शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

एक उभरा -सा द्वीप - नवीन कुमार

पूरी रात बची है

सबेरे का अंदेशा है।

द्वीप नहीं है वह
उभरा सा लगता है
किसी दीवार से टकरा माथे पर
उग आये टेटर की तरह।
फूटा भी  नहीं कभी
कि रिस कर बराबर हो जाए
छू कर देखते हैं सब दर्द से बिलबिला उठता हुँ
कभी पिलपिला लगता है
कभी कठोर।


सिर  नवाकर पार कर जाता हुँ
इधर से या उस तरफ से
दोनों सिरों से गुमटी लगातार बंद रहा करती है
एक तरफ सूअरों की आवाज़ें उनकी धर-पकड़
बैठ कर सूप-डगरा बीनते लोग
या चाय- बिस्कुट के साथ 
बतकुच्चन करते
दूसरी तरफ
सब्जियों के लिए धींगा –मुश्ती
लोगों का रेला बाजार का खेला
रेल पटरियों की समानान्तर क़तारों पर
चलते लोग 
न कि ट्रेनें....
सोचता हुँ क्या मैं लिख पाऊँगा
पूरी कविता एक अदद कविता
जबकि बाईपास पुलों से ही
ऊपर – ऊपर पार करवा दी जा रही है कविता।

नयी-नयी जगहों में
लॉटरी का, सट्टा का , दारु-भट्टी का
नहीं तो , बिल्डिंगों का कारोबार है
चारों तरफ होम्योपैथ की दवा से भी ज्यादा तुर्श गंध है
नहीं तो सड़ रहे पानी की कीचड़ की गोबर की
यहाँ की कविता में इतना गुस्सा है
कि यह अपने पसीने की धार में ही
बहा देना चाहती है सबकुछ 
कि कहीं सबकुछ दह न जाए
भगवा चादर से भगवान हर लेते हैं
उनका आक्रोश
लाल बत्ती की हवा से पसीना सुखा डालते हैं
नहीं सलटता है तो
एक शैतान के रामचेलवा को सामानांतर पटरी पर
काट डाल आते हैं
एक चेलवा का अंजर –पंजर तोड़ कर 
मन- माफिक जोड़ कर लद्दरावस्था में
प्लास्टिक के बारे में कस
इस उभरे द्वीप के पार बहुत दूर फेंक आते हैं
साथ का लड़का आज भी ‘चेलवा’, ‘ चेलवा’ पुकारता है।

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(2)
पूछते हैं मित्र
तुम ये क्या हमेशा उस द्वीप का
रट्टा लगाते रहते हो
कहते हैं
वही सब्जियों का बाजार ही न
बारहो मास कीचड़  भरे गली कूचे
एक अंतहीन कस्बा जिसमें गँवार-से अँटे हुए लोग
कुत्ते, घर-घर छलांग मारती बिल्लियाँ
नहीं तो म्यूनिसपैलिटी के वर्कर्स की बपौती ये सुअर

अपने हाथ को सुंघाया है (मैंने) उनको
उन्हें कुछ क्यों नहीं महसूस होता
हालांकि  मेरे बात करने के लहजे पर 
आपत्ति ज़रूर है उन्हें

देखता हुँ
पावर हाउस की चिमनी से
उठता हुआ काला धुआं
छाई  बाहर आती है एकदम लावा-सी लाल
पानी गर्म हो रहा होगा
वाष्प ऊठता होता है
काले उजले बादलों के टुकड़े चिन्दियाँ
उसके ऊपर लपकती हवा
लिपटती है बरसात
लेनों , मुहल्लों से उलझा –उलझा उभरा द्वीप
उनके उलझे उलझे बालों वाले बॉस
सुलझे बालों वाले हीरो
लगातार हल्ला कभी भी बरप सकता है हंगामा
भीड़ कि एक घर के ऊपर दूसरा घर चढता –सा
जबकि
चप्पे –चप्पे में फैला है
जीवन यहाँ  इस उभरे द्वीप पर
इस अजीब से माने जाने वाले मुहल्ले में
और तब जबकि 
असंभावित मौतों के हिस्से हैं यहाँ के लोग
उन्हें जीवन से ही
इतना मोह क्यों है?

क्या कल को हम गवाह 
होंगे     उसी  थक्के से जीवन का जो पसरा है
चप्पे  चप्पे में 
जाड़े में पसर जाती है धुंध
और उसमें फंस-फंस जाते हैं
हरेक घर के मुहाने पर रखे चूल्हों के धुँए
क्या कुछ दरक भी रहा है?

धूप उस धुँए मिली धुँध को तोड़ती 
अभी थकती
कि मर्द लोग  घरों के बाहर
उन्हीं चक्करदार गुलकुचिए से संकरी होती जाती गलियों से निकल
ढ़रियाये सड़ते बदबूदार जूठन कूड़े
पिल्लुओं से बजबजाती नालियों को पार करते
( या इनके बारे में बात करते)
चले गये होते
स्त्रियों की बारी होती
काम निपटा कामों से निपट
द्वीप के मुहल्लों के छोटे खुले स्थानों पर
बैठ गप्प हाँकती
स्वेटर बुनती
उधर मवेशियों को भी रायजी
पुआल से रगड़-रगड़ नहा रहे होते मजा लेते रहते
पूँछ से छींट उड़ाती
सारी जगहों में भरे पड़े हैं वे  (मवेशी) 

 (3)

दीपावली की रात
मैं दूसरी वाली गुमटी पार कर
भुनते हुए सूअरों को सूँघते जाना चाहते हुए भी
नहीं जा सका
मैं जल्दी पहुँचना चाहता था
मेरे दोस्त की टाँग टूट गयी है
बेरोजगार ने अन्तर्जातीय विवाह क्या कर लिया
डाक्टर ने बताया –टाँग गिरने से नहीं टूटी
बल्कि पहले टाँग की हड्डी टूट गयी जिस कारण वह गिर पड़ा; कैल्सियम की कमी थी
और मैं दोनों सिरों के गुमटी वाले रास्ते को छोड़कर 
एक ‘शार्टकट’  बीच से
अंधेरी पुल वाला रास्ता अख्तियार कर लेता हूँ
आशंकाग्रस्त
कहीं इस साल भी कोई मार कर नहीं फेंक गया हो
( ऐसे इस बार अजेय पांडेवा का नम्बर है- हल्ला है)
तेजी से पार करता जाता हुँ
अँधेरी खोह
एक दीया भी नहीं इसकी निर्जनता में

झाड़ी पार शौच को बैठी औरतें
धड़फड़ा कर उठ जाती हैं
मेरे अभ्यस्त कदम गिट्टियों भरी रेलवे लाईन 
नाला तड़पते
अंधेरी पुल पार कर जाते हैं जल्दी – सब ठीक है
पर बिजली गुल है इस उभरे द्वीप की
केवल दीये जल रहे हैं पटाखे फूट रहे हैं
अभी दूर है दोस्त का घर 
जलकुम्भियों के प्रसार 
झींगुर टिड्डों की आवाज़ में
दबा डूबा

कुत्ते एक दुसरे के पीछे पड़े हुए हैं मौसम है  क्या
डर भी लगता रहा है इन आवारा कुत्तों से
पूछताछ न करे डर
इस बार लोगों ने पैसा जमा कर
पानी का जमावडा दूर करने के लिए
अन्डरग्राउंड नालियाँ बनवा रहे हैं
सड़क का हाल तो ऐसा  है कि
कैल्सियम भरी देह भी भरहा जाए
नालियाँ हहरा रही हैं
और
मैं दीपावली की अंधेरी रात में
उभरे द्वीप की बीहड़ता में घुसता जा रहा हूँ
हवाएँ संपिंडित होती जा रही हों मानो
मेरे एक के दवाब से
प्रतिक्रिया में पूरा संपिडन मुझको ढकेले रहा-सा है
मैं घूरती आँखों वाले चेहरों की और
बिना तके तेजी में लपकता ब़ढ़ा चला जा रहा हूँ
जबकि सभी को पहचानता रहा हूँ
जान पहचान भी एक खतरा है
क्या ठीक
कोई भी पार्टी कहीं इसका आदमी
नहीं तो उसका आदमी समझ टीप देंगे तो
दीयों की रोशनियाँ मेरा हौसला है शायद

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(4)
लौटता हुँ , दोस्त का क्या कर सकता था
अभी तो सब ठीक ही था   लौट रहा हुँ
उसी रास्ते से लौटता हूँ
फिर अंधेरी पुल आ रहा है
सब तो ठीक ही था, कोई हलचल नहीं
कोई औरत भी नहीं
पर शोर है  क्या मालूम क्या है
पर शोर हैं
कौवों के
गिद्धो के
न मालूम क्या क्या 
रात है
कुत्ते भूंक रहे हैं अवश्य
ढेर रात के साथ गहरा रही है

अरे;
    ये तो अजेय है अजेय पांडे
   ( इसके नंबर का हल्ला भी था)
    मैंने तो इसको पढाया भी है
एकदम तेजी से निकल जाता हुँ क्षणभऱ भी ठहरे बिना
“रिक्शा! चलोगे’
“हाँ”
मेरा सिर घुमने लगता है
या दूसरी सारी चीजे घूम रही हैं
मितली सी आने लगती है
मैं ओकाने लगता हुँ कुत्ते-सा
जैसे घास खा ओकने ही गया था उस द्वीप में
जबकि  
      मैं जानता हुँ इच्छाओं का संसार है
      सारी दुनिया पर मंडरा रहा है आदमकद डर
छि: मानुष, छि: मानुष की रट लगाए जा रहा है
( मानो ये उभरा द्वीप द्वीप न होकर रात भर गोलियों सहता अमरीका हो )
जो बचपन में किस्सों में लगातार आता रहा
मानुष को चबाता रहा
उम्र के एक खाश पड़ाव के बीच में
लगता था ( शायद) सब ठीक है
इच्छाएँ ही इच्छाएँ थीं  
नितांत व्यक्तिगत इच्छाओँ का संसार था
पर मैं नहीं जानता था
आदमकद डर के ऊपर भी इच्छाओँ का संसार है
जो एक दर्जा नीचे आदमकद डर की
कमर में माउजर खोंस देता है
एक इलाका नाम कर देता है
कहता है – अपने अंडर में आदमकद डर की फौज तैयार करो
तभी जाना लोकतंत्र में संख्या महत्वपूर्ण होती है
केवल भौतिकशास्त्र पढकर क्या किया
गैलेक्सी का गणित लगाता रह गया
डर की भी जातियाँ होती हैं
धर्म हैं   ये भी जाना
पर ये नहीं जानता था कि
                    भालू-कद ,बाघकद डर अब होते हैं
               (या) विलुप्तप्राय –सा सेमिनारों तक ही सीमित हैं
और मैं जाते ही सो गया
बुखार हो आया था पापा ने ढाढ़स बंधाया
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(5)
घटना में चमत्कार की हद तक  बदलाव
अपनी सारी तारतम्याताओँ के बावजूद डरा सकती है
मानो
    इतिहास लंबी छलांग लगा दे
    कहकहा कहने वाला लड़का एकाएक विज्ञापनों के तुक गाने लग जाए
उसी तरह 
    गेंद के फूलों से भरी-बंधी रंथी पर
    13 सितम्बर ; 1998 को
    एक जर्जर अधेड़ औरत की लाश को
   देखता हुँ
    जो सीधे दिखने वाले अधेड़ अभियंता की लाश में बदल गयी है
गेंदे फूलों के वस्त्रों से लैश
उस औरत का पति   कर्ताओं ( उपस्थित जन) के लिए
ये एकदम सहज था
पर जैसे ही वो गोरा अभियंता उठकर 
एकाएक भागता है
कि धूप सोखने की हद तक काला
एक कलूटा लंगी लगाकर पटखनी दे
उसको रंथी पर फेंक उलट डालता है
और ऐसा दो बार घटित होता है
एक बार क्यूँ नहीं!

बच्चों की कोमल नींद में घूसे जा रहे
ये सपने किस तरह के सपने हैं।

सुरक्षित कर लेने की साजिश में
मृत्यु की अदला –बदली तक कर ले रहे हैं
ये लोग
और वो कलूटा जो
मेरे विद्रोहों को ऐसा मोड़ दे डालता है
कि विद्रोह अराजकता में बदल जा रहा है
ये कौन है?
क्या मैं सभी पात्रों को पहचानता हूँ?
मैंने देखा है
उस जर्जर औरत का पति चेला है
उस गुरु का जो माँ शेरावाली के शेर के 
अयाल के एक बाल से पैदा हुआ है
उसके यहाँ शंकराचार्य आते हैं
कर्ताओं में टी.वी. में दिखने वाले
धांसू राजनीतिक हैं अफसर हैं
पत्रकार हैं
औरत पति कर्ता सभी एक सिरे से गायब हैं अब
 सिर्फ एक गोरा है
दोनों ही सुरक्षित हैं- एक मरकर भी
                एक पटककर भी
तभी मेरी आँख खुल जाती है
देखता हुँ
      100 वॉट का बल्ब जल रहा है
      देह तक हिला नहीं पा रहा 
मेढक और झींगुरों की कर्कशता में बढ़ रहा हूँ
दिशाओं रास्तों की आदत है
और उधर
सभी सो रहे हैं
मच्छरदानी के बाहर पैर निकालने में भी 
डर लग रहा है
          .......कैल्शियम की कमी!
          ......वो कलूटा !! 

उठकर पानी पीता हूँ
सभी सोये हैं- बाहर देखता हुँ
आकाश साफ है तारों भरा
पटाखों की एकाध आवाज़
                        रंग –बिरंगी लड़ियाँ
बिखरी पड़ी
पक्कों पर घिरनियों की उजली चितकाबर दागें
साँपों के काले काले धब्बे
बच्चे सुरक्षित पटाखे छोड़ पाए हैं
कुछ दिनों बाद परीक्षा है
सोचता हुँ कुछ पढूँ
फिर बिना लाईट बुझाए ही सो रहता हूँ
बुखार नहीं है
पूरी रात बची है
सबेरा का अंदेशा है
सपना था या नींद में ही चल रहा था चिंतन
 
          .......कैल्शियम की कमी
          ......वो कलूटा 
          ......आदमकद डर
          ......वो उभरा द्वीप
             
             
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(6)

नहीं मैं नहीं जाना चाहता 
एकदम नहीं.....एकदम नहीं जाना चाहता उस उभरे द्वीप पर
कि कोई एक  दर्द है – विशाल उपन्यास
कि कोई एक अदद दर्द है – कविता
और कहीं दबे –छुपे दर्द हैं- अनेक कहानियाँ
और ये दर्द जो पूरा का पूरा असबाब हैं केवल
                              -कुछ नहीं:
                                                 बस्स वो द्वीप।

छि: छि:
           कितने छोटे तुम
     कितने छोटी तुम्हारी जिंदगी
फिर उन लखूखा दर्द का क्या
दर्द नहीं....मुझे दर्द से ही निस्संग नफरत है
कि नहर है
           उसमे कूद पड़ने की आवाज़े हैं
           .ये बेंग की सी आवाज़े 
           मैं यह शोर बर्दाश्त नहीं कर पाता
 ये छापाक से आवाज करती हैं फिर तैरने की आवाज़ नहीं आती
कि रास्ता लंबा है
और केवल कुत्ते हैं
झींगुरों की आवाज़ें हैं
नहीं....मुझे अब कुछ भी सुनाई नहीं देता
कि बड़ी-ब़ड़ी बिल्डिंगे हैं और गाड़ियों की सांय सांय
शायद कुत्ते चिप चुके हैं
झींगुर धकेल दिये जा चुके हैं 
बरसात में बेंगों की टर्र –टर्र
पानी अब भी जम जाता है
मुझे सर्दी सी हो जाती है फिर नकसिरे फूट पड़ती है
इसलिए....इसलिए
मैं दूर एकदम त़टस्थ पडा रहना चाहता हूँ
सोया पडा हूँ इन सबसे बेखबर
कि किशोरों की मौत बढ़ गयी है
कि उस दिन मेरे छोटे भाई का दोस्त मरा फेंका मिला
कुछ लड़कों ने ईँट-पत्थरों से उसका सर
कूँच डाला था
सिपाही एक हवाई –फायरिंग भी नहीं कर सका

कि था कोई भाई 
एकाध लोग फुसफुसाकर उसे कामरेड कहा करते थे
अंडरग्राउंड नाला के नजदीक
खून के छींटे थे
                    (शायद) कोई कविता बनाने में मशगूल थे
आज उनका जवान बेटा टाई लगाकर
समान बेचता फिरता है

बस्स!
मैं पढ भर लेना चाहता हूँ
उतना ही
उतने के लिए ही
यदि वह किसी संस्था की सांख्यिकीय आर्थिक रिपोर्ट है तो
और लिख कर नोट भर कर लेना चाहता हुँ
मुझे सिर्फ वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ देनी है
नहीं तो रिपोर्ट विस्तार से
सिर्फ इसलिए पढ सकता हूँ
कि मुझे विषयनिष्ठ परीक्षाएं भी देनी है
औऱ ये मैं उस उभरे द्वीप पर जाए बिना भी
कर सकता हुँ। 

*-*-*-*-*-*-*-*
(7)
डेढ बज रहा है जबकि
भाई फोंफ काट रहा है
चार चौकी लगने लायक
बेतरतीब किताबों , कागजों अखबारों से भरे
नवागंतुक को अदबदा देनेवाले इस इकलौते कमरे में
अब ठहर नहीं सकता मैं
लोग मुझे आज भी डढ़ियल पढ़ाकू बोल लिया करते हैं
जबकि आज तो चक्कर काटता फिरता हूँ उभरे द्वीप का
       पैर में फिरकी लगी रहती है
       माथा तो भरा रहता है शोर से
खैर जो भी ईद बिद पढकर
सो रहता था या सोकर पढ लिया करता था
मसहरी लगे...
सिराहने किताबों अंटी उस कमजोर चौकी पर
भाई के फोंफ ने थोड़ा आश्वस्त किया
और मैं उठ गया
तलब जोरों की थी
कि बेचैनी जनित तलब
                    बहुत ठीक ठीक कहना मुश्किल
पर सिगरेट चाहिए था
बाहर से ताला मारकर चल पडा
कभी पहले तो इतनी बेचैनी नहीं रहा करती थी
पहले भी इतना भरा रहता था माथा
आज तो पाँच मिनट भी केंद्रित हुए कि
नौकरी...ट्यूशन.....शोर....मौतें
नहीं तो एक ही धूरी ‘वो कैसी है’
ये सारी चीजें घूम रही है
या माथा ही घूम रहा है
और सिगरेट वो तो स्टेशन
या रेलवे क्रासिंग पर ही मिलेगी
गनीमत है नजदीक है- वहीं मिला तीन ले लिया
ठंड यदि शुरु होनेवाला हो तो अच्छा लगता है न
सिगरेट पीना
         काश चाय भी साथ होती

और जली सिगरेट पहली बार मुझे
बिंदी –सी क्यूँ लग रही है
सिगरेट की राख  जो राख सी नहीं 
उनके निशान चाहकर भी ढूंढे नहीं मिलेंगे कल को
और मैं बढता हूँ रेलवे क्रासिग में
और मैं बढ़ता हूँ पुन: उसी द्वीप में
-वही भूल-
(पार कर) आगे बढता जाता हुँ
सीधे जिधर बाई-पास है
मुझे दिखता सा लगता है- बंद ग्रिल में जली ट्युब लाईट
जली सिगरेट दूसरों को भी बिंदी –सी दिखती होगी क्या ?
इसी बाईँ वाली पोखर में तो आएगी छठ में
जबकि बहुत रात है- इलाका बदनाम है

दिन - दहाड़े  ही हो रहे निमोछिए लड़को की
मर्डरों से अधीर मैं
क्यों इतना धैर्य धरे हूँ और
अब सीढ़ियाँ चढने को तत्पर
कि ऊपर बाई-पास पर चढते ही शायद दिख पड़ेगी
वो बंद ग्रिल में जली टयूब-लाईट की रौशनी में
चढ़ता हूँ – ये बाईपास है
एकदम अँधेरा गाडियाँ साँय-साँय़ पास कर रही है
कुछ भी हो सकता है यहाँ
...............
बस्स हवा है
और हवा है
         इतनी भर कि उड़ाने को नाकाफी
अँधेरा व्याप्त है
अपनी पुरी संभावना के साथ।

(समाप्त)
(1998 11 20)
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  ( कुमार मुकुल को )
 
युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002 नई सदी का युवा स्‍वर