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गुरुवार, 6 अगस्त 2020

प्रेम और जीवन के यथार्थ की भयावहता - रूपम मिश्र की कविताएं

 प्रेम और जीवन के यथार्थ की भयावहता को जानना - समझना हो तो आप रूपम मिश्र को पढें। उनकी कविताएं पढते ऐसा लगता है कि आप धर्मवीर भारती की पुस्‍तक कनुप्रिया से गुजर रहे हों पर उसके कोमल कथानक के बीच-बीच से जब वर्तमान की स्‍याह कतरने चिल्‍हकेंगी तो आपके भीतर दबी उदासी जाग जाएगी।
गांव-जवार के नाम पर अक्‍सर हममें एक रोमान पचके फेंकने लगता है पर इन कविताओं में आकर ऐसे रोमानी अंकुर जब यथार्थ की पथरीली सतह पर पेंगे लेने की काेशिश करते हैं तो झुलस जाते हैं। पर झुलसकर भी घुटने नहीं टेकते ये काव्‍यांकुर, बल्कि जूझते हैं, कि और कोई सूरत नहीं, कि कल का सूरज देखना है तो सुबह तक जलने व झुलसने का जीवट भी चाहिए। इन कविताओं को पढते मुक्तिबोध याद आते हैं -

कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।

रूपम मिश्र की कविताएं-

1.
हम एक ही पटकथा के पात्र थे
एक ही कहानी कहते हुए हम दोनों अलग - अलग दृश्य में होते
जैसे एक दृश्य तुम देखते हुए कहते तुमसे कभी मिलने आऊँगा  तुम्हारे गाँव तो
नदी के किनारे बैठेगें जी भर बातें करगें तुम बेहया के हल्के नीले फूलों की अल्पना बनाना

उसी दृश्य में तुमसे आगे जाकर देखती हूँ  नदी का वही किनारा है बहेरी आम का वही पुराना पेड़ है जिसके तने को पकड़कर हम छुटपन में गोल - गोल घूमते थे

उसी  की एक लंबी डाल पर दो लाशें झूल रही हैं एक मेरी है दूसरी का बस माथा देखकर ही मैं चीख पड़ती हूँ और दृश्य से  भाग आती हूँ

तुम रुमानियत में दूसरा दृश्य देखते हो किसी शाम जब  आकाश के थाल में  तारें  बिखरे होंगे संसार मीठी नींद में होगा
तो चुपके से तुमसे मिलने आ जाऊँगा

मैं झट से बचपन में चली जाती हूँ जहाँ दादी भाई को गोद में लिये रानी सारंगा और सदावृक्ष की कहानी सुना रही हैं

मैं सीधे कहानी के क्लाइमेक्स में पहुँचती हूँ जहाँ रानी सारंगा से मिलने आये प्रेमी का गला खचाक से काट दिया जाता है
और छोटा भाई ताली पीटकर हँसने लगता है

दृश्य और भी थे जिनमें मेरा चेहरा नहीं था देहों से भरा एक मकान था और मैं एक अछूत बर्तन की तरह घर के एक कोने में पड़ी थी ,

तुम और भी दृश्य बताते हो जिसमें समंदर बादल और पहाड़ होते हैं मैं कहती हूँ कहते रहो ये सुनना अच्छा लग रहा है !

बस मेरे गाँव -जवार की तरफ न लौटना क्यों कि
ये आत्मा प्रेम की जरखरीद है और देह कुछ देहों की



2.
मुझे पता है तुम्हरा दुःख बिरादर !
मैं तुम्हारी ही कौम से हूँ!

मुझे थाह है उस पीड़ा की नदी का जिसका घाट अन्याय का चहबच्चा है
जिसकी उतराई में आत्मा गिरवी होती है

तुम धीरज  रखना  हारे हुए दोस्त !
कुछ अघाये गलदोदई से कहते हैं कि तुम हेहर हो
उनसे कहो कि हम जानते जाड़ा ,बसिकाला और जेठ के दिनों का असली रंग
वे मनुष्यतर कितने बचे हैं  वे नहीं जानते

लड़ाई की रात बहुत लंबी है इतनी कि शायद सुबह खुशनुमा न हो
पर न लड़ना सदियों की शक्ल खराब करने की जबाबदेही होगी

हम असफल कौंमे हैं हमारी ही पीठ पर पैर रखकर वे वहाँ  सफल हैं
जहाँ हमारे रोने को उन्होंने हास्य के बेहद सटीक मुहावरों में रखा
जाने कैसे उन्होंने हमारे सामीप्य में रहने की कुछ समय सीमा बनाई
और उसके बाद जो संग रहे उनमें हमारे सानिध्य से आई कोमलता को मेहरीपन कह के मज़ाक बनाया 

3.
वे सभ्यता और समता की बात करते कितने झूठे लगते हैं जो हमारी आँखों पर मेले से खरीदे गये काले चश्मे को भी देखकर व्यंग से हँसते हैं
वे सौमुँहे साँप जो हमारी देह पर टेरीकॉट का ललका बुशर्ट भी देखकर मुँह बिचकाकर कहते हैं खूब उड़ रहे हो बच्चू ,ज्यादा उड़ना अच्छा नहीं

उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो ये तय करना कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारा रेंगना
अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वो  यशगान
जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है

मानव जाति के आधे हिस्सेदार हम ,  जिनके आँचल में रहना तुमने कायरता का चिर प्रतीक कहा
अब दिशाहारा समय कुपथ पर  है
संसार को  विनाश से बचाये रखने के लिए
उनसे थोड़ी सी करुणा उधार माँग लो  ।


4.
मेरे खित्ते की ज़मीनों पर नीले रंग के बाज उतरते हैं!

ये जहाँ प्रेमी जोड़े देखते हैं झपट लेते हैं!

हज़ार हर्फ की गालियां लिखी गयीं मेरी भाषा में
जिनका मंत्र पढ़ते हुए ये सफ़ेद कबूतरों को ढूढ कर उनकी गर्दन मरोड़ देते हैं !

और हँसकर आपस में बताते हैं कि संस्कृति रक्षार्थ पावन कर्म में रत किस तरह मादा कबूतर को अपनी आगोश में दबोचे यौन कुंठा तृप्त करता रहा !

मेरी सभ्यता में  पहाड़ तोड़े जा रहे  हैं और जातियाँ और जबरई से  जोड़ी जा  रही है !
हमारी परम्परायें धर्म और  नदियाँ  कचरा ढोने के काम आती हैं !
और स्त्रियां हर तरह के राजनीति और धार्मिक कर्मकांड के!

हमारे गाँव की आत्मा अब प्रधानी चुनाव के समीकरण के गंदे पेचों से लताफ़त हैं!

चौपालें कब की चौराहे में बदल गयीं!
जहाँ दुःख सुख नहीं किसने बेटी के ब्याह  किसने बाप की तेरहवीं में कितना खर्चा किया कौन बुलट से चलता है किसने फॉरच्यूनर खरीदी की बतकही होती है !

गाँव विकास की बयार को अगोर रहा था बाजार छलांग लगाकर पहले ही पहुँच गया !

बच्चे गाँव देखने  की जिद करें तो आँखों पर पट्टी बांध कर लाना !
क्यों कि सिवान की सड़कें मैगी ,गुटखा और देशी शराब की पन्नियों से पटे हैं ।



5.
कच्ची उम्र में ब्याही बेटियां आत्मा को नैहर के डीह पर छोड़कर आयी हैं!

मऊजे के पुराने पोखर पर पुरइन के कुम्हलाये पत्ते पर आज भी उनकी गुड़िया की ओढ़नी झूल रही है !

विदाई के पहले की वो संसा की अन्हियरिया रात
रोज उनके जेहन में एक अदृश्य भय लिये उतरती है!

जैसे बसवारी वाले शीशम के पेड़ से रात में भयावह चिड़िया बोलती
माँ कहती कोई रात को किसी का नाम न लेना मुआ चिरई  सुन लेगी!

विदाई होने के ठीक पहले बजते वे बाजे
उनकी धुनें जरूर किसी रोती स्त्री के करुण स्वर नाद से चुरायी गयी थीं!

जिसे ये बेटियाँ बूढ़ी हो जाने पर नहीं भूल सकीं ऐसी हूक उठती है कलेजे में कि लगता है आंत में आग की लौर उठ रही हैं
ये वो बच्चियाँ थी जिन्हें पता था कि जेल में डालने से पहले की ये बहेलियों की जयघोष है !

ये बच्चियाँ नहीं जानती थी जवानी की रातें जिनमे जागते सुबह हो जाती
और ये भी ठीक- ठीक कभी निर्णय नहीं कर पायीं बड़े आँगन की  सुबह ज्यादा भयावह होती कि रात !

ये लड़कियां जीवन भर नंगे पांव दौड़ पड़ी जहाँ कहीं भी किसी ने इनके छुटपन में ही छूटे  गाँव ,जवार का नाम लिया!

राह चलते बटोही से  पूछ रही हैं हाल और तरस रही हैं कि वो कह दे बहिन मैं तो तुम्हारे नैइहर की ओर का हूँ!

विश्व त्रासदी पर लिखी किताब हाथ में लिये सोच रही हूँ जाने ऐसी कितनी  त्रासदियाँ और दुःख हैं क्या इन्हें कभी लिखा जाएगा !

पिताओं ! वो ठग पिताओं ! निज स्वार्थ ,मर्यादा के लिए तुमने ही सबसे ज्यादा ठगा बेटियों को!
और बेटियों ने सबसे ज्यादा मोह किया पिताओं से ।

 परिचय
मेरा नाम रूपम मिश्र है , 
मैं प्रतापगढ़ जिले के बिनैका गाँव में रहती हूँ ।

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आलोचना के संदिग्ध संसार में एक वैकल्पिक स्वर : प्रकाश

इधर के वर्षों में हिंदी आलोचना का वरिष्ठ संसार बड़ी तेजी से संदिग्ध और गैरजिम्मेदारन होता गया है। आलोचना की पहली, दूसरी...परंपरा के तमाम उत्तराधिकारी, जिनकी अपनी-अपनी विरासतों पर निर्लज्ज दावेदारी है, आलोचना के मान- मूल्यों और उसकी मर्यादा से क्रमश: स्खलित होते चले गए हैं। खासकर काव्य-आलोचना पर यह नैतिक संकट ज्यादा गहराया है। हमारी वरिष्ठ आलोचना बगैर किसी अन्वेषण-विश्लेषण के ऐसे किसी भी नए कवि को कबीर, प्रसाद, पंत की छवि में नि:संकोच फिट कर देती है, जिनकी न तो भाषा को बरतने का बुनियादी सलीका आता है और न ही वे काव्य-कर्म के मर्म से समग्रत: परिचित होते हैं। हमारी युवा कविता के अधिकांश कवि ‘रेडिमेड’ हैं और दुर्भाग्य से हमारी वरिष्ठ आलोचना भी ‘रेडिमेड’ तरीके से उनका मूल्यांकन करती है।
    ऐसे परिदृश्य में कुमार मुकुल के पहले ही आलोचना-कृति को पढ़कर प्रीतिकर आश्चर्य हुआ। मुकुल मूलत: कवि हैं। एक कवि के रूप में अपने वरिष्ठ और समकालीन कवियों को पढ़ते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जो टिप्पणियां, आलेख और काव्य-कृतियों की समीक्षाएं लिखीं, उनको संकलित कर एक स्वतंत्र आलोचना-कृति के रूप में प्रकाशित किया गया हैं अंधेरे में कविता के ‘रंग’ नाम से।
    पुस्तक चार खंडों में विभाजित हैं- ‘कविता का नीलम आकाश’, ‘जख्मों के कई नाम’, ‘उजाड़ का वैभव’ और ‘जहां मिल सके आत्मसंभवा’। पुस्तक की शुरुआत में एक भूमिका है, जो लेखक की सृजनात्मक भाव-भूमि को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। आखिरकार पूरी पुस्तक में काव्य-आलोचना ही क्यों? ‘भूमिका’ में वर्णित लेखक का बचपन से कविता, और वह भी संघर्षशील, प्रतिवादी स्वर की कविताओं की ओर झुकाव यह स्वष्ट कर देता है कि लेखक मूलत: असहमति का कवि है और जब यह कवि आलोचना के क्षेत्र में उतरता है तो कविता को ही अपना क्षेत्र बनाता है, और उसमें भी असहमति की कविताएं उसको प्रिय है।
इस पुस्तक में भी लेखक ने सविता सिंह, अनामिका, विजय कुमार, आलोक धन्वा, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु खरे, अरुण कमल, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेन डंगवाल, विजेंद्र, रघुवीर सहाय और राजकमल चौधरी की कविताओं का मूल्यांकन किया गया है। सविता सिंह की कविताओं की मूल भावभूमि की खोज करते हुए आलोचक उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध मातृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था का सशक्त प्रवक्ता सिद्ध करता है। वहीं अनामिका कविताएं उसे ‘औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्ति’ मालूम पड़ती है। विजय कुमार के कविता-संग्रह ‘रात-पाली’ की विवेचना करते हुए उन कविताओं में आलोचक को जीवन के वे तमाम छोटे-छोटे ब्यौरे मिलते हैं, जो एक भयंकर नाउम्मीदी, भय और आशंका में कांप रहे हैं।
आलोक धन्वा के संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ की सुप्रसिद्ध कविताओं ‘सफेद रात’, ‘ब्रूनों की बेटियां’, ‘जनता का आदमी’, ‘भीगी हुई लड़कियां’ आदि की बड़ी मार्मिक पड़ताल पुस्तक में है। वीरेन डंगवाल की कविता पर टिप्पणी के बहाने आलोचक जारी समय की कविता पर भी सार्थक बात कहता है- ‘‘ विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे हैं और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदंह पच्चीसियां जारी हैं, वीरेन की संक्षिप्त कलेवर की कविताएं ‘कटु विरक्त’ बीज की तरह हैं।’’ फिर अरुण कमल की ‘नए इलाके’ की खोज है, जो आलोचक ‘असल पुराने इलाके की ही खोज’ लगती है। इसी तरह आलोचक विजेंद्र की ‘लोकजन की ओर उन्मुख’ कविताओं, ‘रघुवीर सहाय की स्त्री की अवधारणा’, ‘केदारनाथ अग्रवाल की श्रम-संस्कृति की प्रतिपादक कविताओं’ और केदारनाथ सिंह और राजकमल की कविता के विविध आयामों की सूक्ष्म पड़ताल करता है।
    पुस्तक का दूसरा खंड अलग से रखने का विशेष औचित्य नहीं था। इस खंड में भी नए-पुराने अनेक कवियों के काव्य-संकलनों की अलग-अलग आलोचना है। यह आलोचना ‘पुस्तक समीक्षा’ की शैली में है। जैसे मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले काव्य-संग्रह ‘किसी उम्मीद की तरह’, के संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, विष्णु नागर के संग्रह ‘हंसने की तरह रोना, राजेश जोशी के संग्रह ‘चांद की वर्तनी’ और ज्ञानेन्द्रपति के संग्रह ‘गंगातट’ की समीक्षाएं इस खंड में शामिल हैं। इनके अलावा सुदीप बनर्जी, लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप की कविताओं पर स्वतंत्र-सी मालूम होती विवेचना है।
    पुस्तक के तीसरे खंड ‘उजाड़ का वैभव’ में कुछेक वरिष्ठ कवियों जैसे विष्णु खरे, कुमार अंबुज के अलावा अपेक्षाकृत नए कवियों निलय उपाध्याय, प्रेम रंजन अनिमेष, पंकज चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, वर्तिका नंदा, पंकज कुमार चौधरी, आर-चेतन क्रांति, रुंजय कुंदन और तजेंदर सिंह लूथरा की कविताओं का सह्दयता से किया गया आब्जर्वेशन है।
    आखिरी खंड में सिर्फ दो आलेख हैं। इसमें पहले आलेख में है हमारे अस्थिर समय में भटकाव की शिकार हिंदी कविता की वस्तुस्थिति का आकलन और उसके कारणों की शिनाख्त की गई है। आखिरी आलेख कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की एक महत्वपूर्ण कविता ‘सूर्यग्रहण’ पर केंद्रित है। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की पृष्ठभूमि में कुमारेंद्र की कविता ‘अंधेरे में’ के वर्षों बाद रची गई और मुकुल जी इस कविता को अंधेरे में की पुनर्रचना मानते हैं। यह सिद्ध करने   की उन्होंने पर्याप्त कोशिश की है।
    कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता को समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है।