अरुण कमल की कविता ‘नए इलाके में’ जो उनके चर्चित संग्रह की पहली शीर्षक कविता भी है, में दरअसल पुराने इलाकों की ही खोज है। कभी कवि गाँव-कस्बे की ज़िंदगी को छोड़ शहर आया था। फिर शहर महानगर में तब्दील होता गया। जब तक ताकत थी कवि भी उस गति में रमा रहा, पर अब गति से तालमेल ना बैठने पर उम्र के साथ उसे फिर उसी दुनिया में लौटने की सूझ रही है, जहाँ से शहर के तिलस्म में बंधा वह निकला था। आज लौटने की कोशिश करने पर वह देखता है कि वे इलाके भी अब पुराने ना रहे। उनसे तालमेल और कठिन है। ऐसे में ‘ना खुदा ही मिला’ वाली परेशानी में फंसा कवि जार-जार स्मृत्तियों का रोना रो रहा है -
'खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढहा हुआ घर
और खाली जमीन का टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
...यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं '
कवि का महानगर के जिस सघन हिस्से में रहना होता है, वहाँ विकास उर्ध्व दिशा में एक सीमा तक होकर अवरुद्ध हो गया है। इस
जड़ता ने कवि स्वभाव को भी जड़ बना दिया है। अपनी ही उस जड़ता से ऊबा कवि नए इलाकों
में जाता है तो एक-दूसरे किस्म की जड़ता (जिसे वह स्मृति के नाम से पुकार कर एक
भ्रम पैदा करना चाहता है) को ढूंढ़ता है। रोज कुछ बनना उसे पसंद नहीं। उसे ढहा हुआ
घर चाहिए। खाली भूखंड चाहिए।
'अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो,
क्या यही है वो घर?'
कवि कोई खास घर खोज रहा है। जो खाली भूखंडों और ढहे
घरों के बीच ही पहचान में आता था। दरअसल नए मकानों के होते कब्जे को वह बर्दाश्त
नहीं कर पा रहा है। जबकि रघुवीर सहाय इस भेड़-धसान संस्कृति को खूब पहचानते थे। वे
लिखते हैं - ‘यह संस्कृति ऐसे ही बूटे-ऊँचंगे मकानों को गढ़ेगी।’ अरुण कमल इन
मकानों के अजनबीपन को न पहचान पा रहे हैं न भेद पा रहे हैं। बस बिसूर कर रह जाते
हैं वे-
'समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढहा आ रहा अकास '
स्पष्ट है कि महानगरीय जीवन के आदी कवि को देर तक
खोजना भारी पड़ रहा है। और पानी चला आ रहा है। हालाँकि घर बेशुमार हैं, पर उनसे उसका कोई संबंध नहीं है। नए
विकास को वह स्मृत्ति के नाम पर खारिज कर देना चाहता है। नए विकास की अपनी नयी
स्मृत्तियाँ होंगी ही, जिन्हें वह जानना भी नहीं चाहता।
‘शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।’ अब ऊपर
वाले पर ही भरोसा है। वही रास्ता निकाले शायद। कुल मिलाकर यही अरुण कमल की कविताओं
की पृष्ठभूमि है। एक फिजूल के भय की कृत्रिमता से पैदा हैं अधिकांश कविताएँ उनकी।
जिनमें ‘बादल के घिरने का आतंक अकास के ढहने जैसा है।’ जहाँ स्मृत्ति का मानी जड़
अविवेकपूर्ण स्थितियों से है। ए.एल. बाशम ‘अद्भुत भारत’ में लिखते हैं कि यूरोप
में साधारणतः मेघों की गरजन...अशुभ मानी जाती है। परंतु भारत के लिए वे...सौभाग्य
सूचक समझे जाते हैं। अरुण कमल अंग्रेजी शिक्षक हैं, उन पर यूरोपीय कविता के प्रभाव के रूप में भी इस भय को हम देख सकते हैं।
क्या कवि ने खुद भी कोई पीपल रोपा है कभी, आखिर विरासत के भरोसे
स्मृतियाँ कब तक साथ देंगी।
'न पाप कमाया न पुण्य ही रहा अक्षत'।
यही कवि की पीड़ा है। न पीपल रोपा, न उसे कटने-बिकने से बचा सका। और
मुक्ति भी नहीं मिली। शायद यह दुख कवि को बार-बार सालता है।
मुख्य बात यह है कि 'न खुदा ही मिला' वाले दुख को कबि इतनी बार इतनी तरह
से लिखता है कि पूरा संग्रह रूदन का कोष बनकर रह जाता है। अच्छी कविता की बाबत कहा
जाता है कि उसे दुबारा पढ़ने की इच्छा होती है। पर एक रोआंहटी कवि को आप फिर से
रोने के लिए कह सकतें हैं क्या? इस तरह रुदन व जीवन की
निस्सारता का पारंपरिक राग संग्रह में भरा पड़ा है।
मेरा पूरा रक्त भी मरते पक्षी को नहीं दे पाएगा जीवन
कोई छुपा होगा दरवाजे के पीछे
मैं लौहूँगा और वह घूमेगा
कौन सुनेगा मेरी पुकार इतनी दूर
अब पाठक क्या करें- मनोविकार से ग्रस्त इस भय के
ग्राह से ग्रसित गज की मुक्ति के लिए नारायण से प्रार्थना करें। खुद को स्थावर
(जड़) बनाते इस भय को कवि अच्छी तरह पहचानता भी है 'स्थावर' कविता की पंक्तियाँ देखें-
बहुत दिन से एक जगह पड़ी हुई ईंट हूँ मैं
जिसे उठाओ तो निकलेंगी बिलखती चीटियाँ
और कुछ दूब चारों ओर
हरी पीली।
आखिर जीवन तो है। भय से जड़ हुए कवि की पीठ को
कुरेदती दूब तो है। पर वह नहीं चाहता कि कोई उसकी जड़ता तोड़े। बहाना बिलखती
चींटियों का है। आंतक रघुवीर सहाय के यहाँ भी काफी है पर यह थोथा भय नहीं है-
क्या मैं भी पूरा का पूरा
बेकाम हो जाऊँगा बीच राह
गिरा जूते का तल्ला
'भय' शीर्षक
कविता में वे लिखते हैं-
बंद रहा पिंजड़े में इतने दिन
कि उठूं भी अगर तो
भय है
फड़के एक पंख दूसरा हिले भी नहीं
कवि के निवास पर हमेशा बित्ते-भर के पिंजड़े में
लटकता तोता नज़र आता था पहले। कवि ने अच्छा पहचाना है। इस महानगरीय सुभीते की एक
कृत्रिम सुख के नाम पर तैयार किए गए घेरे वाली जिंदगी में शरीर की हालत ठीक ही
बेजान हो जाती है। रूसी प्राणीविद फेन्तेयेव ने एक प्रयोग के बारे में लिखा था कि
एक बार यह देखने की कोशिश की गई कि लगातार वर्षों तक एक घेरे में बंद जीवों को
अचानक खुले में छोड़ देने पर उन्हें कैसा अनुभव होगा? एक खरगोश को, जो
बरसों से एक कटघरे में बंद था एक खुले मैदान में ला छोड़ा गया। पहले उसकी आँखें
चमकीं। उसने एक उछाल भरी और जमीन पर पसर गया। जाँचा गया, तो
वह मर चुका था। एक उल्लू और भेड़िए के साथ भी ऐसा ही हुआ। अच्छा है कि कवि ने इसे
पहचान लिया। अगर अब भी वह इस पिंजड़े को तोड़ सका तो बच सकेगा।
भय के साथ अपनी असफलताओं से भी डरा हुआ है कवि। इस
बुरी तरह कि वह उसे अपनी नियति मान लेता है-
छीलता गया पेंसिल
कि अंत में हासिल रहा ठूंठ
ये स्थितियाँ इस तरह काबिज हैं कवि पर कि हर घटना में
वह भय को ही देखता है। और जहाँ वह नहीं होता, वहाँ वह उसका इंतजार करता है।
सामने बैठे यात्री ने लौंग बढ़ाई
तो हाथ मेरा एक बार हिचका
ऐसे ही तो खिला-पिला लूट लेते हैं
...
एक बार उसे गौर से देखा
उसका चश्मा घड़ी और चप्पल जिसका
नथुना टूटा था
और शुक्रिया कह कर ले ली लौंग
पर इतना पूछ लिया- कहाँ जाएँगे? किस मोहल्ले?
उसके बाद भी देर तक करता रहा इंतज़ार बेहोशी का
इन पंक्तियों को पढ़ते एक कथा याद आती है। इस रूदनाभ चर्चा में उससे कुछ रंग आ जाए शायद, हँसी का। एक जंगल से गुजरते एक यात्री को अपने बाएँ-दाएँ बाघ
और अजगर से भेंट हो गई। दोनों उसी की ओर मुँह फाड़े बढ़े आ रहे थे। वे जब निकट आ
गए, तो यात्री ने डरकर आँखें बंद कर लीं
और हमले का इंतजार करता रहा। पर कुछ हुआ नहीं, तो उसने आँखें
खोलीं। सामने अजगर और बाघ एक-दूसरे से जूझ रहे थे। कवि का भय का इंतजार भी कुछ
ऐसा ही है। कवि मानता है कि वह खुद एक अच्छा अदमी है, फिर उसे डर है कि वह मारा जाएगा।
मैंने हरदम अच्छा बर्ताव किया
न किसी का बुरा ताका न कभी कुछ चाहा
और अब अचानक मैं मारा जाऊँगा
यहाँ मैं बताना चाहूँगा कि अच्छे आदमी की और भी
परिभाषाएँ हैं। उनमें एक शायद ब्रेख्त की है कि- 'अच्छा आदमी वह है जिसे देख दुष्ट कॉपे और भले आदमी खुश हों।' पर इस तरह का आदमी बनने लिए थोड़ी हिम्मत की जरूरत होती है। केदारनाथ
सिंह ने लिखा भी है कि साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द। अरुणजी का भय ऐसा ही
है, जो उन्हें मार रहा है बार-बार। उन्हें अपने पड़ोसी कवि आलोक धन्वा की कविता 'पतंग' फिर से
पढ़नी चाहिए, जिसमें वे बच्चों के बारे में कहते हैं कि- 'अगर वे छतों के खतरनाक किनारों से गिर जाते हैं और बच जाते हैं, तो और भी मजबूत होकर सामने आते हैं।' कहाँ आलोक का
गालिबाना अंदाज़ेबयाँ और कहाँ अरुणजी का बिसूरना-
टिकट पर जीभ फिराते डर लगा
क्या पता गोंद में जहर हो
सोवियत संघ के पतन के बाद जो विचारहीनता का दौर चला
है लगता है कवि भी इसका शिकार है। तभी वह लगातार अनिर्णयों के अरण्य में फँसता जा
रहा है। कभी राजकमल चौधरी ने लिखा था- 'पूरा का पूरा जीवन युद्ध मैंने गलत जिया'। आज अरुण
कमल उससे आगे बढ़कर लिख रहे हैं कि पूरा जीवन युद्ध मैं गलत मरा। वे लिखते हैं-
लगता है कभी-कभी
हमने प्रश्न ही तो किए केवल
उत्तर एक भी न दिए
हर जगह डाली नींव
मकान एक भी खड़ा न किया-
क्या कहते हो, शुरू से गलत था
मकान का नक्शा ?
संग्रह की आधी से अधिक कविताएँ भय की ऐसी ही भीतियों
की अभिव्यक्तियाँ हैं। बाकी कुछ अन्य कविताएँ भी हैं। उनके बारे में 'अपनी केवल धार' से
'सबूत' तक काफी लोगों ने लिखा है। उसकी
कुछ कड़ियाँ यहाँ भी मौजूद हैं। पर जो नया विकास है कवि का, यह
भय ही है। जिस पर यह आलेख केंद्रित रहा। यूँ तो पहले ही अरुण जी ने मान लिया था कि
सारा लोहा उन लोगों का है- पर तब धार अपनी थी। भय की मार ने यह धार भी भोंथड़ा दी
है। सवाल है कि उस भोथड़े लोहे का होगा क्या? जवाब कवि के
शब्दों में ही-
अन्न उगा न सकूँ तो क्या
सूखते धान के पास बैठ कौआ तो हाँकूँगा
यहाँ अनायास वीरेन डंगवाल याद आते हैं-
इतने भोले भी न बन जाना साथी
कि जैसे सर्कस का हाथी ।
आलेख का एक हिस्सा ‘पाखी’ में प्रकाशित