रविवार, 3 सितंबर 2023

कला आकलन और आब्‍जर्वेशन में है - हिम्‍मत शाह

हिम्‍मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत

1933 में लोथल गुजरात में जन्‍मे और जयपुर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले हिम्‍मत शाह कला के क्षेत्र में विश्‍वविख्‍यात नाम है। जग्‍गूभाई शाह के शिष्‍य श्री शाह मध्‍यप्रदेश सरकार के कालिदास सम्‍मान, साहित्‍यकला परिषद अवार्ड, एलकेए अवार्ड, एआइएफएसीएस अवार्ड दिल्‍ली आदि से सम्‍मानित हो चुके हैं। भारत सरकार के एमेरिट्स फेलोशिप सहित कई फेलोशिप के तहत उन्‍होंने काम किया है। लंदन, दिल्‍ली, मुंबई सहित तमाम जगहों पर उनके कला कार्यों की प्रदर्शनियां लगती रही हैं। जवाहर कला केंद्र में नवंबर-दिसंबर 2017 में उनके काम को प्रदर्शित किया गया था। उसी दौरान उनसे यह बातचीत की गयी।

प्रस्‍तुत हैं श्री हिम्‍मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत के अंश -


कला आकलन और आब्‍जर्वेशन में है - हिम्‍मत शाह



आपका कला की ओर रूझान कैसे हुआ
? यह विचार कैसे आया कि चित्रकारी की जाए ?

ऐसा कोई विचार कर चित्रकारी की ओर नहीं गया मैं। मन खाली सा लगता तो चित्र बनाने लगा। पढने का पैसा नहीं था, तो पड़ोसी मकान में चूना करता तो मैं उसकी तगाड़ी उठा उसकी मदद करता, उसे दीवार रंगता देखता।

फिर एक दोस्‍त के साथ दिल्‍ली आ गया। इस बीच जहां- तहां रेखाएं खींचने की आदत लग चुकी थी। दिल्‍ली में मित्र जे स्‍वामीनाथन एक बार मुझे लेकर मैक्सिकन कवि ऑक्‍टोवियो पॉज के पास गए। पॉज नोबल से सम्‍मानित हो चुके हैं। उन्‍होंने मेरे बनाए चित्र देखे तो उसकी सराहना की। तब मुझे अंग्रेजी आती नहीं थी तो उनकी राय से अंग्रेजी के क्‍लास कर कामचलाने भर अंग्रेजी सीखी मैंने। पॉज ने ही पेरिस घूमने को फेलोशिप की व्‍यवस्‍था करायी। 1966 में मैं पेरिस-लंदन घूमा। पिकासो, मार्टिस, बराक का काम देखा। वहां के म्‍यूजियम देखे, आर्ट क्‍लासेज भी किये। वहां महीनों रहा मैं।

क्‍या मौलिकता जैसी कोई चीज होती है, या हम किसी परंपरा में विकसित होते रहते हैं?

एकदम, मौलिकता होती है। जन्‍म पहली मौलिक रचनात्‍मकता है। रचनात्‍मकता का संबंध दिमाग से नहीं दिल से है। मैं किसी चीज की नकल नहीं करता। अब एक फूल है तो मैं कितनी भी कोशिश करूं उसकी नकल नहीं कर सकता। इसलिए मैं प्रकृति जैसी शक्‍लों को आकार देने की कोशिश करता हूं। बाढ में जब कोई घर गिरता है तो वह मुझे जीवित और रचनात्‍मक लगता है, मैं उसे फिर अपनी रचना में लाना चाहता हूं।

एक तस्‍वीर में आपने लकडि़यों का ढेर जमा किया है और पीछे आकाश की पृष्‍ठभूमि है और एक ओर आप भी हैं। यह इंस्‍टालेशन बांधता है दर्शक को।

हां, एक फोटोग्राफर मित्र के साथ रेगिस्‍तानी निर्जन इलाके में महीनों रहा। इधर-उधर बिखरी लकडि़यों से खेलता उन्‍हें मनमर्जी से रखता गया। वही फिर अपना वर्क कहलाया। कुछ लोग मेरी कला को चोरी कहते हैं, कि उसने क्‍या किया, कुछ किया नहीं और आर्टिस्‍ट बन गया।

अपने देश, परंपरा के बारे में क्‍या सोचते हैं आप ?

यूं तो यह देश गुरू परंपरा का देश कहलाता है। पर अब सचेतनता नहीं रही। पश्चिम में लोग इतिहास सचेत हैं। वे लोग हमारी चीजों को भी बचाकर रखे हैं। पेरिस म्‍यूजियम देखा तो भारत की सुंदरता का पता चला। रूसो का वर्क भी अदभुत था। आज सारा विकास उनका है। हम उनका यूज करते हैं और अहंकार में रहते हैं, क्‍या कहते हैं, आत्‍मशलाघा है बस। यूं मैं परंपरा को नहीं मानता, जीवन की गति मुख्‍य है।

विश्‍व के रचनाकारों में आपको कौन प्रिय हैं और भारतीय रचनाकार...? भारतीय विचारकों में किससे प्रभावित हुए आप ?

मुझ पर किसी का प्रभाव नहीं। मैं बुद्ध को पसंद करता हूं। अप्‍प दीपों भव, महान कथन है उनका। महावीर ने, तीर्थंकर ने भी कहा कि किसी की शरण में मत जाओ। किसी का फलोवर नहीं मैं।

दॉस्‍तोयेवस्‍की, चेखोव, टाल्‍स्‍टाय, पुश्किन आदि को फिल्‍मों के माध्‍यम से जाना मैंने। दॉस्‍तोयेवस्‍की के लेखन के आगे गीता, बाईबल, कुरान सब फीके लगते हैं मुझे। अपने यहां प्रेमचंद, टैगोर बड़े लेखक हैं, गुलाबदास हैं। गांधी का तो जीवन ही मिरैकल, चमत्‍कार है। वॉन गॉग ग्रेट आर्टिस्‍ट था, उसके पत्र बहुत अच्‍छे लगे। पिकासो की अपनी जगह है। सदियों में पैदा होते हैं ऐसे एकाध।


आपने इंस्‍टालेशन
, चित्रकारी,मूर्तिकारी आदि कला के तमाम क्षेत्रों में हाथ आजमाया है, पर इनमें आपको प्रिय क्‍या है?

टेराकोटा के काम में, मिटटी के काम में मुझे मजा आता है। फिर ब्रांज पर काम करना भी पसंद है। यूं जो भी काम मुझे अच्‍छा लगता है मैं करता जाता हूं। यह नहीं सोचता कि लोग क्‍या कहेंगे, बस करते जाता हूं।

कवि आक्‍टोवियो पॉज के बारे में बताएं। उनकी संगत कैसी रही।

पॉज बड़ा पोएट हैं। आदमी सिंपल और अच्‍छा थे। मुझे अपनी बात रखनी नहीं आती थी फिर भी वे मुझे सुनते थे। हंसते भी थे। वे बोलते थे - आई लव इंडिया, कि संभावना है तो इस मुल्‍क में है। पर आज जो कुछ हो रहा, मुझे तो कोई संभावना नहीं दिख रही अब।

अन्‍य कलाओं, भारतीय संगीत आदि के बारे में आपकी क्‍या रूझान है ?

जो भारतीय संगीत को नहीं जानता, वह भारत को नहीं जानता। अमीर खान, किशोरी अमोनकर, अली अकबर, फैयाज खां, ग्‍वालियर घराना, पटियाला घराना के संगीतकारों को सुनता रहता हूं। कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, अजीत चक्रवर्ती, कौशिकी चक्रवर्ती, जोहरा बाई सबको सुनता हूं।

आज की कला, कलाकारों और जीवन के दर्शन के बारे में आप क्‍या सोचते हैं ?

आज अधिकतर कलाकार करियरिस्‍ट हैं। पर मैं सहजता को मानता हूं। साधो सहज समाधि भली, कितनी बड़ी बात है। सरहपा ने भी सहजयोग की बात की। स्‍मृति मुख्‍य है। कला आकलन में, आब्‍जर्वेशन में है। पश्चिम के लोग कला के कद्रदां हैं, भारत में नहीं हैं वैसे लोग।

हमें प्रकृति के रंग पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए। पूरा देखना होना चाहिए। इसके लिए साधना की जरूरत होती है। मोलोराय कहते हैं - करेज टू क्रियेट। पर आज सब फोटोछाप हो गया है, छिछली बातें हो रही, सब सतह पर तैर रहे।

कला स्‍वांत:सुखाय होती है। सौंदर्य वह है जो हमें अभिभूत करता है। रचनात्‍मकता दर्शन के आगे की चीज है, चेतनता सर्वोच्‍च अवस्‍था है। खुशी उसका बायप्रेाडक्‍ट है।

हर बच्‍च मुझे रचनात्‍मक लगता है। पर हम उसे दखे नहीं पाते। हमारा समाज बच्‍चों की क्रियाशीलता को रचनात्‍मकता को मार देता है। कल्‍पना बड़ी चीज है, पर हम बच्‍चे की कल्‍पना को मार देते हैं। अनुशासन, राष्‍ट्र यह सब बकवास है। स्‍कूल से निकलते बच्‍चों का शोर सुनो, उससे बड़ा संगीत क्‍या है? हम हिप्‍पोक्रेट और दिखावे के समाज की उपज हैं।

हम व्‍यर्थ से घिरे हैं, जीवन से व्‍यर्थ को हटाओ, इसके लिए बड़ी ताकत चाहिए। पर आज तो जीवन ही नहीं है। जीवन जीओ, तो विजडम मिलेगा। कृष्‍ण, पिकासो लाखों साल का विजडम लेकर आए थे। आंद्रे बेतें, सार्त्र, कामू ऐेसे रचनाकार हमारे यहां एक भी नहीं। रजनीश बड़ा मेधावी था। वह कहता है - फ्लाई विदाउट विंग्‍स, वाक विदाउट लेग।

रचना विद्रोह है, रिबेल है। कबीर विद्रोही थे, वैसा बेलाग कोई नहीं बोला। बुद्ध भी नहीं। मीरा, बुद्ध, कबीर सब तीर्थंकर थे। बुद्ध के यहां करूणा की पराकाष्‍ठा है, क्‍या बात है, है कि नहीं, क्‍या ....? कालिदास, लियोनार्दो दा विंची की तरह रचनात्‍मक कौन है ?

शनिवार, 2 सितंबर 2023

प्रतिरोध का स्त्री-स्वर कुछ नोट्स


वरिष्ठ कवि सविता सिंह के संपादन में आए 'समकालीन हिंदी कविता' में 'प्रतिरोध का स्त्री स्वर' से गुजर गया एक बार। अच्छा लगा कि संकलन के आधे से अधिक कवियों से मैं ढंग से परिचित नहीं था। कुछ से फेसबुक तक ही सीमित परिचय था तो इस किताब ने उनके रचनाकर्म से अपरिचय समाप्त किया।

यह कविताएं बताती हैं कि कोई भी समय गूंगा नहीं होता। जवाब मिलता है, हर आतंकी सत्ता को जवाब मिलता है। संकलन में वर्तमान दशक में सत्ता की जन-विरोधी गतिविधियों का प्रतिकार करती और उन पर तार्किक सवाल उठाती कविताएं हैं। 

संकलन में रचनाकारों के लिए 'कवि' और 'कवयित्री' दोनों शब्दों का प्रयोग है। कवयित्री की जगह कवि शब्द के प्रयोग पर जोर दिखता है आजकल, आधुनिक स्त्री-विमर्श के लिहाज से यह उचित भी है। फिर कवयित्री उलझन में भी डालता है लोग अक्सर कवियत्री लिख डालते हैं। खैर, मुझे लगा कि केवल कवि शब्द का ही प्रयोग अच्छा रहता और स्त्री-स्वर कहना भी कवयित्री लिखने की तरह अर्थ को सीमित करता है। 'प्रतिरोध के स्वर' लिखना ही पर्याप्त होता। पुस्तक में कुल बीस कवि संकलित हैं। प्रस्तुत हैं उनपर कुछ नोट्स -

संकलन का आरंभ वरिष्ठ कवि शुभा की कविताओं से होता है। शुभा का स्वर गहन बौद्धिक है, पर उनकी संवेदना ज्ञान से पुष्ट है, इसलिए वह वृथा चुनौती नहीं देती, बल्कि आपकी आँखें खोल आपको आपके निज के दर्शन कराती है -

वे लिंग पर इतरा रहे होते हैं 
आख़िर लिंग देखकर ही 
माता-पिता थाली बजाने लगते हैं
दाइयाँ नाचने लगती हैं 
लोग मिठाई के लिए मुँह फाड़े आने लगते हैं...।

संग्रह में सर्वाधिक पन्ने शोभा सिंह को दिए गए हैं। शोभा सिंह के यहां सहज विवरण हैं जीवन के, और संघर्ष की मिसाल बन चुकी स्त्री चरित्रों के चित्र हैं, बिलकिस बानो से लेकर गौरी लंकेश तक। औरत बीड़ी मजदूर शीर्षक एक कविता है शोभा की जिसमें बीड़ी मजदूर का त्रासद जीवन दर्ज है। संघर्ष स्थल का प्रतीक व दस्तावेज बन चुके 'शाहीन बाग' पर कई कविताएं हैं संग्रह में शोभा लिखती हैं -

इसी मिट्टी में दफ़न हैं हमारे पुरखे 
यह मिट्टी 
दस्तावेज़ हमारा ।

निर्मला गर्ग की कविता का चेहरा वैश्विक है। अपने समय की मुखर आलोचना है उनके यहां। उनकी छोटी कविताएं मारक हैं -

मूर्तियो!
तुम ही कर दो इंकार 
स्थापित होना
फिर प्रवाहित होना
नहीं चाहिए आस्था का यह कारोबार!

कात्यायनी के यहां संघर्ष की जमीन पुख्ता है और उनके इरादे पितृसत्ता को विचलित करने वाले हैं -

यह स्त्री
सब कुछ जानती है 
पिंजरे के बारे में 
जाल के बारे में 
यंत्रणागृहों के बारे में
उससे पूछो 
पिंजरे के बारे में पूछो...
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबांसियाँ 
इन्हें समझो।
इस स्त्री से डरो।

अजंता देव की कविताओं में वर्तमान सत्ता की वस्तुगत आलोचना है -

मैंने बहुत बाद में जाना
कुर्सी पर सफ़ेद चादर ओढ़ाने से वह हिमालय नहीं होता 
गत्ते का मुकुट लगाए खड़ी वह भारत माता नहीं
मेरी सहेली है...

युद्ध पर दो कविताएं हैं अजंता देव के यहां, 'युद्धबंदी' और 'शांति भी एक युद्ध है'। इनमें अंतर्विरोध है। वे लिखती हैं - 'हर युद्ध की मैं बंदी हूं हर युद्ध मुझसे छीनता रहता है नीला आसमान।' यहां 'हर युद्ध' में 'शांति' भी शामिल हो जाती है अगर वह भी 'एक युद्ध है' तो। युद्ध को बेहतर व्याख्यायित करती है प्रज्ञा रावत की कविता 'फतह' -

जब मनुष्य जीवन के संघर्षों में 
खपता है वो कुछ फ़तह करने
नहीं निकलता
जिनके इरादे सिर्फ़ फ़तह करने 
के होते हैं, झंडे गाढ़ने के होते हैं 
उनसे डरो ...

प्रज्ञा के यहां इमानदारी पर जोर देती कविता है 'ईमानदार आदमी' -

पर सच तो है यही कि 
ईमानदारी निहत्थी ही सुंदर लगती है ...

मुझे लगता है ईमानदारी अपने में कोई मूल्य नहीं है, इसे संदर्भ में ही जाना जा सकता है। यह एक हद तक वर्गगत स्वभाव है। अक्सर सुनने में आता है ईमानदार अफसर, ईमानदार चपरासी सुना नहीं कभी। यूं प्रज्ञा के संदर्भ वैश्विक हैं और उनका स्वर मात्र स्त्री स्वर नहीं मानुष स्वर है। 

चार दशक पहले आलोक धन्वा जैसे  कवि ने जैसी स्त्री की कल्पना की थी, वह सविता सिंह की कविताओं में मौजूद है -

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी ...

सविता की कविताएँ बताती हैं कि अब उन्हें दूसरे की करुणा और परिभाषाओं की जरूरत नहीं। अपने हिस्से के अँधेरों को कम करना, उनसे जूझना सीख गई हैं सविता की स्त्रियाँ -

मैं अपनी औरत हूँ 
अपना खाती हूँ 
जब जी चाहता है तब खाती हूँ 
मैं किसी की मार नहीं सहती 
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं...।

रजनी तिलक की कविताएं विवरणात्मक हैं। कुछ वाजिब सवाल उठाए हैं उन्होंने -
 
पूछती हूँ तुमसे मैं 
एक योनि सवर्ण बहिना की 
उन्हें अपनी योनि पर 
ख़ुद का नियंत्रण चाहिए 
तब दलित स्त्री की आबरू पर 
बाजारू नियंत्रण क्यों?

युद्ध के मसले पर रजनी साफ करती हैं कि - 'बुद्ध चाहिए युद्ध नहीं'। 

निवेदिता झा की कविताओं में जीवन और संघर्ष की नई जमीन है -
 
हे विष्णु
हे जगत के पालनहार!
मेरा सुख तुम्हारे पाँव तले कभी नहीं था ...

स्त्री स्वर से आगे निवेदिता के यहां भी मानुष स्वर है -

मैं तुमसे तुम्हारी प्रार्थना के बाहर मिलना चाहता हूँ 
मनुष्य की तरह ।

'दलित स्त्री के प्रश्नों पर लेखन में निरंतर सक्रिय' अनिता भारती दलित दिखावे पर भी सवाल खड़े करती हैं -

क्या मात्र अपने को 
नीली आभा से 
ढँक लेना ही 
और उसका ढिंढोरा पीट देना ही
आंदोलनकारी हो जाना है?

'प्रतिघात' कविता में अनीता सरलता पर सवाल उठाती हैं -

मैंने अपने अनुभव से जाना 
ज्यादा सरल होना अच्छा नहीं होता...

यहां वीरेन डंगवाल याद आते हैं -

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी..

हेमलता महेश्वर अपनी कविताओं में समकालीन संघर्ष को मुखर करती हैं, ये कविताएं साबित करती हैं कि शिक्षा शेरनी का दूध है -

मैंने जन्मजात प्रतिभा की मान्यता को अर्जित योग्यता में बदला 
बेगार करना छोड़ 
रोज़गार अपनाया...

हेमलता की तरह वंदना टेटे की कविताओं में भी आज का संघर्ष मुकम्मल ढंग से जाहिर होता है। वर्तमान संघर्ष की ठोस शक्ल आदिवासी समाज की स्त्रियों के लेखन में दिख रही, प्रतिरोध का मुख्य स्वर वहीं से आ रहा -

चेहरा हमारा
सदियों से सूर्पनखा है, बहन 
और इतिहास हमारी नाक
जिसे काटते रहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम ...

रीता दास राम की कविताओं में प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट नहीं है। उनका विश्वास बरकरार है पुरानी स्त्री पर -

हार भी तुम में 
मानवता की जीत भी तुम ...

नीलेश रघुवंशी की कविताओं में दृष्टि की गहनता आश्वस्त करती है -

खेल की आड़ में युद्ध-युद्ध खेलोगे 
तो मैदान नहीं बचेंगे फिर 
बिना खेल मैदान के 
पहचाने जाएँगे हम ऐसे देश के रूप में 
जो युद्ध को एक खेल समझता है ...

अपने समय की विकृतियों पर वे बारहा सवाल करती हैं -

ये कैसा समय है.
जिसमें

दूध की मुस्कान में भी 
खोजे जाते हैं अर्थ ...

निर्मला पुतुल की कविताओं में वैचारिकता बढ़ी है, स्त्रियां दलित व सर्वहारा होती हैं, से आगे बढ़कर स्त्रियों के वर्ग की शिनाख्त करती हैं वो -

एक स्त्री गा रही हैं 
दूसरी रो रही है
और इन दोनों के बीच खड़ी एक तीसरी स्त्री 
इन दोनों को बार-बार देखती कुछ सोच रही है ...

निर्मला दिखलाती हैं कि आदिवासी समाज में भी स्त्री उसी तरह प्रताड़ित है -

हक़ की बात न करो मेरी बहन ... 
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो, बहन 
मिहिजाम के गोआकोला की सुबोधिनी मारंडी की तरह तुम भी
अपने मगज़हीन पति द्वारा 
भरी पंचायत में डायन करार कर दंडित की जाओगी 
माँझी हाड़ाम पराणिक गुड़ित ठेकेदार, महाजन और 
जान-गुरुओं के षड्यंत्र का शिकार बन...

सीमा आजाद के एक्टिविज्म से मेरा परिचय कराया था फेसबुक ने। सीमा के यहां संघर्ष को मुखर करने का अंदाज नया है। उनके जीवन संघर्ष की जीवंतता जिस तरह उनकी कविताओं में आकार पाती है वह नया आगाज है संघर्षशील कविता की दुनिया में -

ब्रह्मांड की तरह फैलते
मेरे वजूद को
तुमने समेट दिया
तीन फुट चौड़ी आठ फुट लंबी
कब्र जैसी सीमेंटेड सीट में
मैने इसके एक कोने में
सज़ा लिया
अमलतास के लहलहाते फूलों का गुच्छा ... 
मारिया सिसो की कविता का पोस्टर चिपका दिया है ठीक आँख के सामने...।

जीवन और कविता की सहज वैश्विकता को साधती हैं सीमा आजाद।
पारंपरिक भारतीय अहम को सुशीला टाकभौरे की कविताएं चुनौती देती हैं -

सूरज,
तुम आना इस देश अंधकार फैला है ...

वे देखती हैं कि किस तरह कोरोना काल में ईश्वर को चुनौती मिलती है। कोरोना-काल की विडंबनाएं सुशीला की कई कविताओं में दर्ज हैं  -

यह कैसा समय आया है 'कोरोना-काल' में 
ईश्वर को ही कर दिया है बंद 
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में ...

कविता कृष्ण पल्लवी की कविताओं में भी संघर्ष की इबारत चमक रही है और जीवन को अपने विवेक से जीने का जज्बा परवान चढ़ता दिखता है -

ख़ुद ही मैंने जाना 
असफलता के सम्मान के बारे में 
भीड़ के पीछे न चलने का 
फैसला मैंने ख़ुद लिया...

भीड़ की भेड़ चाल से बचने और असफलता के सम्मान की बात कविता करती हैं। यह स्पष्ट तथ्य है कि सफलता मात्र वह लहर है जो बाकी लहरों के ऊपर दिखती है, क्षणभर को, यह समंदर या जीवन का सच नहीं है। यू कविता के यहां गुस्सा काफी है और गुस्से में वह कुत्तों के गू की 'ढेरी' तक ढूंढ लेती हैं। 

जसिंता केरकेट्टा के पास अपने समय को देखने और विश्लेषित करने की द्वंद्वावात्मक दृष्टि है। 'पहाड़ और प्यार' उनकी महत्वपूर्ण कविता है, जिसमें वे भारतीय सामाजिक जीवन में प्रेम की त्रासदी को देखती हैं और दिखाती हैं। वे दिखाती हैं कि एक ओर तो प्रेम का बाजार है फिल्मी और दूसरी और प्रेम के नाम पर गला काट ले जाते हैं लोग -

प्यार जीवन से कब निकल गया
और किसी सिनेमा हॉल के
बड़े से पर्दे पर पसर गया 
पता ही नहीं चला...

प्रेम पर विचार करते हुए वे पहाड़ और जमीनी विस्तार के अंतर को रेखांकित करती हैं -

पहाड़ स्त्री के नाम की गालियाँ नहीं जानता ...

'स्त्रियों का ईश्वर' कविता में वे स्त्री जीवन की विडंबना को दर्शाती हैं और उस पर सवाल खड़े करती हैं -

सबके हिस्से का ईश्वर 
स्त्रियों के हिस्से में क्यों आ जाता है? 

शोषित आदिवासियों का पक्ष निर्मला पुतुल के यहां उभरता है तो जसिंता के यहां वह प्रतिरोध को सन्नध दिखता है -

कविता चलाती है उसकी पीठ पर हँसिया
तोड़ देती है उसकी गन्दी अँगुलियाँ 
और चीखती है 
बंद करो कविता में ढूँढ़ना आदिवासी लड़कियाँ ।

रुचि भल्ला की कविताओं से संकलन का अंत होता है। उनकी कविताओं में एक रोचक खिलंदड़ापन है। अपनी कविता  में वे गंभीर सवाल खड़े करती हैं -

कब्र खोदने के इस दौर में 
देश न खो बैठे अपना नाम

सच है यह भय कि नाम बदलने का यह खेल कहीं देश के नाम खोने तक ना चला जाए। आखिर जंबूद्वीप, आर्यावर्त आदि कई नाम खो चुका है यह देश। 

कुल मिलाकर प्रतिरोध के जज्बे को यह संकलन नई गति देता है। इस संग्रह के बाहर भी तमाम नाम हैं, जो संघर्ष को नई सूरत देते रहते हैं। जैसे- रूपम मिश्र, ज्योति शोभा, अनुपम सिंह आदि। भविष्य में संग्रह के दूसरे, तीसरे भाग संभव किए जा सकते हैं। संकलन में दो पेज की संपादकीय भूमिका में भाषा और लिंग की चार-छह भूलें खटकती हैं। जैसे- वेबसाइट की जगह बेवसाइट लिख देना आदि।

समकालीन जनमत में प्रकाशित

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

सप्तपदीयम् /// सात कवि

सप्तपदीयम् हिंदी के सात ऐसे कवियों की कविताओं का संकलन है जो पारंपरिक रूप से कवि यश: प्रार्थी नहीं रहे कभी। जिन्हें जीवन और उनके पेशे ने कवि होने, दिखने की सहूलियत उस तरह नहीं दी। एक दौर में और जब-तब उन्होंने कविता के फॉर्मेट में कुछ-कुछ लिखा कभी-कभार, कहीं भेजा, कुछ छपे-छपाये पर कवि रूप में अपनी पहचान के लिए उतावले नहीं दिखे।

लंबे समय से मैं इनके इस रचनाकर्म का साक्षी रहा। इनमें अपने पड़ोसी राजू रंजन प्रसाद के साथ पिछली बैठकियों में यह विचार उभरा कि क्‍यों न ऐसे गैर-पेशेवर कवियों की कविताओं का एक संकलन लाया जाए। फिर यह विचार स्थिर हुआ और ऐसे समानधर्मा रचनाकारों के नाम पर विचार हुआ, एक सूची तैयार हुई जिसमें से सात कवि इस संकलन में शामिल किये गये।
***
लेकर सीधा नारा
कौन पुकारा
अंतिम आशा की सन्‍ध्‍याओं से ...
 
शमशेर की उपर्युक्‍त पंक्तियों के निहितार्थ को DrRaju Ranjan Prasad की कविताएं बारहा ध्‍वनित करती हैं। राजूजी की कई कविताएं मुझे प्रिय हैं जिनमें ‘मैं कठिन समय का पहाड़ हूं’ मुझे बहुत प्रिय है -

मैं कठिन समय का पहाड़ हूं
वक्त के प्रलापों से बहुत कम छीजता हूं
मैं वो पहाड़ हूं
जिसके अंदर दूर तक पैसती हैं
वनस्पतियों की कोमल, सफेद जड़ें
मैं पहाड़ हूं
मजदूरों की छेनी गैतियों को
झूककर सलाम करता हूं।

यह कविता राजूजी के व्‍यक्तित्‍व को रूपायित करती है। वक्‍त की मार को एक पहाड़ की तरह झेलने के जीवट का नाम राजू रंजन प्रसाद है। पर समय की मार को झेलने को जो कठोरता उन्‍होंने धारण की है वह कोमल वनस्पतियों के लिए नहीं है फिर यहां पथरीली जड़ता भी नहीं है। यह
विवेकवान कठोरता श्रम की ताकत को पहचानती है और उसका हमेशा सम्‍मान करती है।
खुद को पहाड़ कहने वाले इस कवि को पता है कि कठोरता उसका आवरण है कि उसके पास भी अपना एक ‘सुकुमार’ चेहरा है और कोमल, सफेद जड़ों के लिए, जीवन के पनपने के लिए, उसके विस्‍तार के लिए वहां हमेशा जगह है।

तमाम संघर्षशील युवाओं की तरह Sudhir Suman भी सपने देखते हैं और उनके सपने दुनिया को बदल देने की उनकी रोजाना की लड़ाई का ही एक हिस्सा हैं। जन राजनीति के ज्वार-भाटे में शामिल रहने के कारण उनकी कविताओं की राजनीतिक निष्पत्तियाँ ठोस और प्रभावी बन पड़ी हैं। उदाहरण के लिए, उनकी ‘गांधी’ कविता को देखें कि कैसे एक वैश्विक व्यक्तित्व की सर्वव्यापी छाया सुकून का कोई दर्शन रचने की बजाय बाजार के विस्तार का औजार बनकर रह जाती है—

‘अहिंसा तुम्हारी एक दिन अचानक
कैद नजर आई पाँच सौ के नोट में
उसी में जड़ी थी तुम्हारी पोपली मुसकान
उस नोट में
तुम्हारी तसवीर है तीन जगह
एक में तुम आगे चले जा रहे पीछे हैं कई लोग
तुम कहाँ जा रहे हो
क्या पता है किसी को?’

सुधीर के यहाँ प्यार अभावों के बीच भावों के होने का यकीन और ‘दुःख भरी दुनिया की थाह’ और ‘उसे बदलने की चाह’ है—

‘सोचो तो जरा
वह है क्या
जिसमें डूब गए हैं
अभावों के सारे गम...
...
जी चाहता है
मौत को अलविदा कह दें।’ 

हमारे यहाँ प्यार अकसर सामनेवाले पर गुलाम बनाने की हद तक हक जताने का पर्याय बना दिखता है, पर सुधीर का इश्क हक की जबान नहीं जानता। सुधीर की कविताओं से गुजरना अपने समय के संघर्षों और त्रासदियों को जानना है। यह जानना हमें अपने समय के संकटों का मुकाबला निर्भीकता से करने की प्रेरणा देता है।

जैसे किसान जीवन का जमीनी दर्द कवि Chandra की कविताओं में दर्ज होता है उसी तरह एक मजदूर की त्रासदी को Khalid A Khan स्‍वर देते हैं –

मैं नहीं जनता था
कि मैं एक मज़दूर हूँ
जैसे मेरी माँ नहीं जानती थी
कि वो एक मज़दूर है, मेरे पिता की

मार खाती, दिन भर खटती
सिर्फ दो जून रोटी और एक छत के लिए

जैसे चंद्र के यहां आया किसान जीवन उससे पहले हिंदी कविता में नहीं दिखता अपनी उस जमीनी धज के साथ, खालिद के यहां चित्रित मजदूरों की जटिल मनोदशा भी इससे पहले अपनी इस जटिलता के साथ नहीं दिखती। इस अर्थ में दोनों ही हिंदी के क्रांतिकारी युवा कवि हैं। दोनों से ही हिंदी कविता आशा कर सकती है पर उस तरह नहीं जैसी वह आम मध्‍यवर्गीय कवियों से करती है। क्‍योंकि दोनों ही की कविताओं की राह में बाधाएं हैं जैसी बाधाएं उनके जीवन में हैं। यह अच्‍छी बात है कि दोनों का ही कैनवस विस्‍तृत है और क्रांतिकारी कविता का विश्‍वराग दोनों के यहां बजता है –

मैंने पूछा उनसे कि
क्यों चले जाते हो
हर बार सरहद पर
फेंकने पत्थर
जबकि तुम्हारा पत्थर नहीं पहुंचता
उन तक कभी
पर उनकी गोली हर बार तुम्हरे
सीने को चीरती हुई निकलती है…।

Anupama Garg की कविताएं इस समय समाज के प्रति एक स्‍त्री के सतत विद्रोह को दर्ज करती हैं। यह सबला जीवन की कविताएं हैं जो आपकी आंखों में आंखें डाल आपसे संवाद करती हैं –

क्योंकि, जब समझ नहीं आती,
तरीखें, न कोर्ट की, न माहवारी की।
तब भी,
समझ जरूर आता है,
बढ़ता हुआ पेट,
ये दीगर बात है,
कि उसका इलाज या उपाय तब भी समझ नहीं आता।

अनुपमा की कविताएं पितृसत्‍ता से बारहा विद्रोह करती हैं, तीखे सवाल करती हैं पर पिता के मनुष्‍यत्‍व को रेखांकित करने से चूकती भी नहीं –

तुम हो पिता जिसकी खोज रहती है, विलग व्यक्तित्त्व के पार भी
वो कैसा पुरुष होगा, जो कर सकेगा मुझे, तुम जैसा स्वीकार भी?
जो सह सकेगा तेज मेरे भीतर की स्त्री का, मेरा मुंडा हुआ सर, और मेरे सारे विचार भी?
वो तुम जैसा होगा पिता,
जो मेरे साथ सजा, सींच सकेगा, सिर्फ अपना घर नहीं, पूरा संसार ही |

अनुपमा की आत्‍मसजगता परंपरा की रूढिवादी छवियों को हर बार अपनी कसौटी पर जांचती है और उनका खंडन-मंडन करती है। इस रूप में उनकी आत्‍मसजगता राजनीतिक सजगता का पर्याय बनती दिखती है –

जब संन्यासी चलाने लगें दुकान,
तो मेरी सोच में,
क्यों न रह जाए सिर्फ,
रोटी कपड़ा, मकान …।

#आभा की कविताएं ऐसी स्‍त्री की कविताएं हैं जिसके सपने पितृसत्‍ता के दबाव में बिखरते चले जाते हैं। पराया धन से सुहागन बन जाती है वह पर अपने होने के मानी नहीं मिलते उसे। पारंपरिक अरेंज मैरेज किस तरह एक लड़की के व्‍यक्तित्‍व को ग्रसता चला जाता है इसे आभा की कविताएं बार-बार सामने रखती हैं –

हरे पत्‍तों से घिरे गुलाब की तरह
ख़ूबसूरत हो तुम
पर इसकी उम्‍मीद नहीं
कि तुम्‍हें देख सकूँ

इसलिए
उद्धत भाव से
अपनी बुद्धि मंद करना चाहती हूँ।

कैसे हमारा रुढिवादी समाज एक स्‍त्री की स्‍वतंत्र चेतना को नष्‍ट कर एक गुलाम समाज के लिए जमीन तैयार करता है इसे आभा की कविताएं स्‍पष्‍ट ढंग से सामने रखती हैं। आभा की कविताएं भारतीय आधी आबादी के उस बड़े हिस्‍से के दर्द को जाहिर करती हैं जिनके शरीर से उनकी आत्‍मा को सम्‍मान, लाज, लिहाज आदि के नाम पर धीरे-धीरे बेदखल कर दिया जाता है और वे लोगों की सुविधा का सामान बन कर रह जाती हैं –

कभी कभी
ऐसा क्यों लगता है
कि सबकुछ निरर्थक है

कि तमाम घरों में
दुखों के अटूट रिश्ते
पनपते हैं
जहाँ मकड़ी भी
अपना जाला नहीं बना पाती...।

Navin Kumar की कविताओं में आप कवियों के कवि शमशेर और मुक्तिबोध को एकमएक होता देख सकते हैं। उन्‍होंने अधिकतर लंबी कविताएं लिखी हैं जो आम अर्ध शहरी, कस्‍बाई जीवन को उसकी जटिलताओं और विडंबनाओं के साथ प्रस्‍तुत करती हैं। वे आलोक धन्‍वा की लंबी कविताओं की तरह दिग्‍वजय का शोर नहीं रचतीं बल्कि अपने आत्‍म को इस तरह खोलती हैं कि हम उसके समक्ष मूक पड़ते से उसे निहारने में मग्‍न होते जाते हैं –

मैं रोना चाहता था और
सो जाना चाहता था

कल को
किसी प्रेम पगी स्त्री का विलाप सुन नहीं सकूँगा
पृथ्वी पर हवाएं उलट पलट जाएंगी
समुद्र की लहरें बिना चांदनी के ही
अर्द्धद्वितीया को तोड़-तोड़ उर्ध्वचेतस् विस्फोट करेंगी

अपनी एक कविता में आभा लिखती हैं कि वे उद्धत भाव से अपनी बुद्धि मंद करती हैं। नवीन की कविताओं और उनके एक्टिविज्‍म से भरे जीवन को देख कर ऐसा लगता है कि उन्‍हेांने भी कविता और लोकोन्‍मुख जीवन में जीवन को चुना और कविता की उमग को आम जन की दिशा में मोड़ दिया -

नई नई जगहों में
लाचारी का, सट्टा का, दारू भट्टी का
नहीं तो बिल्डिंगों का कारोबार है
चारों तरफ होम्योपैथ की दवा सी तुर्श गंध है
या नहीं तो सड़ रहे
पानी, कीचड़, गोबर की
यहां की कविता में तो इतना गुस्सा है
कि यह अपने पसीने-मूत्र की धार में ही
बहा देना चाहती है सब कुछ …।

Amrendra Kumar की कविताएं पढते लगा कि अरसा बाद कोई सचमुच का कवि मिला है, अपनी सच्‍ची जिद, उमग, उल्‍लास और समय प्रदत्‍त संत्रासों के साथ। काव्‍य परंपरा का बोध जो हाल की कविता पीढी में सिरे से गायब मिलता है, अमरेन्‍द्र की कविताओं में उजागर होता दिखता है। इन कविताओं से गुजरते निराला-पंत-शमशेर साथ-साथ याद आते हैं। चित्रों की कौंध को इस तरह देखना अद्भुत है –

आसमान से
बरसती चांदनी में
अनावृत सो रही थी श्‍यामला धरती
शाप से कौन डरे ?

रामधारी सिंह दिनकर की कविता पंक्तियां हैं –

झड़ गयी पूंछ, रोमांत झड़े
पशुता का झड़ना बाकी है
बाहर-बाहर तन संवर चुका
मन अभी संवरना बाकी है।

अपनी कुछ कविताओं में अमरेन्‍द्र पशुता के उन चिह्नों की ना केवल शिनाख्‍त करते हैं बल्कि उसके मनोवैज्ञानिक कारकों और फलाफलों पर भी विचार करते चलते हैं –

खेल-खेल में ...
सीख लो यह
कि तुम्‍हें घोड़ा बनकर जीना है !
यह जान लो कि
तुमसे बराबर कहा जाता रहेगा
कि तुम कभी आदमी थे ही नहीं !

अपने समय की सा‍जिशों की पहचान है कवि को और उस पर उसकी सख्‍त निगाह है। बहुत ही बंजर और विध्‍वंसकारी दौर है यह फिर ऐसे में कोई कवि इस सबसे गाफिल कैसे रह सकता है सो अमरेन्‍द्र के यहां भी मुठभेड़ की कवियोचित मुद्राएं बारहा रूपाकार पाती दिखती हैं –

खेत बंजर होते जा रहे हैं
लेकिन, भूख बंजर नहीं हो सकती ...
और भड़कती भूख की आग
कुछ भी चबा सकती है।

रविवार, 27 अगस्त 2023

अरुण कमल की कविता - उधार की धार भी भय ने भोथरी कर दी


अरुण कमल
की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है
, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
 
'खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और खाली जमीन का टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
...यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं '
 
कवि का महानगर के जिस सघन हिस्से में रहना होता है, वहाँ विकास उर्ध्‍व दिशा में एक सीमा तक होकर अवरुद्ध हो गया है। इस जड़ता ने कवि स्वभाव को भी जड़ बना दिया है। अपनी ही उस जड़ता से ऊबा कवि नए इलाकों में जाता है तो एक-दूसरे किस्म की जड़ता (जिसे वह स्मृति के नाम से पुकार कर एक भ्रम पैदा करना चाहता है) को ढूंढ़ता है। रोज कुछ बनना उसे पसंद नहीं। उसे ढहा हुआ घर चाहिए। खाली भूखंड चाहिए।
 
'अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो,
क्या यही है वो घर?'
 
कवि कोई खास घर खोज रहा है। जो खाली भूखंडों और ढहे घरों के बीच ही पहचान में आता था। दरअसल नए मकानों के होते कब्जे को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। जबकि रघुवीर सहाय इस भेड़-धसान संस्कृति को खूब पहचानते थे। वे लिखते हैं - ‘यह संस्कृति ऐसे ही बूटे-ऊँचंगे मकानों को गढ़ेगी।’ अरुण कमल इन मकानों के अजनबीपन को न पहचान पा रहे हैं न भेद पा रहे हैं। बस बिसूर कर रह जाते हैं वे-
 
'समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास '
 
स्पष्ट है कि महानगरीय जीवन के आदी कवि को देर तक खोजना भारी पड़ रहा है। और पानी चला आ रहा है। हालाँकि घर बेशुमार हैं, पर उनसे उसका कोई संबंध नहीं है। नए विकास को वह स्मृत्ति के नाम पर खारिज कर देना चाहता है। नए विकास की अपनी नयी स्मृत्तियाँ होंगी ही, जिन्हें वह जानना भी नहीं चाहता।
‘शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।’ अब ऊपर वाले पर ही भरोसा है। वही रास्ता निकाले शायद। कुल मिलाकर यही अरुण कमल की कविताओं की पृष्ठभूमि है। एक फिजूल के भय की कृत्रिमता से पैदा हैं अधिकांश कविताएँ उनकी। जिनमें ‘बादल के घिरने का आतंक अकास के ढहने जैसा है।’ जहाँ स्मृत्ति का मानी जड़ अविवेकपूर्ण स्थितियों से है। ए.एल. बाशम ‘अद्भुत भारत’ में लिखते हैं कि यूरोप में साधारणतः मेघों की गरजन...अशुभ मानी जाती है। परंतु भारत के लिए वे...सौभाग्य सूचक समझे जाते हैं। अरुण कमल अंग्रेजी शिक्षक हैं, उन पर यूरोपीय कविता के प्रभाव के रूप में भी इस भय को हम देख सकते हैं। क्या कवि ने खुद भी कोई पीपल रोपा है कभी, आखिर विरासत के भरोसे स्मृतियाँ कब तक साथ देंगी।
 
'न पाप कमाया न पुण्य ही रहा अक्षत'। 
 
यही कवि की पीड़ा है। न पीपल रोपा, न उसे कटने-बिकने से बचा सका। और मुक्ति भी नहीं मिली। शायद यह दुख कवि को बार-बार सालता है।
मुख्य बात यह है कि 'न खुदा ही मिला' वाले दुख को कबि इतनी बार इतनी तरह से लिखता है कि पूरा संग्रह रूदन का कोष बनकर रह जाता है। अच्छी कविता की बाबत कहा जाता है कि उसे दुबारा पढ़ने की इच्छा होती है। पर एक रोआंहटी कवि को आप फिर से रोने के लिए कह सकतें हैं क्या? इस तरह रुदन व जीवन की निस्सारता का पारंपरिक राग संग्रह में भरा पड़ा है।
 
मेरा पूरा रक्त भी मरते पक्षी को नहीं दे पाएगा जीवन
कोई छुपा होगा दरवाजे के पीछे
मैं लौहूँगा और वह घूमेगा
कौन सुनेगा मेरी पुकार इतनी दूर
 
अब पाठक क्या करें- मनोविकार से ग्रस्त इस भय के ग्राह से ग्रसित गज की मुक्ति के लिए नारायण से प्रार्थना करें। खुद को स्थावर (जड़) बनाते इस भय को कवि अच्छी तरह पहचानता भी है 'स्थावर' कविता की पंक्तियाँ देखें-
 
बहुत दिन से एक जगह पड़ी हुई ईंट हूँ मैं
जिसे उठाओ तो निकलेंगी बिलखती चीटियाँ
और कुछ दूब चारों ओर
हरी पीली।
 
आखिर जीवन तो है। भय से जड़ हुए कवि की पीठ को कुरेदती दूब तो है। पर वह नहीं चाहता कि कोई उसकी जड़ता तोड़े। बहाना बिलखती चींटियों का है। आंतक रघुवीर सहाय के यहाँ भी काफी है पर यह थोथा भय नहीं है-
 
क्या मैं भी पूरा का पूरा
बेकाम हो जाऊँगा बीच राह
गिरा जूते का तल्ला
 
'भय' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
 
बंद रहा पिंजड़े में इतने दिन
कि उठूं भी अगर तो भय है
फड़के एक पंख दूसरा हिले भी नहीं
 
कवि के निवास पर हमेशा बित्ते-भर के पिंजड़े में लटकता तोता नज़र आता था पहले। कवि ने अच्छा पहचाना है। इस महानगरीय सुभीते की एक कृत्रिम सुख के नाम पर तैयार किए गए घेरे वाली जिंदगी में शरीर की हालत ठीक ही बेजान हो जाती है। रूसी प्राणीविद फेन्तेयेव ने एक प्रयोग के बारे में लिखा था कि एक बार यह देखने की कोशिश की गई कि लगातार वर्षों तक एक घेरे में बंद जीवों को अचानक खुले में छोड़ देने पर उन्हें कैसा अनुभव होगा? एक खरगोश को, जो बरसों से एक कटघरे में बंद था एक खुले मैदान में ला छोड़ा गया। पहले उसकी आँखें चमकीं। उसने एक उछाल भरी और जमीन पर पसर गया। जाँचा गया, तो वह मर चुका था। एक उल्लू और भेड़िए के साथ भी ऐसा ही हुआ। अच्छा है कि कवि ने इसे पहचान लिया। अगर अब भी वह इस पिंजड़े को तोड़ सका तो बच सकेगा।
 
भय के साथ अपनी असफलताओं से भी डरा हुआ है कवि। इस बुरी तरह कि वह उसे अपनी नियति मान लेता है-
 
छीलता गया पेंसिल
कि अंत में हासिल रहा ठूंठ
 
ये स्थितियाँ इस तरह काबिज हैं कवि पर कि हर घटना में वह भय को ही देखता है। और जहाँ वह नहीं होता, वहाँ वह उसका इंतजार करता है।
 
सामने बैठे यात्री ने लौंग बढ़ाई
तो हाथ मेरा एक बार हिचका
ऐसे ही तो खिला-पिला लूट लेते हैं
...
एक बार उसे गौर से देखा
उसका चश्मा घड़ी और चप्पल जिसका
नथुना टूटा था
और शुक्रिया कह कर ले ली लौंग
पर इतना पूछ लिया- कहाँ जाएँगे? किस मोहल्ले?
उसके बाद भी देर तक करता रहा इंतज़ार बेहोशी का
 
इन पंक्तियों को पढ़ते एक कथा याद आती है। इस रूदनाचर्चा में उससे कुछ रंग आ जाए शायद, हँसी का एक जंगल से गुजरते एक यात्री को अपने बाएँ-दाएँ बाघ और अजगर से भेंट हो गई। दोनों उसी की ओर मुँह फाड़े बढ़े आ रहे थे। वे जब निकट आ गए, तो यात्री ने डरकर आँखें बंद कर लीं और हमले का इंतजार करता रहा। पर कुछ हुआ नहीं, तो उसने आँखें खोलीं। सामने अजगर और बाघ एक-दूसरे से जूझ रहे थे। कवि का भय का इंतजार भी कुछ ऐसा ही है। कवि मानता है कि वह खुद एक अच्छा अदमी है, फिर उसे डर है कि वह मारा जाएगा।
 
मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया
न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा
और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा
 
यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि अच्छे आदमी की और भी परिभाषाएँ हैं। उनमें एक शायद ब्रेख्त की है कि- 'अच्छा आदमी वह है जिसे देख दुष्ट कॉप और भले आदमी खुश हों।' पर इस तरह का आदमी बनने लिए थोड़ी हिम्मत की जरूरत होती है। केदारनाथ सिंह ने लिखा भी है कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द। अरुणजी का भय ऐसा ही है, जो उन्हें मार रहा है बार-बार उन्हें अपने पड़ोसी कवि आलोक धन्वा की कविता 'पतंग' फिर से पढ़नी चाहिए, जिसमें वे बच्चों के बारे में कहते हैं कि- 'अगर वे छतों के खतरनाक किनारों से गिर जाते हैं और बच जाते हैं, तो और भी मजबूत होकर सामने आते हैं।' कहाँ आलोक का गालिबाना अंदाज़ेबयाँ और कहाँ अरुणजी का बिसूरना-
 
टिकट पर जीभ फिराते डर लगा
क्या पता गोंद में जहर हो
 
सोवियत संघ के पतन के बाद जो विचारहीनता का दौर चला है लगता है कवि भी इसका शिकार है। तभी वह लगातार अनिर्णयों के अरण्य में फँसता जा रहा है। कभी राजकमल चौधरी ने लिखा था- 'पूरा का पूरा जीवन युद्ध मैंने गलत जिया'। आज अरुण कमल उससे आगे बढ़कर लिख रहे हैं कि पूरा जीवन युद्ध मैं गलत मरा। वे लिखते हैं-
 
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिए
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया-
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा ?
 
संग्रह की आधी से अधिक कविताएँ भय की ऐसी ही भीतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। बाकी कुछ अन्य कविताएँ भी हैं। उनके बारे में 'अपनी केवल धार' से 'सबूत' तक काफी लोगों ने लिखा है। उसकी कुछ कड़ियाँ यहाँ भी मौजूद हैं। पर जो नया विकास है कवि का, यह भय ही है। जिस पर यह आलेख केंद्रित रहा। यूँ तो पहले ही अरुण जी ने मान लिया था कि सारा लोहा उन लोगों का है- पर तब धार अपनी थी। भय की मार ने यह धार भी भोंथड़ा दी है। सवाल है कि उस भोथड़े लोहे का होगा क्या? जवाब कवि के शब्दों में ही-
 
अन्न उगा न सकूँ तो क्या
सूखते धान के पास बैठ कौआ तो हाँकूँगा
 
यहाँ अनायास वीरेन डंगवाल याद आते हैं-
 
इतने भोले भी न बन जाना साथी
कि जैसे सर्कस का हाथी ।
 
आलेख का एक हिस्‍सा ‘पाखी’ में प्रकाशित