करीब चौदह साल पहले अपनी तीसरी अखबारी नौकरी छोड़ने के बाद मैंने यह कविता लिखी थी एक डायरी की शक्ल में। जैसा कि अक्सर होता है मेरे साथ मैं कुछ लिखकर रख देता हूं और फिर बरसों बाद उसे देखता हूं तो वह कविता, कहानी, डायरी जो लगती है उस रूप में सामने रखता हूं। कुछ कविताएं तत्काल भी आती हैं पर अधिकांश रचनाओं को इसीलिए सामने आने में दसेक साल से ज्यादा लग जाते हैं,जबतक कि मैं उनसे संतुष्ट ना हो जाउं। 2007 में जब मित्रों को यह डायरी पढाई तो सबने कहा कि इसे सामने आना चाहिए, तब अभिषेक श्रीवास्तव ने इसे एक उपयोगी कविता कह जनपथ पर डाला भी था। इधर अनिल चमडि़या ने फिर इस कविता की याद दिलाते कहा कि यार इसे कहीं छपाना चाहिए, तो छप तो यह आगे-पीछे जाएगी ही इसे फिर से पढें आप।
मेरे सामने बैठा
मोटे कद का नाटा आदमी
एक लोकतांत्रिक अखबार का
रघुवंशी संपादक है
पहले यह समाजवादी था
पर सोवियत संघ के पतन के बाद
आम आदमी का दुख
इससे देखा नहीं गया
और यह मनुष्यतावादी हो गया
घोटाले में पैसा लेने वाले संपादकों में
इसका नाम आने से रह गया है
यह खुशी इसे और मोटा कर देगी
इसी चिंता में
परेशान है यह
क्योंकि बढ़ता वजन इसे
फिल्मी हीरोइनों की तरह
हलकान करता है
और टेबल पर रखे शीशे में देखता
बराबर वह
अपनी मांग संवारता दिखता है
राज्य के संपादकों में
सबसे समझदार है यह
क्योंकि वही है
जो अक्सर अपना संपादकीय खुद लिखता है
मतलब
बाकी सब अंधे हैं
जिनमें वह
राजा होने की
कोशिश करता है
राजा,
इसीलिए
गौर से देखेंगे
तो वह शेर की तरह
चेहरे से मुस्कुराता दिखता है
पर भीतर से
गुर्राता रहता है
पहले
उसके नाम में
शेर के दो पर्यायवाची थे
समाजवाद के दौर में
एक मुखर पर्यायवाची को
इसने शहीद कर दिया
पर जबसे वह मानवधतावादी हुआ है
शहीद की आत्मा
पुनर्जन्म के लिए
कुलबुलाने लगी है
जिसकी शांति के लिए उसने
अपने गोत्र के
शेर के दो पर्याय वाले मातहत को
अपना सहयोगी बना लिया है
यह अखबार
इसका साम्राज्य है
जिसमें एक मीठे पानी का झरना है
इसमें इसके नागरिकों का पानी पीना मना है
गर कोई मेमना
(यहां का हर नागरिक मेमना है)
झरने से पानी पीने की हिमाकत करता है
तो मुहाने पर बैठे शेर की आंखों में
उसके पूर्वजों का खून उतर आता है
और मेमना अक्सर हलाल हो जाता है
जो हलाल नहीं हुआ
समझो, वह दलाल हो जाता है
दलाल
कई हैं इस दफ्तर में
जिनकी कुर्सी
आगे से कुछ झुकी होती है
जिस पर दलाल
बैठा तो सीधा नज़र आता है
पर वस्तुत: वह
टिका होता है
ज़रा सी असावधानी
और दलाल
कुर्सी से नीचे...
नयी मंज़िल के मीरे-कारवाँ भी और होते हैं पुराने ख़िज़्रे-रह बदले वो तर्ज़े-रहबरी बदला - फ़िराक़ गोरखपुरी
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
गुरुवार, 14 अगस्त 2008
चंद्रमोहिनी से मुलाकात - कुमार मुकुल - डायरी
रात दस बजने को थे। पूरे दिन हो रही बारिश अभी भी छिट-पुट हो रही थी। सो मैंने डाक्टर विनय कुमार से कहा कि मैं चलता हूं अब आप रूस से वापिस आयें तो फिर मनोवेद फाईनल कर लेंगे। उन्होंनै कहा कि हमारी फ्लाईट बारह के बाद है तो हम ग्यारह बजे निकलेंगे तो आपको रास्ते में मोहम्मदपुर छोडते जाएंगे। चलिए अनिल जनविजय से बात भी कर लें आपके सामने। फिर उन्होंने अनिल जी से बात की कि मास्को कल दोपहर के बाद रहेंगे फिर वहां से बात कर मिलने का तय करेंगे। बात खत्म होने पर सबरे घर लौटने की आदत वाला मेरा मन फिर उचटने लगा। मैंने कहा कि ग्यारह के बाद गली में कुत्ते पेरशान करते हैं खासकर इस बरसात में दिक्कत होगी। तो वो मान गये और मैं पास के बस स्टैंड पर आया। वहां आकर मुझे लगा कि यहां अगर कुछ देर बस नहीं आयी तेा फिर दिक्कत होगी या आटो लेना होगा। तो क्यों ना एक किलोमीटर चलकर सफदरजंग एअरपोर्ट से बस ले ली जाए। चलना हमेशा से प्रिय भी है मुझे। सो लपकता आ गया वहां।
स्टैंड पर आठ-दस लोग थे। कल पंद्रह अगस्त होने से गाडियां कुछ कम आ जा रही थीं रूट बदले होने के चलते। 460 आकर निकली तो उसे छोड दिया कि नहीं 588 आ जाए तो सरोजनी नगर से फिर दो किलोमीटर चलकर घर चला जाउंगा। कुछ मिनट बीते थे कि सामने सडक पर एक वैगनर रूकी और उससे एक युवती ने हाथ हिलाए। मेरी समझ में नहीं आया कि वह किसे बुला रही है। पर वह मेरी ओर ही देख रही थी। उसके पीछे की सीट पर तेरह-चौदह साल का किशोर बैठा था तो उसने शीशा हटा कर पूछा किधर चलना है। एकाध क्षण सोच में पडे रहने के बाद मैंने कहा मोहम्मदपुर पर उसे सुनाई नहीं दिया तो फिर जोर से बोला- भीकाजी कामा की ओर। तब मैं आगे बढ गया एकाध कदम रात हो रही थी पहुंचने की जल्दी तो थी ही। तो लडकी ने पूछा- सफदरजंग छोड दूंगी तो काम चल जाएगा। मैंने कहा - हां। फिर उसने बगल के गेट की ओर हाथ उसे खोलने को हाथ बढाया तब तक मैं पीछे वाले गेट की ओर हाथ बढा चुका था और फिर मैं बैठ गया।
वह कोई पच्चीस साल के करीब की भरे शरीर की सुदर सी युवती थी। गाडी में एक पुराना गाना बज रहा था , ... आंखों ही आंखों में प्यार हो जाएगा। उसकी रिमोट उस किशोर के हाथ थी। कुछ दूर चलने के बाद युवती ने पूछने के अंदाज में कहा कि यहां से मोड लें तो ठीक रहेगा, सरोजनी नगर की ओर से निकल जाएंगे - मैंने धीरे से कहा - हां। फिर उसने कहा कि पंद्रह अगस्त के चलते आज बसें कम हैं। फिर चुप्पी सी रही। सरोजनी नगर आने के बाद युवती ने पूछा- आप बता देंगे कहां उतारना है ...। मैंने कहा - हां, पुल के बाद आगे कहीं उतर जाउंगा। पुल के बाद जब लाल बत्ती पर गाडी रूकी तो मैंने कहा कि आगे बाएं कहीं उतार दीजिएगा । तो युवती ने पूछा- यहां से चले जाइएगा ना ...। मैंने कहा - हां हां ...। फिर मैंने कहा - मैं एक पत्रिका निकालता हूं उसकी एक कापी छोड जाता हूं और मनोवेद की एक कापी निकाल कर किशोर को दी। निकलते समय युवती ने पूछा - कौन सी पत्रिका है । मैने कहा - मनोविज्ञान को लेकर हिंदी की पहली पत्रिका है यह, पढिएगा अच्छी लगे तेा बताइएगा।
उतरते-उतरते युवती ने पूछा आपका शुभ नाम। मैंने कहा - ...। फिर मैंन भी गाडी का दरवाजा बंद करने से पहले पूछा और आपका नाम। जवाब मिला - चंदमोहिनी। फिर गाडी चलने को हुई तो किशोर ने कहा - थैंक यू अंकल, मैंने दुहराया-थैंक यू...-
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