मंगलवार, 11 अगस्त 2020

शब्‍द और ध्‍वनि की नयी छटाएं - जोशना की कविताएं

हे देव
मैं अपने माता पिता की
सेवा ना कर सकी
मुझे ठंडी ओस बना दो
मै गिरूँ वृद्धाश्रम के आँगन की
गीली घास पर
वे रखें मुझपर पाँव और मैं
उन्हे स्वस्थ रखूँ
कुछ युवा रचनाकार जो हिंदी कविता में शब्‍द और ध्‍वनि की नयी नयी छटाओं से अपना ध्‍यान खींच रहे हैं उनमें  डॉ. जोशना बैनर्जी आडवानी एक हैं। कवियों में सदाकांक्षाओं का होना सहज है। अपनी इन सदाकांक्षाओं को जब जोशना स्‍वर देती हैं तो शब्‍दावली से नवजीवन फूट सा पड़ता है और उनका उदात्‍त स्‍वर हमें बांधता हुआ धैर्य प्रदान करता है। अपने भीतर पैदा होते दुख व त्रास की भी संघनित अभिव्‍यक्ति‍ कर पाती हैं वे।

डॉ. जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएं


अंतयेष्टि से पूर्व ....

हे देव
मुझे बिजलियाँ, अँधेरे और साँप
डरा देते हैं
मुझे घने जंगल की नागरिकता दो
मेरे डर को मित्रता करनी होगी
दहशत से
रहना होगा बलिष्ठ

हे देव
मैने एक जगह रूक वर्षो 
आराम किया है
मुझे वायु बना दो
मै कृषकपुत्रो के गीले बनियानों
और रोमछिद्रों में
समर्पित करूँ खुद को

हे देव
मैं अपने माता पिता की 
सेवा ना कर सकी
मुझे ठंडी ओस बना दो
मै गिरूँ वृद्धाश्रम के आँगन की
गीली घास पर
वे रखें मुझपर पाँव और मैं
उन्हे स्वस्थ रखूँ

हे देव
मैं कभी सावन में झूली नही
मुझे झूले की मज़बूत गाँठ बना दो
उन सभी स्त्रियों और बच्चों को
सुरक्षित रखूँ
जो पटके पर खिलखिलाते हुये बैठे
और उतरे तो तृप्त हो

हे देव
कुछ लोगो ने छला है मुझे
मुझे वटवृक्ष बना दो
सैकड़ों पक्षी मेरे भरोसे
भोर मे भरें उड़ान और रात भर करें
मुझमें विश्राम
मै उन्हे भरोसेमंद सुरक्षित नींद दूँ

हे देव
मेरा सब्र एक अमीर
नवजात शिशु है
हर क्षण देखभाल माँगता है
मुझे एक हज़ार आठ मनको
वाली रूद्राक्ष माला बना दो
मेरे सब्र को होना
होगा औघड़

हे देव
मुझे चिठ्ठियों का इंतज़ार रहता है
मुझे घाटी के प्रहरियों की पत्नियों
का दूत बना दो
उन्हे भी होता होगा संदेसों
का मोह
मैं दिलासा दे उन्हे व्योम
कर सकूँ

हे देव
मैनें सवालों के बीज बोये
वे कभी फूल बन ना खिल सके
मुझे भूरी संदली मिट्टी बना दो
मै तपकर और भीगकर
उगाऊँ 
सैकड़ों खलिहान

हे देव
मै धरती और सितारों के बीच
बेहद बौनी लगती हूँ
मुझे ऊँचा पहाड़ बना दो
मै बादल के फाहों पर
आकृतियाँ बना उन्हे
मनचाहा आकार दूँ

हे देव
मै अपनी पकड़ से फिसल कर
नहीं रच पाती कोई दंतवंती कथा
मुझे काँटेदार रास्ता बना दो
मेरे तलवों को दरकार है
टीस और मवाद के ठहराव की
अनुभव लिखने को

हे देव
चिकने फर्श पर मेरे 
पैर फिसलते हैं
मुझे छिले हुये पंजे दो
मेरे पंजों के छापे 
सबको चौराहों का 
 संकेत दें और करें
उनका मार्गदर्शन

हे देव
मेरे आँसू 
बहने को तत्पर रहते हैं
मुझे मरूस्थल बना दो
वीरानियों और सूखी धरा को
ये हक है कि वे मेरे अश्रुओं
को दास बना लें

हे देव
प्रेम मेरी नब्ज़ पकड़
मेरी तरंगे नापता है
मुझे बोधिसत्व   बना दो
त्याग मेरा कर्म हो
मुझे अस्वीकार की 
स्वतन्त्रता चाहिये

हे देव
मेरे कुछ सपने अधूरे रह गये हैं
मुझे संभव और असंभव के बीच
की दूरी बना दो
मै पथिकों का बल बनूँ
उनकी राह की 
बनूँ जीवनगाथा

हे देव
मैने अब तक पुलों पर सफर किया है
मुझे तैराक बना दो
मैं हर शहरी बच्चे को तैराकी
सिखा सकूँ
शहर के पुल बेहद
कमज़ोर हैं

हे देव
मेरे बहुत से दिवस बाँझ रहे हैं
मुझे गर्भवती बना दो
मेरी कोख से जन्मे कोई इस्पात
जो ढले और गले केवल
संरक्षण करने को
सभ्यताओं को जोड़े रखे

हे देव
मैं अपनी कविताओं की किताब
ना छपवा सकी
मुझे स्याही बना दो
मै समस्त कवियों की
लेखनी में जा घुलूँ
और रचूँ इतिहास

🌺

बू....

मैने एक जगह रूक के डेरा डाला
मैने चाँद सितारो को देखा
मैने जगह बदल दी
मैने दिशाओं को जाना
मै अब खानाबदोश हूँ
मै नखलिस्तानो के ठिकाने जानती हूँ
मै अब प्यासी नहीं रहती
मैने सीखा कि एक चलती हुई चीटी एक उँघते हुये
बैल से जीत सकती है
मुझे बंद दीवारों से बू आती है

मै सोई
मैने सपना देखा कि जीवन एक सुगंधित घाटी है
मै जगी
मैने पाया जीवन काँटों की खेती है
मैने कर्म किया और पाया कि उन्ही काँटो ने
मेरा गंदा खून निकाल दिया
मैने स्वस्थ रहने का रहस्य जाना
मुझे आरामदायक सपनों से बू आती है

मै दुखी हुई
लोगों ने सांत्वना दी और बाद में हँसे
मै रोई
लोगो ने सौ बातें बनाई
मैने कविता लिखी
लोगों ने तारीफे की
मेरे दुख और आँसू छिप गये
मै जान गई कि लोगों को दुखों के कलात्मक
ढाँचे आकर्षित करते हैं
मुझे आँसुओं से बू आती है

मैने बातूनियों के साथ समय बिताया
मैने शांत रहना सीखा
मैने कायरों के साथ यात्रा की
मैने जाना कि किन चीज़ों से नहीं डरना
मैने संगीत सुना
मैने अपने आस पास के अंनत को भर लिया
मै एकाकीपन में अब झूम सकती हूँ
मुझे खुद के ही भ्रम से बू आती है

मैने अपने बच्चों को सर्कस दिखाया
मुझे जानवर बेहद बेबस लगे
मैने बच्चो से बातें की
उनकी महत्वकांक्षाओं की लपट ऊँची थी
मैने उन्हे अजायबगर और पुस्तकालय में छोड़ दिया
अब वे मुझे अचम्भित करते हैं
मैने जाना कि बच्चों के साथ पहला कदम ही
आधी यात्रा है
मुझे प्रतिस्पर्धाओं से बू आती है

मुझे दोस्तो ने शराब पिलाई
मैने नक्सली भावों से खुद को भर लिया
मैने जलसे देखे
मैने अपना अनमोल समय व्यर्थ किया
मै खुद ही मंच पर चढ़ गई
मेरे दोस्त मुझपर गर्व करते हैं
मैने जाना कि सम्राट सदैव पुरूष नहीं होते
मुझे खुद की आदतों से बू आती है

मुझे कठिनाईयाँ मिलीं
मैने मुँह फेर लिया
मैने आलस बन आसान डगर चुनी
मुझे सुकून ना मिला
मैने कठिनाईयों पर शासन किया
मेरी मेहनत अजरता को प्राप्त हुई
मैने देखा कठिनाई अब भूत बन मेरे
पीछे नही भागती
मुझे बैठे हुये लोगों से बू आती है

मैने प्रेम किया
मैने दारूण दुख भोगा
मैने अपने प्रेमी को दूसरी औरतों से अंतरंगी
बातें करते देखा
मै जलती रही रात भर
मैने प्रेम को विसर्जित कर दिया
प्रेम ईश्वर के कारखाने का एक मुद्रणदोष है
प्रेम कुष्ठ रोग और तपैदिक से भी भयंकर
एक दिमागी बीमारी है
मुझे उस पल से बू आती है
जब मैने प्रेम किया
🌺

तफरी....

जीवन के सबसे कठिनतम और सबसे क्रूर समय में 
क्या किया
कुछ खास नहीं
बस कुछ  अक्खड़ कविताऐं लिखीं

छाती को किसी तरह समझाया कि जो धँसा हुआ है वह साँस लेता रहेगा
कुछ खास नहीं
बस श्रृंगार कर के आरसी में खुद को निहारा

ऊँचे आकाश को ताकते वक्त मन में क्या करने की कसके ठानी
कुछ खास नहीं
यही कि यात्राओं के लिये पैसा इकठ्ठा करूँ

सूरज की पहली किरण और चिड़ियों की पहली उड़ान देखकर क्या किया
कुछ खास नहीं
नौकरी पर समय से पहले पहुँची

सही समय पर बोनस ना मिलने पर कैसे चीज़ों का बंदोबस्त किया 
कुछ खास नहीं
बच्चों को पंचतन्त्र की कहानियाँ सुनाईं

प्रेम मे हारन पर ऐसा क्या किया जिससे
जीवन जीने लायक बना
कुछ खास नहीं
शाम के वक्त एक पार्ट टाईम जॉब कर ली

देह के सबसे भारी अंग का क्या किया जो तुमसे ढोया नहीं गया
कुछ खास नही
वृद्धआश्रम के बाहर चहलकदमी की

सोचे गये दिये उत्तर में और बिना सोचे गये दिये उत्तर में कैसे अन्तर किया
कुछ खास नही
सोचे गये दिये उत्तर में प्रेम नहीं मिला


🌺

मेरा अहम ....


मेरे हृदय मे आ बसी हैं जाने कितनी ही शकुंतलाएं
जाने कितने ही दुर्वासाओं का वास है हमारे बीच

मुझे अपनी वेदना के चीत्कार के लिए अपना कमरा
नहीं एक बुग्याल चाहिए
चाहिए एक नदी, एक चप्पू चाहिए

कोई देवालय मेरे प्रेयस से पवित्र नहीं
कोई धूप मेरी प्रेमकविता से गुनगुनी नहीं

हे जनसमूह हे नगरपिता
तुम मेरे अन्दर से तो निकाल सकते हो कविता
पर उस प्रेमकविता से मुझे बाहर नहीं निकाल सकते

🌺

जीवन संगीत ....

मैंने जीवन का सबसे पहला संगीत तुम्हीं 
से सीखा है प्रिये

जैसे सीखता है शिशु जन्म लेने से ठीक पहले गर्भ में
 कई त्वचाओं के पीछे खुद को स्थापित करना
जैसे सीखती है नन्ही पत्ती हवा के झोंके से डाली 
पर लहराने से ठीक पहले तनकर सांस लेना
जैसे सीखता है बाज़ का बच्चा उड़ने से ठीक पहले
अपने पिता द्वारा आकाश से ज़मीन पर छोड़ दिये
जाने पर गिरने से पहले संभलने की कला

वे सारे गीत जो तुमने मुझे समर्पित किये हैं
वे दे रहें हैं मुझे गति, चला रहे हैं मुझे,
दे रहे हैं मुझे श्वास 
वे मेरी धरोहर हैं
वे आधुनिक प्रेम की तरह मायावी नहीं
जो कहे मैं गीता पर हाथ रख कर शपथ
लेता हूँ जो भी कहूँगा सच कहूँगा सच के
सिवा कुछ ना कहूँगा ....
और फिर करे छल

वे मेरी अन्तिम श्वास के साथी हैं
मेरे शव के कांधी हैं
तुम्हारे समर्पित किये हुये गीत




परिचय
प्रधानाचार्या,
स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल, 
आगरा
 jyotsnaadwani33@gmail.com

सोमवार, 10 अगस्त 2020

समय के सवालों से दो-चार होती अखिलेश श्रीवास्‍तव की कविताएं

कितना भी गले लगो गड़ासे से
एक अहिंसक गला, गड़ासे का मन कभी नहीं बदल सकता !

अखिलेश श्रीवास्तव बौद्धिक मिजाक के कवि हैं और उनकी कविताएं मुझे विचार कविताएं लगती हैं। उनकी कविताओं में एक हिसाब-किताब स्‍पष्‍ट दिखता है। इस सब के बावजूद वे प्रासंगिक हैं क्‍योंकि उनकी कविताएं अपने समय के जरूरी सवालों से दो-चार होती चलती हैं और इस तरह उनका हिसाब-किताब एक जरूरी कार्रवाई की तरह दिखता है। अपने हिसाबी-किताबी होने का पता है कवि को इसलिए अन्‍य विषयों के मुकाबले जब प्रेम पर वह लिखता है तो अपने हिसाबीपन को स्‍थगित कर देता है -

शब्दों के बीच कहीं रख देता हूँ
तुम्हारा कहा कोई शब्द
तो भले ही शिल्प बिगड़ता हो
पर उस कविता से भीनी खूश्बू आती है

अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएं


गेहूँ  का अस्थि विसर्जन : 

खेतो में बालियो का महीनों 
सूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहना 
तपस्या करने जैसा है 
उसका धीरे धीरे पक जाना हैं 
तप कर सोना बन जाने जैसा ।

चोकर का गेहूँ से अलग हो जाना 
किसी ऋषि का अपनी त्वचा को
दान कर देने जैसा है ।

जलते चूल्हे में रोटी का सिकना 
गेहूँ की अंन्तेष्ठी जैसा है 
रोटी के टुकड़े को अपने मुहं में एकसार कर 
उसे उदर तक तैरा देना 
गेहूँ का गंगा में अस्थि विसर्जन जैसा है ।
इस तरह 
तुम्हारे भूख को मिटा देने की ताकत 
वह वरदान है 
जिसे गेहूँ ने एक पांव पर 
छ: महीना धूप में खडे़ होकर 
तप से अर्जित किया था सूर्य से ।

भूख से 
तुम्हारी बिलबिलाहट का खत्म हो जाना 
गेहूँ का मोक्ष है ।

इस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं हैं
कोई आवाज नहीं हैं
शांत हो तिरोहित हो जाना 
मोक्ष का एक अनिवार्य अवयव है ।

मैं बहुत वाचाल हूं 
बिना चपर चपर की आवाज निकाले
 एक रोटी तक नहीं खा सकता ।

मुजफ्फरपुर : 

देवकी नंदन खत्री के शहर में बची रह गई है अय्यारी 
शाम होते होते सफेद लिबास में लिपटे अय्यार बदल जाते हैं काले धुँएँ में 
कहकहे गूँजते हैं और 
राजा के महल में हर रात गायब हो जाती है एक लड़की !

वैसे ये लड़कियाँ अपनी पूरी उम्र गायब ही रही 
ना माँ को मिली न पिता को 
रोज खोजती रही गुमशुदगी के पोस्टर में अपना चेहरा 
पलक झपकते ही 
गुम हुई चुप्पाई लिए कस्बों से 
बीच सड़क गली गलिआरों से 
जैसे बरसात में चलते हुए गटर के खुले मैनहोल पर पड़ गया हो पांव !

कुछ प्रेम में बरगलाई गई 
कुछ रात तक मारी जाने वाली थी 
कुछ ज़हर नहीं खा पाई 
कुछ इतनी डरपोक थी कि ट्रेन से कटने जाती 
तो उसकी आवाज़ से डर जाती 
आत्महत्या के असफल प्रयासों के किस्सों से भरी हैं ये  लड़कियाँ 
सुनाती हैं तो कमरा ठहाकों से भर जाता है
कुछ इतनी अनपढ़ थी कि स्वर्ग की तलाश में अपनी देह सहित भागी 
बहुत भटकने के बाद सदेह स्वर्ग न मिलने के मिथक का पता चला 
तो हताश होकर शून्य में निहारने लगी  
नर्क के दरवाजे खुले मिले तो उसी में घुस गई !

इनकी स्मृति में जस की तस है उन मर्दों की सूरत 
जिन्होंने इन्हें पहले पहल तौला और बेच दिया 
वैश्विक मंदी के दौर में भी हाथों-हाथ बिकी ये लड़कियाँ !
तुम्हारी भाषा वज्जिका में स्त्री को धरती कहते हैं 
पर अभी हम बच्चियाँ हैं 
तुम अपने भाषा संस्कार में हमें गढ़ई कहना 
ना, ना हम बहुत गहरे धँसे है गढ़ई से 
तुम हमें कुआँ कहना 
पर हम कैसे कुएँ है 
जो खुद चलकर जाते हैं प्यासे के पास 
इस तरह भाषा से भी बहिष्कृत हैं
उसके मुहावरे हम पर लागू नहीं होते !

खादी, गांधी टोपी, भगवा चोला, सत्यमेव जयते 
सब इस घुप्प अंधेरे कमरे की खूंटी पर चढ़ते उतरते रहते हैं
जन मन गण नहीं है 
गन धन गणिकायें हैं मुजफ्फरपुर की ये लड़कियाँ 

पिता: 

पिता कभी नही गये माॅल में पिक्चर देखने 
एक बार गये भी तो 
चुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहन कर 
अंग्रेजी न आने वाली शक्ल भी साथ ले गये थे  
लिहाजा खुद पिक्चर हो गये 
कई लोगों ने उनकी हिकारती समीक्षा की 
और नही माना आदमी 
पिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।

दालान से लेकर गन्ना मिल के कांटे तक 
जो खैनी हमेशा साथ रही 
जिसे वो अशर्फी की तरह छिपा कर रखते थें 
पेट के ऊपर बनी तिकोनी जेंब में
माॅल के दुआरें पर ही छींन ली गई 
माया के इन्द्रप्रस्थ में निहत्थें ही घुसे पिता ।

फर्श उनकी पीठ से ज्यादा मुलायम था 
माटी सानने के अभ्यस्त पांव रपटने को ही थे 
कि तलाशने लगें कोई टेक 
अजीब जगह है यह
दूर दूर तक कोई आधार ही नही दिखता 
फिर खिखिआयें कि 
माॅल में बाढ़ नही आती जो 
हर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ ।

रंगीन मछलियों की तैंरन देखीं  पर  
रोहूं, मांगुर नही कर पाये 
ठंड में खोंजने लगे गुनगुनाती धूप 
हर पांच मिनट में  पोंछ ही लेते गमछे से मुंह 
पसीना कही नही था पूरे देह में 
पर उसकी आदत हर जगह थी ।

भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिता
ऐसी मंडी वो अबतक नही देख पाये थे 
भुने मक्के का दाम नही बतायेंगे किसी को 
वरना पूरा जॅवार बोने लगेगा भुट्टा ।

माॅल के अंदर का दृश्य इतना उलट था 
खेत के दृश्य से  
कि बिना स्क्रीन में गये पलट कर बाहर भागे पिता
मैंने  रोकने की कोशिश की 
पर वो उस कोशिश की तासीर समझते थे सो 
नहीं रूके ।

पिता जीवन भर खेत, खैंनी और चिन्नीं में ही रहे 
माॅल में गुजारे समय को वो अपनी उम्र में नही गिनते ।


 कवि कर्म : 

मैं खाली पड़े तसलो में 
ताजमहल की मजार देख लेता हूँ 
सरकार की चुप्पी में सुन लेता हूँ 
पूंजी की गुर्राहट ।

तुम नदी की कल-कल सुनना
मैं सुनूंगा उसमें ज़हर से गला घुटने पर 
घों-घों की आवाज़
शीशम के दरख़्त कटने पर 
एक लंबी चोंss  में
उसकी अंतिम कराह सुनता हूँ 
उस दिन कोयल की कूक में
शोक का वह पंछी गीत सुन लेता हूँ
जो बेघर होने पर गाई जाती है ।

मैं मृग के नयन बाद में देखता हूँ 
उसके पहले ही उन आंखों में
भेड़ियों का डर देख लेता हूँ

मैं देख लेता हूँ
खाली कन्सतरों का अकेलापन
ठंडे चूल्हे की कम्पकम्पाहट 
सुन लेता हूँ
खेत में दवाई छिड़कने से
कीटों की सामूहिक हत्या होने पर 
फ़सल का विलाप
.
मैं दुख देख लेने का आदी बन चुका हूँ
मदिरा पीकर मुजरे में भी बैठता हूँ
तो साथी नचनियां  की नाभि देखते हैं
मैं पेट देखता हूँ और अंदाजता हूँ 
कितने दिन से भूखी है ये ठुमकिया।

तुम मेरे आंखों पर घोड़े का पट्टा भी बांध दो 
तब भी दो सोटों के बीच समय निकाल कर
देख ही लूंगा राह पर छितरे हुये दुख 
पथिक की प्यास 

तुम मेरे हिस्से का सारा शहद ले लो 
फिर भी मैं चख ही लूंगा तुम्हारे हिस्से का विष 

मैं दुख भक्षक हूँ, विषपायी हूँ 
मैं कवि हूँ 
मेरे रूधिर का रंग नीला है ।

परिचय




शिक्षा : केमिकल इंजीनियरिंग में स्नातक
संप्रति : बहुराष्ट्रीय कंपनी मे वरिष्ठ प्रबंधक 
संपर्क : 9687694020

रविवार, 9 अगस्त 2020

अगर सब लोग उनके साथ हैं तो उन्हें क्यों कम से ख़तरा लग रहा है - डॉ. नरेन्‍द्र

अपने जीने मरने पर भी जनता का अधिकार नहीं
इसीलिए कहता हूँ यह आज़ादी अभी अधूरी है।
डॉ. नरेन्‍द्र  दुष्‍यंत कुमार और अदम गोंडवी की परंपरा के राजनीतिक चेतना से लैस गजलकार हैं जो आम जन की पीड़ा को स्‍वर देते हैं और उसे अपने अधिकारों के प्रति सजग करते हैं। शमशेर की लेकर सीधा नारा, कौन पुकारा  की तर्ज पर ये अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं। आमफहम भाषा में रची गयी इनकी गजलें जनचेतना का परिष्‍कार करती चलती हैं।

डॉ. नरेन्द्र की ग़ज़लें


                 1.
क़त्ल है राह के काँटों को हटाने केलिए
क़त्ल है क़त्ल का सबूत मिटाने केलिए।
फ़र्ज़ी मुठभेड़ हैं लिंचिंग हैं क़त्ल करने को
क़त्ल है क़त्ल का हर राज़ दबाने केलिए।
जब भी खाते हैं तो ये झूठी कसम खाते हैं
सैकड़ों झूठ हैं इक झूठ छिपाने केलिए।
असली चेहरा तो यहाँ ढूँढ़ते रह जाओगे
सामने जो भी है चेहरा वो दिखाने केलिए।
अब अदालत की है इस मुल्क़ में औक़ात यही
लड़ रही अपना ख़ुद वज़ूद बचाने केलिए।
सब हैं लाचार फ़ौज़ हो कि पुलिसवाले हों
वारदातों पे हैं सब ख़ेद जताने केलिए।
आपकी जान की कीमत नहीं रही कुछ भी
अब सियासत है यहाँ मौत भुनाने केलिए।
जो भी मसला हो अभी क़त्ल से हल होता है
क़त्ल है क़त्ल की तहज़ीब चलाने केलिए।
                  2.
समय के ख़म से ख़तरा लग रहा है
उन्हें मौसम से ख़तरा लग रहा है।
मुनादी कर रहे थे वह ख़ुदा हैं
मगर आदम से ख़तरा लग रहा है।
चलाते हैं जो हथियारों की मंडी
उन्हें अब बम से ख़तरा लग रहा है।
वो अपने जाल में ख़ुद फँस गये हैं
इसी आलम से ख़तरा लग रहा है।
जिन्हें ख़ूँरेज़ियों की लत लगी है
उन्हें मातम से ख़तरा लग रहा है।
उन्हें गंगा से भी ख़तरा बहुत है
अभी जमजम से ख़तरा लग रहा है।
अगर सब लोग उनके साथ हैं तो
उन्हें क्यों कम से ख़तरा लग रहा है।
लगा कर आग़ इस अहले चमन में
उन्हें शबनम से ख़तरा लग रहा है।
                   3. 
ज़मीन सबकी है ये आसमान सबका है
ये हक़ीक़त है कि सारा जहान सबका है।
किसी के बाप की जागीर नहीं है दुनिया
बाँध लो गाँठ ये हिन्दोस्तान सबका है।
किसी में दम नहीं हमको निकाल दे घर से
जो भी रहते हैं यहाँ ये मक़ान सबका है।
लाख कुर्बानियों के बाद मिला है हमको
ये संविधान तिरंगा निशान सबका है।
ज़ाति मज़हब में ज़माने को बाँटने वालो
सिर्फ़ गीता नहीं बाइबिल क़ुरान सबका है।
हुक्मरानों की कोई चाल न चलने देंगे
ये हमारा ही नहीं है ऐलान सबका है।

                     4.
अस्पताल की ऐसी तैसी मंदिर बहुत ज़रूरी है
राम नाम पर ही चुनाव की सब तैयारी पूरी है।
मरो बाढ़ से या कोविड से ऊपर वाले की मर्ज़ी
ख़ैर मनाओ अभी मौत की तुमसे थोड़ी दूरी है।
लाशों पर वह जश्न मनाएँ तुम इसको बर्दाश्त करो
फिर भी अपना मुँह मत खोलो यह कैसी मजबूरी है।
अपने जीने मरने पर भी जनता का अधिकार नहीं
इसीलिए कहता हूँ यह आज़ादी अभी अधूरी है।
सबकुछ उनके कब्ज़े में है लोकतंत्र लाचार बना
सभी इशारे पर चलते हैं क्या हाकिम क्या जूरी है।

                   5.
करेगा कौन हुकूमत से यह सवाल कहो
अभी मंदिर ज़रूरी है कि अस्पताल कहो।
अभी तो लोग लड़ रहे हैं बाढ़ कोविड से
किस क़दर आदमी है मुल्क़ में बेहाल कहो।
उन्हें चुनाव सूझता है इस क़यामत में
कितने बेशर्म हैं पूँजी के ये दलाल कहो।
लोग रोटी केलिए हाय हाय करते हैं
और वह पूछते हैं और हालचाल कहो।
बीच मझधार में ले जाके नाव छोड़ दिया
ऐसे हालत में किस काम का है पाल कहो।
कैसे अवसर बना लिया है उसने संकट को
कैसे कुछ लोग हो गये हैं मालामाल कहो।

                 6.
बेवज़ह  मत  इधर उधर  में  रहो
तुम ख़ुदा हो तो अपने घर में रहो।
गाँव माना हमारा दोज़ख़ है
तो चले जाओ फिर शहर में रहो।
क्या ज़रूरी है हर बहर सम्भले
जो भी सम्भले उसी बहर में रहो।
ख़ूब फैलाओ अपनी शाखों को
पर मेरे यार अपनी जड़ में रहो।
जितना उड़ना है तुम उड़ो लेकिन
कम अज़ कम अपनी तो नज़र में रहो।
बस सफ़र केलिए सफ़र है यह
मूँद कर आँख इस सफ़र में रहो।
काम करने की क्या ज़रूरत है
ये ज़रूरी है कि ख़बर में रहो।

परिचय

नरेंद्र कुमार मिश्र: वृत्ति से चिकित्सक। प्रवृत्ति से लेखक पत्रकार।
देशभर की पत्र पत्रिकाओं में ग़ज़लें और विविध रचनाएँ प्रकाशित।आकाशवाणी, दूरदर्शन के महत्वपूर्ण केंद्रों से ग़ज़लें प्रसारित।
महत्वपूर्ण अख़बारों और साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन।
दो ग़ज़ल संग्रह कोई एक आवाज़ और समय से लड़ते हुए प्रकाशित।
दो ग़ज़ल संग्रह ताकि सनद रहे और सहर होने तक शीघ्र प्रकाश्य।
एक कविता संग्रह हँसते आँसू, रोते आँसू  प्रकाशित।
एक नृत्य नाटिका राजा सलहेस प्रकाशित।
नेशनल बुक ट्रस्ट से दो पुस्तकें एक परम्परा का अंत और मिथिला विभूति कवि कोकिल विद्यापति प्रकाशित।
नाटक से जुड़ाव। नाट्य शास्त्र में एम ए की उपाधि।
लम्बे समय तक एक हस्त लिखित पत्रिका शिखा  का सम्पादन।