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शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

चौतरफा जीवन ही जीवन - डॉ अवनीश सिंह चौहान के नवगीत


अवनीश सिंह चौहान के नवगीतों में लोक जीवन का जीवट टिमटिमाता रहता है, जो हममें नये प्राणों का संचार करता रहता है। आशा से पूर्ण यह जीवट ठेठ गंवई जमीन से अपनी ताकत प्राप्‍त करता, विश्‍वास प्राप्‍त करता अंतरमन को जगमगाता रहता है। हालांकि पुरानी गंवई जमीन को नागर प्रदूषण बंजर बनाता बढता जा रहा पर कवि की आशा का कठजीव सांस लेता रहता है।


डॉ अवनीश सिंह चौहान के नवगीत


असंभव है

चौतरफा है
जीवन ही जीवन
कविता मरे असंभव है

अर्थ अभी घर का जीवित है
माँ, बापू, भाई-बहनों से
चिड़िया ने भी नीड़ बसाया
बड़े जतन से, कुछ तिनकों से

मुनिया की पायल
बाजे छन-छन
कविता मरे असंभव है

गंगा में धारा पानी की
खेतों में चूनर धानी की
नये अन्न की, नई खुशी में
बसी महक है गुड़धानी की

शिशु किलकन है
बछड़े की रंभन
कविता मरे असंभव है।

पगडंडी

सब चलते चौड़े रस्ते पर
पगडंडी पर कौन चलेगा?

पगडंडी जो मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत केवल-केवल
खेतों से औ' गाँवों से

इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?

जहाँ केन्द्र से चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में

मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?

कार-क़ाफिला, हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा

कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?

अपना गाँव-समाज

बड़े चाव से
बतियाता था
अपना गाँव-समाज
छोड़ दिया है
चौपालों ने
मिलना-जुलना आज

बीन-बान लाता था लकड़ी
अपना दाऊ बाग़ों से
धर अलाव, भर देता था, फिर
बच्चों को अनुरागों से

छोट-बड़ों से
गपियाते थे
आँखिन भरे लिहाज

नैहर से जब आते मामा
दौड़े-दौड़ै सब आते
फूले नहीं समाते मिलकर
घंटों-घंटों बतियाते

भेंटें  होतीं,
हँसना होता
खुलते थे कुछ राज

जब जाता था घर से कोई
पीछे-पीछे पग चलते
गाँव किनारे तक आकर सब
अपनी नम आँखें मलते

तोड़ दिया है किसने
आपसदारी
का वह साज।

चिड़िया और चिरौटे

घर- मकान में क्या बदला है,
गौरेया रूठ गई

भाँप रहे बदले मौसम को
चिड़िया और चिरौटे
झाँक रहे रोशनदानों से
कभी गेट पर बैठे

सोच रहे अपने सपनों की
पैंजनिया टूट गई

शायद पेट से भारी चिड़िया
नीड़ बुने, पर कैसे
ओट नहीं कोई छोड़ी है
घर पत्थर के ऐसे

चुआ डाल से होगा अण्डा
किस्मत ही फूट गई।

हिरनी-सी है क्यों

छुटकी बिटिया अपनी माँ से
करती कई सवाल

चूड़ी-कंगन नहीं हाथ में
ना माथे पर बैना है
मुख-मटमैला-सा है तेरा
बौराए-से नैना हैं

इन नैनों का नीर कहाँ-
वो लम्बे-लम्बे बाल

देर-सबेर लौटती घर को
जंगल-जंगल फिरती है
लगती गुमसुम-गुमसुम-सी तू
भीतर-भीतर तिरती है

डरी हुई हिरनी-सी है क्यों
बदली-बदली चाल

नई व्यवस्था में क्या, ऐ माँ
भय ऐसा भी होता है
छत-मुडेर पर उल्लू असगुन
बैठा-बैठा बोता है

पार करेंगे कैसे सागर
जर्जर-से हैं पाल।


परिचय :

बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत कवि, आलोचक, अनुवादक डॉ अवनीश सिंह चौहान (Dr Abnish Singh Chauhan) हिंदी भाषा एवं साहित्य की वेब पत्रिका— 'पूर्वाभास' और अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका— 'क्रिएशन एण्ड क्रिटिसिज्म' के संपादक हैं। 'शब्दायन', 'गीत वसुधा', 'सहयात्री समय के', 'समकालीन गीत कोश', 'नयी सदी के गीत', 'गीत प्रसंग' 'नयी सदी के नये गीत' आदि समवेत संकलनों में आपके नवगीत संकलित। आपका नवगीत संग्रह 'टुकड़ा कागज़ का' साहित्य समाज में बहुत चर्चित रहा है। आपने 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' पुस्तक का बेहतरीन संपादन किया है। 'वंदे ब्रज वसुंधरा' सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले इस युवा रचनाकार को 'अंतर्राष्ट्रीय कविता कोश सम्मान', मिशीगन- अमेरिका से 'बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड', राष्ट्रीय समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका' का 'सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार', अभिव्यक्ति विश्वम् (अभिव्यक्ति एवं अनुभूति वेब पत्रिकाएं) का 'नवांकुर पुरस्कार', उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान- लखनऊ का 'हरिवंशराय बच्चन युवा गीतकार सम्मान' आदि से अलंकृत किया जा चुका है।