कसरत करने लगे और बोले कि यार अब तो मैं बूढा हो रहा हूं । वे पचपन के हैं , मैंने कहा, ऐसा ना कहिए नहीं तो मुझे आपकी तरह कसरत शुरू करनी पड़ेगी, कि अभी तो आप पूरी तरह दुरूस्‍त हैं। फिर हम पीपल के नीचे की गुमटी पर गए पहले पत्र-पत्रिकाएं देखीं फिर कम चीनी की चाय पीते हुए यह येाजना बनाने लगे कि कुछ अलग जीवंत होना चाहिए , कि कविता कहानी काफी नहीं है। कि अगले रविवार को जरा देर से आएंगे और यह जो यहां कोने पर फुटपाथ पर जो दाल की पूडि़या बेच रहा है मजदूरेां के लिए उसका स्‍वाद लेंगे हम। फिर उन्‍होंने कहा कि क्‍यों न इन लेागों की कहानी को हम दर्ज करें इनका जीवन, कि कविता में वह कहां अंट पाता है। तो इस पर सहमति बन गई कि आगे इस पर काम करेंगे हमलेाग मिलकर।
फिर बातें करते हम उनके घर आगए और भाभी जी ने फिर चाय का आग्रह किया तो चाय नमकीन लेते हुए मंडलोई जी ने रात लिखी कविताएं सुनाई तीन चार। उन कविताओं में कविता का शमशेरियता वाला शिल्‍प उभर रहा था कुछ कविताएं पच्‍चासी साल की अपनी मां और भाईयेां के बहाने अपने गांव-कस्‍बे को याद करते लिखी थीं उन्‍होंने। एक कविता संयोग से आज के आलोचना के माहौल पर भी थी। मैंने कहा कि ये कविताएं दे दीजिए मैं उन्‍हें अपने ब्‍लाग पर डाल दूंगा। वे असमंजस में पड़ गए कि रात तेा लिखी ही हैं अभी इन पर कलम चलानी है। मैंने कहा वह पहला ड्राफ्ट होगा फिर आप उस पर काम करते रहेंगे। पर वे उलझन में थे , तेा बोले कि तुम्‍हें लगता है यह आलोचना की राजनीति पर जो कविता है वह ज्‍यादा रूच गई है तेा उसे ले लो। तब उन्‍होंने वह कविता वहीं बैठे-बैठे फेयर की। फिर बताया कि कविता एकादश करके एक संकलन किया है मैंने ,मेधा से आया है , और किताब दी । वाकई अपने तरह का संकलन लगा वह, जिसमें विजेन्‍दे,ऋतुराज,वेणुगोपाल आदि इधर के दौर में चर्चा से करीब - करीब बाहर रहे कवि शामिल दिखे। तब दुखी होते उन्‍होंने बताया कि वेणु गोपाल को कैंसर हो गया है, ओह, पिछले सालों गैंगरीन से उनकी एक टांग काट दी गई थी और अब यह त्रासदी। मैं हैदराबाद में वेणु जी के साथ एक ही अखबार में काम कर चुका था। उस समय साठ के आस-पास के उस कवि को जिस मस्‍ती में देखा था उसे इन घटनाओं से जेाड़़कर देखता हूं तेा जी उन्‍मन हो जाता है। वाराणसी में पहल सम्‍मान के समय उनसे भेंट भी हुई थी। अपने एक पैर के साथ भी वे उसी तरह अलमस्‍त दिखे।
क्‍या हो रहा है हमारे समय के इन लेखकों के साथ । अपने प्‍यारे कवि वीरने डंगवाल केा भी जब गले में कैंसर और उसके आपरेशन की बात सुनी और देखी तो धक्‍का लगा था। पर जब उनसेआपरेशन थियेटर में मिला था तेा कैसेी गर्मजोशी से हाथ मिलाया था उन्‍होंने , वैसे वे गले मिलते थे भर बांह और मैं संकोच में पड़ जाता था।
ओह ... यह दिल्‍ली भी क्‍या-क्‍या दिखाती है या जीवन ही दिखाता है क्‍या क्‍या - पर फिर वेणु गेापाल की कविता हमारा सम्‍मोहन तोड़ती है- ऐसा ही क्‍यों होता है-
कि हिन्‍दी का कवि।
बहता या डूबता तो
अपनी कविता में है
लेकिन उसकी लाश
अक्‍सर दिल्‍ली में मिलती है.....