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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

महिला संत लल द्यद या लल्‍लेश्‍वरी

ईश्‍वर के भय सा कोई सुख नहीं - ( भयस ह्यू नो सोख कांह) -  लल्‍लदद्य

कश्‍मीर सतीसर था पहले, सती पार्वती का सर यानी झील। कथा के अनुसार दैत्‍य जलोद्भव का उस पर कब्‍जा था जिससे मुक्‍त कराकर वहां की धरती को निकाला गया।
(दरअसल पहले वह क्षेत्र समुद्र के अंदर था फिर बाहर आ गया उसी को कथा बना दिया गया कालांतर में।)
ऋषिपुत्र नीलनाग इस क्षेत्र के संरक्षक थे। इससे मिलती कथा जरथुस्‍त्र की एर्यानेम वेज या ईरान वेज की है।
लल्‍लदादी या ललदद्य कश्‍मीर की महान योगिनी व आदि कवयित्री थीं। उनकी कोई प्रामाणिक जीवनी उपलब्‍ध नही है। उनकी चर्चा फारसी की प्राचीन किताबों ऋषिनामा और नूरनामा में हैं। कश्‍मीर में लल्‍ला के वाखों की वैसी ही लोकप्रियता है जैसी हिंदी पट्टी में कभी तुलसी के मानस की रही। राजाओं का इतिहास लिखने वालों ने इस लोककवि‍ की उपेक्षा की पर कश्‍मीरियों की जबान पर श्रुत परंपरा में वे सदा रही हैं।
सूफी फकीर कवि शम्‍स 1843 की कवि‍ता पंक्तियों के अनुसार लल्‍ला शाह सैयद अली हमदान (जो ईरान से नक्‍शबंद सूफी संस्‍कृति के प्रचार को 1380 में 700 शिष्‍यों के साथ भागकर कश्‍मीर आए थे) और सूफी संत नुरूद्दीन नूरानी (जिन्‍हें हिंदू नुन्‍द ऋषि ओर सहजानंद पुकारते थ) की समकालीन और मित्र थीं। नुन्‍द ऋषि कश्‍मीर में लल्‍ल की तरह लोकप्रिय हैं।
हमदान के समय कश्‍मीर बौद्ध धर्म व अद्वैत शैव धर्म का केंद्र था। शम्‍स के अनुसार लल्‍ला हमदान के साथ आंख-मिचौली खेलती थीं, मतलब यहां उनकी दोस्‍ती से है।
यह वह समय था जब संस्‍कृत कमजोर पड रही थी और फारसी विकसित हो रही थी, इसी समय कश्‍मीरी का विकास हो रहा था। उस समय की कश्‍मीरी में संस्‍कृत का असर काफी था। आगे आधुनिक कश्‍मीरी के वि‍कास में लल्‍ल का अच्‍छा योगदान माना जाता है।
कश्‍मीर के तीसरे मुस्लिम शासक सुल्‍तान अल्‍लाउद्दीन के काल में लल्‍ल का जन्‍म श्रीनगर से 4 मील दूर पांद्रेंठन में हुआ था। पांद्रेंठन पहले कश्‍मीर की राजधानी रह चुका है।
कश्मीर की इस प्रख्यात महिला संत को ललद्यद भी पुकारा जाता है। 12 साल की लल्‍ल का विवाह पाम्‍पोर या पद्मपुर के द्रंगबल में हुआ था। उसकी सौतेली सास उसे बहुत प्रताडित करती थी। उसके प्रभाव में उसका पति भी उस पर अत्‍याचार करता था। पर वे शिव भक्ति में रमी रहती थीं। उनकी ईश भक्ति से परेशान घर वालों ने उन्हें बाहर निकाल दिया था। इससे तंग आकर उसने उन्‍माद में नग्‍न हो घर छोड दिया और घूमते हुए उपदेश करने लगी। इसी समय से लोग उसे दुलार से लल्‍ल यानी लाड़ली पुकारने लगे। नंगे रहने के कारण कुछ लोग उसे डांटते कुछ उसे पागल समझते पर उसने किसी पर ध्‍यान नहीं दिया - वह कहतीं -
हां, एक बात मुझसे मेरे गुरू बोले
तू बाह्य छोड़ अंतर पथ गामिनि हो ले
आदेश बने ये शब्‍द - प्रेरणा मेरी
तब से मैं नाची नग्‍न, मग्‍न, पट खोले।
भक्ति में डूबा उनका जीवन कुछ के लिए श्रद्धा का विषय था तो कुछ के लिए मजाक का। लल्लेश्वरी उपहास का बुरा नहीं मानती थीं। 
एक सुबह वे मंदिर जा रही थीं तो कुछ बच्चे पीछे लग गए। एक व्यापारी से ये सब देखा नहीं देखा गया तो उसने बच्चों को फटकारा और  भगा दिया। लल्लेश्वरी ये सब देख रही थी। बच्चों के जाने पर उसने व्यापारी से कपड़ा माँगा औरउसे दो टुकड़े कर कंधों पर डाल लिया व्यापारी के साथ मंदिर को चल पडीं। राह में कोई उन्हें श्रद्धापूर्वक अभिवादन करता तो वह बाएँ कंधे पर रखे कपड़े मे एक गाँठ बाँध देतीं, कोई उनका मजाक उड़ाता तो दाएँ कपड़े में गाँठ लगा देतीं। ऐसा करते मंदिर आ गया। तब उसने व्यापारी को कहा कि देख लो कितनी गांठें हैं। व्यापारी ने हैरान रह गया, दोनों  में समान गांठें थीं।
लल्‍ला ने शैव धर्म की शिक्षा सिद्ध श्रीकंठ से ली थी। वह उन्‍हीं के साथ एक गुफा में रहकर साधना करती थीं। आगे उसे सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। वह योगेश्‍वरी कहलाने लगी। उस समय के प्रसिद्ध सूफी संत भी लल्‍ला की संगत पाने में सम्‍मान समझते थे। यह सूफी व शैव मत के सकारात्‍मक संगत का काल था।
भड़की हुई आग को पल में शांत कर देना
या आकाश में दो पांवों पर चलना
या लकड़ी की गाय को दोह कर दूध निकालना
यह सब कितना ही अद्भुत क्‍यों न लगे, यह तो मदारी का खेल ही है - लल्‍ला।
सत्‍य,शिव व विराट से साक्षात्‍कार ही जीवन का चरम लक्ष्‍य है। आत्‍मा ही शिव है।
गगन चय भूतल चय 
चय द्यन पवन त राथ
अर्धचंदुन पोष-पोयं चय
चय अय सकल त ल,गजि क्‍याह - लल्‍ल
तू ही पवन तू ही गगन भूतल तू तू ही दिन रात। अर्ध्‍य-पुष्‍प-जल-चंदन सब कुछ तू ही तात। व्‍यर्थ ये पूजा के सब साज - लल्‍ल
लल्लेश्वरी ने समझाया कि सच्चाई और भक्ति के मार्ग पर चलो तो प्रशंसा और निंदा को बराबर समझना। वे दिखाई तो देती हैं लेकिन उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। इस सत्य को समझ तो मन पर इनका कोई प्रभाव नहीं होता। ललद्यद का एक लोकप्रिय पद इस प्रकार है –
गगन तू, भूतल भी
तू ही पवन और रात,
अर्घ्‍य, पुष्‍प , चंदन, पान
सब-कुछ तू, फिर चढाउं क्‍या तात ।