बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

कयामत का इंतिजार

चैट पर एक दिन उसने लिखा कि मुझसे मिलने के लिए आपको करना पड़ेगा - कयामत का इंतिजार।
फिर तो अगली सुबह मैं निकल पड़ा कयामत की खोज में। और राह में जो भी गिरजा, महजिद और शिवाला पड़ा सब में झुक-झुक के अरदास कर डाला कि जल्‍दी कहीं से बुलवा दे कयामत को और करने लगा उसका इंतिजार कि तभी मन की बेचैनी ने जगूड़ी की कुछ कविता पंक्तियां याद दिला दीं, जिसका निहितार्थ था कि इंतजार का एक तरीका यह भी है कि जिसका इंतजार हो उसके आने की दिशा में चलते हुए इंतिजार किया जाए।
सो चल पड़ा बस अड्डे की ओर। वहां पूछ-ताछ काउंटर पर जब पूछा कि कब तक आएगी कयामत की बस। तो पास खड़े एक डिरायवर ने मुझे निहारते हुए कहा-यूपी-बिहार में बस को कोई टेम नहीं होता। जा उधर लोहे की बेंच पर बैठ मूंगफली फोड़। आ ही जाएगी कयामत यूं ज्‍यादा हलतलबी हो तो सामने पुलिस थाने में जाकर पता कर आ-बड़े काम होते हैं कयामत को,तेरी तरा निठल्‍ली तो है नहीं वो, सारे रास्‍ते उसे किधर-किधर किया किया ढाना होता है कुछ पता भी है।
तब सड़क फलांगता मैं बढ चला सामने और सहमता हुआ थाने में घुसा और सामने पड़ने वाले पहले सिपाहीनुमा जीव को संबोधित करते हुए पूछा-कहां हैं दारोगा साहिब। इतना सुनकर सिपाहीजीवा ने मुझे उपर से नीचे तक खंगाला और फिर किसी काम का ना पाकर मूंछ तवाता बोला-अरे मझउंआ के चोन्‍हर हवे का। भेख-भूषा से त पत्‍तरकार बुझाते हो। पर बाणी से त बुझाता है कि सीधे गंगा किनारे से कहीं से चले आ रहे हो। हिन्‍दी त बुझाते होगा उपर पढी लियो का लीखल है। मैंने देखा तो वहां पुलिस चौकी लिखा था। तब उसने हंसते हुए कहा चल जा अगवा दस बांस वोहीं थाना दिख जाएगा और पढ लेना नहीं त सामनवा इस्‍कूल में जाके ना ढूढने लगना दारोगा जी को। फिर बुदबुदाया-कि सब बकलोल इयूपिए में आ गया बुझाता है लगता है बिहार का पत्‍ता साफे कर देगा सभ।
तो बताई दिशा में दुलकता मैं पहुंचा थाने। तो देखा कि पेड़ के नीचे चौपड़ जमी है। और समाजवाद जारी है जोर-शोर से। सिपाही,हवालदार और मुंशी सब एक ही घाट पर बैठे दिखे। झिझकता हुआ मैं आगे बढ़ा और पूछा-दारोगा जी हथिन। तो मंशी नुमा जीव ने चश्‍मा सरियाते हुए कहा- कुछ कामो बताओगे कि बस दारोगा जी ए से ...। दारोगा जी अभी देहाथ गए हैं वसूली में। तब मैंने धीरे से कहा दरअसल मुझे पता करना है कयामत का। अभी तक आयी नहीं। सुबह से दोपहर होने को आई।
एतना सुनना था कि पूरे चौपड़ ने दांत चियार दिया। ल एगो आउर भकलोल के देख, ससुर कयामत ढूंढ रहे हैं। अरे ससुर के नाती हमलोग का तुमको कयामत से कम बुझा रहे हैं। चल फूट इहां से। जेकरा देख ससुरा कयामते के इंतिजार में है। हमारा त सारा बिजनेसे चौपट कर देगा इ बनभाकुर सभ। तभी थाने की खोली से निसपेटर साहब ने गड़बड़ी के अंदेशे से आवाज दी-का है रे चंदनवा। इतना सुनते ही झोलानुमा एक सिपाही ने अटेंशन बजाते हुए कहा- जी हजूर,कोई पतरकार-जासूस बुझाता है,कयामत जी का पता करने आया है। यह सुनकर निसपेटर बोला-भेजो उन्‍हें।
अब मेरी हिम्‍मत बढ़ी तो थोड़ा तनता हुआ भीतर गया। कुर्सी पर बिठाते हुए निसपेटर ने पूछा-किस अखबार से हो आप। आप तो जानते ही हैं - कयामत का क्‍या कहना, कहीं मर-मार रही होगी ससुरी। आप भले आदमी लगते हो घर लौट जा...। अब कयामत कब संझा-पराती गाएगी इसका कोई अंदेशा नहीं हमें। देर किया तो रात हो जाएगी और बस अड्डे पर रात बितानी पड़ेगी तो हमारा भी सिरदर्द ।सुबह तक पता चला कि आपका ही संझा-पराती गवा गया। अब आप ठहरे पतरकार तो आप तो कष्‍ट से मुक्ति पा जाएंगे सदा के लिए पर आपको फूंकने में हमारा थाने का डिह बिक जाएगा। सात सौ रूपइवे मिलता है लाश जलाने का अब आप पत्रकार ठहरे तो आपको तो यमुना या हिंडन में दहाने में भी खतरे हैा कल को कोनो चील कौआ कुत्‍ता खींच लाया लाश को तो फिर हमारी मुसीबते है।
वइसे हमारा कंसेप्‍ट इ है सांपो मर जाए आउर लठियो नहीं टूटे। त जाइए घर। हां अपना मोबाइल नंबरवा छोड़े जाइए। कयामत के आने पर बात करा देंगे।
मन मसोस कर मैं बस अड्डे लौटा तो लगा कि यहां तो कयामत आकर जा चुकी है।हर तरफ मलबा बिखरा पड़ा था।जिसमें भिड़े कुत्ते-कौए संध्‍या-सूर्य नमस्‍कार में लगे थे। तभी मेरी निगाह बस स्‍टैंड के सामने खड़ी बहुमंजिली विशाल इमारत पर गई जिसके पीछे से निस्‍तेज चांद उभर रहा था अपनी मुर्दनी पसारता। मैंने सोचा क्‍या उस बिल्डिंग के लिए कयामत नहीं है।वह इस झोपड़पट्टी नुमा बसस्‍टैंड पर ही क्‍यों आती जाती है। तभी रात का अंदेशा हुआ तो घबरा कर मैंने सामने खुलती बस पकड़ ली।
अभी कुछ दूर निकला ही था थाने से कि फोन बजा- मैं कयामत बोल रही हूं। मैं हकलाया - कि इस तरह फोन पर आने की क्‍या हलतलबी थी। आप मेरे घर भी आ सकती थीं। देखिए निसपेटर साहब ने बताया कि आप भले इंसान लग रहे थे-तेा सोचा कि आपके घर जाकर आपको क्‍येां बेघर करूं- आप सजे रहिए
आप घजे रहिए।
मैं रूंआसा होता बोला - पर कयामत जी , मुझे तेा आपसे इश्‍क हो गया है। इतना सुनना था कि कयामत जी बिगड़ कर फराठी हो गईं। हेा गया है इश्‍क न तो जब मेरा हुश्‍न देखोगे तो फिर चचा मीर की तरह गाते फिरोगो- गोर किस दिलजले की है ये फलक...।

2008 में लिखित

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...कुमार मुकुल और अच्‍युतानंद मिश्र की बातचीत

कविता में आपका आना किस तरह हुआ ?

अध्ययन की जड. स्थितियों से उबिया कर मैं कविता में आ गया। पिता चाहते थे कि डाॅक्टर बनूं, राममोहन राय सेमिनरी में तीन महीने के कोचिंग के लिए मुझे भेजा गया था। वहां रोज ढड्डर का ढड्डर नोट्स लिखवाया जाता था कि आप उसका रट्टा मारें,तो तीन महीना पूरा होते ना होते मैं इस तरह की पढाई से उब गया। पिता ने समझाया कि कोचिंग पूरा कर लो, भले मेडिकल में ना बैठना। पर मन उचट गया सो मैं बोरिया-बिस्तर ले वापस आ गया। उस दौरान मेरे मिजाज में विचित्र बदलाव आ रहे थे। कोचिंग के दौरान मेरे मन में विचित्र कल्पनाएं जगने लगीं कि इस पढाई से अच्छा हो कि पटना में जाकर गुलाबों की खेती करूं। शाम गांधी मैदान में जा बैठता और चांद-तारों को निहारता रहता, दरअसल पिछले दो सालों की पढाई के दौरान मैं ज्यादातर गांव में रहा सो नदी,पेड,चांद,तारों के अलावे मुझे कुछ सूझता नहीं था। सो सहरसा जाकर वाकई सालों मैंने गुलाब के ढेरों पौधे उगाए। इस बीच जो मेरे साथी बने वे तीनों कविताएं करते थे। देखा-देखी मैं भी तुकें जोडने लगा, हालांकि आगे उनमें से कोई कविता के क्षेत्र में टिका ना रहा।

अप्रत्यक्ष रूप से पिता की भी भूमिका मेरे कवि बनने में है और मां की भी। मेरे पिता ने असहमति के बावजूद मेरे दो आरंभिक कविता संकलन छपवाए एक पर उन्होंने टिप्पणी भी लिखी। उनकी मेज पर 'मुक्तिबोध','नामवर सिंह','रामविलास शर्मा' आदि की किताबें पडी रहती थीं,अंग्रेजी के अध्यापक होने के नाते 'शेक्सपीयर' आदि को तो वे रटवाते ही रहते थे। सहरसा कोशी प्रोजेक्ट के सचिव जो पिता के मित्र थे घर के सामने रहते थे। उन्हें हम लोग सेक्रेटरी सहब कहते थे। वे अपने टेप पर 'बच्चन' की मधुशाला सुनाते थे तो आंरभिक कविताएं मैं उन्हें ही लिखकर पढाता था और वे सराहते थकते ना थे। उनमें से कोई कविता कहीं छपी नहीं या उस लायक नहीं थी पर उनकी हौसला अफजाई ने भी बढावा दिया। और मां की लाजवाब करने वाली मुहावरेबाजी के बारे में क्या कहना।

फिर मेरे पहले कविता संकलन पर 1987 में जिस तरह उस समय के दिग्गजों ''प्रभाकर माचवे'',''विष्णु प्रभाकर'',कवि ''रामविलास शर्मा'' आदि ने पत्र लिखकर उत्साहित किया उसने भी मेरा मिजाज बना दिया। माचवे जी ने तो प्रूफ की गलतियां ,पुस्तक पर अपनी राय और प्रकाशनार्थ सम्मति आदि अलग अलग लिखे थे। पर उस समय समीक्षा आदि का महात्तम मुझे पता नहीं था सो माचवे की वह सम्मति कहीं छपी नहीं। हां, ''मुकेश प्रत्यूष'' ने उस समय हिन्दुस्तान में एक समीक्षा लिख दी थी। मैं उसी से गदगद था।

बतौर कवि कविता के वर्तमान परिदृश्य को आप किस तरह देखते हैं ?

एक तरह की धुंध है,हालांकि बडे पैमाने पर नये कवि लिख रहे हैं पर उस परिवर्तनकामी चेतना का अभाव दिखता है जो कविता के मानी होते हैं। पर हमारे मुल्क में और इस महाद्वीप में अभी भी जिस तरह अशिक्षा और जहालत का बोलबाला है, जैसे-जैसे लोग शिक्षित होते जाएंगे कविता का घेरा बढेगा। बाकी जमात को छोड कर खुद कवि हो जाने,होते चले जाने के कोई मानी नहीं हैं।

हिन्दी कविता में दिल्ली के कवियों की केंद्रियता के क्या खतरे हैं ?

वही जो दिल्ली केन्द्रित सत्ता के हैं , पर कोई कवि दिल्ली का नहीं होता जैसे राजनीतिज्ञ दिल्ली के नहीं होते। एक केन्द्रियता तो रहेगी ही उसे बार बार विकेन्द्रित करने की जरूरत होगी।

आठवें दशक के बाद जो पीढी आयी उसने कविता के कथ्य और शिल्प को किन अर्थों में बदला ?

मैं इस तरह दशकों में कविता को बांट कर नहीं देखता। यह बंटवारा इसलिए होता है कि उस छोटे से घेरे में आप महारथी दिखें। काहे का महारथी जब आपकी आधी से ज्यादा आबादी जहालत के घेरे में है, पहले उन्हें शिक्षित कर लें फिर उनके कवि होने का दावा और बंटवारा करें।

नहीं, मैं जानना चाहता था कि नवें दशक के कवि 'कुमार अंबुज','एकांत श्रीवास्तव','मदन कश्यप','विमल कुमार' आदि ने आठवें दशक के बरक्स कविता में कौन से नये बदलाव लाए ? ये आपसे ठीक पहले के कवि हैं।

इनमें मदन कश्यप के अलावे बाकी ने खुद को अपने समय की राजनीति से बचाव की मुद्रा में रखा। प्रकृति का वर्णन या अंतरमन के प्रसंगों को कविता में लाना जरूरी है पर यह हमें अपने समय की उठापटक से दूर करने का वायस बने यह जरूरी नहीं। विमल कुमार ने अपने पहले संग्रह के बाद राजनीति से अपना जुडाव दिखाने की कोशिश की पर वह जमीनी नहीं बन पाया।(अब 2018 में विमल जी अपने समय के मुकाबिल तनकर खडे दिखते हैं)

आज कुछ बडे प्रकाशक थोक भाव से कवियों को छाप रहे हैं कथाकारों और उपन्यासकारों को छाप रहे हैं, जैसे वे उनके दिशा-निर्देशक हों। इस तरह पीढियां बनाने के प्रकाशन की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ?

देखिए , खुशफहमियां पालने का हक सबको है, जब नये रचनाकार ही खुशफहमियों से बाहर आने को तैयार ना हों तो प्रकाशक को क्या पडी है , वह उन्हें निर्देशित करेगा ही। वह उसके व्यापर का हिस्सा है। बाकी पीढी-पीढा प्रकाशक क्या उभारेंगे, वे अपनी गांठ सीधी करें इससे ज्यादा की उन्हें फुरसत कहां है...

''उर्वर प्रदेश'' पर जिस तरह से विवाद उठा है,उससे वर्तमान कविता और कवियों के बीच के अंतरविरोधों पर किस तरह रोशनी पडती है ?

यह एक राजनीतिक विवाद है। इसका रचनात्मकता से कोई लेना देना नहीं। पुरस्कार कोई भविष्य की गांरटी कैसे दे सकते हैं। हर राजनीतिक तमाशा एक सीमा के बाद चूकता है। उर्वर प्रदेश भी चूका अब जाकर। इस प्रदेश से बाहर हमेशा ज्यादा उर्वर कवि रहे।

आपने कविता के अतिरिक्त गद्य भी लिखा है...एक कवि के लिए गद्य लेखन को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

गद्य कविता में फार्मेट का अंतर है , बातें तो वही होती हैं। शमशेर ने कहा है ना कि 'बात बोलेगी' , तो कविता हो या गद्य ,बातों को बोलना चाहिए, ऐसा ना हो कि उनकी वकालत की जरूरत पडे। हां,गद्य लिखने से कवि अपनी सत्ता को जान पाता है कि वह कितनी ठोस है।

फिलहाल आप किसे बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं,कविता या आलोचना को ?

संभावना या बात जहां होगी वह बडी हो जाएगी। अपने आप में कविता या आलोचना से क्या संभावना ...!

पहले के किन कवियों ने आपके काव्य व्यक्तित्व और लेखन पर प्रभाव डाला है ?

अलग-अलग समय में अलग लोगों ने प्रभावित किया। जैसे 1987 में जब मेरा पहला कविता संकलन पिता ने छपवाया था तब मैं ''केदारनाथ सिंह'' के प्रभाव में था। उनके असर में उस संकलन में एक कविता भी लिखी थी मैंने जो संकलन का शीर्षक भी था,''समुद्र के आंसू''। आरंभ में 'तुलसी' और 'दिनकर','बच्चन' का प्रभाव था। विकास के साथ प्रभावित करने वाले कवि बदलते गये। केदारजी की कविता आज वह प्रभाव नहीं छोडती। ना दिनकर,बच्चन ही। लंबे समय से मुक्तिबोध,शमशेर,नागार्जुन,त्रिलोचन का प्रभाव है। मुक्तिबोध,शमशेर का गद्य और कविता एक ही तरह से प्रभावित करते हैं और एक हद तक रघुवीर सहाय भी। टैगोर की कविताएं बहुत प्रभावित करती हैं वैसे रिल्के के पत्रों का सर्वाधिक प्रभाव खुद पर अनुभव किया।

प्रभाव से परे मेरे ''प्रिय कवि'' अलग हैं, आलोक धन्वा,विष्णु नागर,विष्णु खरे,ऋतुराज,लीलाधर मंडलोई,मंगलेश डबराल,विजय कुमार,असद जैदी,मदन कश्यप,अनामिका,सविता सिंह,निर्मला पुतुल,वंदना देवेंद्र। बांग्ला कवि नवारूण भटटाचार्य बहुत प्रिय हैं मुझे। अपने प्रिय कवियों की कविताएं मैं लोगों केा बारहा सुनाता हूं।

लंबी कविताओं के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे ?

कविताओं को छोटी और लंबी में बांटना नहीं चाहता मैं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं। बस संगठन का फर्क है। वरना लंबी कविता भी आप एक सांस में पढ जाएं और छोटी भी आपको उबा दे। कुछ लंबी कविताओं ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोडा, जैसे आलोक धन्‍वा की ब्रूनो की बेटियां,सफेद रात,लीलाधर जगूडी की मंदिर लेन,लीलाधर मंडलोई की अमर कोली और कुमारेन्‍द्र पारसनाथ सिंह की लंबी कविताएं।

नयों में किनसे उम्मीद बंधती है ?

बहुत लोग बहुत तरह से लिख रहे हैं,उम्मीदें ही उम्मीदें हैं...

 Thursday, July 8, 2010, को एक ब्‍लॉग पर पोस्‍टेड


बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

'समुद्र के आंसू' व 'सभ्‍यता और जीवन'

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - रामविलास शर्मा {कवि}

मध्‍यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ,इन्‍दौर
रामविलास शर्मा
अध्‍यक्ष
27-4-88

प्रिय भाई मुकुल
आपका पत्र मिला। समुद्र के आंसू की प्रति भी। आद्यांत पढ़ गया हूं। आपके मन में भावनाओं का ज्‍वार है और परिवेश के प्रति सतर्क दृष्ठि भी। सामाजिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की एक लहर भी इन कविताओं में यत्र-तत्र विद्यमान है।
प्रकृति ने आपके मन को छुआ है और उसकी सहज अभिव्‍यक्ति भी यहां मौजूद है।
आप एक संभावनाशील कवि हैं। मेरी बधाई स्‍वीकारें।
शेष शुभ।
सस्‍नेह
रामविलास शर्मा

गीतांजलि
396,तिलक नगर,इन्‍दौर-452001/म.प्र.

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - विष्‍णु प्रभाकर

प्रिय बन्‍धु,
आशा करता हूं आप स्‍वस्‍थ और प्रसन्‍न हैं। आपका पत्र मिला और पुस्‍तक भी। इधर मेरा स्‍वास्‍थ्‍य बहुत खराब चल रहा है आंखों में मोतिया बिन्‍द उतर रहा है इसलिए पढ़ना बहुत कष्‍टदायी हो गया है फिर भी आपकी कविताएं इधर उधर से पढ़ गया हूं। आपने आज के यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है। आपका उद्देश्‍य बहुत शुभ है और आपकी भाषा में भावों को अभिव्‍य‍िक्ति देने की शक्ति भी है। मुझे विश्‍वास है कि आपका भविष्‍य उज्‍जवल है।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं स्‍वीकार करें।
शेष शुभ
स्‍नेही
विष्‍णु प्रभाकर
28/4/88
818,कुण्‍डेवालान,अजमेरी गेट, दिल्‍ली-110006,फोन-733506

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - राजेन्‍द्र यादव
12/12/87
प्रिय अमरेन्‍द्र जी
आपका कविता संग्रह मिला। धन्‍यवाद। कविताओं में मेरी बहुत गति नहीं है,इसलिए अपनी राय को महत्‍वपर्ण नहीं मानता। अपने कुछ कवि मित्रों को दिखाकर उनकी प्रतिक्रिया जानने की प्रयास करूंगा।
आशा है , स्‍वस्‍थ सानंद हैं।
आपका
राजेन्‍द्र यादव

समुद्र के आंसू पर आए पत्र - अरूण कमल

8/1/88
प्रिय मुकुल जी,
नमस्‍कार।
नये वर्ष की मंगलकामनाएं स्‍वीकार करें।
समुद्र के आंसू पुस्तिका मिली। आपके इस अनुग्रह के लिए हृदय से आभारी हूं। कविताएं मैंने पढ़ी हैं और कुछ पढ़ रहा हूं। खुशी की बात है कि आपने कविता से लौ लगायी है। इसे निरन्‍तर विकासमान रखें। कविता का क्षेत्र गहन कंटिल जटिल है-निरन्‍तर साधना से ही - होगी जय,होगी जय ।
नागार्जुन,शमशेर,त्रिलोचन,केदार,मुक्तिबोध के साथ पूर्वर्त्‍ती तथा बाद के कवियों की कविताएं पढ़ें तथा मनन करें। कविता जहां पहुंच चुकी है,हमें उसके आगे जाना है। अभी आपकी उम्र कम है, इसलिए सिर्फ सीखना ही सीखना है। वैसे, हर कवि को अंतिम क्षण तक सीखना ही है।
साथ साथ पढ़ाई पर भी ध्‍यान रखें। कवि को अपने समय का सबसे बड़ा विद्वान भी होना चाहिए।
घर में सबको यथोचित।
शुभकामनाओं और प्‍यार सहित
आपका
अरूण कमल
मखनियां कुआं रोड,पटना-80004

समुद्र के आंसू - संकलन पर सम्‍मति - डॉ.प्रभाकर माचवे

एक दिन मैंने
पूछा समुद्र से
देखा होगा तूने, बहुत कुछ
आर्य, अरब, अंग्रेजों का
उत्‍थान-पतन
सिकन्‍दर की महानता
मौर्यों का शौर्य,रोम का गौरव
गए सब मिट, तू रहा शांत
अब,इस तरह क्‍यों घबड़ाने लगा है
अमेरिका , रूस के नाम से पसीना
क्‍यों बार-बार आने लगा है
मुक्ति सुनी होगी तूने, व्‍यक्ति की
बुद्ध,ईसा,रामकृष्‍ण
सब हुए मुक्‍त
देखो तो आदमी पहुंचा कहां
वो ढूंढ चुका है, युक्ति
मानवता की मुक्ति का
अरे, रे तुम तो घबड़ा गए
एक बार, इस धराधाम की भी
मुक्ति देख लो
अच्‍छा तुम भी मुक्‍त हो जाओगे
विराट शून्‍य की सत्‍ता से
एकाकार हो जाओगे
लो,तुम भी बच्‍चों सा रोने लगे
मैंने समझा था,केवल आदमी रोता है
तुम भी, अपना आपा इस तरह खोने !(समुद्र के आंसू - कवि‍ता)

1987 में जब यह कविता लिखी थी और मेरे पहले संकलन समुद्र के आंसू में छपी तब वरिष्‍ठ कवि केदारनाथ सिंह का काफी प्रभाव था मुझ पर, इस कविता पर भी उसे देखा जा सकता है। उस समय इस पुस्‍तक को पढकर कवि आलोचक प्रभाकर माचवे ने एक पत्र लिखा था जिसमें एक जगह जहां उन्‍होंने प्रूफ की भूलें लिखीं वहीं अन्‍य कविताओं पर आलोचनात्‍मक राय भी दी। एक प्रकाशनार्थ सम्‍मति भी अलग से लिख दी थी जो उस समय छपने-छपाने की बहुत जानकारी और रूचि के अभाव के चलते कहीं छपी नहीं थी जब कि संग्रह की एक समीक्षा तब पटना से निकलने वाले दैनिक हिंदुस्‍तान में कवि मुकेश प्रत्‍यूष ने लिखी थी।
प्रकाशनार्थ सम्‍मति
श्री अमरेन्‍द्र कुमार मुकुल का प्रथम कविता संग्रह समुद्र के आंसू श्री रंजन सूरिदेव तथा डॉ कुमार विमल की अनुशंसासहित प्रकाशित हुआ है। इसमें कवि के इक्‍यावन भावोद्गार हैं। इस संग्रह के अंतिम कवर पर छपी पंक्तियां सर्वोत्‍तम हैं - 
तुझे लगे
दुनिया में सत्‍य
सर्वत्र
हार रहा है
समझो
तेरे अंदर का
झूठ
तुझको ही
कहीं मार रहा है। (सच-झूठ)
युवा बेरोजगार,खबर,चुनाव,मेरा शहर,रोल,बेचारा ग्रेजुएट,अपना गांव,सवालात में यथार्थ और व्‍यंग का अच्‍छा सम्मिश्रण है।ये रचनाएं चुभती हैं।
कवि के अगले संग्रहों में और अच्‍छी कविताओं की आशा रहेगी।
कविता न केवल वक्‍तव्‍य हेाती है,न राजनैतिक टिप्‍पणी।
तत् त्‍वम् असि जैसी रचना से आशा बंधती है - प्रभाकर माचवे / नई दिल्‍ली / 3-1-88
मां सरस्‍‍वती

मां सरस्‍वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें
अज्ञान सारा दूर हो
और हम आगे बढ़ें
अंधकार के आकाश को
हम पारकर उपर उठें
अहंकार के इस पाश को
हम काट कर के मुक्‍त हों
क्रोध की अग्नि हमारी
शेष होकर राख हो
प्रेम की धारा मधुर
फिर से हृदय में बह चले
मां सरस्‍वती! वरदान दो
कि हम सदा फूलें-फलें!

मां सरस्‍वती - शुद्ध गद्य है - यह कविता कैसे हुई। एक प्रार्थना मात्र है। इसे गद्य की तरह पढ़ें। क्‍या गद्य को तोड़-तोड़कर मुद्रित कर देने से ही कविता हो जाती है मात्राएं भी सब पंक्तियों की एकसी नहीं हैं:15,13,14,12 - यह पहली चार पंक्तियों की मात्राएं हैं - छन्‍द भी ठीक नहीं - डॉ.प्रभाकर माचवे/3-1-88

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

लोहिया का जीवन एक मिसाल है

कुमार मुकुल से सुधीर सुमन की बातचीत

डाॅ. लोहिया और उनका जीवन दर्शन ' नामक यह पुस्‍तक, सत्ता में मौजूद लोहियावादियों के सैद्धांतिक पतन और चरम अवसरवाद के विपरीत लोहिया को अपने देश की समाज, राजनीति और अर्थनीति में परिवर्तन चाहने वाले बुद्धिजीवी और नेता के रूप में हमारे सामने लाती है। आपने अपनी भूमिका में लिखा है कि आप राजनीति विज्ञान के छात्र रहे हैं और छात्र-जीवन में लोहिया की दो जीवनियां आपने पढ़ रखी थीं पर उनका दिमाग पर ऐसा असर नहीं हुआ था जो पुस्तक लिखने को प्रेरित करे। ऐसे में आपको लोहिया पर किताब लिखने का मौका मिला तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या हुई, कौन सी वे बातें थीं लोहिया की जिसने इस किताब को लिखने के दौरान आपके लेखक को प्रभावित किया ?
पहले जो कुछ पढा था वह सरसरी निगाह से पढा था फिर जिस तरह लोहिया के हिटलर की सभाओं में जाने को लेकर चीजें, बातें प्रचारित थीं उससे लोहिया से एक दूरी-सी लगती थी पर पुस्‍तक लिखने के दौरान जब उनके तमाम लेखन से साबका पडा तो जाना कि सच के कई दूसरे आयाम हैं... लोहिया जर्मनी पढाई के लिए गये थे और वहां होने वाली गतिविधियों में सक्रियता से हिस्‍सा लेते थे, वहां नाजी और कम्‍यूनिस्‍ट दोनों उनके मित्र थे, उनके नाजी मित्र ने जब उनहें भारत में जाकर नाजी दर्शन का प्रचार करने की सलाह दी तब उनका जवाब था – 'जर्मनी के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी देश में वंश और जाति की श्रेष्‍ठता को माननेवाला दर्शन शायद ही स्‍वीकृत होगा।' आगे हिटलर के प्रभाव के बढते जाने के कारण उन्‍हें समय से पहले भारत लौटना पडा था। मद्रास पहुंचने पर आर्थिक संकट को ध्‍यान में रख उन्‍होंने 'फ्यूचर ऑफ हिटलरिज्‍म' शीर्षक लेख लिखकर पारिश्रमिक के तौर पर 25 रुपये  प्राप्‍त किए थे। 
इसी तरह भारत लौटने के पहले जब जेनेवा की 'लीग आफ नेशंस' की बैठक में भारत की प्रतिनिधि बीकानेर के महाराज गंगा सिंह ने भारत में अमन चैन की बात की तो वहां उपस्थित लोहिया ने इसका विरोध किया और अगले दिन उन्‍होंने वहां के एक अखबार में लेख लिखकर भारत में चल रहे पुलिसिया अत्‍याचारों और भगतसिंह को दी गयी फांसी का मुददा उठाया था। इसके अलावे लोहिया का पूरा जीवन मुझे एक मिसाल की तरह लगा। वे सादा जीवन जीते थे और खुद पर न्‍यूनतम खर्च करते थे। कार्यकर्ताओं का ख्‍याल कर उन्‍होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया था।  उनके एक साथी जब बैंक से पैसे निकालने गये तो उन्‍होंने कहा कि कैसे समाजवादी हो, बैंक में खाता रखते हो, यहां तक कि उनकी जान चली गयी, क्‍योंकि सहज ढंग से वे विदेश जाकर अपना इलाज कराने को तैयार नहीं थे। वे अपने लिए उतनी ही सुविधा चाहते थे जितनी भारत की गरीब जनता अपने लिए जुटा पाती थी, सांसद बनने पर गाडी और यहां तक कि कमरे में कूलर तक लगवाने से इनकार कर दिया था, इस सबके अलावे वैचारिक पहलू पर भी वे खुद को बराबर दुरूस्‍त करते रहते थे। 'मैनकाइंड' में एक पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका ने भी मुझमें उनके प्रति सकारात्‍मकता पैदा की।

आपने गांधी और मार्क्‍स के साथ लोहिया के समान लगाव की बात की है। आपने लिखा है कि वे मार्क्‍स की ‘डिक्लास थ्योरी' और गांधी के ‘अंतिम आदमी' को हमेशा ध्यान में रखते थे। जबकि लोहिया अपने आप को कुजात गांधीवादी कहते हैं और वामपंथ की तीखी आलोचना करते हैं। एक जगह वे यह भी कहते हैं कि ‘न मैं मार्क्‍सवादी हूं और न मार्क्‍सवाद विरोधी'। इसी तरह न मैं गांधीवादी हूं न गांधीवाद-विरोधी... तो आखिर आपकी निगाह में वे क्या हैं... इस किताब में वामपंथ के प्रति उनके पूर्वाग्रह को रेखांकित करने और अमेरिका व पूंजीवाद के प्रति उनकी उम्मीद के धूल-धूसरित होने का भी जिक्र किया गया है। आखिर लोहिया के इस नजरिए के तत्कालीन वैचारिक स्रोत क्या हैं, आज जबकि सोवियत संघ बिखर चुका है और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मनमानी पूरी दुनिया में जारी है तब जनता और राष्ट्रों की स्वतंत्रता और संप्रभुता के संघर्ष के लिहाज से क्या लोहिया के विचार आपको उपयोगी लगते हैं?

गांधीवादी या मार्क्‍सवादी होने या दोनों का विरोधी होने को लोहिया समान मूर्खता मानते हैं, उनका कहना है कि गांधी और मार्क्‍स दोनों के ही पास अमूल्‍य ज्ञान-भंडार है। खुद मार्क्‍स मार्क्‍सवादी नहीं थे, इसी अर्थ में वे खुद को कुजात गांधीवादी कहते हैं वे इन दोनों के विचारों के सकारात्‍मक, वैज्ञानिक तथ्‍यों को लेकर आगे बढना चाहते थे। जरूरत पडने पर वे दोनों की सकारात्‍मक आलोचना करते थे। गांधी की बहुत सी बातों को वे आगे बढाना चाहते थे, पर उपवास आदि के पक्षधर नहीं थे। इसी तरह वे मार्क्‍स के दर्शन में जहां जड ढंग से बांधने की कोशिश दिखती थी, वहां उसका विरोध करते थे। वे किसी विचारधारा को व्‍यक्त्‍िा का पर्याय बनाने के खिलाफ थे। एक जगह गांधी और मार्क्‍स पर विचार करते वे लिखते हैं- 'मार्क्‍सवाद अपनी सीमाओं के अंदर विपक्ष और सरकार दोनों ही रूपों में ज्‍यादा क्रांतिकारी होता है। उसके क्रांतिकारी चरित्र में सरकारी होने या न होने से कोई बाधा या फर्क नहीं पडता।' 
वे पाते थे कि उनके समय में जो कुछ चल रहा है वह गांधीवाद न होकर गांधीवाद और मार्क्‍सवाद का घटिया सम्मिश्रण है। वे इसे गांधीवाद की कमजोरी मानते थे कि मार्क्‍सवाद उन्‍हें सम्मिश्रण के लिए मजबूर कर देता है। वे देखते हैं कि गांधीवाद जब त‍क सत्‍ता से दूर रहता है तब तक ही क्रांतिकारी रह पाता है, इसीलिए वे खुद को गांधीवाद से अलगाते हुए कुजात गांधीवादी कहते हैं। उनके लेखन के बडे हिस्‍से से गुजरने के बाद पता चलता है कि उनके वैचारिक आधार की नींव में मार्क्‍सवाद है और गांधी के साथ काम करने के कारण उनका भावात्‍मक प्रभाव ज्‍यादा है। वे भारतीय वामपंथ से टकाराते थे और कहते थे कि– मार्क्‍स के सिद्धांतों में ज्‍योतिषियों जैसी बहानेबाजी नहीं थी, जैसी कि वे वामपंथियों में पाते थे। वे अमेरिका से उस समय कुछ ज्‍यादा आशा कर रहे थे पर रूस और चीन की बदलावकारी भूमिका को हमेशा स्‍वीकारते थे, उनकी आलोचना उनसे और बेहतर की मांग थी।

आपकी इस पुस्तक में तिब्बत का मसला नहीं आया है, क्या इसे जान-बूझकर आपने छोड़ दिया है, तिब्बती जनता की स्वायत्ता और स्वतंत्रता की मांग के समर्थन के बावजूद क्या यह सच नहीं है कि तिब्बत मसले को हवा देने में अमेरिका का भी बड़ा हाथ था और लोहिया ने भी इस मसले को उठाया था?


हां तिब्‍बत और कई मसले इस पुस्‍तक में नहीं हैं, आगे संसद में उनके भाषणों पर भी काम करना बाकी है, संभवत: अगली पुस्‍तक में इन मुददों पर विचार कर पाऊंगा।
कहते हैं कि आजादी के पहले से ही नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का गहरा असर रहा है। खुद भी लोहिया नेहरू से प्रभावित थे। वही लोहिया जो कांग्रेस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के विकल्प की बात सोचने वालों को नेहरू की तरह ही गलत मानते हैं और 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के वक्त उसे टूट के खतरे से बचाने के लिए कई लेख लिखते हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ कि आजादी के बाद उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति को हवा दी। आजादी से मोहभंग जिन वजहों से था उनके निदान में लोहिया के गैरकांग्रेसवाद ने क्या भूमिका अदा की?
हां, आजादी के पहले और बाद लोहिया ही नहीं नेहरू आदि सब बदले। व्‍यवहार में सत्‍ता संभालने के बाद के संघर्ष ने दोनेां को अलग किया। नेहरू की विदेश नीति पर लोहिया का प्रभाव था पर आजादी के बाद नेहरू अपने ढंग से खुद को अलग करते गये। और लोहिया की आपत्तियां बढती गयीं। भारत के विभाजन के समय ही नेहरू और लोहिया के मतभेद गहराने लगे थे, आगे इसने दोनों को अलगाया। नेहरू की आंख मूंद कर... जैसे लोग पूजा करने लगे थे, लोहिया को यह सख्‍त नापसंद था। संसद में पहले ही दिन लोहिया ने कहा कि– 'प्रधानमंत्री नौकर है और सदन उसका मालिक ...।'

आज तो 'आम आदमी' एक ऐसा जुमला है कि जिसका वे सब धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति को अकूत धन बटोरने का पेशा बना डाला है। लेकिन जब लोहिया आम आदमी की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या होता है, 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' नारे ने क्या गरीबों के हाथ में सत्ता देने में कोई भूमिका निभाई?

संसद में आम आदमी के लिए ढंग से पहली बहस लोहिया ने ही शुरू की थी। रिक्शाचालकों की स्थिति पर जब संबंधित मंत्री ने कहा कि रिक्‍शा चलाने से उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर अवांछित प्रभाव नहीं पडता, तो लोहिया ने जवाब दिया – 'क्‍या आप एक महीना रिक्‍शा चलाकर फिर से इसे कहेंगे?' मंत्रियों को दी जाने वाली सलामियां उन्‍हें सख्‍त नापसंद थीं। वे शासकों के व्‍यक्तिगत खर्चे की सीमा 1500 रुपये रखना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि जनप्रतिनिधि जनता से अलग उन्‍नत जीवन जीएं। पिछड़ा पावे सौ में साठ ने राजनीति का चेहरा बदलकर रख दिया । 

जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग और भाषा के विमर्श आज की राजनीति और समाज में जैसी भूमिका निभा रहे हैं उसे देखते हुए आपको लोहिया के चिंतन की क्या प्रासंगिकता लगती है? आपने इस किताब में कई जगह ऐसे संदर्भ दिए हैं


जाति को लोहिया समूल नष्‍ट करना चाहते थे, पर उनका नजरिया जड नहीं था, वे उन सबको ऊंची जाति में रखना चाहते थे जिनके पूर्वज उस क्षेत्र में राजा रहे हों। वे कहते हैं कि एक ब्राहमण जो राज चलाता है नौकरी करता है वह उंची जाति का हो गया और दूसरा जो शिवजी पर बेलपत्र चढाता है वह नीची जाति का हो गया। हालांकि इन दोनों कथनों में अंतरविरोध है पर यह समय संदर्भ में अलग ढंग से सोचने के कारण है... मूलत: वे किसी भी तरह इस कुप्रथा को नष्‍ट करना चाहते थे। जाति की तरह वे योनि के कटघरों को भी खत्‍म करना चाहते थे। एक जगह वे लिखते हैं – कि 'एक अवैध बच्‍चा होना आधे दर्जन वैध बच्‍चे होने से कई गुणा अच्‍छा है।' कई जगह लोहिया की भाषा कवित्‍वपूर्ण हो जाती थी– यह लोहिया ही थे कि लाहौर जेल में भी ज्‍योत्‍सना यानि चांदनी का वैभव देख पाते थे। 

आपने एक जगह लिखा है कि लोहिया का कोई बैंक एकाउंट नहीं था। सवाल यह है कि क्या लोहिया के विचार और उनकी राजनीति निजी संपत्ति के खात्मे के लिहाज से उपयोगी हैं?

हां, वे निजी संपत्ति के खात्‍मे के पक्षधर थे। गांधी और मार्क्‍स के इससे संबंधित विचारों को लेकर वे लिखते हैं – 'कि संपत्ति संबंधी गांधीजी के विचारों के साथ झंझट यह है कि वे जब अस्‍पष्‍टता से निकल रहे थे तभी उनकी मृत्‍यु हो गयी।' जबकि मार्क्‍स इस मामले में पक्के थे और उन्‍होंने परिवर्तन का समर्थन किया।
आज जनता का अपने जीवन के मूलभूत अधिकारों के लिए जो संघर्ष है उसके लिए डाॅ. लोहिया के विचार आपको किस हद तक उपयोगी लगते हैं?
जनता के मूलभूत अधिकरों के लिए जो संघर्ष है उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रसंगिक हैं अपने छोटे से संसदीय कार्यकाल में लोहिया ने आमजन के अधिकारों के लिए जैसा प्रतिरोधी संघर्ष चलाया वह अविस्‍मरणीय है।
(‘लोहिया और उनका जीवन दर्शन’ पुस्‍तक पर कुमार मुकुल से सुधीर सुमन की यह बातचीत आकाशवाणीके इंद्रप्रस्थ चैनल से 9 अक्टूबर 2012 को प्रसारित हुई थी।