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रविवार, 27 अगस्त 2023

अरुण कमल की कविता - उधार की धार भी भय ने भोथरी कर दी


अरुण कमल
की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है
, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
 
'खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और खाली जमीन का टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
...यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं '
 
कवि का महानगर के जिस सघन हिस्से में रहना होता है, वहाँ विकास उर्ध्‍व दिशा में एक सीमा तक होकर अवरुद्ध हो गया है। इस जड़ता ने कवि स्वभाव को भी जड़ बना दिया है। अपनी ही उस जड़ता से ऊबा कवि नए इलाकों में जाता है तो एक-दूसरे किस्म की जड़ता (जिसे वह स्मृति के नाम से पुकार कर एक भ्रम पैदा करना चाहता है) को ढूंढ़ता है। रोज कुछ बनना उसे पसंद नहीं। उसे ढहा हुआ घर चाहिए। खाली भूखंड चाहिए।
 
'अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो,
क्या यही है वो घर?'
 
कवि कोई खास घर खोज रहा है। जो खाली भूखंडों और ढहे घरों के बीच ही पहचान में आता था। दरअसल नए मकानों के होते कब्जे को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। जबकि रघुवीर सहाय इस भेड़-धसान संस्कृति को खूब पहचानते थे। वे लिखते हैं - ‘यह संस्कृति ऐसे ही बूटे-ऊँचंगे मकानों को गढ़ेगी।’ अरुण कमल इन मकानों के अजनबीपन को न पहचान पा रहे हैं न भेद पा रहे हैं। बस बिसूर कर रह जाते हैं वे-
 
'समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास '
 
स्पष्ट है कि महानगरीय जीवन के आदी कवि को देर तक खोजना भारी पड़ रहा है। और पानी चला आ रहा है। हालाँकि घर बेशुमार हैं, पर उनसे उसका कोई संबंध नहीं है। नए विकास को वह स्मृत्ति के नाम पर खारिज कर देना चाहता है। नए विकास की अपनी नयी स्मृत्तियाँ होंगी ही, जिन्हें वह जानना भी नहीं चाहता।
‘शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।’ अब ऊपर वाले पर ही भरोसा है। वही रास्ता निकाले शायद। कुल मिलाकर यही अरुण कमल की कविताओं की पृष्ठभूमि है। एक फिजूल के भय की कृत्रिमता से पैदा हैं अधिकांश कविताएँ उनकी। जिनमें ‘बादल के घिरने का आतंक अकास के ढहने जैसा है।’ जहाँ स्मृत्ति का मानी जड़ अविवेकपूर्ण स्थितियों से है। ए.एल. बाशम ‘अद्भुत भारत’ में लिखते हैं कि यूरोप में साधारणतः मेघों की गरजन...अशुभ मानी जाती है। परंतु भारत के लिए वे...सौभाग्य सूचक समझे जाते हैं। अरुण कमल अंग्रेजी शिक्षक हैं, उन पर यूरोपीय कविता के प्रभाव के रूप में भी इस भय को हम देख सकते हैं। क्या कवि ने खुद भी कोई पीपल रोपा है कभी, आखिर विरासत के भरोसे स्मृतियाँ कब तक साथ देंगी।
 
'न पाप कमाया न पुण्य ही रहा अक्षत'। 
 
यही कवि की पीड़ा है। न पीपल रोपा, न उसे कटने-बिकने से बचा सका। और मुक्ति भी नहीं मिली। शायद यह दुख कवि को बार-बार सालता है।
मुख्य बात यह है कि 'न खुदा ही मिला' वाले दुख को कबि इतनी बार इतनी तरह से लिखता है कि पूरा संग्रह रूदन का कोष बनकर रह जाता है। अच्छी कविता की बाबत कहा जाता है कि उसे दुबारा पढ़ने की इच्छा होती है। पर एक रोआंहटी कवि को आप फिर से रोने के लिए कह सकतें हैं क्या? इस तरह रुदन व जीवन की निस्सारता का पारंपरिक राग संग्रह में भरा पड़ा है।
 
मेरा पूरा रक्त भी मरते पक्षी को नहीं दे पाएगा जीवन
कोई छुपा होगा दरवाजे के पीछे
मैं लौहूँगा और वह घूमेगा
कौन सुनेगा मेरी पुकार इतनी दूर
 
अब पाठक क्या करें- मनोविकार से ग्रस्त इस भय के ग्राह से ग्रसित गज की मुक्ति के लिए नारायण से प्रार्थना करें। खुद को स्थावर (जड़) बनाते इस भय को कवि अच्छी तरह पहचानता भी है 'स्थावर' कविता की पंक्तियाँ देखें-
 
बहुत दिन से एक जगह पड़ी हुई ईंट हूँ मैं
जिसे उठाओ तो निकलेंगी बिलखती चीटियाँ
और कुछ दूब चारों ओर
हरी पीली।
 
आखिर जीवन तो है। भय से जड़ हुए कवि की पीठ को कुरेदती दूब तो है। पर वह नहीं चाहता कि कोई उसकी जड़ता तोड़े। बहाना बिलखती चींटियों का है। आंतक रघुवीर सहाय के यहाँ भी काफी है पर यह थोथा भय नहीं है-
 
क्या मैं भी पूरा का पूरा
बेकाम हो जाऊँगा बीच राह
गिरा जूते का तल्ला
 
'भय' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
 
बंद रहा पिंजड़े में इतने दिन
कि उठूं भी अगर तो भय है
फड़के एक पंख दूसरा हिले भी नहीं
 
कवि के निवास पर हमेशा बित्ते-भर के पिंजड़े में लटकता तोता नज़र आता था पहले। कवि ने अच्छा पहचाना है। इस महानगरीय सुभीते की एक कृत्रिम सुख के नाम पर तैयार किए गए घेरे वाली जिंदगी में शरीर की हालत ठीक ही बेजान हो जाती है। रूसी प्राणीविद फेन्तेयेव ने एक प्रयोग के बारे में लिखा था कि एक बार यह देखने की कोशिश की गई कि लगातार वर्षों तक एक घेरे में बंद जीवों को अचानक खुले में छोड़ देने पर उन्हें कैसा अनुभव होगा? एक खरगोश को, जो बरसों से एक कटघरे में बंद था एक खुले मैदान में ला छोड़ा गया। पहले उसकी आँखें चमकीं। उसने एक उछाल भरी और जमीन पर पसर गया। जाँचा गया, तो वह मर चुका था। एक उल्लू और भेड़िए के साथ भी ऐसा ही हुआ। अच्छा है कि कवि ने इसे पहचान लिया। अगर अब भी वह इस पिंजड़े को तोड़ सका तो बच सकेगा।
 
भय के साथ अपनी असफलताओं से भी डरा हुआ है कवि। इस बुरी तरह कि वह उसे अपनी नियति मान लेता है-
 
छीलता गया पेंसिल
कि अंत में हासिल रहा ठूंठ
 
ये स्थितियाँ इस तरह काबिज हैं कवि पर कि हर घटना में वह भय को ही देखता है। और जहाँ वह नहीं होता, वहाँ वह उसका इंतजार करता है।
 
सामने बैठे यात्री ने लौंग बढ़ाई
तो हाथ मेरा एक बार हिचका
ऐसे ही तो खिला-पिला लूट लेते हैं
...
एक बार उसे गौर से देखा
उसका चश्मा घड़ी और चप्पल जिसका
नथुना टूटा था
और शुक्रिया कह कर ले ली लौंग
पर इतना पूछ लिया- कहाँ जाएँगे? किस मोहल्ले?
उसके बाद भी देर तक करता रहा इंतज़ार बेहोशी का
 
इन पंक्तियों को पढ़ते एक कथा याद आती है। इस रूदनाचर्चा में उससे कुछ रंग आ जाए शायद, हँसी का एक जंगल से गुजरते एक यात्री को अपने बाएँ-दाएँ बाघ और अजगर से भेंट हो गई। दोनों उसी की ओर मुँह फाड़े बढ़े आ रहे थे। वे जब निकट आ गए, तो यात्री ने डरकर आँखें बंद कर लीं और हमले का इंतजार करता रहा। पर कुछ हुआ नहीं, तो उसने आँखें खोलीं। सामने अजगर और बाघ एक-दूसरे से जूझ रहे थे। कवि का भय का इंतजार भी कुछ ऐसा ही है। कवि मानता है कि वह खुद एक अच्छा अदमी है, फिर उसे डर है कि वह मारा जाएगा।
 
मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया
न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा
और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा
 
यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि अच्छे आदमी की और भी परिभाषाएँ हैं। उनमें एक शायद ब्रेख्त की है कि- 'अच्छा आदमी वह है जिसे देख दुष्ट कॉप और भले आदमी खुश हों।' पर इस तरह का आदमी बनने लिए थोड़ी हिम्मत की जरूरत होती है। केदारनाथ सिंह ने लिखा भी है कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द। अरुणजी का भय ऐसा ही है, जो उन्हें मार रहा है बार-बार उन्हें अपने पड़ोसी कवि आलोक धन्वा की कविता 'पतंग' फिर से पढ़नी चाहिए, जिसमें वे बच्चों के बारे में कहते हैं कि- 'अगर वे छतों के खतरनाक किनारों से गिर जाते हैं और बच जाते हैं, तो और भी मजबूत होकर सामने आते हैं।' कहाँ आलोक का गालिबाना अंदाज़ेबयाँ और कहाँ अरुणजी का बिसूरना-
 
टिकट पर जीभ फिराते डर लगा
क्या पता गोंद में जहर हो
 
सोवियत संघ के पतन के बाद जो विचारहीनता का दौर चला है लगता है कवि भी इसका शिकार है। तभी वह लगातार अनिर्णयों के अरण्य में फँसता जा रहा है। कभी राजकमल चौधरी ने लिखा था- 'पूरा का पूरा जीवन युद्ध मैंने गलत जिया'। आज अरुण कमल उससे आगे बढ़कर लिख रहे हैं कि पूरा जीवन युद्ध मैं गलत मरा। वे लिखते हैं-
 
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिए
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया-
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा ?
 
संग्रह की आधी से अधिक कविताएँ भय की ऐसी ही भीतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। बाकी कुछ अन्य कविताएँ भी हैं। उनके बारे में 'अपनी केवल धार' से 'सबूत' तक काफी लोगों ने लिखा है। उसकी कुछ कड़ियाँ यहाँ भी मौजूद हैं। पर जो नया विकास है कवि का, यह भय ही है। जिस पर यह आलेख केंद्रित रहा। यूँ तो पहले ही अरुण जी ने मान लिया था कि सारा लोहा उन लोगों का है- पर तब धार अपनी थी। भय की मार ने यह धार भी भोंथड़ा दी है। सवाल है कि उस भोथड़े लोहे का होगा क्या? जवाब कवि के शब्दों में ही-
 
अन्न उगा न सकूँ तो क्या
सूखते धान के पास बैठ कौआ तो हाँकूँगा
 
यहाँ अनायास वीरेन डंगवाल याद आते हैं-
 
इतने भोले भी न बन जाना साथी
कि जैसे सर्कस का हाथी ।
 
आलेख का एक हिस्‍सा ‘पाखी’ में प्रकाशित

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

आलोचना के संदिग्ध संसार में एक वैकल्पिक स्वर : प्रकाश

इधर के वर्षों में हिंदी आलोचना का वरिष्ठ संसार बड़ी तेजी से संदिग्ध और गैरजिम्मेदारन होता गया है। आलोचना की पहली, दूसरी...परंपरा के तमाम उत्तराधिकारी, जिनकी अपनी-अपनी विरासतों पर निर्लज्ज दावेदारी है, आलोचना के मान- मूल्यों और उसकी मर्यादा से क्रमश: स्खलित होते चले गए हैं। खासकर काव्य-आलोचना पर यह नैतिक संकट ज्यादा गहराया है। हमारी वरिष्ठ आलोचना बगैर किसी अन्वेषण-विश्लेषण के ऐसे किसी भी नए कवि को कबीर, प्रसाद, पंत की छवि में नि:संकोच फिट कर देती है, जिनकी न तो भाषा को बरतने का बुनियादी सलीका आता है और न ही वे काव्य-कर्म के मर्म से समग्रत: परिचित होते हैं। हमारी युवा कविता के अधिकांश कवि ‘रेडिमेड’ हैं और दुर्भाग्य से हमारी वरिष्ठ आलोचना भी ‘रेडिमेड’ तरीके से उनका मूल्यांकन करती है।
    ऐसे परिदृश्य में कुमार मुकुल के पहले ही आलोचना-कृति को पढ़कर प्रीतिकर आश्चर्य हुआ। मुकुल मूलत: कवि हैं। एक कवि के रूप में अपने वरिष्ठ और समकालीन कवियों को पढ़ते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने जो टिप्पणियां, आलेख और काव्य-कृतियों की समीक्षाएं लिखीं, उनको संकलित कर एक स्वतंत्र आलोचना-कृति के रूप में प्रकाशित किया गया हैं अंधेरे में कविता के ‘रंग’ नाम से।
    पुस्तक चार खंडों में विभाजित हैं- ‘कविता का नीलम आकाश’, ‘जख्मों के कई नाम’, ‘उजाड़ का वैभव’ और ‘जहां मिल सके आत्मसंभवा’। पुस्तक की शुरुआत में एक भूमिका है, जो लेखक की सृजनात्मक भाव-भूमि को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। आखिरकार पूरी पुस्तक में काव्य-आलोचना ही क्यों? ‘भूमिका’ में वर्णित लेखक का बचपन से कविता, और वह भी संघर्षशील, प्रतिवादी स्वर की कविताओं की ओर झुकाव यह स्वष्ट कर देता है कि लेखक मूलत: असहमति का कवि है और जब यह कवि आलोचना के क्षेत्र में उतरता है तो कविता को ही अपना क्षेत्र बनाता है, और उसमें भी असहमति की कविताएं उसको प्रिय है।
इस पुस्तक में भी लेखक ने सविता सिंह, अनामिका, विजय कुमार, आलोक धन्वा, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु खरे, अरुण कमल, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, वीरेन डंगवाल, विजेंद्र, रघुवीर सहाय और राजकमल चौधरी की कविताओं का मूल्यांकन किया गया है। सविता सिंह की कविताओं की मूल भावभूमि की खोज करते हुए आलोचक उन्हें पितृसत्तात्मक समाज के विरूद्ध मातृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था का सशक्त प्रवक्ता सिद्ध करता है। वहीं अनामिका कविताएं उसे ‘औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्ति’ मालूम पड़ती है। विजय कुमार के कविता-संग्रह ‘रात-पाली’ की विवेचना करते हुए उन कविताओं में आलोचक को जीवन के वे तमाम छोटे-छोटे ब्यौरे मिलते हैं, जो एक भयंकर नाउम्मीदी, भय और आशंका में कांप रहे हैं।
आलोक धन्वा के संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ की सुप्रसिद्ध कविताओं ‘सफेद रात’, ‘ब्रूनों की बेटियां’, ‘जनता का आदमी’, ‘भीगी हुई लड़कियां’ आदि की बड़ी मार्मिक पड़ताल पुस्तक में है। वीरेन डंगवाल की कविता पर टिप्पणी के बहाने आलोचक जारी समय की कविता पर भी सार्थक बात कहता है- ‘‘ विष्णु खरे के बाद जिस तरह हिंदी कविता में मानी-बेमानी डिटेल्स बढ़ते जा रहे हैं और कविता के कलेवर में मार तमाम तरह की गदंह पच्चीसियां जारी हैं, वीरेन की संक्षिप्त कलेवर की कविताएं ‘कटु विरक्त’ बीज की तरह हैं।’’ फिर अरुण कमल की ‘नए इलाके’ की खोज है, जो आलोचक ‘असल पुराने इलाके की ही खोज’ लगती है। इसी तरह आलोचक विजेंद्र की ‘लोकजन की ओर उन्मुख’ कविताओं, ‘रघुवीर सहाय की स्त्री की अवधारणा’, ‘केदारनाथ अग्रवाल की श्रम-संस्कृति की प्रतिपादक कविताओं’ और केदारनाथ सिंह और राजकमल की कविता के विविध आयामों की सूक्ष्म पड़ताल करता है।
    पुस्तक का दूसरा खंड अलग से रखने का विशेष औचित्य नहीं था। इस खंड में भी नए-पुराने अनेक कवियों के काव्य-संकलनों की अलग-अलग आलोचना है। यह आलोचना ‘पुस्तक समीक्षा’ की शैली में है। जैसे मिथिलेश श्रीवास्तव के पहले काव्य-संग्रह ‘किसी उम्मीद की तरह’, के संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, विष्णु नागर के संग्रह ‘हंसने की तरह रोना, राजेश जोशी के संग्रह ‘चांद की वर्तनी’ और ज्ञानेन्द्रपति के संग्रह ‘गंगातट’ की समीक्षाएं इस खंड में शामिल हैं। इनके अलावा सुदीप बनर्जी, लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप की कविताओं पर स्वतंत्र-सी मालूम होती विवेचना है।
    पुस्तक के तीसरे खंड ‘उजाड़ का वैभव’ में कुछेक वरिष्ठ कवियों जैसे विष्णु खरे, कुमार अंबुज के अलावा अपेक्षाकृत नए कवियों निलय उपाध्याय, प्रेम रंजन अनिमेष, पंकज चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, वर्तिका नंदा, पंकज कुमार चौधरी, आर-चेतन क्रांति, रुंजय कुंदन और तजेंदर सिंह लूथरा की कविताओं का सह्दयता से किया गया आब्जर्वेशन है।
    आखिरी खंड में सिर्फ दो आलेख हैं। इसमें पहले आलेख में है हमारे अस्थिर समय में भटकाव की शिकार हिंदी कविता की वस्तुस्थिति का आकलन और उसके कारणों की शिनाख्त की गई है। आखिरी आलेख कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह की एक महत्वपूर्ण कविता ‘सूर्यग्रहण’ पर केंद्रित है। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की पृष्ठभूमि में कुमारेंद्र की कविता ‘अंधेरे में’ के वर्षों बाद रची गई और मुकुल जी इस कविता को अंधेरे में की पुनर्रचना मानते हैं। यह सिद्ध करने   की उन्होंने पर्याप्त कोशिश की है।
    कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता को समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है।