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मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आलोचना के संदिग्ध संसार में एक वैकल्पिक स्वर : प्रकाश

इधर के वर्षों में हिंदी आलोचना का वरिष्ठ संसार बड़ी तेजी से संदिग्ध और गैरजिम्मेदारन होता गया है। आलोचना की पहली, दूसरी...परंपरा के तमाम उत्तराधिकारी, जिनकी अपनी-अपनी विरासतों पर निर्लज्ज दावेदारी है, आलोचना के मान- मूल्यों और उसकी मर्यादा से क्रमश: स्खलित होते चले गए हैं। खासकर काव्य-आलोचना पर यह नैतिक संकट ज्यादा गहराया है। हमारी वरिष्ठ आलोचना बगैर किसी अन्वेषण-विश्लेषण के ऐसे किसी भी नए कवि को कबीर, प्रसाद, पंत की छवि में नि:संकोच फिट कर देती है, जिनकी न तो भाषा को बरतने का बुनियादी सलीका आता है और न ही वे काव्य-कर्म के मर्म से समग्रत: परिचित होते हैं। हमारी युवा कविता के अधिकांश कवि ‘रेडिमेड’ हैं और दुर्भाग्य से हमारी वरिष्ठ आलोचना भी ‘रेडिमेड’ तरीके से उनका मूल्यांकन करती है।
    ऐसे परिदृश्य में कुमार मुकुल के पहले ही आलोचना-कृति को पढ़कर प्रीतिकर आश्चर्य हुआ। मुकुल मूलत: कवि हैं। एक कवि के रूप में अपने वरिष्ठ और समकालीन कवियों को पढ़ते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जो टिप्पणियां, आलेख और काव्य-कृतियों की समीक्षाएं लिखीं, उनको संकलित कर एक स्वतंत्र आलोचना-कृति के रूप में प्रकाशित किया गया हैं अंधेरे में कविता के ‘रंग’ नाम से।
    पुस्तक चार खंडों में विभाजित हैं- ‘कविता का नीलम आकाश’, ‘जख्मों के कई नाम’, ‘उजाड़ का वैभव’ और ‘जहां मिल सके आत्मसंभवा’। पुस्तक की शुरुआत में एक भूमिका है, जो लेखक की सृजनात्मक भाव-भूमि को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। आखिरकार पूरी पुस्तक में काव्य-आलोचना ही क्यों? ‘भूमिका’ में वर्णित लेखक का बचपन से कविता, और वह भी संघर्षशील, प्रतिवादी स्वर की कविताओं की ओर झुकाव यह स्वष्ट कर देता है कि लेखक मूलत: असहमति का कवि है और जब यह कवि आलोचना के क्षेत्र में उतरता है तो कविता को ही अपना क्षेत्र बनाता है, और उसमें भी असहमति की कविताएं उसको प्रिय है।
इस पुस्तक में भी लेखक ने सविता सिंह, अनामिका, विजय कुमार, आलोक धन्वा, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु खरे, अरुण कमल, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेन डंगवाल, विजेंद्र, रघुवीर सहाय और राजकमल चौधरी की कविताओं का मूल्यांकन किया गया है। सविता सिंह की कविताओं की मूल भावभूमि की खोज करते हुए आलोचक उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध मातृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था का सशक्त प्रवक्ता सिद्ध करता है। वहीं अनामिका कविताएं उसे ‘औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्ति’ मालूम पड़ती है। विजय कुमार के कविता-संग्रह ‘रात-पाली’ की विवेचना करते हुए उन कविताओं में आलोचक को जीवन के वे तमाम छोटे-छोटे ब्यौरे मिलते हैं, जो एक भयंकर नाउम्मीदी, भय और आशंका में कांप रहे हैं।
आलोक धन्वा के संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ की सुप्रसिद्ध कविताओं ‘सफेद रात’, ‘ब्रूनों की बेटियां’, ‘जनता का आदमी’, ‘भीगी हुई लड़कियां’ आदि की बड़ी मार्मिक पड़ताल पुस्तक में है। वीरेन डंगवाल की कविता पर टिप्पणी के बहाने आलोचक जारी समय की कविता पर भी सार्थक बात कहता है- ‘‘ विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे हैं और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदंह पच्चीसियां जारी हैं, वीरेन की संक्षिप्त कलेवर की कविताएं ‘कटु विरक्त’ बीज की तरह हैं।’’ फिर अरुण कमल की ‘नए इलाके’ की खोज है, जो आलोचक ‘असल पुराने इलाके की ही खोज’ लगती है। इसी तरह आलोचक विजेंद्र की ‘लोकजन की ओर उन्मुख’ कविताओं, ‘रघुवीर सहाय की स्त्री की अवधारणा’, ‘केदारनाथ अग्रवाल की श्रम-संस्कृति की प्रतिपादक कविताओं’ और केदारनाथ सिंह और राजकमल की कविता के विविध आयामों की सूक्ष्म पड़ताल करता है।
    पुस्तक का दूसरा खंड अलग से रखने का विशेष औचित्य नहीं था। इस खंड में भी नए-पुराने अनेक कवियों के काव्य-संकलनों की अलग-अलग आलोचना है। यह आलोचना ‘पुस्तक समीक्षा’ की शैली में है। जैसे मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले काव्य-संग्रह ‘किसी उम्मीद की तरह’, के संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, विष्णु नागर के संग्रह ‘हंसने की तरह रोना, राजेश जोशी के संग्रह ‘चांद की वर्तनी’ और ज्ञानेन्द्रपति के संग्रह ‘गंगातट’ की समीक्षाएं इस खंड में शामिल हैं। इनके अलावा सुदीप बनर्जी, लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप की कविताओं पर स्वतंत्र-सी मालूम होती विवेचना है।
    पुस्तक के तीसरे खंड ‘उजाड़ का वैभव’ में कुछेक वरिष्ठ कवियों जैसे विष्णु खरे, कुमार अंबुज के अलावा अपेक्षाकृत नए कवियों निलय उपाध्याय, प्रेम रंजन अनिमेष, पंकज चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, वर्तिका नंदा, पंकज कुमार चौधरी, आर-चेतन क्रांति, रुंजय कुंदन और तजेंदर सिंह लूथरा की कविताओं का सह्दयता से किया गया आब्जर्वेशन है।
    आखिरी खंड में सिर्फ दो आलेख हैं। इसमें पहले आलेख में है हमारे अस्थिर समय में भटकाव की शिकार हिंदी कविता की वस्तुस्थिति का आकलन और उसके कारणों की शिनाख्त की गई है। आखिरी आलेख कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की एक महत्वपूर्ण कविता ‘सूर्यग्रहण’ पर केंद्रित है। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की पृष्ठभूमि में कुमारेंद्र की कविता ‘अंधेरे में’ के वर्षों बाद रची गई और मुकुल जी इस कविता को अंधेरे में की पुनर्रचना मानते हैं। यह सिद्ध करने   की उन्होंने पर्याप्त कोशिश की है।
    कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता को समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है।