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शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

' राजकमल चौधरी और फणीश्‍वर नाथ रेणु दो गुरु हैं मेरे ... ' - आलोक धन्वा

वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से युवा कवि कुमार मुकुल की बातचीत '


 

परिंदे में प्रकाशित 

 

बातचीत - 2 

 

अपनी बातचीत में आप हिंदी कविता, कहानी के महत्‍वपूर्ण हस्‍ताक्षरों राजकमल चौधरी और फणीश्‍वर नाथ रेणु का जिक्र बारहा करते हैं। आपको इनकी संगत का लाभ उठाने का मौका मिला है। उन प्रसंगों की बाबत कुछ बताएं।

 

वह भारत – पाक युद्ध का समय था। हम तीन दोस्‍त थे। एक थे डॉ एस एस ठाकुर, पटना के बड़े डाक्‍टर और दूसरे थे शंभु। उस समय लोगों को उत्‍साहित करने वाले कवि – सम्‍मेलन होते रहते थे हिंदी साहित्‍य सम्‍मेलन भवन में, बाद में सम्‍मेलन बहुत गलत लोगों के हाथों में चला गया। तब वहां बाबा नागार्जुन भी आते रहते थे। राजकमल चौधरी भी तब पटना में ही रहते थे। सतेन्‍द्र नारायण सिंह जिन्‍हें छोटे साहब कहते थे लोग, वे भी हमें बहुत मानते थे। एक पत्रकार साथी थे दिनेश सिंह। ये सब इमानदार लोग थे। ‍

दिनेश सिंह नवराष्‍ट्र पत्रिका के संपादक थे। वे चाहते थे कि पटना में एक कवि – सम्‍मेलन आयोजित हो। वे मुझसे भी कविता पाठ करवाना चाहते थे। मैंने कहा कि उसमें मुझे कौन जाने देगा, तो उन्‍होंने कहा कि कैसे नहीं जाने देगा, मैं हूं ना।

कवि सम्‍मेलन हुआ तो उसमें तमाम बड़े कव‍ि शामिल हुए। रामगोपाल रूद्र, केदारनाथ मिश्र प्रभात, आरसी प्रसाद सिंह जैसे मशहूर लोग उसमें थे। कवि सम्‍मेलन के दौरान मैंने एक चिट पर अपना नाम लिखकर मंच पर बढाया। सम्‍मेलन की अध्‍यक्षता राजकमल चौधरी कर रहे थे। मैं देख रहा था कि लोग मेरी पर्ची पर ध्‍यान नहीं दे रहे थे और सम्‍मेलन अपने अंत की ओर बढ रहा था। युद्ध के चलते कुछ समय बाद ब्‍लैक आउट हो जाता और पूरे इलाके की बिजली गुल कर दी जाती सुरक्षा को लेकर, तो कवि सम्‍मेलन भी बंद हो जाता। मुझे लगा कि अब मेरा नंबर नहीं आएगा।

तब राजकमल जी ने कहा कि अब तो सबका पाठ हो गया अब एक कोई नौजवान हैं, आलोक धन्‍वा। उनसे मेरी गुजारिश है कि वे मंच पर आएं और अपनी कविता पढें।

तब मैं मंच पर गया और एक कविता पढी। वह कविता फिर कहीं छपी नहीं।

 

कौन सी कविता थी वह, क्‍या कुछ याद है ?

 

हां, अभी भी उसकी कुछ पंक्तियां याद हैं -

 

सुनती हो मां

अब तो मुझको नींद नहीं आती है

भीतर ही भीतर कोई स्‍तूप उबलता है

नीली नीली नसें सुलगती ही जाती हैं

अंबाला के सैनिक वाले अस्‍पताल पर बम गिरता है

एक नर्स सीढि़यां उतरती मर जाती है

मरने पर भी उसकी आंखों में एक हरी गर्दन चिल्‍लाती है ...

 

इस कविता ने सबका मेरी ओर ध्‍यान खींचा। राजकमल जी ने भी कहा कि लड़का अच्‍छा लिख रहा है।

 

इतनी ही थी कविता या पूरी कविता याद नहीं आपको ?

 

इसमें आगे भी कुछ पंक्ति‍यां थीं -

 

उड़ी, पूंछ के बीच जमी

पत्‍थर वाली शहतीर

तुम्‍हारी जय हो ...

 

इस तरह से थी कविता।

 

इस कविता के पाठ के बाद राजकमल जी से टाइम लिया हमलोगों ने। उस समय मेरे साथ गद्यलेखक और यूएनआई के पत्रकार साथी रत्‍नधर झा भी थे। राजकमल जी से मुलाकात के दौरान रेणु जी की चर्चा हुई। राजकमल जी ने पूछा कि रेणु जी से मिलना चाहते हैं आप।

मैंने कहा - हां, जरूर मिलना चाहेंगे।

जिस घर में राजकमल रहते थे वह खपरैल की थी जिस पर कद्दू फले थे। तो राजकमल ने कहा कि अगर आपको रेणु जी के यहां चलना है तो आपको वहां तक उनके लिए यहां से एक कद्दू लेकर चलना होगा।

 

उस समय तक तो रेणु जी हिंदी की दुनिया में काफी लोकप्रिय हो चुके थे ?

 

हां, राजेन्‍द्र नगर के एक फ्लैट में रेणु जी रहते थे। उन्हें कौन नहीं जानता था। वहां कौन नहीं आया। अज्ञेय आये थे, रघुवीर सहाय आये, सर्वेश्‍वर जी आए।

तो जब रेणु जी के यहां चलने की बात हुई तो मैंने कहा कि मुझे आप वहां ले जा रहे हैं पर उनके यहां एक कुतिया है, नवमी।

तो राजकमल बोले - मत डरो, मैं तो भैरव का भक्‍त हूं। कुत्‍ते से भय नहीं होना चाहिए।

 

अच्‍छा तो आप कुत्‍ते से एक जमाने से डरते आ रहे ! पर आपको पहले से कैसे पता था कि रेणु जी कुत्‍ता रखते हैं ?

 

अरे मत कहअ, मउअत से हमरा डर ना लागे, बस कुकुर से डर लागे ला। (भोजपुरी में बोलते हैं वे।)

यह सब अखबारों से पता चल जाता था। रेणु जी बहुत लोकप्रिय थे। फिर वे खुद भी जनता अखबार निकालते थे।

तो वहां पहुंचने पर राजकमल जी ने मैथिली में रेणु जी से कहा - कि यह जो लड़का है मेरे साथ वह बहुत डरता है कुत्‍ता से। सो नवमी को बांध दीजिए।

तो रेणु जी ने लतिका जी से कहा - कि यह लड़का बहुत डरता है कुत्‍ते से सो उसे उस कमरे में ले जाओ तब तक।

फिर चाय आदि आयी। चाय पीते हुए मैं रेणु जी को पहली बार इस तरह नजदीक से देख रहा था। वे बहुत सुदर्शन थे और काफी लंबे थे, मैं समझता हूं छह फीट से अधिक लंबे थे वे। सांवले थे पर बहुत सुंदर। घुंघराले केस थे, हैंडसम क्‍लीन शेव्‍ड। वे चलते तो लगता कोई लोकनर्तक चल रहा। बहुत मधुर आवाज थी उनकी।

कोशी के इलाके की जो धारा थी लेखन की उसमें तीन बड़े लेखक थे - राजकमल, रेणु और नागार्जुन। रेणु राजकमल से सीनियर थे।

 

तब उन्‍होंने खाने के लिए पूछा - तो मैंने कहा कि मैं खाउंगा तो नहीं।

तब उन्‍होंने लतिका जी से कहा - नौजवान आया है घर पर पहली बार तो कुछ इसके लिए मिठाई आदि लाओ।

तो मिठाई आयी रसगुल्‍ला या हम समझते हैं कि बर्फी होगी। हमने और राजकमल ने खाया फिर नमकीन और चाय ली।

फिर बातचीत चलने लगी। दोनों ज्‍यादातर मैथिली में बात कर रहे थे। जिसे मैं भी समझ रहा था। थोड़ी देर के बाद हमलोग निकलने लगे तो रेणु जी ने कहा कि इधर आइए तो आ जाइए यहां भी। इसके बाद उनसे ज्‍यादातर काफी हाउस में मुलाकात होती थी।

फिर राजकमल चौधरी बीमार रहने लगे। उनका पेट चीरा गया तो पता चला कैंसर है तो उसे बिना छेड़छाड़ के फिर सी दिया गया। क्‍योंकि शंका थी कि चीर - फाड़ से वह पूरे शरीर में फैल जाएगा।

फिर मैं कुछ दिन पटना से बाहर रहा। आया तो पता चला कि राजकमल जी गुजर गये। यह 1967 जून की बात है। उनसे 1965 में पहली मुलाकात हुई थी।

 

इस बीच आप लोगों की कितने मुलाकातें हुईुं, आपलोग कितना साथ रहे ?

 

भेंटे तो कम ही हुई थीं। पर जब भी हमलोग जाते तो वे प्रेम से मिलते। उनकी बीमारी का दौर था तो उन्‍हें कई तरह की सलाह देने वाले लोग वहां मिलते थे। बीमारी से आतंकित होने वाले आदमी नहीं थे राजकमल जी।

 

कविता पर भी काई बात होती थी राजकमल जी से ?

 

कविता पर हमलोग बहुत कम बात करते थे। क्‍या बोलते, हमलोग बहुत यंग थे उस समय। हमलोग सुनते थे उनको। वे गद्कार थे। उनकी किताब ‘मछली मरी हुई’ छप चुकी थी। कहानियां उनकी बहुत मशहूर थीं । कविताओं की उनकी पुस्‍तक ‘कंकावती’ भी मशहूर थी।

बहुत ही संघर्ष का जीवन था राजकमल जी का। ‘ज्‍योत्‍सना’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी पटना से, उसमें वे काम भी करते थे। पर वहां से कुछ खास पारिश्रमिक नहीं मिलता था हमेशा आर्थिक संकट रहता था।

बीमारी के कारण जब वे अस्‍प्‍ताल में भर्ती हुए तो हमलोग उनसे नियमित मिलते थे। नंदकिशोर नवल और उस समय के चर्चित गीतकार चंद्रमौली उपाध्‍याय आते थे उन्‍हें देखने। उपाध्‍याय जी कलकत्‍ते से आते थे।

 

रेणु जी भी तब पटना ही रहते थे, वे भी आते-जाते होंगे ?

 

हां यहीं रहते थे और आते थे। अस्‍पताल में तो नहीं आते थे रेणु जी पर जब ‘मुक्तिप्रसंग’ के प्रकाशन के बाद अज्ञेय उनसे मिलने पीएमसीएच सर्जिकल अस्‍प्‍ताल में आते तो रेणु जी भी उनके साथ रहते। टाइम्‍स ऑफ इंडिया के पत्रकार जिते्न्‍द्र सिंह भी साथ होते थे। मुक्तिप्रसंग अज्ञेय जी को ही समर्पित है।

पर राजकमल को बचाया नहीं जा सका। उनको याद करते बाबा नागार्जुन ने कविता भी लिखी थी। रेणु जी ने भी अवश्‍य ही कुछ लिखा होगा। मिथिलांचल के ये दोनों ही लेखक राजकमल के गुजरने से बहुत व्‍यथित हुए थे। राजकमल हिंदी, मैथिली, बांग्‍ला और अंग्रेजी के भी जानकार थे।

 

उस समय तक तो रेणु का लेखन पर्याप्‍त चर्चा पा चुका था ?

 

उस समय रेणु जी की इतनी ख्‍याति हो चुकी थी कि उन्‍हें इग्‍नोर नहीं किया जा सकता था। उनसे मिलने बड़े बड़े लोग आते थे। एमएलए व पार्षद सब उनको घेरे रहते। कुछ लोग उनसे कॉफी हाउस आकर मिलते थे और कुछ उनके निवास पर मिलते थे। कॉफी हाउस में जब काफी लोग आते तब कई टेबलों को जोड़कर एक टेबल बना दिया जाता था।

सर्वेश्‍वर जी पटना आते तो उनके घर पर रूकते थे।  अज्ञेय, निर्मल वर्मा, बी पी कोइराला और गिरजा प्रसाद कोइराला आते थे उनसे मिलने। बीपी कोइराला ने नेपाल में पहली बार लोकतंत्र लाने की कोशिश की थी। रेणु जी नियमित काफी हाउस आते थे। बीच बीच में वे अपने गांव औराही हिंगना भी जाते थे।

उस समय एक विद्यार्थी हेमंत दयाल था जो सितार बजाता था। हेमंत और शरत दयाल बिहार के एक आइएएस डॉ एल दयाल  के बेटे थे। तो हेमंत हमलोगों को ‘मैलाआंचल’ का पहला पन्‍ना पढ कर सुनाता था। पढाई तो छोड़ दी थी मैंने पर बड़े लोगों को सुनना और किताबें पढना मेरी आदतों में शुमार था और भटकना।

रेणु जी का बहुत ही गहरा स्‍नेह था मेरे प्रति।

कई बार ऐसा होता कि कॉफी हाउस से निकलते रेणु जी मुझसे पूछते कि आप कहीं और जाएंगे।

मैं कहता कि नहीं मैं तो भिखना पहाड़ी अपने आवास जाउंगा।

वे कहते कि तब दिनकर चौक तक आप मेरे साथ चलिए।

तो वहां तक वे साथ आते। वे पान के शौकीन थे तो अपने पनबट्टे में वे पान लेते। वहीं पास ही मैग्‍जीन कार्नर था जहां से वे पत्रिकाएं लेते। फिर वहां से रिक्‍शे पर बैठ आगे चले जाते और मैं टहलता हुआ अपने डेरे पर चला आता। जहां मेरे बड़े भाई रहते थे।

 

आप पान आदि नहीं खाते थे ?

 

कभी कभी खाते थे। सिगरेट पीते थे।

 

रेणु जी भी पीते थे सिगरेट ?

 

नहीं रेणु जी नहीं पीते थे। उन्‍हें कभी सिगरेट पीते नहीं देखा।

 

वे कभी आपके सिगरेट पीने पर कुछ बोलते थे ?

 

नहीं, उनके सामने मैं सिगरेट नहीं पीता था। यह लिहाज था। हालांकि सामने पीते तो वे कुछ बोलते नहीं। वे बहुत खुले दिल के आदमी थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वे किसी को भी तुम नहीं बोलते थे। हमलोग जो कि उनसे इतने छोटे थे उनसे, हमलोगों को भी वे हमेशा आप कहते थे। आप क्‍या लिख रहे हैं इन दिनों, कहते वे।

 

उस समय तो दिनकर जी भी थे। वे भी क्‍या काफी हाउस की बैठकी में शामिल होते थे। उनसे मुलाकात होती थी आपकी ?

 

दिनकर जी के तो रेणु जी भक्‍त थे। दिनकर जी से मेरी पहली मुलाकात रेणु जी ने ही करवायी थी। वही मुझे छह नंबर रोड में उनके घर लेकर गये थे।

जाने के पहले रेणु जी ने कहा कि उनके यहां चलना है तो जरा ठीक ठाक होकर आइएगा। बाल वाल कुछ बना लीजिएगा।

 

तो उसी समय भी आप लंबे बाल, दाढ़ी रखते थे। आप कहते हैं कि राजकमल और रेणु आपके गुरु रहे। दोनों क्‍लीन शेव्‍ड रहते थे। फिर आपने यह बाल, दाढी वाली गुरूता कहां से प्राप्‍त की , किससे प्रेरित थे आप, टैगोर से या निराला से ?

 

नहीं, किसी से प्रेरित नहीं थे। बहुत बड़ी दाढ़ी टैगोर जैसी तो नहीं रखते थे हम। हां कुछ बड़ी रखते थे। मुझे अच्‍छा लगता था।

तो रेणु जी ने कहा कि आप ठीक ठाक होकर आइए और चलकर दिनकर जी को अपनी कविता ‘जनता का आदमी’ का एक अंश सुनाइए।

 

तो उस समय आप ‘जनता का आदमी’ लिख चुके थे, और उसे रेणु जी को सुना चुके थे ?

 

मतलब लिख रहे थे उसको। रेणु जी उसका एक हिस्‍सा सुन चुके थे। जनता का आदमी कविता 1972 में छपी आगे। दिनकर जी की जो डायरी ज्ञानपीठ अवार्ड मिलने के बाद प्रकाशित हुई थी उसमें उन्‍होंने जनता का आदमी कविता के रेणु जी और उनके सामने हुए उस पाठ की चर्चा की है।

वह चीन और भारत की लड़ाई का समय था और दिनकर जी उससे बहुत आहत थे। वे पंडित नेहरू से जुड़े हुए थे। 1964 में इन्‍हीं परिस्थितियों में नेहरू गुजर गये और इससे दिनकर बहुत दुखी थे।

रेणुी जी दिनकर के अलावे जेपी से भी बहुत जुड़े थे। दिनकर को रेणु जी बड़ा कवि मानते थे। रेणु हमलोगों को कहते थे कि दिनकर जी को पढकर ही हमलोगों में गांव से आसक्ति पैदा हुई थी।

जयप्रकाश जी ने जो आंदोलन शुरू किया था तो उनका जो अभियान चलता था उसमें तमाम लोग शामिल थे। उनमें सत्‍येन्‍द्र नारायण जी, गोपीवल्‍लभ जी, नागार्जुन, रामवचन राय आदि थे। जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन, रेणु नुक्‍कड़ सभाएं करते थे। नुक्‍कड़ पर बाबा जब कविता सुनाते तो खूब भीड़ जमा होती थी।

 

आप भी उसमें शामिल रहते होंगे ?

 

हम उस आंदोलन को लेकर क्रिटिकल थे। हमलोगों का अलग मंच था। हमारा सोचना था तब कि भ्रष्‍टाचार को लेकर इतना बड़ा आंदोलन चलाने की क्‍या जरूरत है, जयप्रकाश जी को। भ्रष्‍टाचार तो सिस्‍टम का बायप्रोडक्‍ट है तो लड़ाई सिस्‍टम बदलने को होनी चाहिए और उसमें मजदूरों को भी भाग लेना चाहिए। जेपी आंदोलन में मजदूर किसान कम संख्‍यां में थे। सीपीआई भी उस आंदोलन के विरोध में थी पर हमारा स्‍टैंड सीपीआई का नहीं था। हमलोग बीच का कोई रास्‍ता निकालना चाहते थे।

 

रेणु जी की इस पर क्‍या राय थी। क्‍या वे आपके मंच में शामिल होते थे?

 

रेणु जी से इस पर बात नहीं होती थी। वे हमारे मंच पर नहीं आते थे। कभी कभी सतनारायण जी आ जाते थे हमारे मंच पर। सायंस कालेज और पटना कालेज के विद्यार्थी इस सोच में हमलोगों के साथ थे। अरुण कमल और नंद किशोर नवल भी एक बार हमलोगों के साथ मंच पर आए थे। नागार्जुन के बेटे सुकांत सोम भी हमलोगों के साथ रहते थे। वे भी कविताएं लिखते थे और किसी की परवाह नहीं करते थे।

 

दिनकर जी तो शामिल थे जेपी आंदोलन में। उनकी कविताएं तो उस आंदोलन का हिस्‍सा बनी थीं - सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ?

दिनकर जी भी शामिल नहीं थे। उनकी कविता किसी ने पढ़ी होगी। दिनकर जी की कविता जयप्रकाश जी पढते थे।

उस समय हमलोग मंच से गीतों का पाठ करते थे। एक गीत हमलोग पढते थे, गीतकार का नाम याद नहीं आ रहा, दिल्‍ली के थे।

 

दिल्‍ली से वे गीतकार क्‍या पटना आए थे, आंदोलन में भाग लेने ?

 

नहीं उनका गीत हमलोगों ने मंच से गाने के लिए चुना था  - गीत था -

 

नई चहिए नई चहिए

सरकार सयानी नई चहिए

अमेरिका का दाना पानी नई चहिए।

 

उस समय एक छात्र युवा संघर्ष समिति थी उसमें शिवानंद तिवारी, सुशील मोदी, नीतिश कुमार आदि शामिल थे।

 

क्‍या रेणु से परिचित थे नीतिश कुमार ?

 

रेणु को सबलोग जानते थे।

 

नीतिश कुमार की कोई साहित्यिक रूचि तो नहीं रही होगी

 

नहीं, ऐसी रूचि बहुत लोगों की थी। मैला आंचल को तो मांस बेसिस पर पढा गया। आप इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि मैला आंचल इतनी लोकप्रिय कृति हुई कि राजकमल प्रकाशन की शीला संधू ने  ...

 

रेणु जी के लेखन को आप किस रूप में देखते हैं, उसकी रिपोर्ताज शैली को लेकर आपका क्‍या सोच है ?

 

हां, मैला आंचल है, परती परिकथा है। रेणु जी पर कुछ लोगों ने सवाल उठाया था कि उनकी भाषा रिपोर्ताज शैली की है। रेणु जी अखबारों में रिपोर्ताज और कॉलम लिखते भी थे। इसका जवाब देते आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जी ने कहा कि यह एक अद्भुत शैली है यथार्थ को देखने की, इसके फार्म पर मत जाइए। फार्म महत्‍वपूर्ण नहीं है। हर लेखक अपना अलग फार्म लेकर आता है। पर उस फार्म को उसके कथ्‍य के आलोक में ही देखना चाहिए। जो रचना की अंतरवस्‍तु है उसी के अनुरूप उसका फार्मेट निर्मित होता है। रेणु जी गांव की तमाम गतिविधियों से परिचित थे और रेणु जी का यथर्थवाद उसी ग्रामधारा का विकास है।

 

कुछ लोग रेणु जी के लेखन पर ‘ढोढाय चरित मानस’ के रचनाकार सतीनाथ भादुड़ी की छाया देखते हैं इसे आप किस तरह लेते हैं ?

 

हां रेणु जी उनसे मिलकर प्रभावित हुए थे और उनकी कृतियों से भी प्रभावित हुए थे। उनकी कृति ‘जागोरी’ और ‘ढोढाय चरित मानस’ से प्रभावित थे वे जिसे भारती भवन वालों ने भी छापा था। पर रेणु जी का सोचने का अपना स्‍वच्‍छंद तरीका था। आजादी के बाद का जो भारत है उसमें हमारे समाज की जो विषमताएं हैं और उनकी जो चुनौतियां हैं उसको रेणु जी ने बहुत गहराई से समझा है। जातियों की जो समस्‍या थी जिसमें तमाम जातियां और समाज परिवर्तन करने वाले लोगों का आचार व्‍यवहार था, उसे रेणु जी ने गहराई से चित्रित किया है अपनी कृतियों में।

रेणु जी बहुत बड़े एक्टिविस्‍ट भी थे। अपने समय के तमाम सामाजिक आंदोलनों से वे प्रभावित होते थे और उस प्रभाव को अपनी कृतियों में बहुत सादगी से जाहिर करते थे।

रेणु जी कभी लगातार शहर में नहीं रहते थे दो तीन महीने शहर में रहकर वे उससे उब जाते तो गांव चले जाते थे। उनके कई ग्रामीण पात्र सजीव नामधारी थे।

 

रेणु की कहानियों में आपकी स्‍मृति में कौन सी कहानियां किस रूप में हैं ?

 

उन्‍होंने अद्भुत कहानियां लिखीं। लाल पान की बेगम, रसप्रिया, आदिम रात्रि की महक आदि उनकी चर्चित कहानियां हैं। तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम जिस पर राजकपूर ने फिल्‍म बनाई। पहली बार फिल्‍म नहीं चली और सदमें में शैलेंद्र की जान चली गयी। दूसरी बार वह खूब चली। उसके गाने भी शैलेन्‍द्र ने लिखे थे।

शैलेन्‍द्र एक ऐसे लेखक थे जिन्‍हें नागार्जुन का भी सान्निध्‍य मिला था। उनके मन में किसी के प्रति कोई दराव नहीं था। रेणु में भी जाति को लेकर कोई आग्रह नहीं था।

पंचलाइट उनकी अद्भुत कहानी है। लाल पान की बेगम , रसप्रिया के अलावे संबदिया है। मुझे उनकी रसप्रिया और संबदिया कहानी बहुत प्रिय है। इन कहानियों में महाकाव्‍यात्‍मक आख्‍यान हैं। भारत पाक का विभाजन और एक टूटते हुए सामंती समाज की पीड़ाएं उसमें अभिव्‍यक्‍त हुई हैं। वे समाज को बहुत गहराई से देख पाते थे और उसे कहानियों में लाते थे।  कल्‍पना से भी ज्‍यादा उनमें जिज्ञासा थी।

 

विश्‍व साहित्‍य में रेणु जी की रूचि कैसी थी, किन कृतियों का वे जिक्र करते थे बातचीत ?

 

दुनिया के श्रेष्‍ठ साहित्‍य से अच्‍छी तरह परिचित थे वे। मिखाइल शोलोखोव के बारे में उन्‍होंने ही मुझे बताया था। वे बोले कि उनको पढिए। उनको पढकर आप लड़ाई के बारे में तो जानेंगे ही आप घोड़ों के बारे में भी जानेंगे और अनोखी दुर्लभ स्त्रियों के बारे में भी। बोले कि उसे पढते हुए आप दौड़ते घोड़ों के पसीने की गंध तक महसूस करेंगे।

रेणु जी की घ्राण शक्ति भी अद्भुत थी जिसके प्रयोग से वे अपनी भाषा को ताकत देते थे।

रेणु ने भिखारी ठाकुर से सीखा। प्रेमचंद से भी सीखा। कर्पूरी जी से सीखा। डॉ लोहिया और आचार्य नरेन्‍द्र देव से सीखा। उनकी पढाई बीएचयू से हुई थी और वे केदारनाथ सिंह आदि से परिचित थे। आगे उन्‍हें पढाई में मन नहीं लगा। अपना गांव घर ज्‍यादा याद आता था। तो उन्‍होंने पढाई बीच में छोड दी और गांव लौट गये थे। उन्‍होंने नौकरी भी की थी इलाहाबाद रेडियो में, तब तक वे मशहूर हो चुके थे।

 


परिंदे में प्रकाशित

सोमवार, 17 जुलाई 2023

गांधी की करूणा भगत सिंह की फांसी के मुद्दे पर कलंकित होती है - आलोक धन्वा


वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से युवा कवि कुमार मुकुल की बातचीत

मनोवेद में प्रकाशित


बातचीत - 1



11 जनवरी 2012 को डा विनय कुमार के आवास पर हुई इस बातचीत के वक्त वहां डा विनय कुमार उनकी पत्नी डा. मंजू कुमारी और फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम उपस्थित थे।


कुमार मुकुल - पंद्रह अगस्त 1947 को हम आजाद हुए। आजाद भारत में हमने क्या खोया, क्या पाया?

आलोक धन्वा - आपका जो सवाल है वह इतने बड़े स्पेश को सामने रख रहा है कि उसमें 200 वर्षों पर बहस करनी होगी। आधुनिक भारत की नींव आजादी की लड़ाई से शुरू होती है यानि मध्ययुग से जहां आधुनिक भारत अलग होकर बनना शुरू होता है। तो आधुनिक भारत की नींव और लोकतांत्रिक चेतना और स्वाधीनता की चेतना ये तीनों परिघटनाएं एक साथ शुरू होती हैं।

आमतौर पर हम 1857 को आजादी की पहली लड़ाई मानते हैं मैं भी मानता हूं। 1857 ने हम सब लोगों को एक हिन्दुस्तानी होने का गर्व दिया, जिसने उपनिवेशवाद के विरूद्ध लड़ने के लिए जनता की उतनी व्यापक अभिव्यक्ति को एक रूप दिया। कई इतिहासकार यह लिखते हैं और मानते हैं कि यह एक गदर था जिसमें सामंतों के नेतृत्व में बहादुरशाह जफर, झांसी की रानी के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी गई। मैं समझता हूं कि यह इतिहास की अवैज्ञानिक व्याख्या है। इसमें लड़ने वाली तो मूल रूप से भारत की किसान जनता है, उसी का नेतृत्व है। जो सिपाही लड़े वो देश के लिए लड़े। मैं समझता हूं कि 1857 से 1947 के बीच की तमाम लड़ाईयां आजादी के लिए लड़ी गईं।

1857 के बारे में जो कार्ल माक्र्स की स्थापनाएं हैं, मैं उसे सही मानता हूं। 1857 हिन्दुस्तानी होने की कौमी जातीय चेतना का एक रूप है, स्वाधीनता की पहली व्यापक अभिव्यक्ति है।

1857 में भयावह पराजय हुई। उस पराजय और कत्लेआम का मंजर हमारे महान भारतीय कवि गालिब ने आंखों से देखा और राय जाहिर की । 1857 के बाद भारत की जनता और स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले लोग लगातार सक्रिय रहे। लाला हरदयाल हों या रासबिहारी बोस हों , जितने भी संगठन थे भारत की आजादी के लिए लड़नेवाले, उन संगठनों का भी इतिहास आप देखेंगे तो उस इतिहास में गदर पार्ठी के लोग थे। शहीदेआजम भगत सिंह और उनके चाचा सरदार अजीत सिंह, जो गाते थे- पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल...। फिर भारतेन्दु आते हैं सामने और उनके साथ के दूसरे लेखक रामचंद्र शुक्ल और प्रेमचंद जो नये गणतंत्र के पहले सबसे बड़ी लेखक हिन्दी में है।

1857 की लड़ाई के विस्तार में मैं नहीं जाउंगा पर मैं यह मानता हूं कुछ अतिवादी बुद्धिजीवी 1857 और 1947 को मात्रा सत्ता के हस्तांतरण के रूप में देखते हैं, मैं उस रूप में नहीं देखता। मैं मानता हूं कि उसमें दो बड़ी धराएं थीं। एक धारा का नेतृत्व भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, विनय बादल दिनेश कर रहे थे। यह लाला लाजपत राय की धारा थी- जिनकी साइमन कमीशन के विरूद्ध लड़ते समय लाठियों की चोट से हत्या कर दी गई। उस धारा ने ही हिंदी इलाकों में चेतना फैलाई। जिसे रामविलास जी जातीय चेतना कहते हैं। इस धारा ने प्रगतिशील जीवन मूल्यों की चेतना को आगे बढ़ाया, हिंदी में। इस पर सीपीएम के बंगाल के नेता सुकोमल सेन की किताब उपलब्ध् है, जो सबसे अच्छा उपलब्ध् इतिहास है। लाला लाजपत राय से ही ट्रेड यूनियन की शुरूआत हुई जिसने कि उस औद्योगिक भारत को समझने की कोशिश की जिसमें गुजरात की सूती मिलों और मुबई के मिलों के मजदूरों की हालत पर घ्यान देना आरंभ किया। मुंबई की मिलों के मजदूरों की बड़ी हड़ताल के बारे में बाल गंगाधर तिलक ने क्या कहा था, आपको पता होगा- उस तफसील में जाना चाहिए।

यह ऐसी लड़ाई थी जिसमें गांधी एक तरफ थे और दूसरी तरफ लाला लाजपत राय। लाजपत राय की धरा में ही स्वामी सहजानंद सरस्वती आते हैं। रामगढ़ कांग्रेस की केंद्रीय कमेटी में स्वामीजी भी थे। उसी कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस की जीत और पट्टाभि सीतारामैय्या की हार हुई भी। उसमें अनैतिक तरीके से सहजानंद जी को गांधीजी और उनके लोगों ने कमेटी भंग कर हटा दिया था। उस समय रामगढ़ कांग्रेस में सहजानंद जी द्वारा दिए गए भाषण को दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रिका में विनोद तिवारी ने छापा है। जिसे पिफर तद्भव में शायद अखिलेश ने छापा है।

उसी धारा ने राहुल सांकृत्यायन को खड़ा किया और प्रेमचंद को। प्रेमचंद के बारे में कांग्रेसी भ्रम फैलाते हैं कि वे मात्र अहिंसा के गायक थे। मार्क्‍स से बड़ा तो अहिंसा का गायक हुआ नहीं और टाल्सटाय जैसा। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आप हिंसा को भारतीय समाज में कितना देख पाते हैं। प्रेमचंद कहीं से कांग्रेस के समर्थक नहीं थे। कांग्रेस में दो धाराएं थीं- एक धारा सहजानंद और नेताजी को नहीं मानती थी यह पटेल और नेहरू को मानती थी। नौरोजी वाली धारा, जिसका मैं सम्मान करता हूं। हिंसा के सर्वाधिक रूपों को, प्रेमचंद ने पहचाना। सामंती हिंसा संप्रदायिकता के जो रूप उनकी कहानियों में आते हैं। भारतीय गणराज्य के वे पहले महान लेखक हैं। आज भी प्रेमचंद उतने ही प्रासंगिक हैं।

कुमार मुकुल - ‘सफेद रात’ कविता में आप एक जगह लिखते हैं कि फांसी पर चढ़ाए जाते वक्त भगत सिंह का सरोकार अहिंसा था। भगत सिंह और गांधी की अहिंसा में क्या अंतर है, या समानता है।


आलोक धन्वा - समानता तो नहीं है बिल्कुल। क्योंकि भगत सिंह ने नारा दिया था कि आदमी के द्वारा आदमी का शोषण बंद हो। यह इतना व्यापक नारा है, जैसा कोई और नारा भारतीय राजनीति में नहीं है। महात्मा गांधी किस अहिंसा की बात करते थे, मुंबई में मजदूरों की हड़ताल में उन्होंने मजदूरों और मालिकों के संबंध् को पिता-पुत्र का संबंध् बताया था। उनके मन में जितनी अच्छी भावना हो पर मैं नहीं समझता कि कोई पिता अपने पुत्रा से वैसा व्यवहार करेगा जैसा मिल मालिक मजदूरों से करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को गांधी ने देखा था, पूरा जो एक दास युग था... गांधी ने हिंसा का रूप देखा था। वे बड़े नेता व चिंतक थे। पर अगर गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं दी जाती।

इससे संबंधित एक घटना के बारे में ए.के. हंगल ने चर्चा की है। तब पेशावर के पास जिस पख्तूनी इलाके में थे वे- तब वे 14-15 साल के थे- तो पख्तून रो-रोकर एक शोक गीत गा रहे थे। गीत की हर पंक्ति के अंत में भगत सिंह का नाम आता था, जिन्हें चुपके से फांसी दे दी गयी थी एक शाम।

कुमार मुकुल - यूं महात्मा गांधी ने भगत सिंह को फांसी ना देने की अपील तो की थी।

आलोक धन्वा - गांधी बहुत बड़े जन नेता, चिंतक थे, कूटनीतिज्ञ थे। गांधी को साधु-संत समझने वाले भ्रम में हैं- गांधी बड़े डिप्लोमैट थे। वे भगत सिंह को बचाना चाहते तो विक्टोरिया को मजबूर कर सकते थे। क्योंकि वह बम जो फेंका गया था वह सिर्फ आवाज के लिए था।

1947 की लड़ाई में निराला भी शामिल थे। प्रेमचंद तो थे ही। पूरा हिंदी साहित्य का विकास और कला और स्वाधीनता के जीवन मूल्यों का जो विकास है, वह इसकी देन है। उसमें हमारे बड़े चिंतक, कवि आते हैं- हजारी प्रसाद द्विवेदी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जिन्होंने सरस्वती जैसी पत्रिका निकाली, यशपाल, रेणु, नागार्जुन, भीष्म साहनी, अमृत लाल नागर आदि।

1857 से 1947 के बीच की लड़ाइयों ने भारत को पहली बार एक कौमी पहचान दी। हिन्दुस्तानी होने की जो अस्मिता है, उसक हृदय की वाणी सुनाई देती है इसमें। इसने हजारों गीतकार पैदा किए, उपन्यास लिखे गए। प्रेमचंद का हंस निकला। 1936 में प्रेमचंद का निधन हुआ, उसी आसपास गोर्की का भी निधन हुआ था। और लूशुन ....।

वह एक ऐसी लड़ाई थी जिस पर वोल्शेविक क्रांति का प्रभाव था। उसी बीच कम्यूनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ। एक आदि कम्यूनिस्ट के रूप में इतिहासकार भगत सिंह का नाम लेते हैं। चंद्रशेखर आजाद जो पूजा-पाठ करते थे और पांच बार के नमाजी शाहजहांपुर के अशफाकउल्ला खां। ये सारे लोग इसी से निकले थे। मूल्यवान इतिहासकार सुधीर विद्यार्थी ने बटुकेश्वर दत्त पर पहली पुस्तक लिखी जो एसेंबली बम कांड के सह-नायक थे। वे विधान-परिषद के सदस्य भी रह चुके थे। जिन्हें काले पानी की सजा हुई थी। उनका स्मारक तक नहीं है।

1947 को लेकर एक कवि के नाते मैं देखता हूं कि देश में पहली बार संसदीय जनतंत्रा सामने आता है, न्यायपालिका आती है सरकार आती है डा अंबेडकर जैसे विध्विेत्ता ने संविधान की रचना की। संविधन को मैं सम्मान की दृष्टि से देखता हूं और अंबेडकर की चेतना को। 1947 ने पंडित नेहरू जैसे महान बुद्धिजीवी को सामने लाया जिन्होंने विश्व इतिहास की झलक और भारत एक खोज की रचना की। उन्हें औद्योगिक भारत का संस्थापक माना जाता है। गांधी भी राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेता के रूप में उभरते हैं। उनके नेतृत्व में भारत का पूंजीपति वर्ग तैयार हुआ।

 

विनय कुमार - ये तो आपने बताया कि हमने क्या पाया। पर हमने क्या खोया? कुछ खोया भी?

आलोक धन्वा - जो अतिवादी चिंतक हैं, वो मानते हैं कि हमने खोया। अतिवाद में न जाकर देखना चाहिए कि जिस तरह रघुवीर सहाय ने नेहरू-युग से मोहभंग की कविताएं लिखीं और धूमिल ने भी...। या फिर निराला जैसे विश्व कवि हैं। 20वीं सदी में निराला से बड़ा कोई कवि नहीं। निराला ने हिंदी को विश्वभाषा का दर्जा दिया। ऐसा नहीं था कि निराला आलोचक नहीं थे। निराला ने लिखा - काले-काले बादल आए न आए वीर जवाहरलाल, भूखे-नंगे खड़े शरमाए ना आए वीर जवाहर लाल...। ये उसी समय लिखा उन्होंने भी। आजादी की आलोचना भी समानांतर तौर पर चल रही थी। तमस जैसी किताब लिखी भीष्म साहनी ने।

जहां तक खोया की बात है तो भारत का जो विभाजन है वह हिन्दुस्तानी कौम की सबसे बड़ी त्रासदी है। जिसकी सजा हम भोग रहे हैं। जिसके चलते आज भी भारत-पाक सीमा पर सबसे ज्यादा खर्च होता है। हमारा लहू बहता है वहां।

कुमार मुकुल - लोहिया ने एक किताब लिखी है ‘भारत विभाजन के अपराधी।’ उसमें उन्होंने गांधी-नेहरू-पटेल-जिन्ना सबको उसका दोषी पाया है। विभाजन का दोषी आप किसे मानते हैं? जैसे कि आपने कहा कि भगत सिंह के पक्ष में गांधी लड़े नहीं, उसी तरह विभाजन के खिलाफ भी वे खड़े नहीं हुए।

आलोक धन्‍वा - हां, मैंने कहा कि गांधी की करूणा भगत सिंह के फांसी के मुद्दे पर कलंकित होती है। हिंसा के जितने रूपों को कार्ल माक्र्स ने देखा, और प्रेमचंद ने देखा। तो प्रेमचंद के देश में पिछले तीन-चार सालों में दो-ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की।

प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर मामूली लेखक नहीं थे और दिनकर जो पंडित नेहरू के प्रगाढ मित्र थे। नेहरू ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य बनाया, संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका लिखी और हिन्दी सलाहकार समिति का चेयरमैन बनाया। पर दिनकर जी की कलम उस दोस्ती से बाधित नहीं होती। उन्होंने लिखा- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। उन्होंने भारतीय समाज के मध्ययुगीन अंतरविरोधों पर लिखा। दलित समस्या, सांप्रदायिकता, वर्गीय समस्या, अमीर-गरीब, शूद्र की समस्या पर लिखा। वे लिखते हैं- दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं। हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं। उन्होंने यह सब लिखा। तो हम कैसे कहें कि सिर्फ कम्यूनिस्टों ने लिखा। कम्यूनिस्ट पार्टी टिकी है आजादी की चेतना पर। कम्यूनिस्ट पार्टी तो नाम है। पर आजादी की चेतना तो मंजू के, विनय के भीतर भी है। विनोद जी तो पार्टी बैकग्राउंड से आते हैं, मैं तो कम्यूनिष्ट पार्टी के बैक ग्राउंड से आता हूं। आप, मुकुल तो पार्टी के बैक ग्राउंड से नहीं आते। तो यह भारतीय जनता की चेतना है।

विभाजन के लिए ना तो मैं पटेल को जिम्मेवार मानता हूं, ना गांधी को, ना जिन्ना को। नेहरू को भी नहीं। विभाजन के लिए मैं अंग्रेजों को जिम्मेवार मानता हूं। वे चाहते थे कि सशरीर यहां से चले जाएं पर ऐसा बाजार बना कर जाएं जिस पर हमारा झंडा तो ना होगा पर हमारी हुकूमत होगी। ये मेकाले और रूडयार्ड किपलिंग वाली शिक्षा पद्धति उसी के लिए छोड़ गए थे। अभी तक का हमारा पाठ्यक्रम वह नहीं है जो भारत के अनुकूल होना चाहिए।

कुमार मुकुल - इधर दलित साहित्य में कुछ लोग यह बात उठा रहे कि मेकाले की पद्धति सही थी जिसने हममें मुक्ति की चेतना जगायी। इसमें कुछ लोग अंबेडकर की बातों को भी पक्ष में तोड़-मोड़ कर रखते हैं।

आलेाक धन्वा - आपको पता है कि डा अंबेडकर ने एक ब्राह्मण महिला से भी शादी की थी। अभी मैं वर्धा में था तो वहां मैंने देखा कि नागपुर में जहां अंबेडकर की दीक्षा हुई थी, वहां उनकी जयंती पर लाखों की भीड़ जुटती है।

देखिए दलित विमर्श का एक अतिवादी रूप है, जो प्रेमचंद की किताबें जलाता है। साम्राज्यवाद की मदद करने वाला यह भारत विरोधी विमर्श है जिसे इस मुल्क से कुछ लेना-देना नहीं। जो प्रेमचंद की किताब जलाएगा वह उपनिवेशवाद की मदद करेगा। वह भारत को फिर से नया उपनिवेश बनाएगा।

पर दलित विमर्श की सकारात्मक धारा भी है, जिसमें हमारे कई मित्र हैं। ओम प्रकाश वाल्मीकि, नामदेव ढेसाल आदि। एक मित्र हैं चंद्रकांत पाटिल। उन्होंने मराठी में मेरी कविताओं का सुंदर संस्करण निकाला है। वह पुस्तक देखी नहीं। यहां अरुण कमल के पास है वह।

अब नामदेव ढसाल शिवसेना में हैं। तो उनके मंच से राजेश जोशी आदि ने कविताएं पढीं तो उनकी आलोचना हुयी। पर ढसाल कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। शिवसेना में होने से फर्क नहीं पड़ता फिर नारायण सुर्वे थे, वे किसी अनाम जगह से आते थे। और दया पवार थे जिन्होंने ‘अछूत’ लिखा। दलित साहित्य में कई प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। प्रो. तुलसी राम हैं- मुर्दहिया लिखने वाले। कैंसर से जूझ रहे हैं। वे आजमगढ़ के हैं। कई मुलाकातें हैं उनसे।

मैं समझता हूं कि दलित विमर्श में दो धाराएं हैं। एक धारा जो साम्राज्यवाद के विरूद्ध जाती है और हमारे गणतंत्र के पक्ष में सोचती है। दूसरी धारा अतिवादियों की है जो ब्राह्मणों से सिर्फ इसलिए घृणा करती है कि उसमें उसका जन्म हुआ, जिसमें उनका कोई दोष नहीं।

मैं जाति को नहीं मानता। मैं डार्विन में विश्वास करता हूं। जाति रियलिटी है, एक इंपोज्ड रियलिटी। मूल सत्य यह है कि हम सब मनुष्य हैं। मंजू की सच्चाई है कि मंजू एक मां हैं, पत्नी हैं, मित्रा हैं। वह प्रेम करने वाली स्‍त्री हैं। यह सच्चाई नहीं कि वे भूमिहार हैं, कि दलित हैं।

तो ये जो सारे विमर्श हैं उसमें हमें डार्विन और मार्गन को लाना होगा। जिन्होंने आदिपरिवार की खोज की। यहां विनय बैठे हैं, वे ज्यादा बताएंगे एंथ्रोपोलोजी के बारे में। तो ये चीजें हम पर लादी गई हैं। राजा शोषण करता था। शोषण के लिए प्रजा को विभाजित करता था। ब्राह्मण कहता था कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसे शासन करने को यहां भेजा गया है।

श्रीकांत वर्मा कांग्रेस महासचिव बने तो जब बैलों की जोड़ी से अलग इंदिरा गांधी ने हाथ को चुनाव चिन्ह बनाया तो उन्होंने कहा कि ये वो हाथ हैं जो शासन करना जानते हैं। इसलिए इन हाथों पर मुहर लगाएं। तो ये सामान्य बात नहीं।

कांग्रेस के भीतर दो धाराएं थीं। इमरजेंसी जब लगी तो मैं दिल्ली में था। सेवंथ चैनल को आनंद स्वरूप वर्मा ने बतलाया कि आलोक धन्वा इमरजेंसी में थे।

मेरे यहां रेड हुआ था तो मैं भागा। तब मुझे डा सुशील मेहता ने अपने यहां शरण दी थी। अकेली होकर भी उन्होंने मुझे छुपाया। वे मेहता नगेन्द्र की पत्नी थीं और भईया की क्लासमेट थीं। पीएमसीएच की पास आउट वे दो नंबर रोड में रहती थीं। उस समय मैंने बाल-दाढी आदि कटवा ली थी और भगिना ने मुझे कुछ अलग कपड़े दिए थे। रेणु जी ने वह संस्मरण लिखा था, रिणजल-धनजल में छपा था वह।

तब शिवानंद तिवारी भी अंडर ग्राउंड थे, जमुई में। हमारे घर आए वे रात में, मैंने कहा आप गांव जाइए मेरे-पिताजी जमींदार हैं, वहीं चले जाइए। वहां पुलिस नहीं जाएगी। पर वे रूके नहीं। रात दो बेजे मैंने अपने भाई के साथ उन्हें बाहर निकाला। ये बनवारी आदि सब मिलते थे उस समय।

तो आपातकाल की जब 25वीं मनाई जा रही थी तो चैनल में बातचीत के लिए बसंत साठे, उमा वासुदेवन, त्रिनेत्र जोशी सब जुटे थे। उमा ने इंदिरा गांधी पर दो पुस्तकें लिखी थीं। वहां भाजपा नेता महावीर अधिकारी भी थे। तो ऐसे बड़े लोगों के सामने मेरी क्या हैसियत। तो त्रिनेत्र जोशी ने कहा- क्या करेंगे आप अकेले। मैंने कहा- अकेला ही मनुष्य दुनिया में आया है और अकेला ही जाएगा। सारे उत्कर्ष उसे अकेले ही प्राप्त करने होते हैं। बस जनता साथ देती है।

तो एक-एक कर बुलाया जाता था हमें। बसंत साठे से बहस शुरू हुई। मैंने कहा कि कांग्रेस में शुरू से दो धाराएं थीं- डेमोक्रेटिक और आटोक्रेटिक। एक जो डेमोक्रेटिक थी वह कांग्रेस को आगे ले जाती थी। प्रीवीपर्स, भूमिवितरण, सोवियत संघ से संधि बैंकों का राष्ट्रीयकरण आदि उस धारा ने किया।

दूसरी धारा वह थी जिसने, जब पहली बार 1956 में केरल में नंबूदरीपाद की सरकार बनी, तो वह सरकार गिरा दी थी। उस धरा ने जेपी और देश के बाकी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया था।

कुमार मुकुल - दलित साहित्य में इधर एक और बहस चल रही है। ढोल-गंवार-शुद्र-पशु-नारी लिखने को लेकर पहले से ही तुलसी की आलोचना होती है अब नारी को नरक का द्वार बताने को लेकर कबीर पर भी सवाल उठ रहे हैं। उधर डा. धर्मवीर, कबीर को दलित धर्म के अकेले संस्थापक के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। पर धमर्वीर बुद्ध को इस विमर्श से बाहर करना चाहते हैं। अंबेडकर की सराहना करते हुए भी वे बौद्ध धर्म अपनाने को लेकर उनकी आलोचना करते हैं। इसे आप किस तरह देखते हैं?

आलोकधन्वा - अतिवादियों की उसी धारा में डा. धर्मवीर भी शामिल हैं। मैंने उन्हें पूरा पढ़ा नहीं, सो साधिकार नहीं कह सकता। पर जातीय विद्वेष फैलाने वाली भाषा अगर कोई दलित नेता लिखता या बोलता है तो मैं समझता हूं कि वह दलित विमर्श का नुकसान कर रहा है। दलित भी ब्राह्मण की तरह तमाम अधिकारों का हकदार है। यह एक पूंजीवादी साजिश है भारत में, जहां एक गरीब पिछड़े को तो आरक्षण मिलता है पर गरीब ब्राह्मण को नहीं। मैं आरक्षण का विरोधी नहीं पर इस जातीय विद्वेष और गठजोड़ की राजनीति के, मैं साथ नहीं। मैं चाहता हूं कि हिंदी में प्रगतिशील बुद्धिजीवी इस अवैज्ञानिक धरणा के विरूद् एकजुट हो जनमानस का निर्माण करें।

 

मनोवेद में प्रकाशित