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शनिवार, 25 जुलाई 2020

सत्‍य को बहुआयामिता में जानने का जीवट

देवेश पथ सारिया की कविताएं मुझे उनकी भविष्‍य की कविताओं के प्रति उत्‍सुक प्रतीक्षा के भाव से भरती हैं। उनमें यात्रा वृतांत सी रोचकता रहती है और जीवन यात्रा में आने वाले नये दृश्‍यों के लिए एक आत्‍मीय जिज्ञासा भी। समय और अतीत के जीवन के दबाव में अपने भीतर बन आयी गांठों को खोलना भी वे जानते हैं –

जिन्हें धक्का मारना था
उन्हें अपनी तरफ
रहा खींचता

जो बने थे
खुल जाने के लिए
खींचने से
उन्हें धकेलता रहा
अपने से दूर

लोग दरवाज़े थे
और मैं
साइन बोर्ड पढ़ने में अक्षम
अनपढ़, अल्हड

देवेश ने अपने पिता से विनोदी स्‍वभाव पाया है जो उनकी कविताओं से जाहिर होता है। केदारनाथ सिंह कविता में भाषा के खेल को एक अहम‍ियत देते हैं। इससे पैदा खिलंदड़ापन देवेश की ताकत है।
जटिल जीवन संदर्भों को ऐतिहासिक तथ्‍यों के साथ एक भव्‍य रोमान में जोड़ पाने को देवेश की खूबी माना जा सकता है।
देवेश में सत्‍य को उसकी बहुआयामिता में जानने का जीवट और धैर्य है। वे उसे उसकी जटिलता के साथ अभिव्‍यक्‍त करने की कोशिश करते बारहा दिखते हैं।
कवि के भीतर पायी जाने वाली सच्‍ची जिद को अपने मनोविनोदी स्‍वभाव के साथ अगर देवेश बनाये रखते हैं तो हम उनमें हिंदी के भावी नये समर्थ कवि की छवि देख सकते हैं।

देवेश की कविताएँ 


एक बूंद की कहानी

बर्फ
आसमान से गिरी
एक बड़े से पत्ते पर
और पिघल गयी
पत्ते ही पर

अपनी ही जैसी
पत्ते पर पहले गिरी बर्फ के
पिघलने से बने पानी में
घुलमिल
उसने आकार ले लिया एक बूंद का 
और पत्ते की सपाट देह में
ढलान की गुंजाइश पाते ही
पत्ते से नीचे
लुढ़कने चली बूंद

अपनी देह का जितना वजन
सह सकती थी वह
उससे अधिक होते ही
टपक पड़ी धरती पर
टूटकर एक बड़ी सी बूंद में
अब पत्ते पर बची रह गयी
बस नन्ही सी बूंद 
जो गिर सकने जितनी वज़नी नहीं थी

फ़िर ऐसा हुआ
कि रूक गया हिमपात 
पत्ते पर टिकी बूंद से
ना जुड़ पाया और पानी मिलकर
ना बढ़ पाया उसके अस्तित्व का दायरा
टपकते-टपकते रह गयी
वह नन्हीं बूंद
पत्ते के धरती की ओर समर्पित भाव में झुके
कोने पर

रात भर ठण्ड में
दृढ़ता से टिकी रही एक बूंद
गुरूत्वाकर्षण बल के विरूद्ध
धरती को तरसाते हुए

धरती रही
एक बूंद प्यासी


हॉन्ग कॉन्ग में चाय

साढ़े आठ महीने देश से दूर रहने के बाद
पंद्रह दिन घर रहकर
कस्बाई देसीपन मेरी प्रवृत्ति में पुनर्जीवित हुआ है
नथुनों में समा गयी है शुद्ध हवा
पंद्रह दिन में मुझे फिर पड़ गयी है
बहुत सी सहूलियतों की आदत
जिनमें शामिल है
सुबह उठते ही मां के हाथ की चाय पीने की आदत

बहुत भारी बोझ उठाए चला रहा हूँ
फिर देश छोड़कर

तड़के ही पंहुची है ट्रांजिट उड़ान
हॉन्ग कॉन्ग अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर
यहां से मेरे गंतव्य की उड़ान में अभी समय है

नवम्बर की इस धुंध भरी अलसायी सुबह
मैं तलाश लेता हूँ एयरपोर्ट पर चाय-कॉफी का कैफ़े
यहां तरह -तरह की चाय हैं लिखी मेनू कार्ड पर
या शायद तरह-तरह के पेयों को चाय का नाम दिया गया है
विकल्पों की संख्या देखकर मैं आश्वस्त होता हूँ
और पूछ बैठता हूँ कैफ़े वाली स्त्री से
कि क्या आपके यहां दूध, अदरक वाली तक़रीबन भारतीय चाय मिलेगी

वह रूखेपन से जवाब देती है,
"आप भारत में नहीं,
 हॉन्ग कॉन्ग में हैं"

घर से बाहर कदम रखते ही
सहूलियतों का छिन जाना तो तय होता ही है
वह मुझे उतना नहीं सालता

दरअसल, मुझे नश्तर सा चुभता है
महानगरीय रूखापन

बोझ को सबके सामने गिरने से बचाता
मैं बुदबुदाता हूँ
"विदेश में स्वागत है, देवेश" 


सबसे ख़ुश दो लोग

लड़का और लड़की की
अपने-अपने घरों में
इतनी भी नहीं चलती थी
कि पर्दों का रंग चुनने तक में
उनकी राय ली जाती

उनकी ज़ेबों की हालत ऐसी थी
कि आधी-आधी बांटते थे पाव भाजी
एक्स्ट्रा पाव के बारे में सोच भी नहीं सकते थे

अभिजात्य सपने देखने के मामले में
बहुत संकरी थी
उनकी पुतलियां

फ़िर भी वे शहर के
सबसे ख़ुश दो लोग थे

क्योंकि वे
घास के एक विस्तृत मैदान में
धूप सेंकते हुए
आँखों पर किताब की ओट कर
कह सकते थे
कि उन्हें प्रेम है एक-दूसरे से


जैतून की डाली*

वे दोनों आपस में लड़ रहे थे
उनकी लड़ाई की पृष्ठभूमि में बहुत कुछ था
और बहुत कुछ जबरदस्ती जोड़ दिया गया था

तोड़ने के लिए यह जोड़ दिया जाना
इस हद तक बढ़ चुका था
कि उन्हें याद भी नहीं थी लड़ाई शुरू होने की वजह
यह लड़ाई ही उनका धर्म बन चुकी थी

एक दिन
मुझे अकेला पाकर घेर लिया उन्होंने
पूछा मुझसे कि बताओ किस तरफ हो तुम

मैंने कहा-
"मैं तब तक किसी तरफ नहीं हो सकता
जब तक
तुम में से कोई एक पक्ष
पूरी तरह सही ना हो
और तुम हो
कि अपनी अंधी लड़ाई में
दोनों के दोनों
और ज्यादा ग़लत होते जा रहे हो
इसलिए, मैं तटस्थ हूं
अकेला भी पड़ गया हूं, इसीलिए"

ऐसा सुनकर
वे दोनों मुझ पर टूट पड़े
और मार डाला मुझे
कितने अरसे के बाद
उन्होंने कोई काम मिलकर किया
जो एक दूसरे के विरुद्ध ना था

मुझे मारने के बाद
वे हो गए थे तितर-बितर
अपनी-अपनी दिशा में
अगले दिन फिर से लौट आने के लिए

मैं यह जाने बिना मर गया
कि क्या इस रात वे सुकून जान पाएंगे
मिलकर चलने का
या कोई और वजह ढूंढ लेंगे
कल लड़ने की

~ देवेश पथ सारिया

*ग्रीक मान्यता के अनुसार जैतून  के वृक्ष की डाली शांति और सुलह की प्रतीक है


रिश्ते

जिन्हें धक्का मारना था
उन्हें अपनी तरफ
रहा खींचता

जो बने थे
खुल जाने के लिए
खींचने से
उन्हें धकेलता रहा
अपने से दूर

लोग दरवाज़े थे
और मैं
साइन बोर्ड पढ़ने में अक्षम
अनपढ़, अल्हड


अदृश्य

निरर्थक को
सार्थक
और सार्थक को
निरर्थक
मान सकना;
फिलहाल,
यही परम सत्य है
मेरे लिए

मैं अदृश्य हूं
फलक से
समुद्र तल से
किनारे से
पहाड़ से
मैदान से
रेत से

हर उस जगह से
जहां मैं होता आया हूँ उपस्थित
मैं अब अनुपस्थित हूँ

कभी-कभी अपना सारा मनुष्यत्व निचोड़कर
आप जो दे सकते हैं, वह है- अनुपस्थिति
जो पा जाते हैं, वह है आत्मानुभूति 

रहस्यात्मक होने के तरीकों में से 
इस समय
मैं चुप्पी के मुकाम पर हूँ

मैं अदृश्य हूं
नष्ट नहीं हो गया हूं

परिचय

2015 से ताइवान की नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी में खगोल शास्त्र में पोस्ट डाक्टरल शोधार्थी।  मूल रूप से राजस्थान के राजगढ़ (अलवर) से सम्बन्ध।
प्रकाशन: 
वागर्थ, पाखी,  कथादेश, कथाक्रम, कादंबिनी, आजकल,  परिकथा, प्रगतिशील वसुधा, दोआबा, जनपथ, समावर्तन, आधारशिला, अक्षर पर्व, बया, बनास जन,  मंतव्य, कृति ओर,  शुक्रवार साहित्यिक वार्षिकी, ककसाड़, उम्मीद, परिंदे, कला समय, रेतपथ, पुष्पगंधा, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दि सन्डे पोस्ट आदि  पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
वेब प्रकाशन: सदानीरा, जानकीपुल, समकालीन जनमत, पोषम पा, जनसंदेश टाइम्स, शब्दांकन, हिन्दीनामा, अथाई

ताइवान का पता :

देवेश पथ सारिया
पोस्ट डाक्टरल फेलो
रूम नं 522, जनरल बिल्डिंग-2
नेशनल चिंग हुआ यूनिवर्सिटी
नं 101, सेक्शन 2, ग्वांग-फु रोड
शिन्चू, ताइवान, 30013
फ़ोन: +886978064930
ईमेल: deveshpath@gmail.com