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शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

पहला अध्यापक - सतीश छिम्पा

पापा युद्ध की बातें बताओ, एक मण क्या होता है….

          उम्र छोटी ही थी। शायद दस या ग्यारह वर्ष। घर में शाम का खाना खाते समय सभी परिजन एकसाथ होते थे। हथाई हुआ करती थी। यह 1999 था, और हम सब बच्चे उन दिनों शाखाओं में जाया करते थे, समझ नहीं थी, बस खेलने के ही चाव में ही उड्या.फिरता था। जय राणा प्रताप और भारत माता के नारों के ध्वन्यार्थ नहीं पता थे,  कारगिल की लड़ाई चल रही थी।  मैं दस ग्यारह बरस का रहा होऊंगा,  मगर भारतीय सेना के वीरतापूर्ण कार्यों युद्धों के बारे में जानने, सुनने और पढ़ने की मुझमे जैसे प्यास थी।  

      पिताजी और दादा जी 1962, 1965 और 1971 के युद्धों की बातें बताया करते थे। मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। लगता जैसे मैं भी फौजी ही बनूँगा। पाकिस्तान के साथ युद्ध में लड़ना ही मेरी देशभक्ति थी।  पिताजी बताते कि गंगानगर में अक्सर ब्लैक आउट किया जाता था। उस समय हमारा परिवार गंगानगर में ही रहता था। पूरा शहर अँधेरे में डूबा होता तब ऊपर कोई जहाज चलता हुआ सुनाई देता था। पलायन होते, गरीब गुरबे अपना रोज़मर्रा का सामान उठाकर अपने रिश्तेदारों के यहां या अन्य गांवों में चले जाते थे। 

           मुझे पापा से युद्ध की कहानियां सुनना अच्छा लगता था। बाल मन था तो आरएसएस की शाखा में भी जाने लगा था- वहां भारतीय सेना के साथ साथ हिन्दू सांप्रदायिकों के बारे में भी सुनता रहा। यही वो समय था जब मेरे किशोर हो रहे मन में इस्लाम और मुसलमानों के लिए तात्कालिक हलका अविश्वास घर कर गया।  मेरा परिवार बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय कारसेवक भी बना था। लेकिन जब हम लोग बड़े हुए। साहित्य की राह से दर्शन और राजनीतिक चेतना के विकास की किरण भीतर आयी  तो सब कुछ बदल गया। बेचैनी प्रचंड होकर उठी और किताबें ही किताबें उतरने लगीं भीतर।

       संघ की शाखा के इतिहास बयानी को तब मैं सच समझता था जो अध्ययन और परिपक्वता के बाद दिमाग से निकल ही गया। गुरु गोविंद सिंह के इतिहास को संघी तरीके में बयान किया जाता। वे हर बार पाकिस्तान ये मुसलमान वो, हिन्दू घटा देश बटा आदी फिजूल बातें किशोरों के अपरिपक्व मन में भर देते थे।

   युद्ध कभी किसी का भला नहीं कर सकता। जब तक बहुत जरुरी ना हो, इसका नाम भी अभिशाप है। दोनों तरफ की मेहनतकश आबादी का इससे कोई लेना देना नहीं है, जिन्हें हमारा दुश्मन बनाकर खड़ा किया जा रहा है वे भी मासूम हैं। वे भी शोषित हैं, अपने पेट के दरड़े को भरने के लिए जूण हंडा रहे हैं। वे भी पीड़ित, दुखी वंचित हैं।

         फिर साहित्यिक किताबों से जो राजनीतिक राह और जीवन दर्शन मिला था वो मेरी चेतना पर जमे जाले साफ करने लग गया था और वो ही मुझे मार्क्सवाद तक लेकर गया। और फिर सब कुछ बदल गया।

        पिता जी से अब उनके जीवन संघर्षो की कहानियां सुनने लगा। वे बताया करते, कैसे पुश्तैनी गांव गुसाईंंसर, तहसील डूंगरगढ़ (बीकानेर) से अकाल की मार से बचने के लिए बुजुर्ग सपरिवार गंगानगर में आ गए और कुछ साल संघर्ष और फिर सूरतगढ़ में बसेरा स्थाई हुआ। पापा बताते कि मालू की लकड़ी की टाल पर वे एक आना मण लकड़ी तोड़ा करते थे। कैसे ट्रक पर खल्लासी बने। कैसे रिक्शा और कैसे चौकीदारी और  दिहाड़ी की, पाकिस्तान में भी कोई आना मण लकड़ी तोड़ता होगा, कोई खल्लासी या मज़दूर होगा....कोई बेरोज़गार जीवन से हारा युवक खुद को खत्म करने के असफल प्रयास में टूट चुका होगा.... कोई परिवार अकाल की मार से बचता हुआ कर रहा हॉग कभी पलायन..... वो मेरा दुश्मन तो नहीं ही है। वो तो हमदर्द है।

    .... और एक दिन जब पापा बाजार से घर लौटे तो उनके हाथ में फ़टी पुरानी एक किताब थी, "पंचतंत्र की कहानियां'........

दर्जी का बेटा .1
 
(पापा के लिए.....)

आपने पेट के गाँठ लगाकर रोटी दी जो मानव अस्तित्व का जीवन द्रव्य था।
अमृत थी आपके पसीने के बट बनी दीवार, आंगन और छत
सूरज जब आकाश में पूरे योवन पर होता है
आप  पसीने से लथपथ लगाते हो टाँके
सीलते हो वक़्त की बिवाइयों को
ये तुम्हारी की तुरपाई का ही असर है 
कि अभावों की चादर से मेरी मजबूरीयों का नंगा जिस्म पूरा ढका रहता है
ये किताबें जो तुमने थमाई थीं पापा
मुझे इस लायक ना बना सकीं कि तुम्हारे पेट मे पड़ी गाँठ खोल सकूँ, 
माँ का राजा बेटा भी कहाँ बन पाया मैं
भाई का सुख कहाँ देख पाई बड़ी बहन
कब, बन कर उम्मीद छोटे भाई का 'भाई जी', कहाँ दे पाया मैं अपने होने का हौसला
मेरी हर कोशिश
उस वक़्त दम तोड़ती है जब मैं देखता हूँ तुम्हे भरी दोपहर धूप में
सेठ के थड़े पर अपने ही जिस्म से जूझते
और लोग मुझे कहते हैं कि मैं अभद्र, असभ्य, गलीज़, लड़ाकू, बुरा और बदतमीज और लंपट हूँ
क्या जानें वे कि ज़िन्दगी के अस्तित्व पर अपमान का वार होता है तब जहरीले हो जाते हैं शब्द

तुम पूरी उम्र घर की दरारों को सीलने की कोशिश करते रहे
मेरी हर कोशिश पर हँसता रहा घर
शब्द जब हार जाते हैं तो श्रम की छाँव में बैठ
अपमान का ज़हर पीकर आत्महत्या करते हैं
पापलू, मेरी कोशिशें आपकी तरह बेथकी न रह सकीं आज चूल्हे की बेमणी के पास जो पसरी थी
उन शब्दों की लाश ही थी वो

पर कभी बताना कैसे सह गये आप बिना थके
अभावों के वारों को
सूई कतरनी के ताण कैसे खड़े रहे आप चालीस साल तक
इस टूटते बिखरते घर में---

दर्ज़ी का बेटा . 2

वक़्त की मार से
बेरंग हुए मौसम
और कीकर पर लटके चिड़िया के पंखों
को सहलाने का अब मन नहीं रहा
आते जेठ की इस सुबाह को कह दो
कि मुझे 
सूरज से डर नहीं लगता
भरी दोपहर
सेठ के थड़े पर बैठ
कपड़ों के कारी लगाता
मैं दर्ज़ी का बेटा
अलनीनो के गणित में उलझ
राजभवन का हिसाब नहीं भूलूंगा
कि पिछले हाढ़ में
मैने सिंहासन का खोळ बनाया था

सारी-सारी रात
पुराने ली'ड़ों से माथा मारता मैं
बीस रुपये पीछे
तुम्हारी शतरंज का प्यादा नहीं बनूंगा

....चलो छोड़ो ये हिसाब की बातें
....मै हिसाब मे कच्चा हूँ
जिस पर मायकोवस्की ने लिखी थी कविता

....कविता जो
 अब नाजिम की कब्र पर बैठ
अलापती है मुझ दर्ज़ी का नाम

सुनो...
मैं अब भी फोड़ता हूँ थड़े पर आँखें
क्या कोई लिखेगा
कविता।


​​परिचय
नाम - सतीश छिम्पा
जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरयाणा)
रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, लोकमत , लोक सम्मत, मरुगुलशन, जागतीजोत, कथेसर, ओळख, युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित
संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन   के मुक्ति संघर्ष के हक में], आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता) , वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास)
संपादन- 
किरसा (अनियतकालीन)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
भूमि (संपादक, अनियतकालीन)
मोबाइल 7378338065

रविवार, 16 अगस्त 2020

बौद्धिक माहौल और नशा मुक्ति केंद्रों की यातनाएं - सतीश छिम्पा

डायरी - सतीश छिम्पा

किताब का यह पन्ना - अस्त व्यस्त, बिखरे स्याही के धब्बों  वाला, जाने कैसे बेतरतीबी पाले बैठा है...

........   न  एथेंस या स्पार्टा,  दिल्ली या हल्दीघाटी या खानवा का मैदान या कोई सा भी हो 'पन्ना' - इतिहास बीमारियों को ढोता नहीं है। इतिहास की तिलिस्मी दुनिया या गूंजळक या भूलभुलैया या आकर्षण या जो भी हो, मुझे खींचता है - वियना नही देखा कभी मगर स्टीफ़न स्वाइग से साक्षात्कार कर रहा होता हूँ, मैं, सतीश या शेखर, क्या कुछ फर्क पड़ता है ?... 

.......शराबी, लंपट, घमंडी, बदतमीज और भी जाने कितने ही अलंकार है जिसके हिस्से.... 

     -- अकेला रहना पसंद है जिसे / निज बोल नही बोलता तो धमकाया जरूर जाता है, खुद ही के अंतर से,   उफ़्फ़, सच में कैसा बावळी लोल है...

 पन्ना -१

 'माहे मीर'' का यह कथन चर्चित है, " आजकल जो लोग लिख रहे हैं उन सबमें तुम सबसे ज्यादा योग्य और अपने आप में बेहतरीन ग़ज़लगो हो। यह वे लोग भी जानते हैं जो तुम्हे मिटा देना चाहते हैं। मगर अफ़सोस कि तुम नहीं जानते और जिस दिन जानोगे, अदब में कयामत आ जाएगी।"

पन्ना-२

अकेलेपन का शिकार अकेला बैठा हूँ। अब तो इस अकेलेपन को पसन्द भी करता हूँ। लोक में ऐसे आदमी को इक्कलखोर कहा जाता है, शायद मैं इक्कलखोर हूँ। कारण क्या हो सकता है इसके पीछे- यह कोई मायने नही रखता है। मेरी सपनो की बहुत ही ख़ूबसूरत दुनिया है।
एक ऐसी दुनिया जहां किसी का कोई दखल न हो। किसी का किसी से कोई वैर विरोध न हो, कोई अन्याय, शोषण और नफरत न हो, जहां हर ओर प्यार, मोहब्बत और सम्मान की भावना हो। योग्यता का सम्मान हो। ख़ूबसूरती को सम्मान की दृष्टि से देखा जाए। कोई गरीब न हो, कोई इज्जत और कोई बेइज्जत न हो।
मुझे ये सब सोचना, देखना अच्छा लगता है। मुझे पेड़ों, पहाड़ों, नदियों, झरनो और सागर का असीम विस्तार, हिरण, गाय, बच्छे, शेर, मोर, कोयल के सपने देखना बहुत भाता है। ख़ूबसूरती और प्रेम के यथार्थ और आदर्श रूप को देखना अच्छा लगता है।
उस लड़की को चूमते निकल जाना अंतिम छोर तक....  बरसात के मौसम और फूलों का खिलना, कोपलों का दमकना और तितलियाँ, तारे और धरती, मेरे सपनो के केंद्र में रहते हैं।
सपनो में मैं उड़ता हूँ, समुद्र में तैरता हूँ, दौड़ता हूँ, चलता हूँ, टहलता हूँ...  फ़िल्म देखता हूँ, गाने गाता हूँ, प्यार करता हूँ... . लोक रंग के किसी रंगीन कार्यक्रम मे जीवन के उत्सव को मनाता हुआ मैं रेड वाइन के पेग लगाता हूँ। महफिलें सजाता हूँ। जहां होड़ आगे निकलकर धन कमाने की नहीं हो बल्कि अपने कम्यूनों को   मजबूत बनाने का सपना हो।
उड़ता हुआ मैं तारों को छूकर धरती से मिला देता हूँ.....
एक हजार उधार, पव्वा एक और फिर सड़क पर- सुबह पता लगा- बेवड़ा गिर गया था....

पन्ना-३

दिल करता है आग लगा दूं। नेस्तोनाबूत कर दूं, मिटा दूं इस वहशी समाज को...  उफ़्फ़ ये हकीकत। आप जितने ज्यादा सीधे सरल होते हैं उतनी ज्यादा आपकी जड़ें काटी जाती हैं और आर्थिक तौर पर जितने मजबूत होंगे- उतना ही आपका सम्मान होगा। कुकर्म तक भुला दिया जाता है।
सरकारी अधिकारी या उच्चाधिकारी हैं तो आप आलोचकों की नज़र में नाजिम हिकमत या नेरुदा या निराला या दुष्यंत होंगे।
किसी स्थापित और चर्चित लेखक की जात के हैं तो एक ही दिन में आपकी किताबों का मूल्यांकन हो जाता है।

पन्ना :- ४

विद्रोह मेरे भीतर ज्वालामुखी के लावा सा दहकता है। दिन खतरनाक हैं, मायकोव्स्की के अंतिम दिन या हावर्ड फ़ास्ट के शहीदनामा के सजायाफ्ता मजदूर या द इडियट का निकोलायविच .. बेचैन सा। 
लेखन में कुछ स्थापित नामों से असहमति नहीं ... बल्कि घनघोर नफरत करता हूं।

पन्ना-५

यह दुनिया दगा, कपट और छल से भरी हुई है। कपट से भरे कपटी लोग और साथ जहर से भी भरे। उनमें किसी भी तरह की प्रतिभा नहीं है। वे पूंजी और मिडिया के कारण मुख्य धारा में बने हुए हैं। अमानुष विचारों को ढोते मुर्दा लोग।

पन्ना-६

.....''लड़ाई मत किया करो यार-- कभी देखा है किसी को  बोलते हुए या किसी को सुना है- प्रतिरोध में खुलेआम बोलते हुए ?''

एक दिन चला जाऊंगा कहानियों पर सवार होकर कल्पनाओं से दूर बहुत दूर.......तब-मत खोजना उस भूख से भयभीत, जीवन के संक्रमण से डरे हुए, पीड़ाओं और पनियाए लाल आँखों वाले लड़के को

पूरे दिन आंधियां चलती रहीं और बादल जिन्हें बरसना था मरुधरा और मैदान और घग्घर नदी के इस बहुत सुंदर और रमणीय और कामनाओ को जगा देने वाली सबसे प्यारी धरती, धरती के इस बहुत प्यारे हिस्से, जिसको हम कहते हैं नखलिस्तान -- बरसना था और झूमना था। नहाना था शेखर को- नहीं, मेरा नाम ही शेखर है- बावळी टाट..... क्या हुआ था उस दिन या उस समय या उस जगह जहाँ कभी कुछ समझ हीं नही आता.... पता लगा

-- वो जो सदियों की गुलामी तोड़ने, अन्याय और ज़ुल्म का मुंह मोड़ने आदि का का नारा ललकारा स्टाइल में फैंकते, लाल टोपी और लाल जैकेट आदि के फैशन को मार्क्सवाद या कम्युनिष्ट की पहचान कहने वाले जब पुरस्कार के लिए किसी दल्ले के सामने कोड कोड में कोड्डे होकर, उफ़्फ़...

पन्ना- ७

तुम फ़िक्र मत करना मेरे शहर

मैं नहीं लौटूंगा, नहीं लौटूंगा तेरी जगमगाती दुनियां में

नहीं आऊंगा तेरे प्यार के बाज़ार में सजी

पीड़ाओं की दुकानों पर

मैं इस बात से फिक्रज़दा नहीं कि मेरी याद की परछाइयों के साथ कोई चलेगा कि नहीं

या कोई चमकते जुगनुओं से पूछेगा मेरा पता


पर मैं सोचता हूँ

हाँ, मैं सोचता हूँ

ढलते दिन जब मैं विदा लूँगा तेरी गली में उगे सूखे बरगद से तब- क्या वो विदाई के इस मुश्किल वक्त में

मुझे ख़ुद की बांथ भरने देगा

क्या वो

दूर होते मेरे साये को लगातार खड़ा देखेगा

चांदनी पर सवार होकर

क्या उसकी नज़रें आएँगी मेरी पैड़ सहलाने

नहीं- मेरे शहर

मैं अब नहीं लौटूंगा तुम भी किसी भावुकता से भरे

अकेलेपन को ढोते बच्चे में मत खोजना

मेरे बचपन के उदासी भरी आंखों और चेहरे के अक्स

पन्ना- ९

उम्मीदें जहाँ हार जाती हैं..... ज़िंदगी वहाँ मौत बन कर हमे बाँहों में कसती...

सल्फास मिली नहीं, फंदा डाला नहीं, स्प्रे ताले में है-- और मैं, मैं डर गया, हिम्मत नहीं पड़ी---

पन्ना- १०

कितनी बार इन बेतरतीब कागज़ो और डायरियों को तरतीब देकर लिखा, सहेजा, बचाव किया और फिर हर बार फ़ंटेसी, कहानी या जीवनी या जो भी हो, ढालने की कोशिश की, मगर नहीं..... उफ्फ, यह बेचैनी, जैसे कील दिया गया हो उन्हें या किसी तिलिस्म में बांधा गया हो।
किसी कवि का किस्सा लोग हवाओं की सरसराहट में तलाशते हैं। कयास लगाते - वो एक  बीमार कवि था। एक  शराबी  जिसने खुद को खत्म कर लिया।
मोहब्बत या बेरोजगारी या क्रांति या उपेक्षा, दलगत राजनीति करते लेखक, गांजा, पोस्त या शराब या जो भी हो, वही कारण था उसका, उसकी बर्बादी ...

 पन्ना- ११

एक बीमारी खुद मेरे अस्तित्व की ... जो हर बार  हीरो, बौद्धिक स्टार या ऐसा ही कुछ समझने के फेर में हास्यास्पद हो जाता , टॉलस्टॉय के उपन्यास 'इडियट' की नस्तास्या फिलिप्पोवना से इश्क करता --
--- सुबह सुबह हैंगओवर से बचाव के लिए एक पव्वा दारू या-- पूरे दिन पीते रहना और- जब जब भीतर भूकंप उठे तो 'बिफोर रेन'- की श्यामवर्णीय ज्वाला सी दिखती नायिका के होठों की शेप पर फिदा होकर  कविता लिखता है, बुरा क्या है ? .... भला भी तो नही है ना ।
-- स्वप्नदोष से झरकर बन गए दाग- चाँद में अब भी दिख रहे हैं - मर चुके शुक्राणुओंं की लाशें....
आदमी अब कहाँ है
" यह टूम तो गई काम से-- सुबह चार बजे से दारू पी रहा है....'' कौन था, पागल साला।
मैंने उसको देखकर पुकारा शेखर नाम लेकर  तो, ''शेखर ? कॉमरेड ?''...... उसने कहा । सही सोचा था शायद । वही शेखर जो लाल लाल आंखों और बेतरतीब सी जिंदगी जी रहा घनघोर अराजक कवि। शेखर या खुद मैं ??? जाने क्यों आज बरसात नही हुई।

पन्ना--१२

"यह निहायत गलत है या सही, पता नही, नीलम दोस्त है और दिवाकर की प्रेमिका - (नाम बदल हए हैं।) एक या दो बार गलतफहमी या जो हो उसे समझा जा सकता है- आज अठाइस दिन हुए- अनवांटेड की कितनी गोलियां दे दी- या वो दूसरे वाली.... वो चली गई, दिवाकर का ब्रेकप क्या मैंने करवाया था - साले....
सब कुछ उजड़ा हुआ हो जैसे
(हम सब पागल है, मंडी के उत्पाद)
--''एक तो आवारा, नहाता नहीं है इसलिए बदबू आती है।" जैसे ही उसने सोचा, खुद से ही शर्मिंदा हुआ क्योंकि वो सलीके से रहता है। अरे उसने मतलब मैंने।
" औसत नयन नक्श और दिखने में भी औसत, बेवकूफ सा लड़का है। '' इस बेइज्जती को अहम बनाऊं या बिल्कुल ही छोड़ दूं ..
अब यह मैं नही, कोई महाकवि है जो कह रहा है कि
"मैं हैरान रह गया था जब पहली बार उसके बारे में सुना और बाद में एक झलक देखा भी।  वो पांच फ़ीट दस इंच लम्बा, हट्टा-कट्टा युवा है। अपने भीतर की दुनिया को बाहरी दुनिया से एकमेक करने के यत्न में अक्सर कुछ गड़बड़ कर देता है। आज जब मैं दोस्त के घर स्वादिष्ट खाने का लुत्फ़ उठाकर वापस लौट रहा था तो वो मुझे घग्घर वाली बाईपास पर मिला, हमने हाथ मिलाए, हाल चाल पूछे और उसने मुझे गोल्ड सिगरेट पेश की, सिगरेट जलाते हुए मैंने उससे उसकी योजनाओं के बारे में पूछा तो वो बोला....

- "आत्महत्या और जीवन मे महीन सा ही फर्क होता है।"
कैसा तो होगा वो पल, जब सांस रुकेगी
कैसा तो वह रस्सा होगा, जन्नत की कुंजी।
'आत्महत्या' उफ़्फ़...
ज़िन्दगी नरक होने वाली है.... और आत्महत्या, इसको भविष्य पर छोड़ते हैं।
यूँ ही सोच रहा था। और स्थाई किए जा रहा था सब के सब बीमार मूल्य।

कविता, उन दिनों कोई आमद नही हुई, क्यों नही हुई, अन्याय है यह कुदरत का घोर अन्याय और एक गाली... शब्द बिखर गए
" मैं चिड़िया की आँखों में मचलते संगीत को सुनना चाहता हूँ। गौरैया के गीत एक लड़की के होटों पर सजा देना चाहता हूँ, उसको बताना चाहता हूँ कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ। फिजूल शब्द नही, जीवन के जीवंत शब्द।
... और हाँ मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ जिसमे वो दुनिया होगी, जिसका मैं सपना देखता हूँ"
" तुम किस दुनिया के सपने देखते हो ?? " मैंने सुट्टा लगाते हुए पूछा
" एक ऐसी दुनिया जो ख़ूबसूरत हो, जहाँ सब अपने हों, ना अकेला दुःख हो और ना अकेला सुख ही हो। शोषण, अन्याय, असमानता ना हो। "
"  तो क्या इस दुनिया में सब अपने नहीं है" खुद से खुद ही मुखतिब मैं...

" सब अपने नहीं हैं। सबके सब अवसरवादी, कपटी जानवर हैं और आगे निकलने के कॉम्पिटिशन में इतने डूब चुके हैं कि इन्हें पता ही नहीं कि कब ये किसी दूसरे के कंधों पर पैर रखकर कामयाबी को छू लेते हैं और दूसरा, जिसके कंधों पर पैर रखा गया होता है, वो भी किसी दूसरे के कंधों को तलाश करता है। ये चालें, बिसातें, छल, कपट, दिलों के मैल से भरी दुनिया मेरी नहीं है, ये दुनिया जो किसी भूखे को दुत्कार दे, किसी नाकारा को काम ना दे सके, ये दुनिया मेरी नहीं है।
भाई बहन संग पकड़ा गया किसी गांव के गैराज में और समाज सड़ने लगा--  ये रोज रोज धर्म, जाति, भाषा के नाम पर कत्ल जो हो रहे हैं, एक सम्पन्न बाप द्वारा अपने नाकारा बेटे को स्थापित करने के लिए, एक चालबाज धूर्त बाप द्वारा अपने बंजर बेटे को कलाओं में स्थापित करने के लिए जमीर मार ले खुद का, वो मेरा नहीं है।
 यह सोचना कितना मजेदार है कि हम महान हैं

पन्ना - १३

जहां खुलकर प्यार करना। प्यार का इज़हार करने को छेड़ना समझा जाता है। जहाँ  एक परिवार द्वारा अपनी बेटी को ब्लैकमेलिंग का हथियार बनाकर घरों को उजाड़ने के लिए साजिशें रची जाती हैं। एक कोई लड़की या लड़का बेरोज़गारी के कारण जिल्लत सहते हैं। किसी क्रांतिकारी लेखक को हाशिए पर पटक दिया जाता है। कोई जो नौकरी के लिए जिस्म का सौदा कर लेते हैं।  .... वे इसी दुनिया का हिस्सा है।
उसने फ़िल्मी हीरो की तरह डायलॉग बोले तो मैंने सिगरेट का गुल झाड़कर पूछा -" तो तुम नयी और ख़ूबसूरत दुनिया बनाने के लिए क्या कर रहे हो"
" मेरे दोस्त ये दुनिया बहुत कठोर है, उबड़ खाबड़ है, भावों और सपनों की कातिल है। शब्द की तौहीन करने वाला जाहिल समाज क्या जाने कि प्यार का इज़हार करते शब्द, दुनिया के सबसे सुंदर शब्द हैं। फिर भी मैं पढ़ता हूँ, सपने देखता हूँ, जब मेरे बस में कुछ नहीं रहता तो शराब पीकर बेसुध हो जाता हूँ "
" पार्टनर ऐसे तो ख़ूबसूरत दुनिया बनेगी नहीं"
" बनेगी मेरे भाई जरूर बनेगी, वो वक्त भी आएगा।
तुम देखना एक दिन जब दिन हमारे होंगे......।"

कहते हुए वो जो मेरा एक हिस्सा था उधर, उस  बाएं तरफ़ के खेतों की ओर चल दिया। सोचा, जो लोग इसके साथ चले थे साम, दाम और बुरी चालों के चलते स्थापित हो गए हैं। यह कितना प्रतिभाशाली था / नहीं अभी भी है।... और फिर  मैंने आसमान की तरफ देखा, बगुलों की डार से एक बगुला बिछड़ गया और इधर-उधर गोते खा रहा है, मैं घर की तरफ़ बढ़ गया....
घर ?? कहाँ है घर?? मालिक कौन है- रात डंडे मारे गए सपनो के और फिर अस्पताल

क्रमशः.....जारी...


​​परिचय

नाम - सतीश छिम्पा
जन्म- 10 अक्टूबर 1988 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरयाणा)
रचनाएं :- जनपथ, संबोधन, कृति ओर,  हंस, भाषा, अभव्यक्ति, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, लोकमत , लोक सम्मत, मरुगुलशन, जागतीजोत, कथेसर, ओळख, युगपक्ष, सूरतगढ़ टाइम्स आदि में कहानी, कविता और लेख, साक्षात्कार प्रकाशित
संग्रह - डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन   के मुक्ति संघर्ष के हक में], आधी रात की प्रार्थना, सुन सिकलीगर (हिंदी कविता) , वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)
शीघ्र प्रकाश्य :- आवारा की डायरी (हिंदी उपन्यास)
संपादन- 
किरसा (अनियतकालीन)
कथाहस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)
भूमि (संपादक, अनियतकालीन)

मोबाइल 7378338065