रविवार, 25 जनवरी 2009

जनसत्‍ता - अखबार की भाषा - कुमार मुकुल

बाजार के दबाव में आज मीडिया की भाषा किस हद तक नकली हो गयी है इसे अगर देखना हो तो हम आज के अखबार उठा कर देख सकते हैं। उदाहरण के लिए कल तक भाषा के मायने में एक मानदंड के रूप में जाने जाने वाले अखबार जनसत्ता केा ही लें। हमारे सामने 17 जनवरी 2009 का जनसत्ता है।
इसमें पहले पन्ने पर ही एक खबर की हेडिंग है- झारखंड के राज्यपाल की प्रेदश में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश। आगे लिखा है- झारखंड के राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी के प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा करने के बाद राज्य में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन की ओर बढ गया है। चुस्त हेडिंग होती - झारखंड में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश। नीचे आप विस्तार से लिख ही रहे हैं। झारखंड लिखने के बाद हेडिंग में प्रदेश में लिखने की कौन सी मजबूरी थी। राज्य में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन की ओर बढ गया है , यह कौन सी भाषा है मेरे भाई।
इसी तरह पहले पन्ने पर एक खबर की हेडिंग है- चीन के अवाम तिब्बत की स्वायत्तता के पक्ष में। आगे लिखा है चीन के अवाम तिब्बत की स्वायत्तता के पक्ष में है...। यहां अगर के अवाम बहुबचन हुआ तब पक्ष में है की जगह पक्ष में हैं होगा, यूं सही प्रयोग होगा चीन की अवाम या फिर चीन की जनता इससे भी बेहतर होगा चीनी जनता। पर चमत्कार पैदा करने के लिए आप अवाम लिखेंगे चाहे लिखना आए या ना आए। आप चीनी जन लिखते इसकी जगह।
अब जरा संपादकीय पन्ने पर आएं। पहले संपादकीय की पहली पंक्ति है- मुंबई हमले से जुडे सबूतों के मददेनजर पाकिस्तान की तरफ से उठाया गया यह पहला सकारात्मक कदम है। भारत की ओर से सौंपे गए इन सबूतों पर काफी समय तक पाकिस्तान का रवैया टालमटोल का बना रहा। अब यहां पहली पंक्ति में यह और इन का जो प्रयोग है वह दर्शाता है कि संपादकीय लिखने वाले यह मान कर चल रहे हैं कि पाठक को सारी जानकारी है और यह और इन जैसे शब्दों से काम चलाया जा सकता है। अरे भाई साहब आप संक्षेप में ही कुछ तथ्य दें ऐसे शब्दों की जगह तो भला हो। संपादकी की हेडिंग है- पाकिस्तान की पहल। तो पहली पंक्ति इस तरह लिखी जा सकती थी- मुंबई हमले से जुडे सबूतों के मददेनजर पाकिस्तान की पहल एक सकारात्मक कदम है।
इसी तरह संपादकीय पन्ने पर दुनिया मेरे आगे में किन्ही श्रीभगवान सिंह ने ये भी इंसान हैं शीर्षक से लिखा है। इतनी बकवास भाषा आज तक मैंने कहीं नहीं पढी थी, भईया इसे एडिट तो कर सकते थे। पहला पैरा देखें- छठ व्रत का उपवास न करने के बावजूद हम पति-पित्न प्रति वर्ष यह उत्सव देखने गंगा के घाट पर पहुंच जाते हैं। बीते साल भी हम उगते सूर्य को छठव्रतियों द्वारा अध्र्य दिए जाने का दृश्य देखने के लिए सबेरे घाट पर पहुंच गए थे। भागलपुर के कालीघाट पर गंगा के पानी तक जाने के लिए बनी सीिढयों के उूपरी हिस्से में पुलिस के जवान मुस्तैदी से तैनात थे। हम भी उस सुविधाजनक स्थान पर पुलिस वालों के बगल में खडे होकर सूयोर्दय का इंतजार करने लगे। व्रत करने में स्त्रियों की संख्या अधिक रहती है...। इस पैरे में जो शब्द बोल्ड किए गए हैं उन्हें हटाकर आप पढें तो भी कोई अंतर नहीं पडता। इस तरह शब्दों की फिजूलखर्ची के क्या मायने, यह छोटा सा कालम है आप एक पैरा चुस्त भाषा नहीं लिख सकते। जब पहली पंक्ति में लिख ही दिया कि प्रति वर्ष जाते हैं तो फिर दुबारे यह लिखने की क्या जरूरत थी कि बीते साल भी हम ...। आप विवरण इस साल का दे रहे हैं हजूर।
इसी तरह संपादकीय के बाद वाले पन्ने पर एक साप्ताहिक कालम आता है - राजपाट। इसकी भाषा तो सुभानअल्लाह क्या कहने , नमूना है। इसके लेखक कौन हैं यह जाहिर नहीं है। पर यह मान कर लिखा जाता है कि पाठक सब खुद समझ लेगा या वह सुधार कर पढ लेगा। पहली ही पंक्ति है- लगता है कि लालजी के ग्रह नक्षत्र ठीक नहीं...। पूरा पैरा पढ जाने पर अंत में पता चलता है कि यह लालजी, आडवाणीजी के लिए लिखा गया है। इस कालम की हर पंक्ति उल्टी सी लगती है। जैसै- शिमला की सीट पर ताकत झोंक रहे हैं अब धूमल। पिछले 32 साल से लगातार हारती आ रही है भाजपा शिमला लोकसभा सीट। पहली बार शहर के रिज मैदान पर जोरदार रैली करा दी लालकृष्ण आडवाणी की मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने। ... भाजपा ने निगाह टिका दी है महेश्वर सिंह को संभावित उम्मदीवार मानकर यहां।...उनके समर्थकों ने पटना में पत्रकारों को बुला लालू की तरफ से उन्हें चूडा-दही खिलाया बुधवार को। ... राजपाट छिन गया तो और अखरने लगा है लाट साहब का बर्ताव भाजपा को। ... अशोक गहलोत की रंगत दिखने लगी है। राजस्थान के मुख्यमंत्री शासन को जादुई अंदाज में सुधारने की कोशिश में जुटे हैं। ...
इसी तरह तीसरे पन्ने पर पांच कालम की खबर की पहली पंक्ति है - परीक्षाओं के समय हर समय किताबों में चिपके रहने के बजाय अगर आप तनाव मुक्त रहकर अध्ययन करेंगे तो नतीजे ज्यादा बेहतर होंगे। यहां हर समय वही जाहिर कर रहा है जो किताबों से चिपके रहना जाहिर करता है। किताबों में की जगह किताबों से चिपके रहना बेहतर प्रयोग है।
मजेदार है कि खेल आदि के पन्नों पर इस तरह की गलतियां नहीं हैं जहां भाषा के खिलाडियों को तैनात किया गया है अपनी कीमियागिरी दिखाने के लिए वहीं भाषा ज्यादा असंतुलित है। मतलब इन खिलाडियों के पास अपना नजरिया नहीं है और ये बेहतर बनाने के फेरे में सारा कूडा कर दे रहे हैं। यह तो थी एक दिन के अखबार की रपट। अब ऐसे अखबार के पाठकों की क्या हालत होती होगी वे ही जानें। क्या वे पत्र नहीं लिखते। इतने साहित्यकार इस अखबार में लिखते हैं, क्या वे यह अखबार खुद नहीं पढते , बस अपना आर्टिकल पढते हैं वे। लगता तो ऐसा ही है।

बुधवार, 21 जनवरी 2009

थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ-बेस्‍टसेलर बनाने के नुस्‍खे- कुमार मुकुल


थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ युवा भारतीय लेखक चेतन भगत का तीसरा बेस्टसेलर अंग्रेजी उपन्यास है। यह उपन्यास भारतीय युवा वर्ग की वर्तमान मन: स्थितियों को बारीकी से प्रस्तुत करता है। उपन्यास के केन्द्र में व्यवसाय प्रधान राज्य गुजरात का एक व्यवसायोन्मुख युवक गोविन्द है। आत्महत्या की कोशिशों के बाद बच जाने वाला यह युवक चेतन भगत को अपनी त्रासद कथा सुनाता है, जिसमें तीन घटनाओं में अपनी भागीदारी को वह तीन गलतियों के रूप में चिन्हित करता है। पहली गलती के रूप में धीरे-धीरे जम रहे व्यवसाय को ऊँचे मकाम पर ले जाने के लिए लगाई गई छलाँग को रेखांकित किया जाता है? तो दूसरी गलती के रूप में युवा प्रेमियों में सेक्स के लिए बेताबी के रूप में युवा प्रेमियों में सेक्स के लिए बेताबी से पैदा मुश्किलातों को देखा गया है तीसरी गलती में समय पर एक जरूरी फैसला ना ले पाने से हुई जीवन की हानि को दिखाया जाता है।
युवा मनोविज्ञान की अच्छी समझ है चेतन को, जो संवादों में अपनी बारीकी के साथ अभिव्यक्त होता है। 21वीं सदी का निम्न मध्यवर्गीय युवा किन कठिनाइयों से रोज दो-चार होता है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कैसी-कैसी हिकमतें आजमाता है और जब उसकी गाडी जरा-सी लाइन पर आती दिखती है कि व्यवस्थाजन्य उत्पात कैसे उसे मरनांतक पीड़ा पहुँचाते हुए नष्ट कर देते हैं। इसका उदाहरण है ओमी-ईशान-गोविन्द की तिकड़ी और विद्या एक चौथा कोण है,जीवन की जिदों के प्रतीक-सी वह जिन्दा रंग भरती है उपन्यास के वीरान सफों में और सबसे ऊपर है क्रिकेटर अली।
भारतीय मानस के हिसाब से चेतन ने सही नाम दिया है उपन्यास को, थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ। पर इसका नाम क्रिकेटर अली भी रखा जा सकता था। बारह साल के इस बच्चे की नीली आँखें जहाँ से इस उपन्यास में चमकनी शुरू होती हैं वहाँ से सारी कथा पीछे छूट जाती है ओर कहानी का एकमात्रा लक्ष्य रह जाता है,इस नन्हे अली को महान् क्रिकेटर बनाने की कथा नायकों की समवेत इच्छा और उनकी अविराम कोशिशें जिसे दंगे की घृणित आग भी जला नहीं पाती। हो क्यों नहीं, अली तो अली है,एक निर्णयक मकाम पर जब अली से अस्ट्रेलिया की नागरिकता स्वीकारने की बाबत पूछा जाता है तो वह साफ इनकार करता हुआ कहता है कि सौ जन्म बाद भी वह एक भारतीय क्रिकेटर के रूप में ही जीवित रहना पसन्द करेगा।
अली चेतन का आदर्श चरित्रा है? इस चरित्रा के अंकन में चेतन उस अंधता तक जाते हैं जिस तक कोई भी आदर्शवादी लेखक अपनी सच्ची जिद में जा पहुँचता है,इसीलिए यह सम्भव हो पाता है कि अली सा मात्र बारह-तेरह साल का लड़का देशभक्ति का जज्बा जिस तरह दर्शाता है वह सामान्य नहीं लगता। इस तरह का जज्बा उपन्यास के अन्य चरित्रों पर फबता। पर देशभक्ति के आदर्श की यही सीमा भी होती है कि अक्सर वह कच्चे दिमागों में अपनी जडें जमाता है और देश को जनसमूह के रूप में देखने की बजाय एक ईकाई के रूप में देखने लगता है,जैसे एक व्यक्ति के महान् क्रिकेटर बनने में ही जैसे मुल्क का भविष्य छिपा हो। इस तरह देखें तो इस उपन्यास का सबसे प्रभावी हिस्सा छोटी उम्र की कोरी भावुकता को ही तरजीह देता है,जैसे कि बाकी तीन समस्याग्रस्त युवकों का भविष्य यह कोरी भावुक जिद ही तय कर देगी? क्योंकि असली भारत चेतन के ये तीन युवा ही बनाते हैं,और अली चाहे जितने छक्के लगा ले वह इस युवा वर्ग को उनके संकटों के पार नहीं ले जा सकता। इस तरह यह उपन्यास उसी मानसिकता को विज्ञाप्ति करता है जिसे रोज ब रोज के हमारे समाचार पत्रा व चैनल करते हैं जो क्रिकेट को दो देशों की बीच एक जंग के रूप में प्रचारित करते हैंµऔर इस तरह एक नकली जंग में पूरे मुल्क को मुिब्तला रखकर युवा वर्ग को उसके अपने संकटों को दूर करने के सही प्रयासों से भटकाता है।
इन तथ्यों के आलोक में देखें तो लगता है जैसे चेतन एक उपन्यास को बेस्टसेलर बनाने के तमाम गुरों का इस्तेमाल एक ही उपन्यास में कर जाते हैं, व्यवसायी वर्ग,दंगा-क्रिकेट-राष्ट्रवादी और सेकुलर पार्टियों के झगडे,प्रेम व सेक्स के अंतरंग दृश्य, कुल मिलाकर चेतन भारतीय बेस्ट सेलर्स गुलशन नंदा से लेकर धर्मवीर भारती तक ऐसे लेखकों को काफी पीछे छोड़ देते हैं? हिन्दी के उपन्यासों के बरक्स देखा जाए तो वे गुनाहों का देवता और मुझे चांद चाहिए के मध्य जगह बनाते दिखते हैं। हालाँकि विवरण की बारीकियां चेतन को इन दोनों से अलग पहचान देती हैं पर जहां तक जीवन दृष्टि का सवाल है वह मुझे चांद चाहिए में ज्यादा समर्थ ढंग से अभिव्यक्त होती है।
चेतन के इस उपन्यास पर फिल्म बनने जा रही है। उपन्यास का अन्तिम हिस्सा एक फिल्म की तरह तेजी से घटता है। उसमें कल्पना का प्रयोग अविश्वसनीयता की हद तक किया जाता है। दंगाई भीड़ से जिस तरह तीनों युवा निपटते हैं वह विश्वसनीय नहीं बन पाया है। पर फिल्मों में कुछ भी संभव होता है। इस तरह चेतन उपन्यास के अंत में पटकथा लिखने लगते है। शायद व्यवसायी दिमाग की उपज है यह। अन्त में अली के शाट्स से जिस तरह मुख्य दंगाई मारा जाता है वह उपन्यासकार की व्यवसाय की प्रतिभा का प्रमाण है। चेतन के उपन्यास इस तरह हिन्दी को एक नया पाठक वर्ग भी देंगे। जैसा कि सभी लोकप्रिय रचनाकार देते हैं। उनकी तीनों पुस्तकों के हिन्दी में अनुवाद हो भी चुके हैं? यूँ हिन्दी के युवा रचनाकार चेतन से बहुत-सी बातें सीख सकते हैं,खासकर अपने परिवेश को व अन्तर्मन की बुनावट को अभिव्यक्त करने की उनकी कला?
उपन्यास का केन्द्रीय पात्रा अली हाईपर-रिपलैक्स नामक एक मनोरोग से ग्रस्त है और चिकित्सकों का मानना है कि इस बीमारी की वजह से ही अली एक ओवर की शुरू की चार गेंदों पर लगातार छक्के मारने का करतब दिखा पाता है। मनोरोग के साथ जीवन में आगे बढ़ाने की कला भी अली से सीखी जा सकती है। रिपलैक्स एक्शन में दिमाग सोचने की शक्ति और क्रिया को खत्म कर देता है। वह केवल बचाव कर सकता है...इसलिए प्रतिउत्तर का समय बहुत तेज होता है। इस क्षमता का प्रयोग कर अली बॉल की तेजी की पहचान कर उतनी ही तेजी से जवाब दे पाता है?
अपनी कमजोरियों को सकारात्मक तरीके से जानकर उनका सही उपयोग करने की कला ही जीवन की कला है। अली के चरित्रा के द्वारा चेतन इसी बात को सामने रखते हैं। उपन्यास के अन्त में अली की इसी क्षमता का चमत्कारिक ढंग से प्रयोग कराकर उपन्यासकार अपनी कहानी को एक सुखद अन्त की ओर ले जा पाता है।
प्यार के निहिताथों को भी चेतन सही ढंग से पहचानते हैं। कि प्यार साधारण जीवन स्थितियों को भी अपने सहज स्पर्श से असाधारण बना देता है। विद्या और गोविन्द के प्रेम प्रसंग इसे उचित ढंग से अभिव्यक्त कर पाते हैं। गोविन्द जब आस्ट्रेलिया जाता है तो वहाँ फोन कर पूछता है कि उसे गिफ्ट के रूप में क्या चाहिए,गोविन्द की गरीबी का ध्यान है विद्या को, सो वह कहती है कि वह समुन्दर किनारे की रेत लेता आए थोड़ी-सी। गोविन्द माचिस में रेत डालकर भारत लाता है तो उसे प्रेम से उटकेरती विद्या देखती है कि रेत में सीपी है एक। फिर वह कहती है,यह ठीक है क्योंकि जीवन के सबसे बेहतरीन तोहफे मुफ्त हैं।
यहाँ महत्त्वपूर्ण बस यह है कि एक ओर जहाँ चेतन प्रेम जैसे बहुआयामी ध्वनि वाले शब्द को उसकी ताकत के साथ अभिव्यक्त कर बाजारवाद से जूझते दिखते हैं वहीं विद्या,गोविन्द के प्रणय के अतिरिक्त दृश्य यह साबित करते हैं कि वे सतर्कता से बाजार के नुस्खों का ध्यान रखते हैं? क्योंकि पढ़ाई के वक्त प्रेमी शिक्षक और छात्रा जिस कदर यौन क्रिया में मशगूल दिखाए जाते हैं वह सहज नहीं है। और इसके परिणाम भी सही नहीं आते इसे चेतन दूसरी गलती के रूप देखते भी हैं। पर मुझे लगता है यह उपन्यासकार की एकमात्रा गलती है कि वह उपन्यास को फामूर्लाबाजी की हदों में जाने से नहीं बचा पाते। उपन्यास के अन्त में दंगे के दृश्यों को फिल्मी बनाते से चेतन यह गलती दुहराते हैं।