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बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

लोहिया का जीवन एक मिसाल है

कुमार मुकुल से सुधीर सुमन की बातचीत

डाॅ. लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' नामक यह पुस्‍तक, सत्ता में मौजूद लोहियावादियों के सैद्धांतिक पतन और चरम अवसरवाद के विपरीत लोहिया को अपने देश की समाज, राजनीति और अर्थनीति में परिवर्तन चाहने वाले बुद्धिजीवी और नेता के रूप में हमारे सामने लाती है। आपने अपनी भूमिका में लिखा है कि आप राजनीति विज्ञान के छात्र रहे हैं और छात्र-जीवन में लोहिया की दो जीवनियां आपने पढ़ रखी थीं पर उनका दिमाग पर ऐसा असर नहीं हुआ था जो पुस्तक लिखने को प्रेरित करे। ऐसे में आपको लोहिया पर किताब लिखने का मौका मिला तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या हुई, कौन सी वे बातें थीं लोहिया की जिसने इस किताब को लिखने के दौरान आपके लेखक को प्रभावित किया ?
पहले जो कुछ पढा था वह सरसरी निगाह से पढा था फिर जिस तरह लोहिया के हिटलर की सभाओं में जाने को लेकर चीजें, बातें प्रचारित थीं उससे लोहिया से एक दूरी-सी लगती थी पर पुस्‍तक लिखने के दौरान जब उनके तमाम लेखन से साबका पडा तो जाना कि सच के कई दूसरे आयाम हैं... लोहिया जर्मनी पढाई के लिए गये थे और वहां होने वाली गतिविधियों में सक्रियता से हिस्‍सा लेते थे, वहां नाजी और कम्‍यूनिस्‍ट दोनों उनके मित्र थे, उनके नाजी मित्र ने जब उनहें भारत में जाकर नाजी दर्शन का प्रचार करने की सलाह दी तब उनका जवाब था – 'जर्मनी के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी देश में वंश और जाति की श्रेष्‍ठता को माननेवाला दर्शन शायद ही स्‍वीकृत होगा।' आगे हिटलर के प्रभाव के बढते जाने के कारण उन्‍हें समय से पहले भारत लौटना पडा था। मद्रास पहुंचने पर आर्थिक संकट को ध्‍यान में रख उन्‍होंने 'फ्यूचर ऑफ हिटलरिज्‍म' शीर्षक लेख लिखकर पारिश्रमिक के तौर पर 25 रुपये  प्राप्‍त किए थे। 
इसी तरह भारत लौटने के पहले जब जेनेवा की 'लीग आफ नेशंस' की बैठक में भारत की प्रतिनिधि बीकानेर के महाराज गंगा सिंह ने भारत में अमन चैन की बात की तो वहां उपस्थित लोहिया ने इसका विरोध किया और अगले दिन उन्‍होंने वहां के एक अखबार में लेख लिखकर भारत में चल रहे पुलिसिया अत्‍याचारों और भगतसिंह को दी गयी फांसी का मुददा उठाया था। इसके अलावे लोहिया का पूरा जीवन मुझे एक मिसाल की तरह लगा। वे सादा जीवन जीते थे और खुद पर न्‍यूनतम खर्च करते थे। कार्यकर्ताओं का ख्‍याल कर उन्‍होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया था।  उनके एक साथी जब बैंक से पैसे निकालने गये तो उन्‍होंने कहा कि कैसे समाजवादी हो, बैंक में खाता रखते हो, यहां तक कि उनकी जान चली गयी, क्‍योंकि सहज ढंग से वे विदेश जाकर अपना इलाज कराने को तैयार नहीं थे। वे अपने लिए उतनी ही सुविधा चाहते थे जितनी भारत की गरीब जनता अपने लिए जुटा पाती थी, सांसद बनने पर गाडी और यहां तक कि कमरे में कूलर तक लगवाने से इनकार कर दिया था, इस सबके अलावे वैचारिक पहलू पर भी वे खुद को बराबर दुरूस्‍त करते रहते थे। 'मैनकाइंड' में एक पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका ने भी मुझमें उनके प्रति सकारात्‍मकता पैदा की।

आपने गांधी और मार्क्‍स के साथ लोहिया के समान लगाव की बात की है। आपने लिखा है कि वे मार्क्‍स की ‘डिक्लास थ्योरी' और गांधी के ‘अंतिम आदमी' को हमेशा ध्यान में रखते थे। जबकि लोहिया अपने आप को कुजात गांधीवादी कहते हैं और वामपंथ की तीखी आलोचना करते हैं। एक जगह वे यह भी कहते हैं कि ‘न मैं मार्क्‍सवादी हूं और न मार्क्‍सवाद विरोधी'। इसी तरह न मैं गांधीवादी हूं न गांधीवाद-विरोधी... तो आखिर आपकी निगाह में वे क्या हैं... इस किताब में वामपंथ के प्रति उनके पूर्वाग्रह को रेखांकित करने और अमेरिका व पूंजीवाद के प्रति उनकी उम्मीद के धूल-धूसरित होने का भी जिक्र किया गया है। आखिर लोहिया के इस नजरिए के तत्कालीन वैचारिक स्रोत क्या हैं, आज जबकि सोवियत संघ बिखर चुका है और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मनमानी पूरी दुनिया में जारी है तब जनता और राष्ट्रों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के संघर्ष के लिहाज से क्या लोहिया के विचार आपको उपयोगी लगते हैं?

गांधीवादी या मार्क्‍सवादी होने या दोनों का विरोधी होने को लोहिया समान मूर्खता मानते हैं, उनका कहना है कि गांधी और मार्क्‍स दोनों के ही पास अमूल्‍य ज्ञान-भंडार है। खुद मार्क्‍स मार्क्‍सवादी नहीं थे, इसी अर्थ में वे खुद को कुजात गांधीवादी कहते हैं वे इन दोनों के विचारों के सकारात्‍मक, वैज्ञानिक तथ्‍यों को लेकर आगे बढना चाहते थे। जरूरत पडने पर वे दोनों की सकारात्‍मक आलोचना करते थे। गांधी की बहुत सी बातों को वे आगे बढाना चाहते थे, पर उपवास आदि के पक्षधर नहीं थे। इसी तरह वे मार्क्‍स के दर्शन में जहां जड ढंग से बांधने की कोशिश दिखती थी, वहां उसका विरोध करते थे। वे किसी विचारधारा को व्‍यक्त्‍िा का पर्याय बनाने के खिलाफ थे। एक जगह गांधी और मार्क्‍स पर विचार करते वे लिखते हैं- 'मार्क्‍सवाद अपनी सीमाओं के अंदर विपक्ष और सरकार दोनों ही रूपों में ज्‍यादा क्रांतिकारी होता है। उसके क्रांतिकारी चरित्र में सरकारी होने या न होने से कोई बाधा या फर्क नहीं पडता।' 
वे पाते थे कि उनके समय में जो कुछ चल रहा है वह गांधीवाद न होकर गांधीवाद और मार्क्‍सवाद का घटिया सम्मिश्रण है। वे इसे गांधीवाद की कमजोरी मानते थे कि मार्क्‍सवाद उन्‍हें सम्मिश्रण के लिए मजबूर कर देता है। वे देखते हैं कि गांधीवाद जब त‍क सत्‍ता से दूर रहता है तब तक ही क्रांतिकारी रह पाता है, इसीलिए वे खुद को गांधीवाद से अलगाते हुए कुजात गांधीवादी कहते हैं। उनके लेखन के बडे हिस्‍से से गुजरने के बाद पता चलता है कि उनके वैचारिक आधार की नींव में मार्क्‍सवाद है और गांधी के साथ काम करने के कारण उनका भावात्‍मक प्रभाव ज्‍यादा है। वे भारतीय वामपंथ से टकाराते थे और कहते थे कि– मार्क्‍स के सिद्धांतों में ज्‍योतिषियों जैसी बहानेबाजी नहीं थी, जैसी कि वे वामपंथियों में पाते थे। वे अमेरिका से उस समय कुछ ज्‍यादा आशा कर रहे थे पर रूस और चीन की बदलावकारी भूमिका को हमेशा स्‍वीकारते थे, उनकी आलोचना उनसे और बेहतर की मांग थी।

आपकी इस पुस्तक में तिब्बत का मसला नहीं आया है, क्या इसे जान-बूझकर आपने छोड़ दिया है, तिब्बती जनता की स्वायत्ता और स्वतंत्रता की मांग के समर्थन के बावजूद क्या यह सच नहीं है कि तिब्बत मसले को हवा देने में अमेरिका का भी बड़ा हाथ था और लोहिया ने भी इस मसले को उठाया था?


हां तिब्‍बत और कई मसले इस पुस्‍तक में नहीं हैं, आगे संसद में उनके भाषणों पर भी काम करना बाकी है, संभवत: अगली पुस्‍तक में इन मुददों पर विचार कर पाऊंगा।
कहते हैं कि आजादी के पहले से ही नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का गहरा असर रहा है। खुद भी लोहिया नेहरू से प्रभावित थे। वही लोहिया जो कांग्रेस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के विकल्प की बात सोचने वालों को नेहरू की तरह ही गलत मानते हैं और 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के वक्त उसे टूट के खतरे से बचाने के लिए कई लेख लिखते हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति को हवा दी। आजादी से मोहभंग जिन वजहों से था उनके निदान में लोहिया के गैरकांग्रेसवाद ने क्या भूमिका अदा की?
हां, आजादी के पहले और बाद लोहिया ही नहीं नेहरू आदि सब बदले। व्‍यवहार में सत्‍ता संभालने के बाद के संघर्ष ने दोनेां को अलग किया। नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का प्रभाव था पर आजादी के बाद नेहरू अपने ढंग से खुद को अलग करते गये। और लोहिया की आपत्तियां बढती गयीं। भारत के विभाजन के समय ही नेहरू और लोहिया के मतभेद गहराने लगे थे, आगे इसने दोनों को अलगाया। नेहरू की आंख मूंद कर... जैसे लोग पूजा करने लगे थे, लोहिया को यह सख्‍त नापसंद था। संसद में पहले ही दिन लोहिया ने कहा कि– 'प्रधानमंत्री नौकर है और सदन उसका मालिक ...।'

आज तो 'आम आदमी' एक ऐसा जुमला है कि जिसका वे सब धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति को अकूत धन बटोरने का पेशा बना डाला है। लेकिन जब लोहिया आम आदमी की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या होता है, 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' नारे ने क्या गरीबों के हाथ में सत्ता देने में कोई भूमिका निभाई?

संसद में आम आदमी के लिए ढंग से पहली बहस लोहिया ने ही शुरू की थी। रिक्शाचालकों की स्थिति पर जब संबंधित मंत्री ने कहा कि रिक्‍शा चलाने से उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर अवांछित प्रभाव नहीं पडता, तो लोहिया ने जवाब दिया – 'क्‍या आप एक महीना रिक्‍शा चलाकर फिर से इसे कहेंगे?' मंत्रियों को दी जाने वाली सलामियां उन्‍हें सख्‍त नापसंद थीं। वे शासकों के व्‍यक्तिगत खर्चे की सीमा 1500 रुपये रखना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि जनप्रतिनिधि जनता से अलग उन्‍नत जीवन जीएं। पिछड़ा पावे सौ में साठ ने राजनीति का चेहरा बदलकर रख दिया । 

जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग और भाषा के विमर्श आज की राजनीति और समाज में जैसी भूमिका निभा रहे हैं उसे देखते हुए आपको लोहिया के चिंतन की क्या प्रासंगिकता लगती है? आपने इस किताब में कई जगह ऐसे संदर्भ दिए हैं


जाति को लोहिया समूल नष्‍ट करना चाहते थे, पर उनका नजरिया जड नहीं था, वे उन सबको ऊंची जाति में रखना चाहते थे जिनके पूर्वज उस क्षेत्र में राजा रहे हों। वे कहते हैं कि एक ब्राहमण जो राज चलाता है नौकरी करता है वह उंची जाति का हो गया और दूसरा जो शिवजी पर बेलपत्र चढाता है वह नीची जाति का हो गया। हालांकि इन दोनों कथनों में अंतरविरोध है पर यह समय संदर्भ में अलग ढंग से सोचने के कारण है... मूलत: वे किसी भी तरह इस कुप्रथा को नष्‍ट करना चाहते थे। जाति की तरह वे योनि के कटघरों को भी खत्‍म करना चाहते थे। एक जगह वे लिखते हैं – कि 'एक अवैध बच्‍चा होना आधे दर्जन वैध बच्‍चे होने से कई गुणा अच्‍छा है।' कई जगह लोहिया की भाषा कवित्‍वपूर्ण हो जाती थी– यह लोहिया ही थे कि लाहौर जेल में भी ज्‍योत्‍सना यानि चांदनी का वैभव देख पाते थे। 

आपने एक जगह लिखा है कि लोहिया का कोई बैंक एकाउंट नहीं था। सवाल यह है कि क्या लोहिया के विचार और उनकी राजनीति निजी संपत्ति के खात्मे के लिहाज से उपयोगी हैं?

हां, वे निजी संपत्ति के खात्‍मे के पक्षधर थे। गांधी और मार्क्‍स के इससे संबंधित विचारों को लेकर वे लिखते हैं – 'कि संपत्ति संबंधी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्‍पष्‍टता से निकल रहे थे तभी उनकी मृत्‍यु हो गयी।' जबकि मार्क्‍स इस मामले में पक्के थे और उन्‍होंने परिवर्तन का समर्थन किया।
आज जनता का अपने जीवन के मूलभूत अधिकारों के लिए जो संघर्ष है उसके लिए डाॅ. लोहिया के विचार आपको किस हद तक उपयोगी लगते हैं?
जनता के मूलभूत अधिकरों के लिए जो संघर्ष है उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रसंगिक हैं अपने छोटे से संसदीय कार्यकाल में लोहिया ने आमजन के अधिकारों के लिए जैसा प्रतिरोधी संघर्ष चलाया वह अविस्‍मरणीय है।
(‘लोहिया और उनका जीवन दर्शन’ पुस्‍तक पर कुमार मुकुल से सुधीर सुमन की यह बातचीत आकाशवाणीके इंद्रप्रस्थ चैनल से 9 अक्टूबर 2012 को प्रसारित हुई थी।