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रविवार, 27 अगस्त 2023

अरुण कमल की कविता - उधार की धार भी भय ने भोथरी कर दी


अरुण कमल
की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है
, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
 
'खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और खाली जमीन का टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
...यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं '
 
कवि का महानगर के जिस सघन हिस्से में रहना होता है, वहाँ विकास उर्ध्‍व दिशा में एक सीमा तक होकर अवरुद्ध हो गया है। इस जड़ता ने कवि स्वभाव को भी जड़ बना दिया है। अपनी ही उस जड़ता से ऊबा कवि नए इलाकों में जाता है तो एक-दूसरे किस्म की जड़ता (जिसे वह स्मृति के नाम से पुकार कर एक भ्रम पैदा करना चाहता है) को ढूंढ़ता है। रोज कुछ बनना उसे पसंद नहीं। उसे ढहा हुआ घर चाहिए। खाली भूखंड चाहिए।
 
'अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो,
क्या यही है वो घर?'
 
कवि कोई खास घर खोज रहा है। जो खाली भूखंडों और ढहे घरों के बीच ही पहचान में आता था। दरअसल नए मकानों के होते कब्जे को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। जबकि रघुवीर सहाय इस भेड़-धसान संस्कृति को खूब पहचानते थे। वे लिखते हैं - ‘यह संस्कृति ऐसे ही बूटे-ऊँचंगे मकानों को गढ़ेगी।’ अरुण कमल इन मकानों के अजनबीपन को न पहचान पा रहे हैं न भेद पा रहे हैं। बस बिसूर कर रह जाते हैं वे-
 
'समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास '
 
स्पष्ट है कि महानगरीय जीवन के आदी कवि को देर तक खोजना भारी पड़ रहा है। और पानी चला आ रहा है। हालाँकि घर बेशुमार हैं, पर उनसे उसका कोई संबंध नहीं है। नए विकास को वह स्मृत्ति के नाम पर खारिज कर देना चाहता है। नए विकास की अपनी नयी स्मृत्तियाँ होंगी ही, जिन्हें वह जानना भी नहीं चाहता।
‘शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।’ अब ऊपर वाले पर ही भरोसा है। वही रास्ता निकाले शायद। कुल मिलाकर यही अरुण कमल की कविताओं की पृष्ठभूमि है। एक फिजूल के भय की कृत्रिमता से पैदा हैं अधिकांश कविताएँ उनकी। जिनमें ‘बादल के घिरने का आतंक अकास के ढहने जैसा है।’ जहाँ स्मृत्ति का मानी जड़ अविवेकपूर्ण स्थितियों से है। ए.एल. बाशम ‘अद्भुत भारत’ में लिखते हैं कि यूरोप में साधारणतः मेघों की गरजन...अशुभ मानी जाती है। परंतु भारत के लिए वे...सौभाग्य सूचक समझे जाते हैं। अरुण कमल अंग्रेजी शिक्षक हैं, उन पर यूरोपीय कविता के प्रभाव के रूप में भी इस भय को हम देख सकते हैं। क्या कवि ने खुद भी कोई पीपल रोपा है कभी, आखिर विरासत के भरोसे स्मृतियाँ कब तक साथ देंगी।
 
'न पाप कमाया न पुण्य ही रहा अक्षत'। 
 
यही कवि की पीड़ा है। न पीपल रोपा, न उसे कटने-बिकने से बचा सका। और मुक्ति भी नहीं मिली। शायद यह दुख कवि को बार-बार सालता है।
मुख्य बात यह है कि 'न खुदा ही मिला' वाले दुख को कबि इतनी बार इतनी तरह से लिखता है कि पूरा संग्रह रूदन का कोष बनकर रह जाता है। अच्छी कविता की बाबत कहा जाता है कि उसे दुबारा पढ़ने की इच्छा होती है। पर एक रोआंहटी कवि को आप फिर से रोने के लिए कह सकतें हैं क्या? इस तरह रुदन व जीवन की निस्सारता का पारंपरिक राग संग्रह में भरा पड़ा है।
 
मेरा पूरा रक्त भी मरते पक्षी को नहीं दे पाएगा जीवन
कोई छुपा होगा दरवाजे के पीछे
मैं लौहूँगा और वह घूमेगा
कौन सुनेगा मेरी पुकार इतनी दूर
 
अब पाठक क्या करें- मनोविकार से ग्रस्त इस भय के ग्राह से ग्रसित गज की मुक्ति के लिए नारायण से प्रार्थना करें। खुद को स्थावर (जड़) बनाते इस भय को कवि अच्छी तरह पहचानता भी है 'स्थावर' कविता की पंक्तियाँ देखें-
 
बहुत दिन से एक जगह पड़ी हुई ईंट हूँ मैं
जिसे उठाओ तो निकलेंगी बिलखती चीटियाँ
और कुछ दूब चारों ओर
हरी पीली।
 
आखिर जीवन तो है। भय से जड़ हुए कवि की पीठ को कुरेदती दूब तो है। पर वह नहीं चाहता कि कोई उसकी जड़ता तोड़े। बहाना बिलखती चींटियों का है। आंतक रघुवीर सहाय के यहाँ भी काफी है पर यह थोथा भय नहीं है-
 
क्या मैं भी पूरा का पूरा
बेकाम हो जाऊँगा बीच राह
गिरा जूते का तल्ला
 
'भय' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
 
बंद रहा पिंजड़े में इतने दिन
कि उठूं भी अगर तो भय है
फड़के एक पंख दूसरा हिले भी नहीं
 
कवि के निवास पर हमेशा बित्ते-भर के पिंजड़े में लटकता तोता नज़र आता था पहले। कवि ने अच्छा पहचाना है। इस महानगरीय सुभीते की एक कृत्रिम सुख के नाम पर तैयार किए गए घेरे वाली जिंदगी में शरीर की हालत ठीक ही बेजान हो जाती है। रूसी प्राणीविद फेन्तेयेव ने एक प्रयोग के बारे में लिखा था कि एक बार यह देखने की कोशिश की गई कि लगातार वर्षों तक एक घेरे में बंद जीवों को अचानक खुले में छोड़ देने पर उन्हें कैसा अनुभव होगा? एक खरगोश को, जो बरसों से एक कटघरे में बंद था एक खुले मैदान में ला छोड़ा गया। पहले उसकी आँखें चमकीं। उसने एक उछाल भरी और जमीन पर पसर गया। जाँचा गया, तो वह मर चुका था। एक उल्लू और भेड़िए के साथ भी ऐसा ही हुआ। अच्छा है कि कवि ने इसे पहचान लिया। अगर अब भी वह इस पिंजड़े को तोड़ सका तो बच सकेगा।
 
भय के साथ अपनी असफलताओं से भी डरा हुआ है कवि। इस बुरी तरह कि वह उसे अपनी नियति मान लेता है-
 
छीलता गया पेंसिल
कि अंत में हासिल रहा ठूंठ
 
ये स्थितियाँ इस तरह काबिज हैं कवि पर कि हर घटना में वह भय को ही देखता है। और जहाँ वह नहीं होता, वहाँ वह उसका इंतजार करता है।
 
सामने बैठे यात्री ने लौंग बढ़ाई
तो हाथ मेरा एक बार हिचका
ऐसे ही तो खिला-पिला लूट लेते हैं
...
एक बार उसे गौर से देखा
उसका चश्मा घड़ी और चप्पल जिसका
नथुना टूटा था
और शुक्रिया कह कर ले ली लौंग
पर इतना पूछ लिया- कहाँ जाएँगे? किस मोहल्ले?
उसके बाद भी देर तक करता रहा इंतज़ार बेहोशी का
 
इन पंक्तियों को पढ़ते एक कथा याद आती है। इस रूदनाचर्चा में उससे कुछ रंग आ जाए शायद, हँसी का एक जंगल से गुजरते एक यात्री को अपने बाएँ-दाएँ बाघ और अजगर से भेंट हो गई। दोनों उसी की ओर मुँह फाड़े बढ़े आ रहे थे। वे जब निकट आ गए, तो यात्री ने डरकर आँखें बंद कर लीं और हमले का इंतजार करता रहा। पर कुछ हुआ नहीं, तो उसने आँखें खोलीं। सामने अजगर और बाघ एक-दूसरे से जूझ रहे थे। कवि का भय का इंतजार भी कुछ ऐसा ही है। कवि मानता है कि वह खुद एक अच्छा अदमी है, फिर उसे डर है कि वह मारा जाएगा।
 
मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया
न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा
और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा
 
यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि अच्छे आदमी की और भी परिभाषाएँ हैं। उनमें एक शायद ब्रेख्त की है कि- 'अच्छा आदमी वह है जिसे देख दुष्ट कॉप और भले आदमी खुश हों।' पर इस तरह का आदमी बनने लिए थोड़ी हिम्मत की जरूरत होती है। केदारनाथ सिंह ने लिखा भी है कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द। अरुणजी का भय ऐसा ही है, जो उन्हें मार रहा है बार-बार उन्हें अपने पड़ोसी कवि आलोक धन्वा की कविता 'पतंग' फिर से पढ़नी चाहिए, जिसमें वे बच्चों के बारे में कहते हैं कि- 'अगर वे छतों के खतरनाक किनारों से गिर जाते हैं और बच जाते हैं, तो और भी मजबूत होकर सामने आते हैं।' कहाँ आलोक का गालिबाना अंदाज़ेबयाँ और कहाँ अरुणजी का बिसूरना-
 
टिकट पर जीभ फिराते डर लगा
क्या पता गोंद में जहर हो
 
सोवियत संघ के पतन के बाद जो विचारहीनता का दौर चला है लगता है कवि भी इसका शिकार है। तभी वह लगातार अनिर्णयों के अरण्य में फँसता जा रहा है। कभी राजकमल चौधरी ने लिखा था- 'पूरा का पूरा जीवन युद्ध मैंने गलत जिया'। आज अरुण कमल उससे आगे बढ़कर लिख रहे हैं कि पूरा जीवन युद्ध मैं गलत मरा। वे लिखते हैं-
 
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिए
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया-
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा ?
 
संग्रह की आधी से अधिक कविताएँ भय की ऐसी ही भीतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। बाकी कुछ अन्य कविताएँ भी हैं। उनके बारे में 'अपनी केवल धार' से 'सबूत' तक काफी लोगों ने लिखा है। उसकी कुछ कड़ियाँ यहाँ भी मौजूद हैं। पर जो नया विकास है कवि का, यह भय ही है। जिस पर यह आलेख केंद्रित रहा। यूँ तो पहले ही अरुण जी ने मान लिया था कि सारा लोहा उन लोगों का है- पर तब धार अपनी थी। भय की मार ने यह धार भी भोंथड़ा दी है। सवाल है कि उस भोथड़े लोहे का होगा क्या? जवाब कवि के शब्दों में ही-
 
अन्न उगा न सकूँ तो क्या
सूखते धान के पास बैठ कौआ तो हाँकूँगा
 
यहाँ अनायास वीरेन डंगवाल याद आते हैं-
 
इतने भोले भी न बन जाना साथी
कि जैसे सर्कस का हाथी ।
 
आलेख का एक हिस्‍सा ‘पाखी’ में प्रकाशित

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

खुद के विरोध में - राजाराम भादू

अनिल अनलहातु - बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ

अनिल अनलहातु के कविता-संकलन की अधिकांश कविताओं में अन्य साहित्यिक- कला कृतियों/ इतिहास की घटनाओं, पात्रों और स्थानों के प्रसंग और संदर्भ आते हैं। संकलन पर चर्चा से पहले, मुझे लगता है, हाल की एक घटना का संक्षिप्त विवरण देना जरूरी है जो मेरे हिसाब से इस कृति से संदर्भित है।

१.
यह प्रसंग फेसबुक पर मौजूद है। एक फेसबुक लाइव कार्यक्रम में कवि अदनान कफील दरवेश ने अपने कविता- पाठ के साथ कुछ चर्चा भी की। उन्होंने अपनी वेदना व्यक्त करते हुए कहा कि जब बाबरी मस्जिद का फैसला आया तो हिन्दी ( जगत) में एक अश्लील शांति पसरी हुई थी। जब मस्जिद गिरायी गयी तब ऐसी शांति नहीं थी बल्कि कविता लिखने की होड थी। सबके सामने अपने को सेक्युलर प्रूव करते का चैलेंज था और उस वक्त सभी ने सिद्ध किया कि हिन्दी सेक्युलर भावों पर खड़ी है और हिन्दी सांप्रदायिकता की राजनीति के खिलाफ है।

धीरेश सैनी ने उनके इस वक्तव्य को सवाल की तरह जारी किया। आनंदस्वरूप वर्मा ने इस पर प्रत्युत्तर में लिखी एक लंबी पोस्ट के जरिए बताया कि कैसे दिल्ली से अनेक रचनाकार- बुद्धिजीवी घटना के तत्काल बाद लखनऊ गये और कैसे उन्होंने लखनऊ के लेखक- संस्कृतिकर्मियों के साथ मिलकर विरोध- प्रदर्शन किया। उन्होंने बाद में भी की गयी कई कार्यवाहियों का विवरण देते हुए आगे संयुक्त प्रतिरोध का प्रस्ताव प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में अभिषेक श्रीवास्तव ने अपनी पोस्ट में बाबरी विध्वंस के बाद के वर्षों में देश भर में लंबे समय तक चली सिलसिलेवार प्रतिरोध कार्रवाहियों का विस्तृत विवरण दिया है।

मुझे ही नहीं, कइयों को लगता है कि अभी भी अदनान के सवाल को सही जबाब नहीं मिला। उस फैसले पर तो वैसी प्रतिक्रिया नहीं ही थी, यह सच्चाई है। लेकिन हिन्दी के साहित्यकार ही क्या, विपक्ष की तमाम राजनीतिक पार्टियां भी फैसले पर क्या बोल पायी थीं।‌ इसका एक बड़ा कारण यह है कि साम्प्रदायिक पक्षों से बहसों में उन दिनों यही कहा जाता था कि वे न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करें और कम से कम उस पर तो भरोसा करें। मस्जिद गिराने की कार्यवाही साफतौर पर गैर- कानूनी और आक्रामक थी। न्यायालय का निर्णय एक अलग प्रतिफलन था और उस निकाय ने अभी हाल तक अपना विश्वास नहीं खोया था। आप सीएए- एनआरसी विरोधी आंदोलन के संदर्भ में भी रचनाकार- संस्कृतिकर्मियों की भूमिका को देख सकते हैं। बेशक, इसकी शुरुआत बड़े शिक्षण- संस्थानों से हुई, फिर सडकों पर आन्दोलन की अगुवाई में मुस्लिम महिला और युवा जुड़े, किन्तु अपनी सीमाओं और क्षमताओं के साथ हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवी भी उनके साथ खडे हुए। दिल्ली दंगों की आड में हुआ दमन  भी उनके हौसले पस्त नहीं कर पाया लेकिन बाद में कोरोना के लाकडाउन ने ही आन्दोलनकारियों को घरों की चाहरदीवारी में पहुंचा दिया ।

बहरहाल, राजनीतिक घटनाओं का असल जबाब तो राजनीति से ही दिया जाना है और वह इस समय पस्तहिम्मत है। हालांकि सत्ता के माफिक फैसले देने के लिए जाने जाने वाले एक न्यायाधीश को जब राज्य सभा की सदस्यता बख्शी गयी तो राजनीतिक दलों सहित देश के तमाम बौद्धिक हल्कों से इसकी भर्त्सना की गयी। न्यायिक निकाय के क्षरण को लेकर आलोचना पर एक व्यक्ति अभी भी अवमानना की कार्यवाही झेल रहा है। तथापि, हिन्दी के साहित्य क्षेत्र में भी कमजोरियों से नकारना सच से मुंह चुराना है। वहाँ विचलन, विघटन और पतन भी है और राम मंदिर की नींव- पूजा के दृश्यों पर सच से गहरे सरोकार रखने वाले भी अवसन्न हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य व कलाएं भिन्न तरह से भी प्रतिक्रियाएं करते हैं।

२.
अनिल अनलहातु की बाबरी मस्जिद... संकलन की लगभग आधी कविताओं के मुख्य स्वर में आत्म- स्वीकार और आत्म- धिक्कार है। बाबरी मस्जिद शीर्षक दोनों कविताओं के आरंभ में बाबरनामा  से एक- एक अंश उद्धरित किया गया है। ये इस प्रकार हैं:

हे मेरे स्रष्टा, हमने अपनी आत्मा पर अत्याचार किया है, और यदि तू हमारे प्रति क्षमादान में उदार न हुआ तो यह निश्चित है कि हमारी भी गणना अभिशप्तों में होगी।

भीतरी घाव के धुएं से बच
आकबत नज्रे आह होती है,
एक दिन दिल न तोड- आह न ले
एक दुनिया तबाह होती है।

बाबरनामा में हो सकता है, यह बाबर का कुबूलनामा हो, लेकिन इन कविताओं में कवि बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी को खुद पर आयत्त करता है-
मैं जीता नहीं हूं, मैं हारता हूं,
हारते हुए भी हारता ही हूं
और हारते हुए ही जीवन जीता हूं।

यह संकलन २०१८ में प्रकाशित हुआ है और इन दो वर्षों में देश की नदियों में जाने कितना पानी बह गया ! कवि की आसन्न आशंका एक वास्तविकता में बदल गयी है :
और मैं अब इसका बाशिंदा हूं
क्योंकि वे नहीं हैं,
वे नहीं रहें
वे खत्म कर डाले गये
वे अब मारे जा रहे हैं
किसी दूर देश के संदर्भ में लिंचिग का आया संदर्भ इस देश में एक परिघटना में बदल गया है:
सामान्य एक आदमी को
असामान्य बनाकर
मार डालना हमारी
उपलब्धि है।
आत्म- प्रवंचना की आत्महंता स्थिति पर प्रश्नांकन है-
आखिर वह कौन- सी 
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे
खुद के खिलाफ ?
एक कविता ,विद्रोही आत्मा ,में कवि का आत्मावलोकन इस प्रकार है-
मैं एक शर्म में जीता हूं,
एक शर्म को जीता हूं,
जी.... ता नहीं हूं मैं
हारा हूं/ हारता ही रहा हूं
बस्स जीता हूं
एक शर्म जीता हूं
शर्मसार हूं।
कविताओं की विशेषता यह है कि ये पढने वाले में भी अपराध- बोध की प्रतीति कराती हैं। जीसस के शब्दों को कवि कुछ यूं उलट देता है -
... पिता! उन्हें कभी माफ नहीं करना
क्योंकि वे सारे जानते हैं
कि वे क्या कर रहे हैं।

कवि के अनुसार यह पूरा देश कुहरे और कुहासों से भरा है। इसके बाबजूद कवि आत्महत्या के विरुद्ध है। इन हताशाकारी मंजरों और ग्लानि- भाव से वह कोई विरेचन नहीं कर रहा बल्कि उद्वेलन के लिए बैचेन है। मैं खोकर खुद को ,खुद को पा रहा हूं। एक कविता में वे विश्व- विजेता सिकंदर, तैमूर और चंगेज खां के आतंक और उनके नष्ट हो जाने का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि आदमी के भीतर का कण कब तरंग में रूपायित हो जाएगा, कौन जानता है?
इन कविताओं में बुद्ध, उनके भिक्षु- भिक्षुणी और अन्य प्रसंग भी यत्र- तत्र आते हैं। मुझे लगता है, ये कवि के आत्मसंघर्ष की दार्शनिक दिशाएं हैं जिनसे वह दुख, करुणा और मूल्यवत्ता के सहसंबंध को स्थापित करने का काव्यात्मक उपक्रम करते हैं। जैसे कि-
जीवन के बिना पर
किसी भी पुरानी ध्वंस सभ्यता के
किसी नमूने की
प्रासंगिकता क्या है?

जब वह अपने लिए ऐसी भाषा प्रयुक्त कर सकता है तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उन कथित समानधर्माओं के लिए उसने कैसी भाषा इस्तेमाल की होगी जो विचलित और पतित हो चुके हैं। इसके औचित्य को लेकर मुझे भी एक प्रसंग ही याद आ रहा है। भंवरी बलात्कार कांड पर जब न्यायालय ने यह फैसला दिया कि गाँव के उच्च बुजुर्ग ऐसी हरकत नहीं कर सकते तो मराठी आपलां महानगर के संपादक निखिल वागले ने बहुत तीखा संपादकीय लिखा। नतीजतन उन पर कोर्ट की अवमानना की कार्रवाई हुई। उन्होंने बताया कि वे चाहते तो हल्की भाषा में लिख सकते थे लेकिन इन लोगों की मोटी खाल पर उसका कोई असर नहीं होता।  आज एक वर्ग जब अपने नैतिक मूल्य और संवेदना खो चुका है ,उनके लिए अनिल अनलहातु उचित ही अपनी भाषा और अभिव्यक्ति शैली को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं।

३.
संकलन की बाकी कविताओं में घनीभूत पीडा और आक्रोश की अभिव्यक्ति है। दुनिया में छितराये मूलवासियों से कवि का भावात्मक तादात्म्य सघन है और समानुभूति के साथ वह उनकी ओर से बोलता है। यह भयावह विडंबना है कि दुनिया भर में देशज समुदाय लगभग समान नारकीय जीवन जी रहे हैं और उनके संसाधनों को कब्जाये वर्चस्वशील ताकतें भी विलासिता का समान जीवन जी रहे हैं। अनिल ने आदिवासियों को ही एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा है बल्कि उनके साथ उन तमाम वंचितों को भी शामिल कर लिया है जो तथाकथित विकास प्रक्रिया से बहिष्कृत कर दिये गये हैं। इन " अन्यों" में बेघर, भिखारी,अपाहिज और अर्ध- विक्षिप्त जैसी मनुष्य- इकाइयां तक शामिल हैं जिनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है।

डोडो कविता में वे हाशिये की ओर धकेली जा रही आदिम जनजातियों की तुलना डोडो पक्षी के रूपक में देखते हैं : डोडो मारीशस में पाए जाने वाले एक विलुप्त पक्षी का नाम है जो आज से ३०० वर्ष पूर्व इस पृथ्वी से लुप्त हो गया, विलुप्त कर दिया गया। एक विशालकाय पक्षी जो हानिरहित था, शांतिप्रिय और अहिंसक था, किसी पर हमले नहीं करता था किन्तु उसमें सर्प की भांति जहर नहीं था, नुकीले और खतरनाक चोंच और पंजे नहीं थे... उसका शिकार कर डाला गया, मार डाला गया, सफाया कर दिया गया। यह अकारण नहीं है कि पुर्तगालियों ने उसे डोडो नाम दिया जिसका पुर्तगीज भाषा में शाब्दिक अर्थ है- मूर्ख। हर वह जाति, नस्ल, सभ्यता या संस्कृति जो अपनी प्रवृत्ति और प्रकृति में शांतिप्रिय और अहिंसक है, जो करुणा, न्याय और शांति पर आधारित है, वह नस्ल, वह सभ्यता, वह संस्कृति चाहे वह इंका हो, एजटेक हो, मये हो, माओरी हो, रेड इंडियन हो- मेसोपोटामिया ( आधुनिक इराक) हो, फारसी हों, कुर्द हों या फिर असुर, राक्षस, अनार्य हों, दानव हों... वे नष्ट कर दिये जायेंगे, विलुप्त कर दिये जायेंगे, सभ्य और आर्य ( अर्थात कथित श्रेष्ठ) संस्कृति उनका होलोकास्ट कर देगी... संपूर्ण विनाश। 

वे अपनी एक कविता में उद्धरित भी करते हैं-
वे पेड - पौधों की  भांति चुपचाप
जीने वाले सीधे लोग हैं।

और ऐसा मानते हुए उन्हे सामान्य मनुष्यता से ही च्युत कर दिया जाता है। उन्होने आगे कहा है-
एक समूचे महादेश को
उसकी भाषा से वंचित कर देना
क्या अपराध नहीं है?

इस अपराध की गंभीरता को जानना है तो आप समाजविज्ञानी प्रो. गणेशदेवी के पिछले दिनों किये भाषा- सर्वेक्षण और उसके निष्कर्ष देखें। देश में जो भाषाएं खत्म हो रही हैं उनमें सर्वाधिक जनजातियों की भाषाएं हैं। यह भी कि एक भाषा के साथ उसके बोलने वालों का इतिहास और संस्कृति भी खत्म हो जाती है।

इन कविताओं में होलोकास्ट बार- बार आता है और रघुवीर सहाय की कविता का हरिकुशना जो फटा घुटन्ना पहने राष्टगीत गाता है, अब वह टेपचू और राम सजीवनों के साथ विलुप्ति के कगार पर है। प्रभुत्व का बुलडोजर ग्रामीण सामाजिक  कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध प्रोफेसर की उपलब्धियों को दरकिनार कर उन्हें हाशियाकृत कर देता है।

एक रेलवे प्लेटफार्म पर वंचना झेलते लोगों को देख कवि विस्थापन को पंत की पंक्तियों के साथ इस तरह रखता है-
कहां है भारतमाता ग्रामवासिनी??
क्या देश की आजादी ने उसे
ग्राम से प्लेटफार्म तक पहुंचा दिया है? 

क्योंकि, गाँव भी अब
वह और वहीं नहीं रहा,

आदिवासी युवती मकलू मुर्मू घरेलू नौकरानी के रूप में शहर में खट रही है। उसके त्रासद सपनों में कोई राजकुमार नहीं आता। उसके लिए भाषा का मतलब आदेश हैं। उसके होठों पर हंसी देखना एक लंबा और ऊबाऊ इंतजार है।
ऐसा ही एक रात का चित्र है-
बस- अड्डे के कोने में
एक औरत
गुडमुडियाई लेटी है
और कुछ कुविचार उछल रहे हैं...

उनकी कविता में आया नीग्रो जार्ज अब जार्ज फ्लायड है जिसकी शहायद से उपजे ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन ने नस्लभेद के पुराने प्रतीकों को ध्वस्त करते हुए पूरी दुनिया में आलोडन ला दिया है।

अनिल की कविताओं में विश्व-साहित्य और इतिहास -प्रसंगों से जो अनक्डोट आते हैं, वे कई बार पाठ के अवगाहन में अवरोध जैसे लग सकते हैं। लेकिन वस्तुतः ये उनकी कविता को संदर्भ- विस्तार देते हैं। यदि आज मूलवासी वैश्विक स्तर पर संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं तो उनकी कविता का वैश्विक परिप्रेक्ष्य होना चाहिए। हिन्दी कविता में ऐसा कम रहा है जबकि अन्य देशों की कविता में  ऐसे संदर्भ  सामान्य बात हैं। इलियट की एक कविता के अंश में आये संदर्भों का उन्होंने उल्लेख किया है। डब्ल्यू वी यीटस की एक कविता है- माड गान। यह एक आयरिश क्रांतिकारी महिला पर है जिसकी वहाँ प्रतिमा स्थापित है। आयरलैंड से बाहर इसे फुटनोटस के साथ छापा जाता है।

शायद इसीलिए अनिल ने संकलन में कई सम्मतियों को शामिल किया है। उदय प्रकाश के अनुसार अनिल अनलहातु  एक विरल ज्ञानात्मक- ऐन्द्रिकता के ऐसे बौद्धिक युवा कवि हैं जिनकी कविताएँ मुक्तिबोध की कविताओं की पंक्ति में अपनी जगह बनाती चलती हैं। अवधेश प्रीत उनकी कुछ कविताओं को शोकान्तिका की तरह मानते हुए उनमें धूमिल का भी प्रभाव देखते हैं। प्रभात मिलिंद वहाँ सभ्यताओं की अन्तर्यात्रा चीन्ह रहे हैं तो विनय कुमार उनके यहां संदर्भों को उनकी शोधवृत्ति से जोडते हैं। मुक्तिबोध शताब्दी वर्ष के आयोजनों में मेरी कोशिश इस तरफ ध्यान आकर्षित करने में रही कि मुक्तिबोध के तमाम महिमामंडन के बाबजूद कविता और आलोचना पर उनका कितना असर पडा, कभी इसका भी आकलन किया जाये। सच तो यह है कि समकालीन कविता पर रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह का कहीं ज्यादा प्रभाव रहा है। अनिल अपने को मुक्तिबोध और धूमिल ही नहीं बल्कि गोरख पांडेय से घोषित रूप से जोडते हैं। उनके यहां मुक्तिबोध जैसा आत्मसंघर्ष और ज्ञानात्मक संवेदना है तो धूमिल की तेजाबी भाषा तथा गोरख पांडेय- सी जन- संलग्नता। कहना न होगा कि परंपरा में होने का अर्थ अनुसरण नहीं होता और इस कविता में वैश्विक सृजन की भी प्रतिच्छाएं व अनुगूंजें हैं।

#पढते-पढते-४१

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

अंधेरे दौर में जनविमर्श : सुधीर सुमन


22 जून 2013

अनंत कुमार सिंह, अच्युतानंद मिश्र और कुमार मुकुल की किताबों पर  एक निगाह


एक ऐसे दौर में जब अखबारों के संपादक प्रगतिशील जनवादी आकांक्षाओं वाले साहित्य को छापने के बजाए उसका उपहास उड़ाने को अहमियत दे रहे हों और पूरी नई पीढ़ी के भीतर सर्वनकार और आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति को खूब प्रोत्साहित किया जा रहा हो, तब उन साहित्यकारों की आकांक्षाओं की थाह लेना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है, जो साहित्य को आज भी बदलाव का माध्यम समझते हैं और जो विचारधारात्मक मूल्यों की पहचान, उन मूल्यों को बचाए रखने की चिंता और नए जनपक्षधर मूल्यों की तलाश को ज्यादा अहमियत देते हैं।

हाल में मुझे तीन पुस्तकें मिलीं। पहला कहानी संग्रह है कथाकार अनंत कुमार सिंह का- ब्रेकिंग न्यूज। शीर्षक कहानी खुद ही एक ऐसे साहित्यकार के बारे में है जिसकी एक इलेक्ट्रानिक चैनल का एक्सीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनने के बाद साहित्य की दुनिया में भी पूछ बढ़ जाती है, पर वह अपनी सामाजिक नैतिकता खो देता है। औरतें सिर्फ उसके लिए उपभोग हैं और मीडिया महज मालिक के कारोबार का माध्यम। अपने पारिवारिक सामाजिक रिश्तों से भी वह पूरी तरह कट जाता है।

शिक्षा (लपटें), खेती (मुआर नहीं), कृषि संस्कृति (भुच्चड़), शहरी मेहनतकशों की जिंदगी (पहियों पर पहाड़, वाह रे! आह रे! चैधरी मुरारचंद्र शास्त्री) के प्रति लेखक गहरे तौर पर संवेदित है। ये अपने ही अहं और कुंठा में डूबे आत्मकेंद्रित मध्यवर्गीय व्यक्ति की कहानियां नहीं हैं। और ऐसा नहीं है कि पुराने समाज के प्रति कोई अंधमोह है इनमें, वहां के शोषण और उत्पीड़न की स्मृतियां, खासकर अपने हक अधिकार से वंचित लोगों और अपने प्रेम से वंचित स्त्रियों (बसंती बुआ, मुखड़ा-दुखड़ा-टुकड़ा!) की बहुत मार्मिक स्मृतियां हैं, जो पाठक की चेतना को लोकतांत्रिक बनाती हैं। शहर और गांव और संगठित और असंगठित श्रमिकों को एकताबद्ध करने का स्वप्न (रात जहां मिलती है) भी इनमें है। कहानी संग्रह का समर्पण भी गौर करने लायक है- इस धरती को जहां रहता हूं मैं अपने शब्दों के साथ।

अपनी धरती और धरतीपुत्रों से जुड़कर उनकी व्यथाओं को कविता में लाने की ऐसी ही चिंता अच्युतानंद मिश्र के पहले कविता संग्र्रह ‘आंख में तिनका’ की कविताओं में दिखाई देती है। इसमें बदलते हुए खतरनाक समय की पूरी पहचान है और अपनी भूमिका की तलाश भी। संग्रह की पहली ही कविता है- मैं इसलिए लिख रहा हूं/ कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथ से जुड़कर/ उन हाथों को रोकें/ जो इन्हें काटना चाहते हैं।

अच्युतानंद की कविताओं को पढ़ते हुए प्रगतिशील क्रांतिकारी काव्य धारा की मुहावरा सी बन गई कई पंक्तियों की याद आती है, पर यह नकल नहीं, बल्कि उस काव्य पंरपरा का जबर्दस्त प्रभाव है। जो चीज इन कविताओं को उन कविताओं से अलगाती है, वह है इनमें मौजूद अपने समय के संकट की शिनाख्त। एक कविता का शीर्षक ही है- इस बेहद संकरे समय में। समय जो है वह मनोनुकूल नहीं है, चीजें सारी बेतरतीब हैं, जिनके बीच एक सलीके की तलाश है कवि को, सड़कें बहुत तंग हैं, पर कवि का मानना है कि ‘बड़े सपने तंग सड़कों/पर ही देखे जाते हैं।’ जाहिर है समय के संकटों का अहसास तो है पर वैचारिक पस्ती नहीं है, क्योंकि संकरे समय में रास्ते की तलाश भी है।
बेशक, वर्तमान से कवि संतुष्ट नहीं है, पर आस्थाहीनता की आंधी में वह बहने को तैयार नहीं है, उसे पूरा भरोसा है कि मेहनतकश हाथों से ही ‘दुनिया का नक्शा’ बदलेगा। इन कविताओं में शहर हैं, जो बस्तियों की छाती पर पैर रख जवान हुए हैं, देश है, जिसमें बच्चे भूखे ठिठुर रहे हैं, ‘किसान’ धीरे-धीरे नष्ट किए जा रहे हैं, नौजवान मरने को अभिशप्त हैं, औरतें उदास, उत्पीडि़त और पराधीन हैं, बच्चे उपेक्षित हैं। लेकिन शासकवर्ग देश ही नहीं, पूरी पृथ्वी की ही रक्षा का नाटक करता है। लेकिन त्रासदी यह है कि इस नाटक के बीच ‘डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता/ डूबती हुई पृथ्वी के बारे में’ (आखिर कब तक बची रहेगी पृथ्वी)।
एकालाप’ महज किसी लंबी कविता का शीर्षक ही नहीं है, बल्कि हर कविता मानो खुद से भी जिरह है। यही अगर इस संग्रह का शीर्षक भी होता, तो शायद ज्यादा उचित होता। यह एक ऐसी कविता है जिसमें कवि की वैचारिक बेचैनियों के कई स्तर नजर आते हैं और साथ ही एक जनधर्मी काव्य मुहावरा विकसित करने की जद्दोजहद भी- ‘सुरक्षित था जीवन/ आरक्षित था मन/ केंद्रित था पतन/ और ठगा जा रहा था वतन।’
संग्रह के फ्लैप पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने सही ही लिखा है कि अच्युतानंद पर्यवेक्षक कवि नहीं, अतटस्थ रचनाकार हैं। 

पर्यवेक्षण और परिवर्तन की चाहत का ऐसा ही द्वंद्व कुमार मुकुल की आलोचनात्मक लेखों के संग्रह ‘अंधेरे में कविता के रंग’ में दिखाई देता है। कवि से कर्ता होने का उनका आग्रह रहता है। वे श्रम की कीमत बताने तक कवि की भूमिका नहीं मानते, बल्कि श्रम की लूट को नष्ट करने का तरीका बताने का भी आग्रह करते हैं। राजनीतिक कविताआंे की जरूरत, अनिर्णयों का अरण्य बनती हिंदी कविता, अंधेरे में की पुनर्रचना जैसे लेख हिंदी कवियों से निर्णायक भूमिका की अपेक्षा रखते हैं। आलोचक का जो वैचारिक आग्रह कवि से है, वही समाज से भी है, इसलिए भी कि कविता को समाज से अलग करके वह कहीं नहीं देखता। इसलिए कविता में आलोचक को स्त्रीविरोधी कोई स्वर भूले से भी मंजूर नहीं है। रघुवीर सहाय और धूमिल से इसी कसौटी पर कुमार मुकुल अपनी असहमति जाहिर करते हैं। सविता सिंह, अनामिका, निर्मला पुतुल आदि कवियत्रियों की कविताओं के मूल्यांकन के दौरान स्त्रियों के प्रति उनकी संवदेनशीलता और उनकी मुक्ति के प्रति अटूट पक्षधरता दिखाई पड़ती है। अंधविश्वास, अवैज्ञानिकता, तथ्यहीनता और तर्कहीनता आदि के वे मुखर विरोधी हैं और इस आधार पर अपने प्रिय कवियों की पंक्तियों की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। किसी आलोचक द्वारा अपने पसंद-नापसंद को भी निरंतर जांचना और अपनी आलोचनात्मक समझ को दुरुस्त करते रहना सकारात्मक प्रवृत्ति है, जो आजकल के कम आलोचकों में दिखाई पड़ती है। फिर दूसरों की समझ और राय को भी महत्व देने और अपने आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में उसे भी जगह देने की जो आदत है, वह भी उनकी आलोचना पद्धति की खासियत है। वे प्रगतिशील जनवादी शब्दावलियों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम करते हैं, पर उनकी आलोचना में निहित जो वैचारिक आकांक्षा है, वह निःसंदेह प्रगतिशील-जनवादी है, आधुनिक है। उनके आलोचक ने विचारों और सपनों में यकीन नहीं खोया है।

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं। कुल मिलाकर ‘अंधेरे में कविता के रंग’ की आलोचना पाठक को हिंदी कविता और अपने समय के जरूरी सवालों और बहसों से जुड़ने को उकसाती है, यही इस किताब की खासियत है।

पुस्‍तकें - 


ब्रेकिंग न्यूज (कहानी संग्रह)
अनंत कुमार सिंह
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, मूल्य: 120 रुपये
आंख में तिनका (कविता संग्रह)
अच्युतानंद मिश्र
यश पब्लिकेशंस, दिल्ली, मूल्य: 150 रुपये
अंधेरे में कविता के रंग (आलोचना)
कुमार मुकुल
नई किताब, दिल्ली-92, मूल्‍य: 295 रुपये
                                        (समकालीन जनमत जून २०१३ से साभार)